गुरुवार, 28 अगस्त 2008

कई बीमारियों की एक दवा : नीम - पदमा श्रीवास्तव

नीम एक ऐसा पेड़ है जो सबसे ज्यादा कड़वा होता है परंतु अपने गुणों के कारण चिकित्सा जगत में इसका अपना एक अहम स्थान है।

नीम रक्त साफ करता है। दाद, खाज, सफेद दाग और ब्लडप्रेशर में नीम की पत्ती का रस लेना लाभदायक है। नीम कीड़ों को मारता है इसलिये इसकी पत्ती कपड़ों और अनाजों में रखे जाते हैं। नीम की दस पत्तियां रोजाना खायें रक्तदोष रहीं होगा। नीम के पंचांग जड़, छाल, टहनियां, फूल पत्ते और निंबोली उपयोगी हैं। इन्ही कारणों से हमारे पुराणों में नीम को अमृत के समान माना गया है। अमृत क्या है जो मरते को जिंदा करे। अंधे को आंख दे और निर्बल को बल दे। नीम इंसान को तो बल दोता ही है पेड़-पौधों को भी बल देता है जैसे- खेतों में नीम के पानी की दवा बनाकर डाला जाता है। अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे कि नीम एक औषधि के रूप मे प्रयोग होता है।

नीम, आंख, कान, नाक, गला और चेहरे के लिए उपयोगी, आंखों में मोतियाबिंद और रतौंधी हो जाने पर नीम के तेल को सलाई से आंखों नें अंजल की तरह से लगायें।

आंखों में सूजन हो जाने पर नीम के पत्ते को पीस कर अगर दाई आंख में है तो बाएं पैर के अंगूठे पर नीम का पत्ती को पीस कर लेप करें। ऐसा अगर बाई आंख में हो तो दाएं अंगूठे पर लेप करें। आंखों की लाली व सूजन ठीक हो जायेगी।
अगर कान में दर्द हो या फोड़ाफुंसी हो गयी हो, तो नीम या निंबोली को पीस कर उसका रस कानों मे टपका दें। कान में कीड़ा गया हो, तो नीम की पत्तियों का रस गुनगुना करके इसमें चुटकी भर नमक डालकर टपकायें एक बार में ही कीड़ा मर जायेगा। अगर बहुत जरूरत हो तो दूसरे दिन डालें।
अगर कान में दर्द हो तो 20ग्राम नीम की पत्तियां, 2 तोला नीलाथोथ (तूतिया) डालकर पीस लें इसकी छोटी छोटी गोलियां बनाकर सुखा लें फिर काले तिल या साधारण तेल में पका लें जब टिकिया जल जाये, तो इस तेल को छान कर रख लें अब एक तीली मे रूई लगा कर इस तेल में डुबाकर कान साफ करें बार बार रूई बदलें। अगर कान से पीप आ रहा है तो नीम के तेल में शहद मिलाकर कान साफ करें पीप आना बंद हो जायेगा।
सर्दी जुकाम हो गया हो तो नीम की पत्तियां शहद मिलाकर चाटें। खराश ठीक हो जायेगी।
ह्रदय रोग में नीम रामबाण का काम करता है। अगर आपको ह्रदय रोग हो, तो नीम की पत्तियों की जगह नीम का तेल का सेवन करें। नीम पीस कर त्वचा पर लगायें ज्यादा फायदा होगा।

दांत और पेट के रोग का इलाज

दांत और पेट का एक-दूसरे से सीधा संबंध होता है । दांतों से चबाया भोजन हमारे पेट में जाता है अगर दांत भोजन को चबाकर इस लायक नहीं बना पाते कि वह पेट मे जाकर आसानी से हजम कर सके, तो पेट खराब हो जायेगा। पेट खराब तो होगा ही साथ पेट की कई बीमारियां भी पैदा होगीं। इस कारण वैद्य लोग रोगों का इलाज पेट ही से शुरू करते थे। इसके पीछे कारण यह है कि पेट ठीक तो सब ठीक। इसके लिये दांतों को नीम, बबूल की दातुन से साफ करें अगर संभव हो तो एक बार घर पर ही इसका मंजन को बना लें जिसमें जली सुपारी, जले बादाम के छिलके, 100ग्राम खडिया मिट्टी, 20ग्राम बहेडे, थोड़ी सी कालीमिर्च, 5ग्राम लौंग, एक आधा ग्राम पीपरमिंट इन सब को पीस कर छान लें। इसे मंजन की तरह इस्तमाल करें। दांत की सब बीमारियां, पायरिया, दुर्गंध दूर हो जायेगी। साथ ही नीम के पत्ते भी चबाते रहा करें।
अब पेट के बारे में देखें, अगर अपच हो जाये तो निंबोली खायें रूका हुआ मल बाहर निकालता है। रक्त स्वच्छ करेगा और भूख अधिक लगेगी। बासी खाना खाने से पित्त, उल्टियाँ हो, तो इसके लिये नीम की छाल, सोंठ, कालीमर्च को पीस लें और आठ-दस ग्राम सुबह-शाम पानी से फंकी लें। तीन चार दिनों में पेट साफ हो जायेगा। यदि दस्त हो रही हों, तो नीम का काढ़ा बनाकर लें।
गंदे पानी के मच्छर, मक्खी से होने वाले रोग तेजी से फैलते हैं। इसका उपाय भी नीम से है पांच लौंग, पांच बड़ी इलायची, महानीम(बकायन) की सींके पीसकर। पचास ग्राम पानी में मिलाकर थोड़ा गर्म कर लें ये एक बाऱ की मात्रा है। इसे दो-दो घंटे बाद बनाकर देते रहें है। साथ –साथ हाथ पैरों मे नीम के तेल की मालिश भी करें। कमजोरी दूर होगी। अगर किसी रोगी को पेशाब नहीं आ रही है तो नीम के पत्ते पीसकर पेट पर लगायें ठीक हो जायेगा।
यदि पेट में कीड़े हो, तो (बड़ा हो या बच्चा) नीम की नई कोपलें के रस में शहद मिलाकर चाटें कीड़े समाप्त हो जायेंगे। पानी में नीम के तेल की कुछ बूंदें डालकर चाय की तरह पी जायें बच्चे को 5बूंद बड़ों को 8 बूंद इससे ज्यादा नहीं लेना है। नीम के पत्ते जरा सी हींग के साथ पीस लें और चाट जायें पेट के कीड़े नष्ट हो जायेंगे।

त्वचा व बालों का इलाज

नीम का प्रयोग करें और निखारें अपना सौंदर्य। रक्त को शुद्ध करने के लिये नीम को एक वरदान ही समझिये। नीम की छाल का काढ़ा बनाकर पी लें। यदि नीम की नई कोपलें मिल जाये को 20-25 ले लें चार-पांच दाना काली मिर्च डाल कर बेसन की रोटी में मिलाकर बनायें घी में खूब तर कर लें। इस तरह कम से कम आठ दिन तक खायें। हाथ-पांव में अधिक पसीना आता हो, तो नीम रोगन का तेल अच्छी औषधि है।
चेहरे पर कील मुंहासे होने पर नीम का तेल लगायें। झाईयां और चेचक दाग छुड़ाने के लिये निंबोती का तेल लगायें।
फोड़ेफुसी हो, तो नीम की छाल घिसकर लेप करें।
अगर बालों में लीख जुएं हो, तो नीम का तेल लगायें ।
गंजापन हो गया हो तो नीम का तेल लगायें।
बाल पकने लगे तो नीम तथा बेर की पत्तियां पानी में उबालकर उस पानी से सर धोयें।
यदि बाल काले करना हो, तो नीम को पानी में उबाल कर सर धोयें। कम से कम एक महीना नतीजा आप के सामने होगा।
कुष्ट रोग के लिये नीम एक वरदान के समान है इस रोग का इलाज नीम से हो सकता है। कुष्ट रोग फूट जाये तो नीम के नीचे सोयें, नीम खाओ, नीम बिछाकर सोयें।
बुखार, पुराना बुखार, टाईफाइड हो, तो 20-25 नीम के पत्ती 20-25 काली मिर्च एक पोटली में बांधकर आधा किलो पानी में उबालें पानी खौलने दें ढक्कन लगाकर रखें, ठंडा होने पर चार हिस्सा बनाकर सुबह-शाम दो दिन तक पिलायें फिर देखे बुखार उतरा या नही। इस विधि से तो पुराना से पुराना बुखार भी उतर जाता है।

नीम के गुण - आशीष

वैसे तो हम लोग आजकल पश्चिमी चिकित्सा पद्धति का ही प्रयोग करते हैं, और इसकी अच्छाइयों को झुठलाया नहीं जा सकता है। लेकिन इसकी काफ़ी कमियां भी जैसे कि अनजाने प्रभाव या साइड इफ़ेक्टस। इस मामले में भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा काफ़ी बेहतर है और इनमें से कुछ उपचार तो अब घरेलू हो चुके हैं। ऐसी ही कुछ दवाओं में है नीम।

नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो कि भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम है ‘Melia azadirachta अथवा Azadiracta Indica’। इसका स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन इसके फायदे तो अनेक और बहुत प्रभावशाली हैं, और उनमें से कुछ नीचे लिखता हूं।

१- नीम का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों के निवारण में सहायक है।
२- नीम की दातुन करने से दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं।
३- नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और कांतिवान होती है। हां पत्तियां कड़वी होती हैं, लेकिन कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना पड़ेगा मसलन स्वाद।
४- नीम की पत्तियों को पानी में उबाल उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं, और ये खासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
५- नीम मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को दूर रखने में अत्यन्त सहायक है। जिस वातावरण में नीम के पेड़ रहते हैं, वहां मलेरिया नहीं फैलता है।
६- नीम के फल (छोटा सा) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
७- नीम के द्वारा बनाया गया लेप वालों में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
८- नीम की पत्तियों के रस को आंखों में डालने से आंख आने की बीमारी (कंजेक्टिवाइटिस) समाप्त हो जाती है।
९- नीम की पत्तियों के रस और शहद को २:१ के अनुपात में पीने से पीलिया में फायदा होता है, और इसको कान में डालने कान के विकारों में भी फायदा होता है।
१०- नीम के तेल की ५-१० बूंदों को सोते समय दूध में डालकर पीने से ज़्यादा पसीना आने और जलन होने सम्बन्धी विकारों में बहुत फायदा होता है।
११- नीम के बीजों के चूर्ण को खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से बवासीर में काफ़ी फ़ायदा होता है।
उपरोक्त दिये गये फायदे कुछ फायदों में से हैं जो मुझे मालूम थे और कइयों का हमको अंदाज़ा भी नहीं है। और जानकारी मिलने पर इस पृष्ठ पर पुन: लिखूंगा।
http://hindini.com

नीम


पौराणिक भाई जहां पर भारत की तीन नदियां (गंगा, यमुना और सरस्वती) मिलती हैं, उस स्थान को तीर्थराज, त्रिवेणी व प्रयागराज कहते हैं - वहां स्नान करने व उसकी तीर्थ यात्रा करने से सब पापों से छुटकारा मिल जाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह बात तो सर्वथा मिथ्या है। किन्तु नीम, पीपल और वट (बड़) इन तीनों वृक्षों को एक साथ एक ही स्थान पर लगाने की बहुत ही पुरानी परिपाटी भारतवर्ष में प्रचलित है और इसे भी त्रिवेणी कहते हैं।
इन तीन वृक्षों की त्रिवेणी का औषध रूप में यदि यथोचित रूप में सेवन किया जाये तो बहुत से भयंकर शारीरिक रोगों से छुटकारा पाकर मानव सुख का उपभोग कर सकते हैं । ये तीनों ही वृक्ष अपने रूप में तीन औषधालय हैं । इसीलिये भारतवर्ष के लोग इसका न जाने बहुत प्राचीनकाल से नगरों में, ग्रामों में, सड़कों पर, तड़ाग व तालाबों पर सर्वत्र ही इनको आज तक लगाते आ रहे हैं । इसको धर्मकृत्य व पुण्यकार्य समझकर बहुत ही रुचि से इन वृक्षों को लगाते तथा जलसिंचन करते हैं तथा बाड़ लगाकर इनकी सुरक्षा का सुप्रबंध भी करते हैं।

निम्ब: (नीम)

नीम कड़वा व कड़वे रस वाला, शीत (ठंडा), हल्का, कफरोग, कफपित्त आदि रोगों का नाशक है । इसका लेप और आहार शीतलता देने वाले हैं । कच्चे फोड़ों को पकाने वाला और सूजे तथा पके हुए फोड़ों का शोधन करने वाला है । राजनिघन्टु में इसके गुण निम्न प्रकार से दिये गए हैं : नीम शीतल, कडुवा, कफ के रोगों को तथा फोड़ों, कृमि, कीड़ों, वमन तथा शोथ रोग को शान्त करने वाला है। बहुत विष और पित्त दोष के बढे हुए प्रकोप व रोगों को जीतने वाला है और हृदय की दाह को विशेष रूप से शान्त करने वाला है। बलास तथा चक्षु संबंधी रोगों को जीतने वाला है।


बलास फेफड़ों और गले के सूजन के रोगों का नाम है। इसको भी निम्ब दूर करता है । बलास में क्षय यक्ष्मा तथा श्वासरोग के समान कष्ट होता है।

नीम के पत्ते नेत्रों को हितकारी, वातकारक, पाक में चरपरे, सर्व की अरुचि, कोढ, कृमि, पित्त तथा विषनाशक हैं। नीम की कोमल कोंपलें व कोमल पत्ते संकोचक, वातकारक तथा रक्तपित्त, नेत्ररोग और कुष्ठ को नष्ट करने वाले हैं।

नीम के फल कड़वे, पाक में चरपरे, मलभेदक, स्निग्ध, हल्के, गर्म और कोढ, गुल्म बवासीर, कृमि तथा प्रमेह को नष्ट करने वाले हैं। नीम के पके फलों के ये गुण हैं: पकने पर मीठी निम्बोली (फल) रस में कड़वी, पचने में चरपरी, स्निग्ध, हल्की गर्म तथा कोढ, गुल्म, बवासीर, कृमि और प्रमेह को दूर करने वाली है।

नीम के फूल पित्तनाशक और कड़वे, कृमि तथा कफरोग को दूर करने वाले हैं।

नीम के डंठल कास (खांसी), श्वास, बवासीर, गुल्म, प्रमेह-कृमि रोगों को दूर करते हैं।

निम्बोली की गिरी कुष्ठ और कृमियों को नष्ट करने वाली हैं। नीम की निम्बोलियों का तेल कड़वा, चर्मरोग, कुष्ठ और कृमिरोगों को नष्ट करता है।

निम्बादिचूर्ण : नीम के पत्ते 10 तोले, हरड़ का छिलका 1 तोला, आमले का छिलका 1 तोला, बहेड़े का छिलका 1 तोला, सोंठ 1 तोला, काली मिर्च 1 भाग, पीपल 1 तोला, अजवायन 1 तोला, सैंधा लवण 1 तोला, विरिया संचर लवण 1 तोला, काला लवण 1 तोला, यवक्षार 2 तोले - इन सब को कूट छान कर रख लें। इसको प्रात:काल खाना चाहिये। मात्रा 3 माशे से 6 माशे तक है। यह विषम ज्वरों को दूर करने के लिए सुदर्शन चूर्ण के समान ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इसके सेवन से प्रतिदिन आने वाला, सात दिन, दस दिन और बारह दिन तक एक समान बना रहने वाला धातुगत ज्वर और तीनों रोगों से उत्पन्न हुआ ज्वर - इन सभी ज्वरों में इसके निरंतर सेवन से अवश्य लाभ होता है।

नीम का मलहम : नीम का तैल 1 पाव, मोम आधा पाव, नीम की हरी पत्तियों का रस 1 सेर, नीम की जड़ की छाल का चूर्ण 1 छटांक, नीम की पत्तियों की राख आधा छटांक। एक लोहे की कढाई में नीम का तैल, नीम की पत्तियों का रस डालकर हल्की आंच पर पकायें। जब जलते-जलते छटांक, आधी छटांक रह जाये तब उसमें मोम डाल दें। जब मोम गलकर तैल में मिल जाये तब कढाई को चूल्हे से नीचे उतार लेवें। फिर नीम की छाल का चूर्ण और नीम की पत्तियों की राख उसमें मिला देवें। यह नीम का मलहम बवासीर के मस्सों, पुराने घाव, नासूर जहरीले घावों पर लगाने से बहुत लाभ करता है। यह घावों का शोधन और रोपण दोनों काम एक साथ करता है। सड़े हुए घाव, दाद, खुजली, एक्झिमा को भी दूर करता है। पशुओं के घावों को भी ठीक करता है ।

महानिम्ब (बकायण)

महानिम्ब बकायण के विषय में धनवन्तरीय निघण्टु में इस प्रकार लिखा है :

महानिम्ब: स्मृतोद्रेको विषमुष्टिका।
केशमुष्टिर्निम्बर्को रम्यक: क्षीर एव च॥

बकायण को संस्कृत में महानिम्ब:, उद्रेक:, विषमुष्टिक:, केश-मुष्टि, निम्बरक, रम्यक और क्षीर नाम वाला कहा गया है।बकायण के वृक्षों में फाल्गुन और चैत्र के मास में एक दूधिया रस निकलता है। यह रस मादक और विषैला होता है। इसीलिये फाल्गुन और चैत्र के मास में इस वनस्पति का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

बकायण का वृक्ष सारे ही भारत में पाया जाता है। इसके वृक्ष 32 से 40 फुट तक ऊंचे होते हैं। इसका वृक्ष बहुत सीधा होता है। इसके पत्ते नीम के पत्तों से कुछ बड़े होते हैं इसके फल गुच्छों के अंदर लगते हैं। वे नीम के फलों से बड़े तथा गोल होते हैं। फल पकने पर पीले रंग के होते हैं। इसके बीजों में से एक स्थिर तैल निकलता है जो नीम के तैल के समान ही होता है। इसका पंचांग अधिक मात्रा में विषैला होता है।

इसके नाम अन्य भाषाओं में निम्न प्रकार से हैं : संस्कृत में महानिम्ब, केशमुष्टि, क्षीर, महाद्राक्षादि। हिन्दी में बकायण निम्ब, महानिम्ब, द्रेकादि। गुजराती - बकाण, लींबड़ो। बंगाली में घोड़ा नीम। फारसी- अजेदेदेरचता, बकेन।पंजाबी बकेन चेन, तमिल : मलः अबेबू सिगारी निम्ब, उर्दू - बकायन। लेटिन melia a zedaracha ।

मुस्लिम देशों में इस वनस्पति का उपयोग बहुत बड़ी मात्रा में किया जाता है। फारस के हकीम इसकी जानकारी भारत से ले गए थे। उन लोगों के मत से इस वृक्ष की छाल, फूल, फल और पत्ते गर्म, और रूक्ष होते हैं। इसके पत्तों कारस अन्त:प्रयोगों में लेप से मूत्रल, ऋतुस्राव नियामक और सर्दी के शोथ को मिटाने वाला होता है। अमेरिका में इसके पत्तों का काढा हिस्टेरिया रोग को दूर करने वाला, संकोचक और अग्निवर्धक माना जाता है। इसके पत्ते और छाल गलितकुष्ठ और कण्ठमाला को दूर करने के लिए खाने और लगाने के कार्य में प्रयुक्त किए जाते हैं। ऐसा विश्वास वहां पर है कि इसके फलों से पुलिटश के कृमियों का नाश हो जाता है इसीलिये चर्मरोगों के नाशार्थ यह उत्तम औषधि मानी जाती है।
इंडोचाइना में इसके फूल और फल अग्निवर्धक, संकोचक और कृमिनाशक माने जाते हैं। कुछ विशेष प्रकार के ज्वर और मूत्र संबन्धी रोगों में इसके फलों का प्रयोग होता है ।

मीठा नीम

इसे कढी-पत्ता का पेड़ भी कहा जाता है। मीठे नीम के कैडर्य, महानिम्ब:, रामण:, रमण:, महारिष्ट, शुक्लसार, शुक्लशाल:, कफाह्वय:, प्रियसार और वरतिक्तादि संस्कृत में नाम हैं। हिन्दी में मीठा नीम। मराठी कलयनिम्ब, पंजाबी गंधनिम्ब, तमिल करुणपिल्ले, तेलगू करिवेपमू, फारसी सजंद करखी कुनाह, लेटिन murraya koenigie नाम भिन्न-भिन्न भाषाओं में मीठे नीम के हैं।

मीठे नीम के पेड़ प्राय: भारतवर्ष के सभी भागों में पाये जाते हैं। इसके पेड़ की ऊंचाई 12 से 15 फुट तक की होती है। इसके पत्ते देखने में नीम के पत्तों के समान ही होते हैं किन्तु ये कटे किनारों के नहीं होते। चैत्र और वैशाख में इसके पेड़ पर सफेद रंग के फूल आते हैं। इसके फल झूमदार होते हैं। पकने पर इस के पत्तों का रंग लाल हो जाता है । इसके पत्तों में से भी एक प्रकार का सुगंधित तैल निकलता है। यूनानी मत में यह पाचक, क्षुधा कारक, धातु उत्पन्न करने वाला, कृमिनाशक, कफ को छांटने वाला और मुख की दुर्गन्ध को मिटाने वाला होता है । यह दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क होता है । इसकी जड़ को घिसकर विषैले कीड़ों के काटने के स्थान पर लगाने से लाभ होता है।

भोजन के रूप में : इसके सूखे पत्ते कढी में छोंक लगाने तथा दाल को स्वादिष्ट बनाने के कार्य में आते हैं। इनको चने के बेसन में मिलाकर पकौड़ी भी बनाई जाती है। मूत्राशय के रोगों में इसकी जड़ों का रस सेवन लखीमपुर आसाम में अच्छा उपयोगी माना जाता है।इंडोचाइना में इसका फल संकोचक माना जाता है और इसके पत्ते रक्तातिसार और आमातिसार को दूर करने के लिए अच्छे माने जाते हैं।

सारांश यह है कि मीठे नीम के वही गुण हैं जो प्राय: करके कड़वे नीम में हैं तथा जो धनवन्तरीय निघन्टु में लिखे हैं वही प्रयोग करने पर यथार्थ रूप में पाये गए हैं।

कड़वे निम्ब, मीठे निम्ब तथा बकायण के गुण मिलते हैं । इस प्रकार नीम व नीमवृक्ष में इतने गुण हैं कि उसकी प्रशंसा जितनी की जाये उतनी थोड़ी है। सचमुच त्रिवेणी में स्नान करना तो मूर्खता है किन्तु नीम, पीपल और बड़ की त्रिवेणी का सेवन सब दुखों को दूर करके प्राणिमात्र के कष्ट दूर करके सुखी बनाता है।

साभार www.jatland.com

सोमवार, 25 अगस्त 2008

आषाढ मास में पीपल पूजा


नवभारत टाइम्स
पं. केवल आनंद जोशी ( kajoshi46@yahoo.co.in )
पीपल एक ऐसा वृक्ष है, जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा जी के तप से उतरा है। पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का वास माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहां पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है , वहीं इसके पूजन से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है।

पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल , तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है , जिसके सेवन से वात रोग , कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं।

भगवद्गीता में भी इसकी महानता का स्पष्ट उल्लेख है। गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ’ अश्वतथ्य ’ को अथर्ववेद में लक्ष्मी , संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। कहा जाता है कि इसकी परिक्रमा मात्र से हरोग नाशक शक्तिदाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है। गंधर्वों , अप्सराओं , यक्षिणी , भूत - प्रेतात्माओं का निवास स्थल , जातक कथाओं , पंचतंत्र की विविध कथाओं का घटनास्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का माहात्म्य दुगुना हो जाता है।

हिन्दू संस्कृति में पीपल देव वृक्ष माना जाता है। उनकी अगाध आस्था में सराबोर पीपल को देव निवास मानते हुए इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित है , अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है। भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्व पीपल का है , अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था।

यह दूषित गैस नष्ट करने हेतु प्राणवायु निरंतर छोड़ता रहता है , क्योंकि वृक्ष घना होने के बावजूद इसके पत्ते कभी भी सूर्य प्रकाश में बाधक नहीं बनते। यह छाया देता है किन्तु अंधकार से इसका कोई सरोकार नहीं है। संभवतः यही कारण है कि सभी अमृत तत्व पाए जाने के कारण महादेव स्वरूप पीपल लैटिन भाषा में पिकस रिलिजियोसा के नाम से जाना जाता है। प्रायः प्राचीन दुर्ग भवन व मंदिर में पाए जाने वाले वृक्ष पीपल के नीचे शिवलिंग या शिव मंदिर पाया जाना भी स्वाभाविक बात है। भारतीय आस्था के अनुसार पीपल के भीतर तीनों देवता अर्थात ब्रह्मा , विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। अतः इसके नीचे शिवालय होने पर इसे पीपल महादेव के नाम से भी सम्मानित किया जाता है।

सदैव गतिशील प्रकृति के कारण इसे चल वृक्ष भी कहते हैं। पीपल की आयु संभवतः 90 से 100 सालों के आसपास आंकी गई है। इसके पत्ते चिकने , चौड़े व लहरदार किनारे वाले पत्तों की आकृति स्त्री योनि स्वरूप होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है।

अथर्ववेद में पीपल को अश्वत्थ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह - जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएं के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है। हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखनो को मिलती है।

तंत्र मंत्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्व है। इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्व अक्षुण्ण है। पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में विद्यमान है।

नीम : भौतिक एवं रासायनिक संरचना

यद्यपि नीम वृक्ष को `चिरहरित' कहा गया है, किन्तु वसंत ऋतु में इसके पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नये ताम्रवर्णी कोमल टूसे निकलते हैं। मिट्टी एवं जलवायु की स्थिति के अनुरूप भारत में जनवरी से मई तक (दक्षिण में थोड़ा पहले और उत्तर में थोड़ा विलम्ब से) इसमें फूल आता है और मई से सितम्बर तक इसमें फल लगने से पकने तक की प्रक्रिया चलती है। अमेरिका के दक्षिणी इक्वाडोर के हिस्सों में इस नीम पर नवम्बर-दिसम्बर में भी फूल निकल आते हैं। पश्चिमी अफ्रीका के सेनेगल, बेनिन एवं जाम्बिया के नीम वृक्ष वर्ष में दो बार फलते हैं-मार्च अप्रैल एवं जुलाई-अगस्त में, कहीं-कहीं अक्टूबर-नवम्बर में भी। डामिनियन रिपब्लिक के अजुआ घाटी में यह वर्ष में तीन बार तक फल देते देखा गया-फरवरी-मार्च, जून-अगस्त तथा नवम्बर-दिसम्बर में। अर्थात वहाँ यह सालों भर फूलता-फलता है। अनुकूल परिवेश में यह वृक्ष बहुत तेजी से ४-५ साल में ही बड़ा हो जाता है और सामान्यत: १५ से २५ मीटर तक की ऊँचाई और लगभग १५० वर्ष की आयु प्राप्त करता है। कहीं-कहीं इसे ३५-४० मीटर तक भी ऊँचा और २०० वर्ष से भी अधिक उम्र प्राप्त करते देखा गया है। भारत में मई से अगस्त तक नीम में फल आता है और पकता है।

पुराने नीम पेड़ से एक दुर्लभ रस झड़ता है, जिसे `नीमताड़ी' (Nimtody अथवा Toddy of Margosa tree) कहा जाता है। किन्तु यह सभी वृक्षों से नहीं झड़ता। कुछ पुराने वृक्ष जब उत्तेजना में आते हैं; तब उसके तने या डाल के गांठों से यह स्वत: फूट कर चूने लगता है और २ से ४ सप्ताह तक, किसी-किसी वृक्ष से साल भर तक निकलता है। जब यह रस चूना शुरू होता है, तब वृक्ष से एक मधुर ध्वनि निकलती है। यह रस स्वाद में मधुर कड़वा, अप्रिय तथा स्वच्छ गाढ़ा होता है। इसमें एक शर्करीय खमीर होता है, जो तापहर, पुष्टीकारक एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह रस पूरे वृक्ष की वास्तविक ताकत होती है। इसके निकल जाने के बाद वृक्ष क्रमश: सूखने लगता है। यह रस कई रोगों में निदान के लिए रामवाण के समान है। नीमताड़ी को कृत्रिम रूप से भी निकाला जाता है। जलाशय, नदी-नाले के पास खड़े पुराने वृक्ष का सोर सिरे पर काटने से रस चूने लगता है। किन्तु २४ घंटे में यह एक-दो बोतल ही निकल पाता है। स्वत: निकले रस की अपक्षा यह कम प्रभावकारी होता है।
नीम का सम्पूर्ण भाग कड़वा होता है, किन्तु कोई भी भाग अनुपयोगी नहीं होता। इसकी जड़, छाल, पत्ते, फूल, फल, गोंद, मद, सींक, टहनी एवं लकड़ी और इसकी छाया तथा इससे छनकर आने वाली हवा, सभी में कृषि, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए अमृत भरे हैं। विभिन्न घरेलू उपयोग तथा आर्थिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से इनकी उपयोगिता अत्यन्त मूल्यवान है। सम्पूर्ण वनस्पति जगत में फिलहाल एक नीम को छोड़कर दूसरा ऐसा कोई वृक्ष नहीं, जिसका रत्तीभर अंश भी अनुपयोगी न हो। आज मानव सभ्यता संकटों के जिस भयावह दौर से गुजर रही है, उससे बचाने में नीम के समान प्रभावकारी कोई अन्य वृक्ष नहीं। औषधि के लिए सदियों से भारतीय ग्रामीणजन की इस वृक्ष पर व्यापक निर्भरता के कारण इसे `भारतीय ग्रामीण औषधालय' (Village Pharmacy of India) कहा जाता है। यह भारत के अतिरिक्त बंगलादेश, श्रीलंका, म्यांमार तथा पश्चिमी अफ्रीकी देशों का प्राय: एक घरेलू वृक्ष है, जहाँ आबादी के बीच, घरों के आस-पास, सड़कों के किनारे तथा पार्क आदि में लगाया जाता है।
भारतीय नीम, जिसे दुनियाँ के वैज्ञानिकों ने उत्तम कोटि का माना है, अपने हर अंग-प्रत्यंग से शुद्धता, ताजगी और निरोगता का परिचय देता है। इसके गुच्छेदार फूल से चमेली की भीनी सुगंध आती है। इसमें द्राक्षा (Glucocide), निम्बोस्ट्रीन तथा तीक्ष्ण गंध वाले तेल और वसा अम्ल पाये जाते हैं। इसका अर्क उत्तेजक, पुष्टीकारक तथा क्षुधावर्धक होता है। नीम की पत्तियों में १२.४० से १८.२७ प्रतिशत तक क्रूड प्रोटीन, ११.४० से २३.०८ प्रतिशत तक क्रूड फाइबर, ४८ से ५१ प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट्स, ४३.३२ से ६६.६० प्रतिशत तक नाइट्रोजन मुक्त अर्क, २.२७ से ६.२४ प्रतिशत तक अन्य अर्क, ७.७३ प्रतिशत से १८.३७ प्रतिशत तक राख, ०.८९ से ३.९६ प्रतिशत तक कैल्सियम, ०.१० से ०.३० प्रतिशत तक फास्फोरस और २.३ से ६.९ प्रतिशत तक वसा पाया जाता है। इसमें लोहा तथा विटामिन `ए' की मात्रा भी पर्याप्त होती है। नीम छाल में फास्फोरस, शर्करा, कांसी तथा गंधक काफी मात्रा में पाया जाता है। नीम फल का गुदा मीठा, हल्का खुमारी लिए होता है। इसके बीज के तेल में स्टिआरिक एसिड, ओलेक एसिड तथा लारिक एसिड पाये जाते हैं। इस तेल का अंग्रेजी नाम `मार्गोसा' है। पूरे वृक्ष का यह भाग (बीज) आर्थिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी भाग है।
विश्व के उन तमाम देशों में, जहाँ नीम के वृक्ष पाये जाते हैं, नीम वृक्ष पर भिन्न प्रकार के कीटों, फफुंदों तथा बैक्टेरिया रोग के आक्रमण होते देखे गये हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि नीम का सम्पूर्ण भाग कड़वा एवं तिक्त होने के कारण उसमें कोई कीटाणु या रोग नहीं लगते, परन्तु यह लक्षण उन्हीं जगहों पर पाये जाते हैं, जहाँ का जलवायु तथा भौगोलिक परिवेश नीम के एकदम अनुकूल है। इसमें जहाँ भी असंतुलन है, वहीं उसमें कीड़े तथा रोगाणु भी हमला करते देखे गये हैं। भारत में प्राय: दक्षिण के समुद्री किनारों के क्षेत्रों तथा गुजरात में नीम वृक्ष की पत्तियों, टहनियों तथा तनों में स्पाइडर, गाल माइट्स, टी मस्किटो बग इत्यादि कीड़े लगते देखे गये हैं। टी मस्किटो बग नीम के लिए काफी हानिकारक है, वह टहनियों पर हमला करता है, पूरी टहनी एवं पत्ते सूख जाते हैं। नीमगोल्ड नामक कीटनाशक से इसे नियंत्रित किया जाता है। कुछ परजीवी पौधे (Parasitic Plant) भी नीम को प्रभावित कर उसकी तिक्तता कम कर देते हैं।
नीम वृक्ष अनुकूल वातावरण में तेजी से विकास करता है। मिट्टी, वर्षा, सिंचाई, पोषक तत्त्व, तापमान, जैवकीय गुण आदि के PH Value तथा Water Table इसमें मुख्य भूमिका निभाते हैं। विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न जलवायु तथा मिट्टी की संरचना के अनुसार वहाँ नीम वृक्ष में फल, फूल लगने के समय तथा उसकी मात्रा, वजन और उसमें पाये जाने वाले यौगिकों के गुणों में भी काफी अन्तर देखा गया है। अनुसंधान में यह भी पाया गया है कि भारत के शुष्क क्षेत्र (उत्तरी भारत) के नीम बीजों में समुद्री किनारे वाले क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक कीट भक्षण प्रतिरोधी गुण (antifeedant activities) मौजूद हैं।

नीम : अनुसंधान, पेटेंट और चुनौतियाँ



नीमवृक्ष भारतीय मूल का है। उसके औषधीय, कृषिक, पर्यावरणीय और कीटनाशक एवं जैव रासायनिक गुणों की पहचान भारत में वैसे हजारों वर्ष पहले ही की जा चुकी थी और यहाँ सदियों से उसका विभिन्न रूपों में उपयोग होता रहा है। नीम के विभिन्न गुणों/उपयोगों की चर्चा अथर्ववेद, अनेक सूत्र ग्रंथों, पुराणों, पाली एवं प्राकृत ग्रंथों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में अनेक स्थलों पर हुई है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथ 'उपवनविहूद' में नीम को भूमि-सुधार और पौध एवं अन्न की सुरक्षा में उपयोगी बताया गया है। किन्तु जब से पश्चिमी देशों को नीम के महत्व का ज्ञान हुआ है और आधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा उसके तत्वों का कीटनाशक एवं अन्य रूपों में निषेचन और दुनियाँ भर में व्यवसाय शुरू हुआ है, तब से इस नीम पर एक आफत सी ही आ पड़ी है। भारतीय ज्ञान के आलोक में अनेक देशों ने नीम पर वैज्ञानिक प्रयोग किये और अनुसंधान निष्कर्षों पर अपनी मौलिकता का दावा कर उसको पेटेंट कराना शुरू कर दिया। इससे भारत में काफी अफरा-तफरी मची। इन पेटेंटों को चुनौतियाँ दी जाने लगीं और कुछ पेटेंटों को निरस्त कराने में सफलता भी मिली। अभी एक ओर यह संघर्ष चल ही रहा था, तब तक पश्चिमी देशों में हल्दी, जामुन, तुलसी, गोमूत्र आदि से सम्बन्धित जानकारियों / खोजों के भी पेटेंट होने लगे। अब तो सुनने में आ रहा है कि विदेशों में वेदों को भी पेटेंट कराने की तैयारी चल रही है। ज्ञान के इस पेटेंटीकरण का औचित्य क्या है? क्या इससे भारत के नीम, हल्दी इत्यादि वस्तुओं पर से भारतीयों का अधिकार छिन जायेगा और विदेशी लोग उसका मनमाना लाभ उठा सकेंगे?

भारत में ज्ञान के व्यवसाय की कोई परम्परा नहीं रही है। इसे हमारी परम्परा में एक निकृष्ट कर्म माना गया है। मध्यकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी प्रसिद्ध कृति पद्मावत में लिखा है ''पण्डित होई सो हाट न चढ़ा, चहों बिकाई भूलिगा पढ़ा।'' अर्थात् ''विद्वान अपने ज्ञान का व्यवसाय नहीं करते, यदि वे ऐसा करते हैं, तो उनकी विद्या भूली हुई समझो।'' सर जे.सी. बोस कलकत्ता में वायरलेस टेलीग्राफी पर अनुसंधान के पश्चात् जब लंदन गये, तो वहाँ की एक कम्पनी ने उनके अनुसंधान को क्रय करने की पेशकस की थी। इस पर डॉ. बोस ने कहा था- ''मैं अपने ज्ञान को कभी नहीं बेंचूंगा। मैं कल सम्पूर्ण विश्व को अपना सब कुछ, जिसे मैंने अनुसंधान में पाया है, सौंप दूँगा।'' भारत का यह संस्कार यहाँ के परिवेश, जीवन-पद्धति और चिन्तन-शैली की उपज है।
भारत में पहले आबादी बहुत कम थी, अधिकांश भूभाग वृक्षों, वनौषधियों से आच्छादित था; पर्याप्त चारागाह उपलब्ध थे और पशुपालन यहाँ के कृषक एवं गृहस्थ जीवन का एक अभिन्न अंग था। गृहशोभा और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हर परिवार के पास पर्याप्त फलोद्यान व बाटिकाएँ होती थीं। खेतों में मवेशी खाद डाले जाते थे; साथ ही वर्षा और नदियों के बहाव के साथ आने वाले वनों से उत्सर्जित पदार्थ खेतों को शक्ति व शुद्धता प्रदान करते थे। नदी, झरनों, तालाबों और कुओं के जल शुद्ध होते थे, स्वच्छ वायु और सूर्य की प्रथम किरणें घर-घर प्रवेश करती थीं। तीनों तरह के मौसम, जो धरती के अन्य तमाम हिस्सों के लिए प्राय: दुर्लभ हैं, भारत में सनातन से सक्रिय रहे हैं, जिनमें चिन्तन और जीवन की एक विशेष शैली स्वत: विकसित हुई। यहाँ के जीवन में प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य बोध स्वत: जागृत हुए। इस मूल्य बोध ने प्रकृति को निर्ममता से नहीं, कोमलता से ग्रहण करने और संकीर्ण नहीं, व्यापक परिधि में उदार भाव से सोचने की एक मानवीय दृष्टि उत्पन्न की। यहाँ माना गया कि हम प्रकृति की एक संतान हैं, उसके मालिक नहीं। सृष्टि में जो कुछ है, वह हमारे उपकार के लिए है, अत: उसकी सुरक्षा में ही हमारा जीवन सुरक्षित है। सृष्टि के इन उपादानों पर किसी का मालिकाना हक नहीं, इसलिए इस सृष्टि व प्रकृति के बीच रहकर हमने जो ज्ञान प्राप्त किया, उसपर भी हमारा कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं, बल्कि सभी का हक है, और वह सबके लिए है। यही कारण था कि हमारे प्राचीन ऋषियों ने जो चिन्तन व खोज किये, उसके साथ अपना नाम तक नहीं जोड़ा। बहुत से प्राचीन ग्रथों के लेखक आज भी अज्ञात हैं। भारत के ज्ञान दुनियाँ में यूँ ही पहुँचते रहे, ताकि संसार के सभी प्राणियों का उससे कल्याण हो। उस ज्ञान का यहाँ पेटेंट भी कराया जा सकता है, इसकी सोच आज भी भारत के संस्कार में नहीं है। भारतीय ज्ञान और संस्कृति को पाकर तमाम देशों ने अपनी सभ्यता का विकास किया। लेकिन अपने एक-एक अनुसंधान की पूरी कीमत दुनियाँ से वसूल लेने की होड़ आज पश्चिमी देशों में जबर्दस्त रूप से मची है।
प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों, चिन्तकों व खोज-कर्त्ताओं को अपनी विद्या को तकनीकी या व्यावहारिक रूप देने की जरूरत महसूस नहीं हुई; क्योंकि यहाँ का जीवन प्राकृतिक था और प्राकृतिक ढंग से जीने में जो सुख और आनन्द है, वह कृत्रिम ढंग से अथवा कृत्रिम संसाधनों के सहारे जीने में नहीं। यही कारण था कि यहाँ प्राकृतिक वस्तुओं के तत्त्वों का निषेचन कर उपयोग करने के बाजाय उसका सीधा उपयोग होता रहा। आज आधुनिक टेक्नालॉजी के सहारे नीम के तत्त्वों/यौगिकों का निषेचन कर उसे तरह-तरह के डिब्बों में बंद कर बाजार में लाने का एकमात्र उद्देश्य व्यवसाय ही है। आज की गलाकाट व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा ने मानव को प्रकृति से दूर कर दिया है। बड़ी-बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों द्वारा दुनियाँ से धन खींचने का एक-एक नायाब तरीका अपना लिया है। प्रश्न यह है कि यदि एक जावा लहसुन के सीधे इस्तेमाल से ही हमें उसका सभी जरूरी तत्त्व मिल जाता है, तो उसी लहसुन से बना एक कैप्सुल एक रूपये में खरीद कर खाने का क्या औचित्य है? जाहिर है कि एक ओर आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी ने एक तो प्रकृति का निर्ममता पूर्वक दोहन कर मानव जीवन को ही एक प्रकार से खोखला बना डाला है। ऊपर से अधिक से अधिक धन बटोर लेने की व्यावसायिक होड़ ने हमारी जड़ों को कमजोर कर हमें हमारे परिवेश में ही असुरक्षित एवं अजनबी प्राणी बना कर रख दिया है।
अभी कुछ ही दशक पूर्व तक देश में वैद्यकी परम्परा व्यवस्थित तरीके से चल रही थी। प्राय: हर वैद्य स्वयं जड़ी-बूटियों को इकट्ठा कर अपने रोगी के लिए दवाइयाँ स्वयं बनाता था। रोगी को पूर्जा नहीं थमाया जाता था कि वह जा कर अमूक दुकान से दवा खरीद ले। किन्तु औषधि निर्माण और चिकित्सा की यह घरेलू व्यवस्था अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इसकी जगह अब देशी-विदेशी बड़ी-बड़ी कम्पनियों, मँहगे चिकित्सा-उपकरणों तथा मोटी फीस वाले चिकित्सकों ने ले लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि वनौषधियों के गुणों व उपयोगिता का ज्ञान जन-सामान्य के बीच से प्राय: लुप्त होते गया, सस्ती बैद्यकी परम्परा समाप्त हो गयी। आयुर्वेद की जगह एलापैथी का दायरा बढ़ा, वनों के विनाश के साथ गाँवों के आस-पास पायी जाने वाली जड़ी-बूटियाँ भी लुप्त हो गयी और अपनी यह सस्ती, कुछ हद तक नि:शुल्क चिकित्सा व्यवस्था, जो कभी हानिकारक नहीं रही, आज अपने अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष करते दिखाई पड़ रही है।
इसी प्रकार आज नीम पर भी खतरे उपस्थित हैं। इसे कई देशों ने पेटेंट करा लिया है। ७ मई १९८५ को यूनाइटेड स्टेट्स पेटेंट कार्यालय ने एक जापानी कम्पनी 'तरूमो कारपोरेशन' को नीम के छाल के कुछ तत्त्वों को खोजने का बौद्धिक सम्पदा अधिकार 'पेटेंट' प्रदान किया था। ३ दिसम्बर १८८५ को अमेरिकी कम्पनी 'बिकउल लि.' को नीम के कीटनाशक तथा जैव रासायनिक गुणों के प्रथम खोजकर्त्ता होने के दावे के आधार पर और २० फरवरी १९९० को जर्मनी के मैक्स प्लैंक एवं उनके साथियों को नीम के कीटनाशक गुणों की खोज करने के दावे पर पेटेंट अधिकार प्रदान किया गया। उपरोक्त अमेरिकी कम्पनी ने अपने पेटेंट अधिकार को डब्ल्यू.आर. ग्रेस एण्ड कम्पनी को बेच दिया। अमेरिका के ही एक अन्य खोजकर्ता ने १९९१ में नीम के कुछ तत्त्वों का पेटेंट कराया। उक्त ग्रेस कम्पनी ने पी.जे.मार्गो लि. के साथ मिलकर कर्नाटक राज्य के तुमकुर जिले में एक विशाल संयंत्र स्थापित किया, जो प्रतिदिन २० टन नीम बीज को प्रशोधित कर अमेरिका भेजती थी, जहाँ उसी कम्पनी के संयंत्र में 'मार्गोसन-ओ' और 'बायोनीम' नामक कीटनाशक दवायें बनायी जा रही थी (वर्तमान स्थिति फिलहाल अज्ञात)। इस कम्पनी ने उद्योग स्थापना के प्रथम वर्ष में ही 'मार्गोसन-ओ' के विक्रय से करीब १०० मिलियन (१० करोड़) डालर अर्जित की। मिडिया की खबरों के अनुसार कुछ वर्षों पहले तक यह कम्पनी विश्व बाजार से हर साल करीब २ अरब डालर की आय कर रही थी। अमेरिका की ही एक अन्य कम्पनी 'एग्रीडायन टेक्नोलाजीज' ने नीम से 'एजाटीन' तथा 'टरप्लेक्स' नामक दो उत्पाद बनाये। खबरों के अनुसार १९८५ से अब तक अकेले अमेरिका और जापान ने नीम आधारित खोजों पर १५ से अधिक पेटेंट कराये हैं। इनमें 'टूथपेस्ट' के लिए भी पेटेंट है। ऐसा समझा जा रहा है कि आने वाले वर्षों में नीम उत्पाद तीसरी दुनियाँ में सर्वाधिक आय वाले निर्यात योग्य वस्तु होंगे। अनुमान है कि कैंसर तथा मधुमेह-नाशक पदार्थों के निर्माण हेतु प्रशोधित नीम की माँग इतनी अधिक होने वाली है कि वह ५०० डालर प्रति किलो तक बिक सकती है। इसी का परिणाम है कि अभी एक दशक पूर्व नीम बीज के जो भाव ३०० रूपये टन थे, वह बढ़कर एकाएक ३००० रूपये टन हो गये। माना जा रहा है कि निकट भविष्य में ही उसकी कीमत १० हजार रूपये टन हो जाने की संभावना है। नीम व्यवसाय के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के उतर जाने से उसमें भयंकर होड़ सी मची है। एक ओर 'टोमको' (TOMCO), स्पाइक (SPIC) जैसी कम्पनियाँ नीम बीजों के निर्यात में लगी हैं, दूसरी ओर आई.टी.सी., वेस्टकोस्ट हर्बोकेम लि., घर्दा केमिकल्स, टी स्टेन्स, श्री बायो मल्टिटेक लि. इत्यादि कम्पनियाँ, जो क्रमश: 'वेलग्रो', 'नीमगार्ड', 'निम्बिसिडीन', 'लिमानाल' नामक कीटनाशक बनाती हैं, अपने उत्पादों की व्यापक खपत के लिए भारतीय बाजार में अधिकाधिक पहुँच बनाने में लगी हैं। नीम से पचासों तरह की चीजे बनायी जा रही हैं।
नीम वृक्ष के साथ आर्थिक एवं व्यावसायिक महत्व के अनेक गुणों के जुड़े होने के कारण उसकी ओर दुनियाँ के वैज्ञानिकों तथा उद्योगपतियों का ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। इस वृक्ष का दुनियाँ के अन्य देशों के साथ भारतीय कृषि क्षेत्र में भी आने वाले वर्षों में काफी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है और इसे कृषि का एक अनिवार्य घटक बनाना है। अत: इस वृक्ष के व्यापक पैमाने पर रोपण और उस पर आधारित उत्पादों में तेजी से विकास के लिए नयी, कम खर्चीली प्रौद्योगिकी विकसित करने की आवश्यकता गंभीरता से महसूस की जा रही है। आने वाले वर्षों में नीम बीज का बहुत बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार बनने वाला है और इसकी माँग उन देशों में ज्यादा होगी, जहाँ यह वृक्ष नहीं पाया जाता। नीम की महत्ता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि अब तक इस पर ५ से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं।
नीम भविष्य का एक अत्यन्त जरूरी वृक्ष है और सौभाग्य से भारत में इसके लिए एकदम अनुकूल और उत्तम जलवायु उपलब्ध है। पश्चिमी देशों ने नीम पर २-३ दशक पहले तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। उनका ध्यन इधर विशेष रूप से तब गया, जब सिंथेटिक उर्वरक एवं कीटनाशकों के कृषि, पर्यावरण तथा जीवन पर कई गंभीर कुप्रभाव दिखाई दिये। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हजारों वर्ष से नीम के कीटनाशी एवं उर्वरक गुणों की जानकारी होते हुए तथा नीम वृक्षों की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद उस पर प्रयोगशालायी अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादों के मामले में भारत पिछड़ गया; वहीं दूसरे देशों से नीम बीज आयातित कर कुछ विकसित देशों ने अपनी उच्च तकनीकी क्षमता, मजबूत वित्तीय संसाधनों तथा व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा में हमेशा अव्वल रहने की अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर आरम्भ के मात्र २०-२५ वर्षों में ही नीम पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। कई विकसित देश, जैसे- अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड वगैरह, जिनके पास पर्याप्त नीम सम्पदा नहीं है, आज नीम पर अनुसंधान के प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं।
भारत में नीम (तेल एवं खली) पर आधुनिक अनुसंधान वैसे १९२० में ही इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बैंगलोर ने शुरू कर दिया था; आगे १९६० में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने भी इसके कीटनाशी गुणों पर अनुसंधान शुरू किया। १९४२ में भारत के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक परिषद के वैज्ञानिकों ने नीम से निम्बिन नामक यौगिक के निषेचन में सफलता प्राप्त की और केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान, राजमुंदरी (आंध्र प्रदेश) के वैज्ञानिक श्री बी.सी.जोशी ने भी १९७६ में तम्बाकू पर लगने वाले कीड़ों को मारने हेतु नीम से एक यौगिक का निषेचन कर सफल प्रयोगिक परीक्षण किया। लेकिन १९६० के बाद और १९९१ से पहले तक मात्र ३०-३१ वर्ष में ही जर्मनी, अमेरिका तथा जापान ने कई महत्वपूर्ण यौगिकों की खोजकर उसको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यावसायिक रूप देने में अभूतपूर्व सफलता हासिल कर ली। भारतीय वैज्ञानिक भी अब पूरी मुस्तैदी और जोर-शोर से नीम पर गहन एवं व्यापक अनुसंधान में लगे हैं।
नीम पर व्यापक अनुसंधान और सिल्विकल्चर विकसित करने के लिए १९९२ से 'इण्डियन फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, जोधपुर ने कुछ विशेष कार्य-योजनाएँ आरम्भ की। किन्तु इससे पूर्व नीम पर वैज्ञानिकों के तीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन, क्रमश: १९८१ एवं १९८३ में जर्मनी में और १९८६ में नैरोवी (केन्या) में हो चुके थे। नीम पर अगला अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन १८ से २२ जनवरी तक १९९३ में बैंकाक (थाइलैण्ड) में हुआ, जहाँ नीम के जैवकीय सुधार तथा इस दिशा में परस्पर सहयोग के लिए २० देशों के वैज्ञानिकों का एक अन्तर्राष्ट्रीय पैनल गठित हुआ। इसी वर्ष १९९३ में नीम पर एक विश्व सम्मेलन बैंगलोर में हुआ। फिर १९९५ से भारत में एकीकृत अनुसंधान परियोजना शुरू हुई। ए.एफ. आर. आई., (Arid Forest Research Institute), जोधपुर ने १९९३ में नीम बीज के ऋतु जैवकीय पहलुओं पर अनुसंधान शुरू किया। यहाँ २८ फरवरी से ३ मार्च तक, १९९४ में नीम पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी हुआ। इस सम्मेलन के बाद से ए.एफ. आर.आई., जोधपुर ने एक 'नीम न्यूजलेटर' निकालना आरम्भ किया, जिसमें विश्व भर में नीम पर हो रहे अनुसंधान कार्यों की सूचनाएँ प्रकाशित की जाती रही हैं।
रही बात पेटेंट की, तो सन १९९४ में भारत सरकार के तत्कालीन कृषि एवं सहकारिता सचिव श्री जे.सी. पंत ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि 'यदि अमेरिका में कोई नीम या तुलसी के पौधे को पेटेंट करा लेता है, तो भारत में उसकी चिन्ता क्यों होनी चाहिए? हम पर अमेरिकी कानून लागू नहीं होता। अमेरिका में होने वाले किसी पेटेंट से हम प्रभावित नहीं होते।'' लेकिन कुछ अन्य विश्लेषकों का मत था कि ''पेटेंट'' राज के तहत हम अपनी धरोहर नीम से सदा के लिए हाथ धो बैठेंगे। इसके उत्पादों को हमारा किसान तिगुने-चौगुने दामों पर खरीदने के लिए विवश होगा। (विज्ञान प्रगति, अप्रैल १९९४)। दिल्ली के कुछ अखबारों में प्रकाशित लेखों में भी इस तरह की आशंकाएँ व्यक्त की गई थीं। लेकिन देहरादून वन अनुसंधान संस्थान के कुछ वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ''विदेशों में नीम के पेटेंट होने से भारतीय उद्योगों को भविष्य में बढ़े पैमाने पर व्यावसायिक अवसर प्राप्त होंगे। नीम उत्पादों के संगठित व्यवसाय से विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकेगी। गाँवों में लघु उद्योग स्थापित किये जांय तो इससे बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है।'' (इण्डियन फारेस्टर, बाल्यूम १२१, नं. ११)।
पक्ष-विपक्ष के इन सभी मतों के बीच वास्तविकता सिर्फ इतनी है कि यदि भारत में नीम आधारित कीटनाशकों तथा अन्य उत्पादों के व्यापक स्तर पर निर्माण, प्रचार एवं व्यवसाय के ठोस व संगठित प्रयास नहीं हुए, तो हमें आयातित उत्पादों को ऊँची कीमतों पर खरीदने के लिए विवश होना ही पड़ेगा। विदेशी कम्पनियाँ भारतीय बाजार से कच्चा माल नीम बीज मुँहमांगे दाम पर खरीद कर तैयार माल यहाँ के बाजारों में बेचेंगी। नीम के किसी यौगिक को किसी देश द्वारा पेटेंट करा लेने का अर्थ यह नहीं है कि दुनियाँ भर में फैले नीम वृक्षों पर उसका अधिकार हो गया। खोजे गये यौगिक को कोई दूसरा वैज्ञानिक भी पुन: अपने अनुसंधान द्वारा नये नाम से प्रस्तुत कर सकता है और उसका वाणिज्यिक लाभ भी लिया जा सकता है। मूल बात यह है कि विदेशों में नीम के किसी यौगिक, उत्पाद या उसकी विधि के पेटेंट होने से भारत के समक्ष सिर्फ एक प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती मात्र खड़ी होगी। यदि यह चुनौती खड़ी न हो तो भारत के लोग कुछ विशेष करने के लिए उत्साहित भी नहीं हो सकते। पेटेंट कानून के तहत किसी वृक्ष का पेटेंट नहीं हो सकता। भारत के किसान अपने नीम का उपयोग स्वयं करें या बेचें, इसकी उन्हें पूरी स्वतंत्रता है। इसमें किसी के दखल की अनुमति न तो भारत सरकार दे सकती और न कोई विदेशी सरकार।
पश्चिमी जगत को नीम के विषय में जानकारी यद्यपि भारतीय साहित्यों व सम्पर्कों द्वारा बहुत पहले से थी और भारतीय वैज्ञानिकों की तरह विदेशी वैज्ञानिक भी कच्छप गति से ही नीम पर प्रायोगिक अनुसंधान में लगे रहे थे, लेकिन १९५९ की एक घटना के बाद इस दिशा में अनुसंधान की गति एकाएक तीव्र हो उठी। हुआ यह कि इसी वर्ष सूडान के एक हिस्से में बड़ी टिड्डियों के एक बहुत बड़े दल ने फसलों तथा पेड़ पौधों पर भयानक हमला कर दिया, जिससे सभी फसल और प्राय: सभी वृक्ष पूरी तरह नष्ट हो गये। यह एक बहुत बड़ा हादसा था, जिसकी जाँच के लिए सूडान सरकार ने जर्मनी के युवा कीट व पादप वैज्ञानिक डॉ. हेनरिख शम्युटरर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम नियुक्त की। डॉ. शम्युटरर ने अपने सर्वे में पाया कि सभी फसल व वृक्ष नष्ट हो गये, किन्तु कोने में अब भी एक वृक्ष अलमस्त लहलहा रहा था। टिडि्डयों का दल इस वृक्ष पर भी बैठा था, लेकिन इसको कोई नुकसान नहीं पहँुचा था। यह चौकाने वाली बात थी। डॉ. शम्युटरर तत्काल इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस नीम वृक्ष में कीटों को विकर्षित करने वाले जबर्दस्त रिपेलेंट (Repellent) गुण हैं, यह अपनी तिक्तता के कारण भक्षण-प्रतिरोधी (Anti-feedant) भी है। यह युवा जर्मन वैज्ञानिक के लिए एक बिल्कुल ही नया अनुभव था। इस अनुभव ने उन्हें आगे चलकर जर्मनी के गाइसेन विश्वविद्यालय में नीम पर व्यापक प्रायोगिक अनुसंधान शुरु करने के लिए प्रेरित किया। इस अनुसंधान केन्द्र से जुड़े अनेक देशों के सैकड़ों वैज्ञानिकों ने आरम्भ के २५-३० वर्षों में नीम से अनेक यौगिकों का निषेचन किया। उसमें डॉ. शम्युटरर द्वारा निषेचित 'एजाडिरेक्टा' नामक कीटनाशी तत्त्व खासी चर्चा में है। माना जा रहा है कि इसकी एक हल्की मात्रा भी अनेक तरह के कीटों को मारने में काफी सक्षम है। 'एजाडिरेक्टा' की खोज के बाद विश्व भर में नीम पर अनुसंधान की प्रक्रिया और भी तीव्र हुई और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में नीम बीज के मूल्य में एकाएक उछाल आया और तमाम देशों में नीम वृक्ष की वानिकी के व्यापक प्रयास आरम्भ हुए।
लघु कृषकों के लिए नीम एक अत्यन्त उपयोगी एवं अर्थकरी वृक्ष है, किन्तु इसकी खेती नहीं की जा सकती, बल्कि सरकारी सहयोग से बेकार पड़ी भूमि तथा सड़कों के किनारे ही इसका सघन रोपण किया जा सकता है। नीम वृक्ष की एक ऐसी उत्तम प्रजाति के विकास में कई भारतीय अनुसंधान संस्थान लगे हैं, जो कम समय में अधिक उपज दे सके और जगह भी कम घेरे। आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान, जहाँ नीम के मुख्यत: कीटनाशी (Insecticidal) और उर्वरक (Fertilizer) गुणों पर केन्द्रित रहे हैं, वहीं भारतीय अनुसंधान संस्थान इसके चिकित्सकीय (Medicinal) तथा पादप रोगों (Plant Pathoogy) के पक्षों पर। दोनों क्षेत्रों में किये गये अनुसंधान से नीम के कीटनाशक (Pesticidal) एवं औषधीय (Pharmaceutical) गुणों पर व्यापक प्रकाश पड़ा है और हजारों वर्षों तक सामान्य रूप से प्रयोग में प्रचलित यह वृक्ष आज एकदम से समय का एक जरूरी वृक्ष बन गया है। वैसे पश्चिमी देशों में नीम से औषधीय तथा कास्मेटिक प्रषाधनों सम्बन्धी यौगिकों के अनुसंधान व निर्माण पर भी गहन अनुसंधान जारी हैं। इस क्षेत्र में भी भारत को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इन सबके बावजूद भारतीय ग्रामीणों के लिए नीम तो उसका एक घरेलू औषधालय निरन्तर बना रहेगा और वह पूरी स्वतंत्रता के साथ उसका सीधा इस्तेमाल करता रहेगा।

नीम के विविध उपयोग

१. लकड़ी रूप में
१५ -२० वर्षों के एक सुडौल नीम वृक्ष के तने की लम्बाई करीब ३ मीटर और घेरा डेढ़ मीटर तक होती है। इसे चीरने पर ऊपरी भाग भूरे रंग का सफेद और भीतरी भाग लाल भूरा दिखता है। इसके रेशे गठे हुए ,मजबूत और टिकाऊ के साथ सुगंधित होते हैं। इसमें कीड़े और फंुगी नही लगते। नीम की लकड़ी में सागौन के गुण व क्षमता होती है। दरवाजे के बाहर लगाने पर भी यह टिकाऊ होती है। हाथ या मशीन से भी इसे चीरना आसान होता है। अन्य वृक्षों की अपेक्षा इसमें वजन, आघात सहने की क्षमता, सतह का कड़ापन और काँटा पकड़ने की योग्यता अधिक होती है और इसको चीरने से ज्यादा नुकसान नहीं होता। इस पर नक्कासी बढ़िया होती है,किन्तु पालिश नहीं जमती। इस वृक्ष की लकड़ी का उपयोग भवन के सहतीर, कड़ी, दरवाजा, खिड़की, फ्रेम, खम्भा तथा फर्नीचर, कृषि उपकरण, नाव, जहाज, बैलगाड़ी, चक्के का धूरा, नौका-पतवार, तेल मिल, चुरूट के डिब्बे, मूर्तियाँ, खिलौने, ढोल का कनखा इत्यादि के निर्माण में होता है।
२. जलावन के रूप में
नीम की लकड़ी जलावन के काम में भी आती है, किन्तु यह धुँआ अधिक देती है। एक पचास वर्ष के नीम वृक्ष से करीब ५१ किलोग्राम जलावन की लकड़ी निकलती है। पश्चिमी अफ्रीकी देशों में नीम के डाल तथा चिराई के बाद निकले छाँट आदि काष्ठ कोयला बनाने के काम आते हैं, जिसकी जलावन के रूप में वहाँ काफी माँग होती है। हैती में बड़े पैमाने पर नीम वृक्ष जलावन की लकड़ी, छाया और भू-क्षरण रोकने के उद्देश्य से ही लगाये गये हैं। उत्तरी नाइजेरिया, कैमरुन तथा सूडान में नीम वृक्ष का इमारती लकड़ी तथा जलावन की लकड़ी के उद्देश्य से वानकीकरण किया गया है। नाइजेरिया के सोकोरो प्रान्त में १९३० में नीम वृक्ष लगाये गये थे। वहाँ जलावन तथा इमारती लकड़ी के अभाव की पूर्ति में यह वृक्ष 'इस सदी का सबसे बड़ा वरदान (Greatest Boon of the Century) साबित हुआ है। भारत के गाँवों में भी जलावन की लकड़ी की समस्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। शहरों में गैस, किरोसिन, कोयला, बिजली, सौर-उर्जा आदि के उपयोग के बावजूद हर साल करीब २ करोड़ टन लकड़ी की माँग बनी रहती है। नीम वृक्ष इस अभाव की पूर्ति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
३. दातवन के रूप में
बनस्पति जगत् में उपलब्ध वृक्षों में दातवन के रूप में नीम की टहनी का ही सर्वाधिक उपयोग होता है, क्योंकि उसमें कीटनाशक गुण अधिक है और वह दाँत एवं मुख में होने वाले रोगों को नष्ट करने में सर्वाधिक सक्षम है। नीम टहनी का ब्रश और चीरा भी बढ़िया बनता है। उसके उपयोग से मसूड़े मजबूत होते हैं, दाँत चमकीले बने रहते हैं। बचपन से ही नीम दातवन का नियमित सेवन करते रहने वाले लोगों के दाँत अस्सी वर्ष की उम्र में भी मजबूत पाये जाते हैं। भारत के ग्राम्यांचलों में आज भी एक बहुत बड़ी आबादी नीम दातवन का ही प्रयोग करती है। बहुत से लोगों ने इसी प्रयोजन से अपने दरवाजे पर नीम वृक्ष लगा रखा है। हालाँकि गाँवों में भी कृत्रिम टूथपेस्ट एवं ब्रश का प्रचलन काफी बढ़ गया है और मंजन के नाम पर तमाम तरह के नशीले पदार्थ गुल आदि चल पड़े हैं, जबकि इनकी अपेक्षा नीम दातवन सस्ता और स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक मंजन व ब्रश है। इधर शहरों में तथा रेलवे स्टेशनों पर नीम दातवन की बहुतायत उपलब्धता को देखकर ऐसा लगता है कि प्रबुद्ध लोगों का कृत्रिम संसाधनों के बजाय नीम जैसे प्राकृतिक व गुणकारी दंत ब्रश की ओर तेजी से झुकाव बढ़ा है। बाजार में कोई भी टूथपेस्ट १०/- रुपये से कम का नहीं और एक अच्छा टूथब्रश भी २० रुपये से कम में नहीं मिलता। एक व्यक्ति के उपयोग करने पर एक टूथपेस्ट करीब एक महीना और एक ब्रश लगभग तीन महीना चलता है। इस तरह सिर्फ दंत-धवन के लिए ही एक व्यक्ति को महीने प्राय: में १६-१७ रुपये व्यय करने पड़ते हैं, जबकि नीम दातवन पर लगभग ७-८ रुपये खर्च आता है। अन्तर यह भी है कि एक कृत्रिम ब्रश का उपयोग बार-बार किया जाता है, जिससे उसमें शुद्धता नहीं रह जाती, जबकि नीम दातवन का दुबारा उपयोग नहीं किया जाता, दाँत-जीभ साफ कीजिए और फेंकिये, उसे दुबारा उपयोग के लिए धोने व रखने की झंझट नहीं।सिंथेटिक पेस्ट के रसायन तथा ब्रश का प्रयोग दाँत व मसूड़े के लिए हानिकारक भी पाये जाते हैं। नीम दातवन करने से चित्त प्रसन्न रहता है, क्षुधा तीव्र होती है और मुख से दुर्गन्ध नहीं आती। नीम टहनी दातवन के रूप में एशिया तथा अफ्रीका के देशों में उपयोग किया जाता है। इधर नीम रस से टूथपेस्ट भी बनाये जाने लगे हैं।
४. मधुमक्खी पालन में
४.१ नीम के फूलों से पराग चुनकर मधुमक्खियाँ मधु तैयार करती हैं। कुछ तिक्तता के बावजूद यह मधु स्वास्थ्य के लिए एक सर्वोत्तम टॉनिक है। गर्मी के दिनों में जब आहार की कमी हो जाती है, उस समय नीम के फूल ही मधुमक्खियों को बचाये रखने में सहायक होते हैं। बाजार में नीम मधु एक दुर्लभ चीज है, ऊँची कीमत देने पर भी यह जल्दी नहीं मिलती। नीम वृक्ष की अधिकता वाले क्षेत्र में ही नीम मधु तैयार होते हैं।
४.२ नीम का फूल हल्का हरापन लिए श्वेत और चमेली की तरह भीना सुगंध वाला गुच्छेदार होता है। इसमें द्राक्षा (Glucocide), निम्बोस्ट्रीन तथा तीक्ष्ण गंध वाले तेल एवं वसा अम्ल पाये जाते हैं। इसका अर्क उत्तेजक, पुष्टिकारक तथा क्षुधावर्धक होता है। चर्मरोग से बचने के लिए वसंत ऋतु में इसे चबाया जाता है।
५. रंजक-निर्माण में
५.१ पुराने वृक्ष के तने व डालों से स्वच्छ आकाशीय रंग का गाढ़ा लासा निकलता है, उसे 'ईस्ट इण्डिया गम' कहा जाता है। उसका उपयोग सिल्क के धागों को रंगने के काम में होता है। इससे रंजक तैयार किया जाता है। यह भी एक क्षुधावर्धक पदार्थ है। यह गोंद वृक्ष का 'आँसू' कहलाता है। गोंद में शर्करीय खमीर होता है, जो स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह ठंढ़े जल में घुल जाता है।
५.२ नीम छाल में लाल रंग का एक रंजक पदार्थ पाया जाता है, जो सिल्क धागों को रंगने के काम में आता है। इसमें १२ से १४ प्रतिशत तक टैनिंग द्रव्य पाये जाते हैं जो चर्मशोधन के काम में आते हैं। टूथपेस्ट के निर्माण में भी छाल के रस का प्रयोग होता है। इसके तन्तुओं से रस्सा भी बनाया जाता है, किन्तु वह आर्थिक दृष्टि से उपयोगी नहीं होता।
६. पशुचारा व खली के रूप में
६.१ चारे के अभाव में बकरी, ऊँट और साँढ़ नीम के पत्ते भी चबाकर संतुष्ट हो जाते हैं। आंध्रप्रदेश के किसान गाय, भैंस तथा बकरी को प्रसव के शीघ्र बाद से लगातार कुछ दिनों तक नीम पत्ती खिलाते हैं, ताकि दूध स्वच्छ और पूरी तरह उतरे। नीम पत्ती में १२ से १८ प्रतिशत तक क्रूड प्रोटीन, ११ से ३० प्रतिशत तक क्रूड फाइब्रे, ४५ से ६७ प्रतिशत तक नाइट्रोजन, ७ से १८ प्रतिशत तक राख, १ से ४ प्रतिशत तक कैल्सियम, ०.१ से ०.३ प्रतिशत तक फास्फोरस तथा २ से ६ प्रतिशत तक अन्य पदार्थ पाये जाते हैं।
६.२ नीम बीज (बीना छिलका उतारे) पेरने पर खली में १२-१९ प्रतिशत प्रोट्रीन होता है। नीम गिरी (छिलका उतारकर) पेरने पर खली में ३५ प्रतिशत प्रोटीन होता है। पहली स्थिति में १२ से १६ प्रतिशत तेल मिलता है। दूसरी स्थिति में ३० से ४५ प्रतिशत तेल मिलता है। दूसरी स्थिति में खली पशु चारे के लिए विशेष उपयोगी है। चारे में मिलाकर इसे खिलाया जाता है। शुरू में पशु उसे थोड़ा कम पसंद करते हैं, किन्तु आदत हो जाने पर चाव से खाते हैं। इससे पशुओं का स्वास्थ्य एवं वजन बढ़ता है। इसे मुर्गी, भेड़, सुअर, व्यायी हुई गाय तथा डेयरी के गोयों, भैंसों खिलाया जा सकता है। व्यायी हुई, अर्थात दूध देने वाली गाय, भैंस को देने से पहले ढाई लीटर पानी में ८ ग्राम कास्टिक सोडा के साथ नीम खली को उबालकर देने पर उसमें तिक्तता खत्म हो जाती है।
७. सौन्दर्य प्रसाधनो में
७.१ नीम पत्ती का उपयोग विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण में भी किया जाता है। इसका निषेचन जर्मनी में हेयर लोशन बनाने के काम में भी आता है। इसके पानी का उपयोग सब्जियों तथा तम्बाकू के फसलों पर कीटनाशक रूप में और उपज वृद्धि के लिए किया जाता है। नीम का पाउडर भी भारत में सौन्दर्य प्रसाधन के निर्माण में काम आता है।
७.२ नीम बीज की खली पशुओं को खिलायी जाती है। इसकी तिक्तता कम करने के लिए इसे पानी में भिगोकर पानी को निथार लिया जाता है। नीम खली मुर्गीपालन के लिए भी उपयोगी है। यह क्षुधावर्धक तथा Vermicidal होता है।
८. औद्योगिक प्रयोजन में
नीम तेल रंग में पीला, स्वाद में कड़वा तथा लहसुन की गंध लिये होता है। अभी देश में जितना नीम तेल उत्पादित होता है, उसका करीब ८० प्रतिशत भाग सिर्फ साबुन बनाने के काम में आता है। इसके अतिरिक्त नीम तेल से शैम्पू, टूथपेस्ट, क्रीम, लोशन, केश तेल, नेल पालिश, राकेट ईधन आदि के निर्माण तथा वस्त्र एवं रबर उद्योग में किया जाता है। इससे म्यांमार (वर्मा) में मोमबत्ती बनायी जाती है। काठ गाड़ी का धूरा भी इससे चिकना किया जाता है। सिल्क एवं सूती वस्त्रों को गाढ़ा, पीला रंगने में भी यह तेल उपयोग में आता है। देश में प्रचलित मार्गो साबुन नीम तेल से ही बनता है। नीम को अंग्रेजी में मार्गोसा कहा जाता है।
९. अल्कोहल एवं मिथेन निर्माण में
नीम फल के गुदे में कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसका इस्तेमाल अल्कोहल (शराब) एवं मिथेन गैस के निर्माण में होता है। बीज का छिलका जलावन के काम आता है।
१०. छाया-विश्राम एवं सजावट के रूप में
नीम वृक्ष की छाया शीतल और उसकी हवा शुद्ध होती हैं। प्राय: सभी तरह के पशु-पक्षी इसकी छाया को बहुत पसंद करते हैं। तमाम उष्णकटिबन्धीय देशों में इसका रोपण छाया के लिए भी किया गया है, जिससे वहाँ के लोगों को जीने की ताकत मिली है। घरों के आस-पास, सड़कों के किनारे कतार में तथा पार्कों में लगाने पर यह अपनी सुनहरी हरीतिमा के कारण मनोरम दृश्य उपस्थित करता है। उत्तरी मलेशिया तथा पेनांग आदि द्वीपों में इसका रोपण इसी उद्देश्य से किया गया है। अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के कई शहरों को सुन्दर बनाने के लिए भी नीम वृक्ष लगाये गये हैं। दिल्ली सरकार ने एक बार पूरी दिल्ली में नीम वृक्ष लगाने का निर्णय लिया था, ताकि सजावट के अतिरिक्त प्रदूषण-नियंत्रण एवं ताप-नियंत्रण में भी इसका उपयोग हो। सऊदी अरब में मक्का के पास दस वर्ग किलोमीटर में ५० हजार से अधिक नीम वृक्ष लगाये गये हैं, जिसका मूल मकसद यात्रियों को छाया प्रदान करना है। हालांकि उससे ताप-प्रदूषण रोकने में भी काफी सहायता मिली है। अफ्रीका के शुष्क क्षेत्रों में यह वृक्ष सबसे पहले सड़कों के किनारे सजावटी छायादार वृक्ष के रूप में ही लगाया गया था।
११. प्रदूषण-नियंत्रण एवं पर्यावरण संरक्षण में
११.१ वायुमण्डल में कार्बनडायआक्साइड (Co2),सल्फर डायआक्साइड (So2) तथा अन्य गैसों की मात्रा-वृद्धि के साथ वायु-प्रदूषण एवं ताप-प्रदूषण के खतरे उत्पन्न होते है। नीम वृक्ष इन घातक गैसों को सहन एवं हजम करने में बहुत तेज पाया गया है। इसके सघन पत्तों से आक्सीजन भी काफी मात्रा में उत्सर्जित होता है। शहरों में सघन आबादी, वाहनों की भीड़ तथा उद्योग-धंधों की जमघट से वायु प्रदूषण के गंभीर संकट उपस्थित हैं। ऐसे जगहों पर अन्य तरह के वृक्ष इन प्रदूषणों को उतना बर्दास्त नहीं कर पाते, जितना नीम वृक्ष। शहरों के तमाम सजावटी वृक्ष प्रदूषणों की मार से नष्ट हो जाते हैं। नीम यहाँ पर एक कारगर विकल्प है। इसकी प्रतिरोधी एवं अवशोषण क्षमता के कारण ही इसे वायु शुद्धिकारक (Air Purifier) कहा गया है। नीम की सघन वानिकी होने पर यह १० डिर्ग्री सेंटीग्रेड तापमान को कम कर सकता है और वार्षिक वर्षा १० से २० प्रतिशत तक बढ़ सकती है।
११.२ नीम वृक्ष ध्वनि-प्रदूषण भी रोकने में काफी सहायक है। इसकी व्यापक वानिकी से ध्वनि-प्रदूषण से होने वाले विभिन्न रोगों, जैसे- मानसिक तनाव, अनिद्रा, बेचैनी, सिरदर्द, थकान, कार्य-क्षमता के ह्लास, बहरापन, कान के आन्तरिक भागों की क्षति, हृदय की धड़कन का बढ़ना, रक्तवाहिनियों का सिकुड़ना, रक्त-संचार में कमी, उच्च रक्तचाप, चिड़चिड़ापन, गैस्ट्रिक अल्सर, मस्तिष्क एवं नर्वस कोशिकाओं पर घातक प्रभाव, स्फूर्ति का घटना, प्रसव-पीड़ा का बढ़ना, गर्भस्थ शिशु पर बुरा प्रभाव आदि से काफी हद तक बचाव किया जा सकता है। वायु प्रदूषण से होने वाले रोग, जैसे-सिरदर्द, चक्कर, पेट में मरोड़, कब्ज, भूख न लगना, मस्तिष्क ज्वर, बच्चों में गुर्दे की बीमारी, मन्द बुद्धिता, स्नायु दुर्बलता, दृष्टिहीनता, आँख -गले में जलन, खाँसी, यकृत विकृति, प्रजन रोग आदि में भी नीम वृक्ष की वानिकी काफी गुणकारी है। प्रदूषित जल में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव, विषाणु, जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ, कृमि आदि पाये जाते हैं, जो तमाम प्रकार के रोगों के जनक हैं। नीम वृक्ष जल-प्रदूषण रोकने में भी अत्यन्त सहायक है।
१२. फल-संरक्षण में
फलों की सुरक्षा के लिए बक्सों में नीम की पत्तियाँ रखी जाती हैं। इससे फल अधिक समय तक ताजा और निरोग बना रहता है।




१३. रोजगार वृद्धि में
नीम के व्यापक प्रचार के साथ शहरों में नीम के दातवन की माँग भी क्रमश: बढ़ती जा रही है। इसके रोजगार से गरीब व्यक्ति अच्छी आय कर सकता है। नीम बीजों का संग्रह, प्रशोधन तथा नीम पेराई और उत्पादों के व्यवसाय में भी तमाम लोगों को रोजगार मिला है। नीम पर आधारित अनेक प्रकार के लघु-कुटीर उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं। इन उद्योगों में मशीन-निर्माण उद्योग भी हो सकते हैं, जैसे छिलका उतारने वाली मशीन (Decorticator), बीज/गिरी पेराई मशीन (Seed/Kurnel Crusher), चूर्ण बनाने वाली मशीन (Pulverizer) इत्यादी।

घरेलू उपयोग में नीम


कीटनाशक रूप में नीम का पारम्परिक उपयोग भारत तथा कुछ अन्य देशों में सदियों से होता रहा है। वस्त्रों, पुस्तकों, दस्तावेजी कागजातों को सुरक्षित रखने के लिए नीम पत्तियाँ तह में या बक्से में रखी जाती हैं। छाँव में सूखी नीम पत्ती या नीम लकड़ी जलाकर घर में धुँआ करने से मच्छर-मक्खियों की रोकथाम होती है। चारपाई, फर्नीचर में खटमलों को मारने के लिए नीम पत्ती उबालकर या नीम तेल पानी में घोलकर डाला जाता है। चूल्हे-चौके में नीम के जल पानी में डालकर उससे पोछा लगाने पर तिलचट्टे, झिंगुर विकर्षित होते हैं। लैम्प या लालटेन में २ प्रतिशत नीम तेल मिलाकर जलाने पर पास में मच्छर नहीं आते। शरीर में नारियल तेल के साथ थोड़ा नीम तेल मिलाकर लगा लेने से भी मच्छर विकर्षित होते हैं। सेव आदि फलों की पैकिंग करते समय उसमें नीम की पत्तियाँ रख देने से अथवा नीम तेल पानी में घोलकर उसमें छिड़क देने से फलों को अधिक समय तक सड़ने से बचाया जा सकता है। भारत के अतिरिक्त अमेरिका तथा कुछ अफ्रीकी देशों- घाना, नाइजेरिया आदि में यह प्रयोग किया जाता है। श्रीलंका में मच्छरों को भगाने के लिए धान की भूसी के साथ नीम की पत्ती जलाकर धुँआ किया जाता है।

नीम-निषेचित यौगिक

कीटनाशक रूप में नीम का प्रयोग भारत तथा पड़ोसी देशों में सदियों से होता रहा है। विगत तीन-चार दशकों से रासायनिक कीटनाशकों के व्यापक प्रचलन में आने के कारण नीम का परम्परागत घरेलू उपयोग धीरे-धीरे कम हो गया या उसे भुला दिया गया। लेकिन रासायनिक कीटनाशकों के दुष्प्रभाव लक्षित होने के साथ वैकल्पिक साधनों की खोज-प्रक्रिया में नीम वृक्ष एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत के रूप में पुन: सामने आया है। प्रकृति की ओर लौटने का यह वैज्ञानिक अभियान निश्चय ही मानवता के लिए एक शुभ संकेत है। विगत ४०-५० वर्षों में नीम पर हुए वैज्ञानिक अनुसंधान तथा प्रयोगिक परीक्षणों में नीम का हर भाग जैवकीय रूप से सक्रिय पाया गया है। इससे अब तक १०० से अधिक यौगिकों का निषेचन किया गया है, जिसमें कीटनाशी एवं औषधीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण गुण पाये गये हैं। कीटनाशी रूप में निषेचित यौगिकों में एजाडिरोन, एजाडिराडियन, निम्बोसिलान, निम्बिनिन, निमोसिनोलाइड, जेडुनिन, निम्बिन, निमोलाइड, स्लालिन, स्लानॉल, निम्बाडिनाल, निम्बिनिन,निमोलेटक्न, एजाडिरेक्टिन आदि प्रमुख हैं, जो नीम के छाल, बीज, तेल तथा पत्तों से विभिन्न केमिकल्स के साथ निषेचित किये गये हैं। इन यौगिकों में सर्वाधिक प्रभावकारी, जैसा कि जर्मन वैज्ञानिकों का मानना है, एजाडिरेक्टिन है। इसके गुण निम्बिन (१९४२), सलालीन (१९६८) तथा निम्बिलाइड (१९७०) तथा कुछ अन्य यौगिकों से मिलते-जुलते हैं।
विगत लगभग दो दशकों से 'एजाडिरेक्टिन' विशेष चर्चा में है। इसकी खोज में लगभग २५ वर्ष लगे हैं। इस यौगिक का अपरिष्कृत रूप सबसे पहले १९६८ में डी.जी. मार्गेन नामक वैज्ञानिक के नेतृत्व में खोजा गया। आगे १९८२ में जर्मन वैज्ञानिक डॉ. हेनरिख शम्युट्टरर तथा १९८७ में अरमेल नामक वैज्ञानिक इसका कुछ परिष्कृत रूप सामने लाये। अब भी यह पूर्ण शुद्ध रूप में प्राप्य नहीं है, लेकिन बताया जाता है कि जो कुछ प्राप्त है, उसकी थोड़ी सी मात्रा भी तमाम कीड़ों के लिए अत्यन्त घातक है। विभिन्न देशों में नीम बीजों में इस यौगिक की मात्रा अलग-अलग प्राप्त होती है। भारतीय नीम बीज सर्वोत्तम पाया गया है। इस देश के एक किलो नीम बीज से ५ से ६ ग्राम तक यह यौगिक प्राप्त होता है। एजाडिरैक्टिन के अलावे सलालीन तथा मेलियाकार्पिन भी अत्यन्त प्रभावकारी कीटनाशक यौगिक बताये गये हैं। वस्तुत: एजाडिरेक्टिन, एजाडिरैक्टाल तथा मेलियाकार्पिन, इन तीनों यौगिकों का संयुक्त नाम एजाडिरैक्टिन है। यह मुख्यत: दो प्रकार से काम करता है-(Insect antifeedant) तथा (Insect grwoth inhibitor) के रूप में। अर्थात् यह न तो कीड़ों को फसलों का नुकसान करने की अनुमति देगा और न कीड़ों के विकास को बढ़ने देगा। यह उनके लिए विकर्षक रूप में काम करता है और पादपों के हार्मोन को संतुलित रखता है। यह विभिन्न कीटों के लारवों (डिंभकों) के रूपान्तरण प्रक्रिया को विखण्डित कर रोगाणुओं को बढ़ने से रोकता है।

सर्वोत्तम कीटनाशक नीम

उपरोक्त सारी परिस्थितियाँ आज दुनिया के कृषि-वैज्ञानिकों के समक्ष गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। रासायनिक कीटनाशकों के कृषि, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य विरोधी परिणामों को देखते हुए अब ऐसे वैकल्पिक कीटनाशकों के अनुसंधान पर जोर दिया जाने लगा है, जो (१) मनुष्य एवं मानवेतर जीवों के लिए अल्प या शून्य हानिकारक तथा सुरक्षित हों, (२) जिसके जैवकीय विघटन होने से मिट्टी, जल एवं वायु दूषित न हों, (३) जिससे प्रतिकूल कीड़े ही मारे जा सकें, अनुकूल कीड़े नहीं, (४) जो लक्षित कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित न होने दे, (५) जो रासायनिक कीटनाशकों की अपेक्षा सस्ता, सहज प्राप्य एवं पार्श्व प्रभाव रहित हो, (६) जिनका प्रभाव भले ही रासायनिक कीटनाशकों की तरह न हो, धीमी ही हो और कीटों द्वारा कुछ नुकसान भी उठाना पड़े, किन्तु खाद्यान्न, मिट्टी, जल, वायु एवं जीवन में विषाक्तता का प्रवेश न हो। इन अपेक्षाओं की पूर्ति सिर्फ वनस्पति जगत से ही हो सकती है और विकल्प की तलाश में 'नीम' एक सर्वोत्तम कीटनाशक रूप में सामने आया है।
भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों, मुख्यत: जर्मनी, अमेरिका एवं जापान में विगत ३०-४० वर्षों के दौरान नीम वृक्ष के कीटनाशक तत्वों की खोज के लिए बड़े पैमाने पर सघन अनुसंधान हुए हैं और पाया गया है कि इस वृक्ष के फल, बीज, गिरी तथा डाल, तना एवं जड़ की छाल में कीट-विरोधी कई गुण मौजूद हैं। यह एक ही साथ कीट-भरण प्रतिरोधक (antifeedant), कीटनाशी (Insecticidal), कीट-वृद्धि विघटक (Insect-growth disrupting), गोल-कृमि प्रतिरोधी (Nematicidal), कवक/फफुंदनाशी (Fungicidal), जीवाणुनाशी (Bactericidal), कीट/वायरस/बैक्टेरिया विकर्षक (Insect/Virus/Bacteria-repellent) और कीटों के विरुद्ध बन्ध्यीकरण (Sterilizing) गुण वाला है। वैज्ञानिकों का अभिमत है कि प्रकृति-प्रदत्त नीम वृक्ष कीटनाशक (एवं उर्वरक रूप में भी) बेमिसाल है और इसे व्यापक पैमाने पर उपयोग में लाया जा सकता है।
नीम वृक्ष की और भी कई तात्विक विशेषताएँ हैं। जैसे-(१) अन्य वृक्षों/पौधों की अपेक्षा इसमें अल्प या शून्य मात्रा में विषाक्तता (Taxocity) पायी जाती है, जो मधुमक्खियों या गैर-संक्रमक कीटाणुओं के लिए उपयोगी है, (२) इसमें करीब ३०० किस्म के प्रचलित कीटों को मारने या प्रतिबन्धित करने की क्षमता है। भारतीय वैज्ञानिकों ने १०६ से अधिक कीटों पर किये गये परीक्षणों में इसे प्रभावकारी पाया है, (३) यह एक सरल, सहज प्राप्य एवं रासायनिक कीटनाशकों की अपेक्षा सस्ता स्रोत है। इसे घरेलू स्तर पर भी आसानी से तैयार किया जा सकता है, (४) सिंथेटिक कीटनाशक जहाँ शत्रु कीटों के साथ मित्र कीटों को भी मार देते हैं जिससे जैवकीय असंतुलन पैदा होता है और कीटनाशकों की माँग बढ़ जाती है तथा उसका दीर्घकालिक दुष्प्रभाव भी बना रहता है, वहीं नीम कीटनाशक मित्र कीटों पर अल्प प्रभाव डालते हैं, अपना काम करने के बाद शीघ्र विघटित हो जाते हैं और भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि के साथ फसलों में हारमोन संतुलन भी बनाये रखते हैं, (५) इसमें कीटों के लारवों (डिंभक) के रूपान्तरण प्रक्रिया को विखण्डित कर नये रोगाणुओं के विकसित होने से रोकने, कीटों की प्रतिरोधी क्षमता का ह्लास करने, कीटों को विकसित तथा उसके भरण को प्रतिबन्धित करने की जबर्दस्त क्षमता है, (६) फसलों, पौधों तथा भण्डारित अन्न को नष्ट करने वाले मुख्यत: चार प्रकार के कीट होते हैं-फसलों को कुतर कर नष्ट करने वाले, डंठल एवं फलों, तथा परागकणों का रस चूसने वाले, बीज के अंकुरित होते ही जड़ से नष्ट करने वाले और भण्डारित अन्न को भीतर से खोखला करने वाले। दीमक, पतंग, भृंग, घून, शलभ, टिड्डी, तितली, मक्खी, लाही, इत्यादि लगभग १२० किस्म के कीड़ों को नियंत्रित करने में अकेले नीम सक्षम है, (७) इसकी सबसे बड़ी खूबी यह पायी गयी है कि यह कीटों को ही खाने वाले कीटों तथा मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों के प्रति हानि-रहित है। जलीय जीवों, जैसे-केकड़ा, झींगा, मछली, बेंगची आदि को भी यह बहुत नुकसान नहीं पहुँचाता। केकड़ा, झींगा तथा मछली में ऐसा कोई विष उत्पन्न नहीं करता, जो जीवन के लिए घातक हो।
नीम द्वारा नियंत्रित किए जा सकने वाले कुछ कीट:

नीम-उत्पादित कीटनाशक



नीम पर अनुसंधान के साथ-साथ उसके निषेचित रसायन यौगिकों को सर्वसुलभ कराने के लिए उनके व्यावसायिक उत्पादन भी विगत कुछ वर्षों में काफी तेजी से शुरू हो चुके हैं। इस व्यवसाय में वे देश काफी आगे निकल गये हैं, जिनके पास नीम वृक्ष पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। इनमें अमेरिका, जर्मनी, जापान, यूनाइटेड किंगडम आदि प्रमुख हैं। विलम्ब से ही सही, भारत में भी नीम पर अनुसंधान एवं उत्पादन कार्य अब तेजी से शुरू हो चुके हैं। भारतीय प्रतिष्ठानों द्वारा उत्पादित कीटनाशकों में कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- अजाडिट, गोदरेज अचूक, फिल्डमार्शल, जवान क्रॉप प्रोटेक्टर, मार्गोसाइड्स सी.के., मार्गोसाइड्स ओ.के., मास्किट, नीमहिट, नीमार्क, नीमसोल, नीमगोल्ड, नीमगार्ड, नीमरीच, नीमाटा, निम्बा, निम्बेसिडिन, निम्बसेल, फिटोबिन, रेप्लिन ५५५, वेपासाइड, बेलग्रो इत्यादि। अमेरिका में उत्पादित मार्गोसा-ओ, एजाटिन टरप्लैक्स एवं बायो इंसेक्टिसाइड एलाइन, आस्ट्रेलिया उत्पादित 'ग्रीनगोल्ड' तथा जापान उत्पादित 'नीम अजाल' भी बाजार में प्रचलित हैं। १९८७ में जर्मनी और म्यामार का एक संयुक्त उद्यम मांडले के पास स्थापित हुआ, जहाँ नीम से कीटनाशक एवं उर्वरक बनाया जाता है। भारत के इंसेक्टीसाइडल बोर्ड के अनुसार देश में १९९३ तक नीम आधारित ५ कीटनाश्यक उत्पादों का पंजीकरण हुआ था। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के आर्गेनिक रसायन विभाग ने १९६० में नीम से निषेचित द्रव्यों को 'बायोएक्टिव एग्रोकेमिकल' का एक समृद्ध स्रोत बताया था, तभी से भारत में नीम कीटनाशकों के अनुसंधान एवं उत्पादन में तेजी आयी।
वैज्ञानिकों का मत है कि कीटनाशकों के प्रयोग से शुरू में कुछ समय तक थोड़ी आर्थिक क्षति हो सकती है, लेकिन नियमित प्रयोग से कृषि एवं पर्यावरण में जैवकीय संतुलन कायम हो जाने पर कुछ समय बाद नीम कीटनाशक का असर भी पर्याप्त दिखेगा। इसलिए सुझाव यह दिया जा रहा है कि सिंथेटिक/रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग एकाएक बन्द न कर धीरे-धीरे दो-चार फसलों तक जाकर बन्द किया जाय और साथ ही साथ नीम कीटनाशकों का प्रयोग क्रमश: बढ़ाया जाय। खेतों में फसलों की विविधता न होने से भी उसमें लगने वाले कीड़ों की ताकत बढ़ जाती है। अत: सुझाव यह दिया जा रहा है कि नीम कीटनाशकों के उपयोग के साथ खेती में विविधता भी लायी जाय। फसल चक्र बना रहने से कीटों का प्रकोप कम होगा। नीम कीटनाशक यद्यपि व्यावसायिक स्तर की खेती के लिए रासायनिक कीटनाशकों की तरह तेज प्रभावकारी नहीं है, किन्तु विकसित देश अमेरिका वगैरह परिस्थितिकीय असंतुलन के खतरों को देखते हुए रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को अब अधिक बढ़ने देना नहीं चाहते, भले ही उत्पादन कुछ कम हो।

सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में नीम


भारतीय, मुख्यत: हिन्दू समाज में नीम वृक्ष सदियों से पूज्य रहा है। इसके गुणों, उपयोगिताओं तथा महत्ता को देखते हुए उससे सम्बन्धित अनेक प्रथाएँ और कथाएँ प्रचलित हुइंर्। उनमें अधिकांश का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा से रहा है। मुस्लिम हकीमों ने नीम को 'यवनप्रिया' (मुस्लिमों के लिए प्रिय) बताया है। आज से चार सौ वर्ष पहले अली गिलानी नाम के एक वैद्य/रचनाकार ने इसे 'शजर-ए-मुबारक' (दैवी वृक्ष) कहा। कहीं भी उग जाने की इसकी स्वतंत्र व सर्वव्यापी प्रकृति को देखकर मुस्लिम बादशाहों ने इसे 'आजाद-दरख्त-ए-हिन्द' नाम से सम्बोधित किया। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आज इसे एक 'आश्चर्यजनक वृक्ष' के रूप में देख रहे हैं।
भारत के विभिन्न ग्रामीण हिस्सों में नीम को शीतला माता के रूप में पूजा जाता है। नीम उष्ण जलवायु प्रिय है, किन्तु इसकी प्रकृति शीतल है। चेचक निकलने पर शरीर में काफी दाहकता/जलन उत्पन्न होती है। यह दाहकता नीम के प्रयोग से शान्त होती है। नीम में दाहकता-रोधी (Anti-inflammatory) गुण प्रचुर परिमाण में पाया जाता है। नीम के इस शीतल गुण के कारण ही उसे शीतला माता के रूप में पूजा गया, ऐसा जान पड़ता है। कथानकों में शीतला को वसन्ता भी कहा जाता है; नीम की कोमल पत्तियाँ वसन्त में ही निकलती हैं। इनका प्रतीक चिन्ह उड़द है, जो गठिया, स्नायविक व्यग्रता, कुल्हा-दर्द आदि में दिया जाता है। इसकी जड़ संवेदन मन्दक है, जिसे हड्डियों के दर्द में दिया जाता है।
दक्षिण भारत के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में नीम और पीपल की साथ-साथ पूजा की जाती है। माना जाता है कि नीम स्त्री रूप और पीपल पुरूष रूप है। शिव मन्दिरों में धूम-धाम से इनकी शादी भी की जाती है। वैदिक साहित्य में पीपल को अग्नि रूप माना गया है। अग्नि रूप सूर्य का है। अत: सूर्य का प्रतिनिधि पीपल है। नीम का तासीर उष्ण है, किन्तु प्रभाव शीतल है। स्त्रियाँ भी एक ओर उष्ण, दूसरी ओर मधुर होती हैं। इसलिए पीपल एवं नीम का पुरूष एवं स्त्री रूप इंगित है। लेकिन दोनों का अस्तित्वगत लक्ष्य एक ही है। सूर्य भी संक्रामक रोग-नाशक है और नीम भी सभी प्रकार के रोगकारक कीटों का नाशक है। पीपल भी भारी मात्रा में प्राण वायु आक्सीजन को संचरित करता है और नीम भी तीव्र आक्सीकारक है। इसलिए समान गुणधर्मी होने के कारण ये दोनों वृक्ष साथ-साथ पूजे जाते हैं।
उत्तर भारत में ज्येष्ठ मास में औरतें अपने पति की दीर्घायु कामना के साथ पीपल एवं नीम की साथ-साथ पूजा करती हैं। इसका अभिप्राय यही है कि उसका पति रोग-शोक मुक्त, स्वस्थ और दीर्घजीवी रहे। लोक-मान्यता में पीपल शिव का और नीम शीतला का प्रतीक है। शिव शान्त प्रकृति के हैं, गरल तक पी जाने वाले। वे स्वयं विष पीकर दूसरे को अमृत प्रदान करते हैं; नीम भी कार्बनडाईआक्साइड और सल्फरडाईआक्साइड का तीव्र शोषक है और अमृत समान पवित्रता एवं शीतलता का स्रावक है। कथाओं में शीतला को शिव की सहायिका बताया गया है। इस तरह शिव रूप पीपल की शीतला रूप नीम सहायिका है, दोनों अर्द्धांग है और परस्पर पूर्णता को प्राप्त कर मानव जीवन का कल्याण करते हैं।
भारत में कहीं-कहीं पीपल की जगह बट को नीम के पति के रूप में अंगीकार कर पूजने की प्रथा है। 'जनसत्ता' (१.२.९८) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार ३० जनवरी १९९८ को केरल में कोच्चि से करीब ३० किलोमीटर दूर युवात्तुपुझा के पास त्रिकालतुर स्थित श्री रामास्वामी मंदिर में बट वृक्ष को वर और नीम वृक्ष को बधू के रूप में मानकर पूरे वैदिक विधि-विधान से उनका विवाह किया गया। ३० अप्रैल १९९० को एक १२०० वर्ष पुराने बट वृक्ष की जगह एक नया बट वृक्ष लगाया गया था। पुराना वृक्ष २७ जून १९९८ को उखड़ गया तो उसका सोलहों शृंगार कर मंदिर परिसर में ही पूरे विधान के साथ उसकी अन्त्येष्ठि की गई और ३० अप्रैल १९९८ को साढ़े सात वर्ष पूर्व लगाये गये उपरोक्त बट वृक्ष एवं चार वर्ष पूर्व लगाये गये नीम वृक्ष को परिणय-सूत्र में आबद्ध किया गया। उस समय ५ बाघों की बारात भी निकाली गयी थी।
दक्षिण भारत में नीम की देवी 'अरूलमिगू मरियम्मा' की पूजा की जाती है। इस देवी को रोग-मुक्त करने वाली माना जाता है। इनके नाम पर एक मन्दिर भी निर्मित है, जो तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली से १५ किलोमीटर दूर समयपुरम में स्थित है। अप्रैल में जब नीम वृक्ष में नवीन कोपलों के साथ सुगन्धित फूल निकल आते हैं, तब इस मन्दिर में १३ दिन तक एक 'चित्रकार' नाम का महोत्सव आयोजित होता है। इस अवसर पर हजारों भक्त मन्दिर की ओर जाते हैं और देवी से प्रार्थना करते हैं कि उसे वह रोग-मुक्त कर दे या वर्ष भर निरोग रखे। पिछले वर्ष प्रार्थना के बाद यदि वह रोगमुक्त हो गया रहता है, तो मरियम्मा को धन्यवाद देना नहीं भूलता। भक्तगण अपने साथ नीम की पत्ती और फूल लेकर आते हैं। कई भक्त मुण्डन कराकर उस पर पिसी हुई नीम पत्ती लेप करके आते हैं। कई भक्त तो नुकीले लोहे से अपना अंग भी छेद कर आते हैं और प्रार्थना के बाद उस लोहे को निकाल कर घाव पर पिसा हुआ नीम लेप करते हैं। सम्भवत: यह प्रदर्शन नीम के प्रभावों को बताने के लिए किया जाता है, हालाँकि इसमें कुछ अतिवादिता भी हैं। डेकन (दक्षिणी) क्षेत्रों में नीम की देवी को 'वेपा मरम' कहा जाता है। 'वेपा' नीम का ही पर्यायवाची नाम है और मरम से ही 'मरियम' बना है, जिसका अर्थ देवी है।
छोटानागपुर के कुछ आदिवासी चुड़ैल का स्थान नीम वृक्ष मानते हैं। कुछ आदिवासी समुदायों में किसी को सर्प के डंसने पर रोगी को नीम की पत्तियों से पूरी तरह ढँक कर हनुमान मन्दिर में लाने और मंत्र पढ़े जाने की प्रथा है।
उड़ीसा में पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ जी तथा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सिर्फ नीम के तने की बनायी जाती हैं। इन मूर्तियों के लिए नीम वृक्ष का चयन भी बड़े विधि-विधान से किया जाता है। उड़ीसा में नीम वृक्ष को 'दारू' कहा जाता है, सम्भवत: यह आयुर्वेद के 'द्राक्षा' (नीम रस) का ही तद्भव रूप है। मूर्तियों के लिए नीम वृक्ष के चयन के पीछे मूल कारण यही है कि उसकी लकड़ी मजबूत होती है, उसमें दीमक नहीं लगते और वह शुद्ध एवं पवित्र होती है। देवी-देवताओं की पूजा के समय पूजाघर के चारों ओर नीम पत्तों का वन्दनवार लगाया जाता है। मूर्ति को नीम पत्तों की माला पहनायी जाती है।
सऊदी अरब स्थित मुस्लिम समुदाय के पवित्र स्थल मक्का में, जहाँ लाखों यात्री प्रतिवर्ष हज के लिए जाते हैं, अभी हाल के दशक में ही पचास हजार नीम वृक्ष करीब दस वर्ग किलोमीटर में लगाये गये हैं। धार्मिक मकसद पवित्रता ही है, किन्तु भौतिक अर्थ गर्मी के दिनों में उस खुले रेगिस्तानी क्षेत्र में यात्रियों को गर्मी, लू एवं धूल-धक्कड़ से बचाना है। नीम पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से सर्वोत्तम वृक्ष माना गया है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में लोग ज्यादातर नीम वृक्ष की छाया ही पसन्द करते हैं। अरब में गर्मी के दिनों में ५० डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान पहुँच जाता है। नीम में ५५ डिग्री से भी अधिक तापमान झेलने की क्षमता है।
कई हिन्दू व गैर-हिन्दू परिवारों में प्रसूता स्त्री के घर के दरवाजे पर नीम के पत्ते और गो-मूत्र रखे जाने की प्रथा है, ताकि दुष्ट आत्माएँ घर में प्रवेश न करें। दुष्ट आत्माओं से तात्पर्य संक्रामक वायरस ही हैं, जो नीम तथा गो-मूत्र से विकर्षित होते हैं। चेचक होने पर रोगी को नीम पत्ती पर सुलाया जाता है और घर के दरवाजे पर नीम का वन्दनवार लटकाया जाता है। इसका अर्थ रोगी को संक्रामक कीटाणुओं से सुरक्षित करना ही है। रोगी को नीम पत्तों के चंवर से हवा दी जाती है। कई जगह नई दुल्हन को नीम के जल से स्नान कराकर घर में प्रवेश दिया जाता है।
वाराह पुराण (१७२.३९) में कहा गया है- जो कोई एक पीपल, एक नीम, एक बड़, दस फूलों के पौधे या लताएँ, दो अनार, दो नारंगी और पाँच आम के वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाता -


अश्वस्थमेकं पिचुमिन्दमेकं न्याग्रोधमेकं दशपुष्पजाती:।
द्वे द्वे तथा दाडिममातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।।

यहाँ वृक्षों के साथ मनुष्य के धर्म-अधर्म की मान्यताएँ भी जुड़ी रही हैं। एक परम्परावादी हिन्दू परिवार के आँगन में तुलसी का पौधा रहता है और बाहर दरवाजे पर नीम का। वाराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता (अध्याय-५४) में दकार्गल विज्ञान (हाईड्रोलॉजी) के अन्तर्गत ऐसे कई वृक्षों के नाम दिये हैं, जिनके द्वारा भूमि जल का ज्ञान होता है। उसमें नीम के अतिरिक्त अर्जुन, पलाश, बेल, श्योनाक, सप्तपर्ण, कदम्ब, नारियल, पिण्डार, शिरीष, अशोक, कण्टकारी, शमी, पीपल आदि लगभग २०० वृक्षों का उल्लेख है। वाराहमिहिर ने घर के समीप अशोक, पुन्नाग, शिरीष एवं प्रियंगु के साथ नीम वृक्ष लगाने की भी अभिशंसा की है। पद्म पुराण (सृष्टि खण्ड-२८/२३-३१) में कहा गया है कि- निम्ब प्ररोहण से सूर्य प्रसन्न होता है। आयुर्वेद में नीम को सर्वोत्तम वायु प्रदूषण नाशक और सर्वरोगों को हरने वाला बताया गया है। नीम पर सूर्य का निवास होने के एक कथानक के साथ निम्बार्क सम्प्रदाय ही चल पड़ा। 'निम्बार्क' का अर्थ है निम्ब (नीम) वृक्ष पर सूर्य - 'निम्बे अर्क: निम्बार्क:'। आयुर्वेद में नीम को सभी रोगों को हरने वाला- 'सर्वरोगहरो निम्ब:' कहा गया है।
नीम को साधुता और दयालुता का भी प्रतीक माना जाता है। बुद्ध की जातक कथाओं में इस आशय की एक कथा मिलती है। उन दिनों चोरों को नीम के डाल के खूंटे से त्रास दिया जाता था और नीम के वृक्ष पर लटकाया जाता था। एक दिन एक चोर एकान्त में खड़े एक नीम पेड़ के नीचे आकर सो गया। पास ही में एक पीपल भी था। नीम देवता ने पीपल देवता से कहा- मैं इस चोर को यहाँ से भगाऊँगा, नहीं तो इसके पकड़े जाने पर मेरा बहुत अनिष्ट होगा। पीपल ने पूछा- तुम्हारा क्या अनिष्ट होगा ? नीम ने कहा- तू मेरे और चोर के भेद को नहीं जानता। राजपुरूष गाँव में डाका डालने वाले चोर को नीम वृक्ष पर ही त्रास देंगे। मेरे मन में यही आशंका थी। इस कथानक का तात्पर्य यही है कि जिस तरह एक साधु पुरूष अपने साथ-साथ शरणागत की भी रक्षा करता है, उसी तरह एक नीम भी अपनी रक्षा के साथ-साथ दूसरों की भी रक्षा करता है। एक अन्य जातक कथा में एक क्रोधी राजकुमार को उपदेश करते हुए बोधिसत्त्व ने कहा है- जिस तरह नीम की तिक्तता के कारण आपने उसे पसन्द नहीं किया, उसी तरह आपके क्रोधी व्यवहार को जनता भी पसन्द नहीं करेगी। अत: इस स्वभाव को आप त्याग दें। उत्तरी भारत के गाँवों में क्रोधी व्यवहार वालों के लिए ही कहा गया है- 'एक तो करेला तीता, दूजे चढ़े नीम'।
एक लोक प्रचलित कथा है कि एक वैद्य ने दूसरे वैद्य के ज्ञान का थाह लेने के लिए, जो सौ कोस दूर था, एक स्वस्थ युवक को माध्यम बनाया। उसे कहा गया कि उक्त वैद्य को दुआ-सलाम कह आवे, किन्तु रास्ते में वह इमली के पेड़ के नीचे ही सोया करे। युवक ने वैसा ही किया। किन्तु गन्तव्य तक पहुँचते-पहुँचते उसके शरीर में तमाम फोड़े-फुन्सी निकल आये। दूसरे वैद्य ने उस युवक को वापस करते हुए कहा- मेरा भी दुआ-सलाम बोल देना, किन्तु रास्ते में सिर्फ नीम वृक्ष के नीचे ही सोना। युवक ने वैसा ही किया। गन्तव्य तक वापस आते-आते उसके सभी रोग दूर हो गये थे। पहला वैद्य समझ गया कि दूसरा भी उससे कम नहीं। इस कथानक में भी नीम की महत्ता बतायी गयी है।
उत्तर प्रदेश में नीम से सम्बन्धित कई लोक-गीत प्रचलित हैं, जैसे-


कवनी उमरिया साधु निबिया लगावेन, कवनी उमरिया विदेसवा गये हो राम।
खेलत कूदत बहुअरि निबिया लगाये, रेखिया भिनत गै विदेसवा हो राम ।


फरिगै निबिया लहसि गये डरिया, तबहू न आये मोर विदेसिया हो राम।।

एक युवती का पति घर पर नीम का पेड़ लगाकर परदेश चला गया। ज्यों-ज्यों वृक्ष बढ़ता है, त्यों-त्यों युवती की विरह-वेदना भी बढ़ती जाती है। एक गुजराती लोकगीत की पंक्ति है- 'कड़वा लीमडानी एक डाल मीठी रे, म्हारो घणी रंगीलो'- अर्थात, जिसका पति परदेश से लौट आया हो, उसके लिए कड़वी नीम की डाल भी मीठी हो जाती है। देहातों में शुभकामना व्यक्त करते हुए कहा जाता है- 'उसी प्रकार बढ़ो, जैसे नीम बढ़ता है'। देहातों में एक और महत्त्वपूर्ण कहावत प्रचलित है कि भाई चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, फिर भी बहन की रक्षा अवश्य करेगा और नीम चाहे कितनी भी कड़वी हो, फिर भी उसकी छाँह शीतल ही होगी- भईया अति कड़ुवाहट, तबो दहिन बाँह हो। निबिया अति कड़ुवाहट, तबो शीतल छाँह हो।
अवधी में औरतों का एक हिडोला गीत है-


बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटहु, निमिया चिरैया बसेर।
बाबा बिटियउ क जिनि केउ दुख देउ, बिटिया चिरैया की नाई।।



बाबा सब रे चिरैया उड़ि जइहें, रहि जइहे निमिया अकेलि।
बाबा सब रे बिटिउआ जइहें सासुर, रहि जइहें माई अकेलि।।

इस गीत को महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी बार-बार सुनते और हर बार आँसू बहाते थे। यहाँ नीम को माँ के रूप में और लड़कियों को चिड़ियों के रूप में दर्शाया गया है। जिस प्रकार एक माँ के बिना उसके सन्तान आश्रयहीन व अनाथ हो जाते हैं, उसी तरह वृक्ष के बिना पक्षी भी अनाथ व आश्रयहीन हो जाते हैं। मानव के लिए नीम का महत्व माता के समान है।
श्रावण मास में भोजपुरी क्षेत्र की ग्रामीण औरतें 'मइया' (शीतला माता) की पूजा करती हैं। उस वक्त गाये जाने वाले गीत की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -


निमिया के डाली मइया डालेली झुलुअवा कि झुलि-झुलि ना।
मइया गावेली गीतिया कि झुली झुली ना।

हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार नये वर्ष में प्रतिपदा के दिन से दस दिन तक नीम की पत्तियाँ काली मिर्च के साथ पीस कर पीने या सिर्फ नीम के टूसे चबाने की प्रथा है। इसके पीछे मूल कारण नीम का औषधीय प्रभाव है, जो साल भर तक विभिन्न रोगों से मुक्त और रक्त को शुद्ध रखता है। मालवा (मध्य प्रदेश) में प्रतिपदा के दिन कढ़ी में नीम की पत्ती डाली जाती है। पुरनपोली के साथ खाने के लिए नीम की चटनी भी बनायी जाती है। देशी कहावत है- 'हर्रे गुण बत्तीस, नीम गुण छत्तीस'। किस महीने में क्या खाना चाहिए, इसे ग्रामीण लोगों ने अपने अनुभवों के आधार पर इस प्रकार बताया है-


सावन हर्रे भादों चीत (चिरैता), क्वार गुड़ तू खाओ मीत।
कार्तिक मूली अगहन तेल, पूस दूध से करो तू मेल।



माघ मास घी खीचड़ खाय, फाल्गुन उठ के प्रात नहाय।
चैत्र नीम बैसाख में तेल, ज्येष्ठ सयन आसाढ़ में बेल।।

भारतीय जीवन-दर्शन में सम्पूर्ण वनस्पति जगत अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं। आदिकाल से ही इनके साथ मनुष्य के गहरे रिश्ते जुड़े रहे हैं। उन्हीं के आधार पर संस्कृति और सभ्यता के क्रमिक सोपान विकसित हुए। सदियों तक भारत की अधिकांश भूमि वनों से आच्छादित रही, उनके बीच रहकर मनुष्य प्रकृति के रोम-रोम तक संचरित हुआ; उनके गुण, महत्व और उपयोगिताओं को समझा और उन्हें अपना हितैषी समझकर उनका पूजन किया। भारतीय चिकित्सा पद्धति के विकास का मूल वस्तुत: वनवासी जीवन ही है। यहाँ कोई भी वृक्ष या नदी, पर्वत, पशु, पक्षी ऐसा नहीं, जिनके लिए एक देवता परिकल्पित न हो। सभी में कुछ न कुछ देने के भाव हैं, इसलिए वे सभी देवता हैं। यहाँ भू-देवता, ग्राम-देवता, वन-देवता, पवन-देवता, जल-देवता आदि के रूप में सम्पूर्ण प्रकृति की पूजी की गयी। भारतीय ऋषियों ने आर्य सन्तानों को यही शिक्षा दी की उन सबके प्रति कृतज्ञ बनो, उनकी अभ्यर्थना करो, जिन्होंने तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया है। इसी शिक्षा संस्कार की वजह से यहाँ प्रकति के सभी उपादानों में देवत्व का दर्शन किया गया। मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व ही प्रकृति की देन है, उसके निर्माण व विकास में प्रकृति के कण-कण का योगदान है। यदि मनुष्य प्रकृति से विलग होना चाहे, तो यह सम्भव नहीं; प्रकृति का विरोध करे तो यह उसका स्वयं के प्रति विद्रोह होगा। धरती से आकाश तक सम्पूर्ण सृष्टि एक पालने की तरह है, जिसमें मनुष्य सुखपूर्वक खेलता है। यहाँ धरती को माँ और आकाश को पिता कहा गया- 'तन्माता: पृथ्वी, तत्पिता द्यौ'। अब कोई अपने माता-पिता का ही विरोध करे तो वह आश्रयहीन एवं अनाथ तो होगा ही। आज वनों का विनाश और प्रकृति का निर्ममतापूर्ण दोहन कर मनुष्य आश्रयहीन और अनाथ सा होते जा रहा है। उसके शिक्षा और संस्कार भी विकृत एवं विद्रूप होते जा रहे हैं।

गर्भ-निरोधक रूप में नीम

संतान-वृद्धि के साथ समस्याएँ भी बढ़ती हैं, इसे हजारों वर्ष पूर्व ऋग्वैदिक काल में भी महसूस किया गया था और आज भी गम्भीरता से महसूस किया जा रहा है। ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं - 'बहुप्रजा निर्झृतिमा विशेष:' (१.१६४.३३)- अर्थात् बहुत सन्तान वालों को बहुत कष्ट होता है। इसलिए नववधू को उनका उपदेश है-'सना अत्र युवतय: सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्तवाणी' (३.१.६) अर्थात् - सप्तपदी (विवाह) की हुई युवा पत्नी एक ही गर्भ धारण करे। परिवार नियोजन सम्बन्धी ये विचार उस समय के हैं, जब आर्यों में पुत्रवान होने की कामना प्राय: एक सामाजिक प्रथा का रूप ले चुकी थी और दस-दस पुत्रों तक की कामना की जाती थी (ऋ १०.८५.४५)। विगत चार-पाँच हजार वर्षों के काल प्रवाह में भारत की जनसंख्या में यद्यपि ज्वार-भाटे की तरह अनेक उतार-चढ़ाव आये हैं और यह देश अनेक युद्ध, अकाल, महामारी तथा विभिन्न आपदाओं का शिकार हुआ है, जिसमें जीवन के अनेक बीज नष्ट हुए हैं, फिर भी 'एकोऽहं बहुस्याम प्रजायेय'- मैं एक हूँ अनेक सन्तानों से घिर जाऊँ-की नैसर्गिक कामना के साथ इस देवधरा पर स्वर्ग का वितान तानने के उद्देश्य से अवतरित मानवों में अपनी वंश-वृद्धि की लालसा एवं उत्साह में प्राय: कभी कमी नहीं आई। लेकिन ऐसा लगता है कि इस वंश-वृद्धि के संदर्भ में हमेशा और व्यापक स्तर पर सात्विक, सोद्देश्य एवं विवेकयुक्त कामना नहीं की गयी। ज्यादातर असंयमित, अविवेकपूर्ण या अवैध कामनाएँ ही की गयीं, जिसके परिणामस्वरूप तमाम ऐसी सन्तानों की भी भीड़ इकट्ठी हो गयी, जिसकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अधिकारों के प्रश्नों का हल निकलने की न तो आज ही कोई सम्भावना दिख रही है और न निकट भविष्य में।
मानव समुदाय अपने असंयमित एवं अविवेकपूर्ण कामनाओं पर नियंत्रण पाने में नाकाम रहा, अत: वह अनपेक्षित सन्तान वृद्धि को रोकने के लिए नये-नये तरकीबों को इजाद करने में लगा, जिनमें कुछ वैध समझे गये, तो कुछ अवैध। प्राचीन यूनान में जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कई अमानवीय उपक्रम भी किये जाते थे। यूनानी दार्शनिक अरस्तु के समय में गर्भपात को भी उचित समझा जाता था, बशर्ते गर्भस्थ पिण्ड में चेतना व प्राण का संचार न हुआ हो। उस समय जनसंख्या-नियंत्रण के लिए समलिंगी प्रथा भी प्रचलित थी। यूनानी लोग बाल-वध और जंगलों में बच्चों को छोड़ देने को भी बुरा नहीं मानते थे। इस तरह की प्रवृत्तियाँ विश्व के अन्य देशों में आज भी पायी जाती हैं; वर्तमान भारत में भी ऐसी घटनाएँ अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। गर्भपात तो आम बात है। भ्रूण-हत्या के मामलों में भी भारी इजाफा हुआ है, जो अवैध है। नैतिक जीवन मूल्यों व मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाली इन प्रवृत्तियों को कभी सामाजिक मान्यता नहीं मिली। भारत में प्राचीन काल से ही पारिवारिक जीवन में संयम-नियम पर विशेष जोर दिया जाता रहा है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान व टेक्नॉलॉजी ने परिवार-नियोजन या जनसंख्या-नियंत्रण के लिए अनेक तरह के सिन्थेटिक साधन विकसित किये हैं, जिनमें स्त्री-पुरूष द्वारा धारण किये जाने वाले निरोध, स्पंज, लूप, इंजेक्शन तथा खाने की गोलियाँ, आपरेशन द्वारा नशबन्दी आदि प्रमुख है। चूँकि ये सभी साधन कृत्रिम एवं अप्राकृतिक ही हैं, अत: इनका स्वास्थ्य एवं नैतिक व सामाजिक जीवन-मूल्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है। इन साधनों के प्रयोग से तमाम महिलाओं की जिन्दगी तबाह हुई है, अनेक मौतें भी हुई हैं और इनके खिलाफ विश्व की तमाम महिला संगठनों ने समय-समय पर आवाज भी उठाई है।
सरकार अपने परिवार-नियोजन कार्यक्रम के तहत जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कटिबद्ध है, दूसरी ओर इसकी आड़ में सिन्थेटिक गर्भ-निरोधक उत्पादक कम्पनियाँ दिनोदिन मालामाल हो रही हैं। लेकिन समस्या यह है कि इन कृत्रिम संसाधनों के व्यापक प्रचार-प्रसार और स्वास्थ्य एवं धन की भारी कीमत चुकाने के बावजूद जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार अभी थमी नहीं है। इन साधनों के उपयोग से यौन-विकृतियों और व्यभिचारों में तेज वृद्धि हुई है। परन्तु विकल्प क्या है, जिससे स्वास्थ्य और संस्कार भी विकृत न हों और अनपेक्षित जनसंख्या वृद्धि को भी रोका जा सके? नैतिक धरातल पर इस सवाल का उत्तर तो सिर्फ भारतीय आध्यात्म के पास है, लेकिन तकनीकी रूप से बहुत हद तक सुरक्षित साधन वनस्पति जगत से ही प्राप्त हैं, जो सदियों से भारतीय आयुर्वेद के संरक्षण में घरेलू स्तर पर प्रयोग में आते रहे हैं। दुनियाँ के वैज्ञानिकों का ध्यान इधर इन प्राकृतिक साधनों की ओर तेजी से गया है। इनमें 'नीम' इस समय व्यापक चर्चा में है।
गर्भ-निरोधक (contraceptive) रूप में नीम का तेल, उसके तने की छाल एवं लकड़ी के धुएँ का प्रयोग भारत एवं पड़ोसी देशों में सदियों से होता रहा है। भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान ने नीम के विभिन्न भागों में शुक्रनाशी (Anti-fertility) गुणों की प्रायोगिक खोज काफी पहले कर ली थी। इधर विश्व के कई देशों में भी आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा नीम के उपरोक्त घरेलू एवं आयुर्वेदीय मान्यताओं की पुष्टि हुई है। नीदरलैण्ड में किये गये प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि नीम तेल एक विष-रहित, शुक्राणुनाशक तथा संभागोपरान्त गर्भ-निरोधक है। इसके पत्ते में भी प्रजनन-रोधी हरित तत्व पाये जाते हैं। इसके तेल में शुक्राणुओं को गतिहीन करने की क्षमता प्रबल है। यह हार्मोन में हस्तक्षेप कर प्रजनन को रोकता है और प्रतिरक्षक के रूप में काम करता है। गर्भाशय के मुख पर इसके प्रयोग से लम्बे समय तक गर्भाधान से बचा जा सकता है।
दिल्ली स्थित 'राष्ट्रीय रोग-प्रतिरोध संस्थान' ने नीम तेल से 'प्रनीम' नामक एक शुक्राणुनाशक तत्व खोजा है, जिसे गर्भ-निरोधक रूप में प्रचलित अन्य रासायनिक गोलियों, कैप्सूलों तथा इंजेक्शनों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली, सुरक्षित एवं पार्श्व-प्रभाव रहित तथा काफी सस्ता बताया जा रहा है। कानपुर की एक कम्पनी ने नीम तेल से 'सेन्सेल' नामक एक तरल पदार्थ तैयार किया है, जिसे संभोग से पूर्व जनन-अंगों में लेप किया जाता है। इसे वर्ण (घाव) को ठीक करने वाला तथा एन्टीसेप्टिक के रूप में भी प्रभावकारी माना जा रहा है। 'भारतीय डिफेन्स इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजी एण्ड अप्लायड साइन्सेज' के वैज्ञानिकों ने नीम तेल से 'डी.के.-१' तथा 'डी.एन.एम.-५' नामक तत्व निषेचित किया है, जिन्हें विश्वसनीय गर्भ-निरोधक बताया जा रहा है। इसी संस्थान के वैज्ञानिकों ने 'डी.एन.एम.-७' नामक एक और तत्व भी निषेचित किया है, जिसे गर्भपात कराने में सक्षम माना जा रहा है। इसे एड्स जैसे रोग में भी प्रभावकारी पाया गया है।
नीम में एन्टीवायरल तथा एन्टीबैक्टेरियल गुण होने के कारण भी इसके प्रयोग से प्रजनन अंगों में किसी तरह के रोग या विकृति उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं रहती। पूरा नीम वृक्ष एन्टीवायोटिक गुणों से भरा है और उसके तेल अथवा छाल या पत्तों का रस सुजाक और संभोगोपरान्त होने वाले सूजन, दर्द, रक्त-स्राव, प्रजनन अंगों में क्षत आदि के रोकथाम में प्रयुक्त होता है। शरीर में किसी तरह की हानि न पहँचाने के कारण ही नीम को संस्कृत में 'अरिष्ठ' कहा गया है। नीम एक जबरदस्त एन्टीसेप्टिक भी है, जो कटे-जले में काम आता है।
'वनौषधि चन्द्रोदय' नामक आयुर्वेद ग्रन्थ के अनुसार नीम या कुनैन के तेल सहवास से पूर्व स्त्री के जरायुपिंड (योनि) के अन्दर रूई या पतले कपड़े के सहारे लगाने से गर्भ नहीं ठहरता। शुक्राणु तुरन्त मर जाते हैं। सम्भोग के तुरन्त बाद नीम पत्तों या नीम छाल के उबले जल से योनि मार्ग को धो देने से भी शुक्राणु नष्ट होते हैं। आयुर्वेद के एक अन्य मत के अनुसार एक तोला नीम गोंद (लासा) के चूर्ण को आधा पाव पानी में गलाकर कपड़े से छान लें, उसमें एक हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा साफ मलमल का कपड़ा तर करके सुखा लें। जब कपड़ा सूख जाय, तब उसे कैंची से छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें और शीशी में रख लें। सम्भोग से पहले एक टुकड़ा स्त्री के गर्भ-मुख पर रख दें। सहवास के बाद उसे निकाल कर फेंक दें। इस प्रयोग से विचित्र स्फूर्ति होते देखी गयी है, जिससे गर्भ नहीं ठहरता।
गुजरात के आदिवासियों के यहाँ गर्भ-निरोध के लिए २०० ग्राम नीम का छाल २ लीटर पानी में रात्रि में भिंगोकर सुबह उसे छानकर पीने की प्रथा है, जिससे पुरूष को बन्ध्यता प्राप्त होती है। गर्भ-निरोध के लिए वहाँ स्त्री योनि-मुख पर नीम की लकड़ी का धुआँ देने की भी प्रथा है। इस प्रयोग का उल्लेख आयुर्वेद ग्रन्थ 'योगरत्नाकर' में भी हुआ है-


घूमिते योनि रघ्रेतु निम्ब काष्टैश्च युक्तित:।
ऋत्वन्ते रमते या स्त्री न सा गर्भमवाप्नुयात।।

कामसूत्र के 'कुटनीयोगतन्त्र' में नीम तेल और सेंधा नमक मिलाकर रूई के साथ योनि में रखने से गर्भ-निरोध होने की बात कही गयी है। दक्षिण-पश्चिम मेडागास्कर की औरतें गर्भ-निरोध के लिए नीम की पत्तियाँ चबाती हैं। इसके विपरीत अफ्रीकी देश गाम्बिया और घाना की औरतें गर्भपात रोकने के लिए गर्भधारण से दो-तीन महीने आगे तक नीम छाल का काढ़ा पीती हैं। आयुर्वेद मत में सन्तान के अनिच्छुक व्यक्ति यदि लगातार कई महीनों तक नीम की पत्तियों का सेवन कर ले, तो उनकी प्रजनन क्षमता स्वत: नष्ट हो सकती है। साधु-सन्यासी लोग अपनी कामशक्ति को नियन्त्रित करने के लिए नीम पत्तियों का विशेष सेवन करते हैं। नीम के पत्तों में जहाँ दाहकता शान्त करने के गुण हैं, वहीं इसके तेल की तासीर उत्तेजक होता है।

रासायनिक कीटनाशकों का दुष्प्रभाव और नीम

आधुनिक कृषि टेक्नालॉजी के विकास के साथ सन् १९६० के आस-पास भारत में एक नई हरित क्रान्ति योजना का सूत्रपात हुआ, जिसका मुख्य लक्ष्य था- अधिकाधिक खाद्यान्न उत्पादन। इसके लिए उपज देने वाले संकर प्रजाति के बीजों व पौधों, भरपुर सिंचाई के लिए नहर व ट्यूबवेल्स, मोटर-चालित शक्तिशाली यंत्र-उपकरण और तेज असर डालने वाले रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों का उपयोग शुरू हुआ। परिणाम आशा के अनुरूप निकला। जितनी भूमि में पहले लाखों टन खाद्यान्न उत्पादित होते थे, उतनी ही भूमि में अब करोड़ों टन उत्पादित होने लगे। हाँलाकि हरित क्रान्ति के विगत तीन-चार दशकों में देश की आबादी भी बढ़कर लगभग दुगुनी हो गयी और सम्पूर्ण आबादी के लिए यद्यपि आज भी पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध नहीं है, फिर भी इस मामले में देश ने बहुत कुछ आत्मनिर्भरता अवश्य हासिल कर ली।
लेकिन नयी कृषि टेक्नालॉजी, जो अपने सम्पूर्ण ढांचे में एक तरह से कृत्रिम संसाधनों पर आधारित है, खाद्यान्न उत्पादन के मामले में अल्पकालिक प्रभाव वाली और कृषि पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के मामले में प्राय: दीर्घकालिक दुष्प्रभाव डालने वाली सिद्ध हुई। इनमें सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का पड़ा, जिनके कारण भूमि, जल, वायु, खाद्य-पेय आदि सब प्रदूषित हुए और बड़े पैमाने पर मानव एवं मानवेतर जीवन के लिए खतरा उपस्थित हुआ है। इन सिंथेटिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के बेहिसाब प्रयोग के परिणामस्वरूप सिर्फ भारत में ही अब तब लाखों हेक्टेयर उपजाऊ कृषि-भूमि अम्लीय एवं रेहिले में परिवर्तित होकर बंजर बन गई है। जनसंख्या में हो रही तेज वृद्धि और उसके अनुरूप खाद्यान्न की बढ़ती माँग को देखते हुए ये स्थितियाँ वास्तव में गंभीर चिंता का विषय हैं। सर्वेक्षणों और प्राप्त आंकड़ों के अनुसार १९५०-५१ में फसलों पर लगने वाले कीड़ों तथा रोगाणुओं से बचाव के लिए जहाँ १०० टन कीटनाशकों का प्रयोग हुआ था, वहीं १९९०-९१ तक आते-आते (प्राय: उतनी ही भूमि में) उसकी मात्रा लगभग ८६ हजार टन तक पहुँच गयी। पहले कीटनाशकों का जहाँ एक-दो बार छिड़काव से ही काम चल जाता था, वहाँ अब कई बार प्रयोग करने पड़ रहे हैं।
समस्या यह है कि एक ओर बिना कीटनाशकों के प्रयोग के पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादित नहीं हो सकता, दूसरी ओर उसके पड़ने वाले पार्श्व प्रभावों से भी अपने को नहीं बचाया जा सकता। फसलों पर लगने वाले कीटों के प्रकार व प्रभाव इतने ज्यादा हैं कि मनुष्य अपने किये प्रयत्नों का पर्याप्त फल स्वयं नहीं पा सकता। दुनियाँ में लगभग एक हजार किस्म के ऐसे कीटों की पहचान की गई है, जिनसे फसलों, भण्डारित अन्न तथा अन्य घरेलू वस्तुओं को नुकसान होता रहा है। इनमें तीन-चार सौ किस्म के छोटे-बड़े कीड़े विशेष रूप से नुकसानदायक हैं। गंभीर बात यह भी है कि कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर प्रयोग के बावजूद भारत में प्रतिवर्ष अरबों रुपये के फसल एवं भण्डारित अन्न कीटों द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। परिस्थितिक परीक्षणों से विदित है कि जिन कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग हुआ, वे कुछ वर्षों तक लुप्त रहने के बाद न सिर्फ पुनर्जीवित हो उठे, बल्कि उनकी प्रतिरोधी क्षमता में भी अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गयी। इसी के साथ नये किस्म के कीट व रोगाणु भी विकसित हुये हैं। परिणामस्वरूप कीटनाशकों की मात्रा में बढ़ोत्तरी तो होती गयी, लेकिन लक्ष्य कीटों का सफाया नहीं हो सका। स्पष्ट है कि रासायनिक कीटनाशक कीट-नियंत्रण में अब उतने प्रभावकारी नहीं रह गये हैं, जितने पिछले दशकों में देखे गये।
दूसरी गंभीर समस्या कीटनाशकों का जन-जीवन पर पड़ने वाले घातक प्रभाव की है। प्रकाशित रपटों के अनुसार कीटनाशकों के प्रभाव से हर साल लाखों लोग बीमार पड़ते हैं, जिनमें से अधिकतर मौत के शिकार हो जाते हैं। अशिक्षा, सुरक्षित उपकरणों के अभाव तथा कीटनाशकों की विषाक्तता के कारण छिड़काव करने वाले किसान-मजदूर कैंसर, अंधेपन, अर्थराइटिस, उल्टी, दमा, श्वांस, ट्यूमर आदि बीमारियों से ग्रस्त होते पाये गये हैं। इन रसायनों के प्रयोग से भूमिगत जल के प्रदूषित होने, भूमि में नाइट्रीकरण की प्रक्रिया क्रमश: मंद पड़ने से उपजाऊ मिट्टी के रेहिले या अम्लीय में बदल जाने, प्रकृति में स्वत: चलने वाली जैविक नियंत्रण प्रक्रिया के नष्ट होने, आदि के संकट तो उपस्थित हैं ही, उपचारित बीजों को खाने से तमाम दुर्लभ प्रजाति के पक्षी भी समाप्त हुये हैं। अलक्ष्य कीटों, जैसे मधुमक्खी आदि के लिए भी इनसे खतरे उत्पन्न हुए हैं। सर्वेक्षणों में पाया गया कि नाशी कीटों द्वारा फसलों का नुकसान अब भी उतना ही हो रहा है, जितना कीटनाशकों के बहुत प्रचलन में न आने से पहले हुआ करता था।
विडम्बना यह भी है कि बाजार में उपलब्ध ज्यादातर कीटनाशक अत्यन्त विषैले होने के कारण खुद उत्पादक देशों में ही काफी अर्से से पूरी तरह प्रतिबन्धित हैं, लेकिन भारतीय किसानों द्वारा आज भी धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं। बताया जाता है कि एल्ड्रिन, क्लोरडान, हेप्टाक्लोर, डिएल्ड्रीन, लिंडेन, मिथाइल, पैराथियान, व्यूटाक्योर, पैरावेट, डी.वी.सी.पी., मैलाथियान, डी.डी.टी., बी.एच.सी. इत्यादि पर अमेरिका में पूरी तरह पाबंदी है, जबकि इनमें से कई पर 'हानिरहित' का लेबल लगाकर विज्ञापनों के जोर पर इन्हें भारत में खूब प्रचारित किया गया है। बाजार में ऐसे तमाम नकली एवं एक्सपायर्ड कीटनाशकों की कालाबाजारी भी फैली है, जिनसे फसलों की सुरक्षा तो नहीं हो पाती, जीवन अवश्य सुरक्षित हो जाते हैं। १९७६ में लखीमपुर खीरी (उ.प्र.) में गैमेक्सीन (डी.डी.टी.) के प्रयोग से जहरीले बने अनाज को खाने के कारण ४ व्यक्ति तथा ५० से अधिक जानवर मारे गये थे। १२६ गाँवों के २५० से अधिक व्यक्ति लूले हो गये थे। १९७५ में कर्टानक में भी कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से हजारों लोग जोड़ों व पुट्ठों में दर्द के शिकार हुए थे। १९५८ में दूसरे देश से मँगाये गये अनाज में इतनी विषाक्तता थी कि उसको खाने से करीब १०० लोग मारे गये थे, जबकि उस अनाज पर ''हानिरहित'' का लेबल लगा था।

फसल एवं अन्न की सुरक्षा के उपाय
फसलों तथा भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए नीम का विभिन्न रूपों में प्रयोग होता रहा है और वह आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी समर्थित है। वे प्रयोग कुछ इस प्रकार हैं-
१. जूट के बोरे में अन्न भण्डारित करने के लिए १० किलो जल में ८० ग्राम नीम तेल मिलाकर अथवा १० किलो जल में एक किलो नीम पत्ती उबालकर उसमें बोरे को रात भर भिंगोकर रखा जाता है और सुखाकर उसमें अन्न भर दिया जाता है। बोरे में छांव में सूखी नीम पत्ती भी अन्न के साथ विभिन्न तहों में रखने से उसमें कीड़े नहीं लगते। इस प्रक्रिया से आठ महीने तक अन्न या आलू वगैरह सुरक्षित रखा जा सकता है।
२. भारत के विभिन्न प्रान्तों के अतिरिक्त पड़ोसी देशों में भी डेहरी एवं बखार में अन्न रखते समय नीम का ५-७ इंच मोटा तह बिछाने या उसके भीतरी दिवाल में पीसी हुई नीम पत्ती, मिट्टी में सान कर लेप करने का प्रचलन रहा है। कहीं-कहीं भूसे या पुआल में नीम जल अथवा नीम तेल छिड़कर भी डेहरी, बखार, बोरा या बड़े टोकरे आदि में अन्न रखने की प्रथा रही है। एक क्विंटल अन्न में डेढ़ से दो किलो सूखी नीम की पत्ती का प्रयोग पर्याप्त होता है।
३. नीम तेल तथा नीम पाउडर भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए सर्वाधिक सक्षम पाये गये हैं। एक किलो दलहन में २ या ४ ग्राम तक तेल मिलाया जा सकता है। तिक्तता को धोकर अलग किया जा सकता है अथवा ८-१० महीने बाद वह स्वत: समाप्त हो जाती है। सोखने वाले अन्न, जैसे -आटा, मैदा, बेसन आदि में इसे नहीं मिलायी जाती। ऐसे अन्न में नीम पत्ती मिलायी जाते है। फलीदार अन्न या मक्का में १०० ग्राम से ३०० ग्राम तक प्रति क्विंटल नीम तेल का मिश्रण बिना किसी हानि के १३५ दिन तक प्रभावकारी पाया गया है। एक क्विंटल गेहूँ में एक किलो और धान में प्रति क्विंटल आधा किलो से एक किलो तक नीम तेल मिलाना पर्याप्त होता है।
४. भण्डारित अन्न को कीड़ों से बचाव के लिए नीम बीज, गिरी या खली का पाउडर अथवा चूर्ण भी मिलाया जाता है। घुन, पतिंगा, भृंग आदि को नियन्त्रित करने के लिए एक क्विंटल अनाज में डेढ़-दो किलो नीम पाउडर या चूर्ण मिलाना पर्याप्त एवं प्रभावकारी पाया गया है। फसलों के तनाबेधक कीटों को मारने में भी यह पाउडर कारगर है। इसे छिड़कने से पहले १:१ या १:२ में नीम पाउडर के साथ लकड़ी के बुरादे, धान की भूसी, या सूखी मिट्टी मिलायी जाती है। इसे फसलों के ऊपर पत्तियों के बीच गोल चक्कर (होर्ल) में डालना ज्यादा असरदायक होता है। नये पत्तों को खाते ही कीट मर जाते हैं। एक हेक्टेयर फसल में २५ किलो तक नीम पाउडर की जरूरत पड़ती है।
५. फसलों को चूसने वाले कीटों को मारने के लिए नीम तेल का छिड़काव ज्यादा प्रभावकारी होता है। इससे फफुंद एवं बैक्टेरिया नष्ट होते हैं। एक एकड़ फसल में ५ से १० लीटर नीम तेल का स्प्रेयर द्वारा हल्के दबाव पर छिड़काव किया जाता है। जब अधिक कीट न लगे हों, तब १० ग्राम डिटरजेंट साबुन तथा १० से २० ग्राम नीम तेल एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने का सुझाव दिया जाता है। एक हेक्टेयर के लिए ५ लीटर नीम तेल, ५० लीटर पानी एवं ५० ग्राम डिटरजेंट मिलाकर घोल तैयार किया जा सकता है।
६. जुताई के समय खेत में नीम खली प्रति हेक्टेयर २५० किलो से २००० किलो तक (फसल एवं मिट्टी के प्रकार के अनुरूप) मिला देने से फसल को कुतर कर खाने वाले कीटों सहित अन्य तरह के कीटों का भी रोकथाम होता है। इससे खेतों में नाइट्रोजन का संतुलन बना रहता है, जो फसल के लिए अत्यावश्यक है। नीम में नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। कुछ स्थितियों में नीम खली के साथ पुआल की राख मिलाकर डालना भी अच्छा माना जाता है।
७. नीम पाउडर या चूर्ण अथवा पत्ती का जलीय निषेचन भी फसलों पर छिड़का जाता है। वैज्ञानिकों का अभिमत है कि उचित रीति से बनाया गया घरेलू जलीय निषेचित कीटनाशक भी उतना ही कारगर है, जितना कारखानों में उत्पादित कीटनाशक। नीम बीज, गिरी या खली को ठंढे या हल्के गर्म जल में ४-५ घंटे तक छोड़ दें, फिर छान लें। बीज की क्वालिटी और कीटों के प्रभाव के हिसाब से एक लीटर जल में १० से ६० ग्राम तक ये पदार्थ डाले जाते हैं। नीम पत्तियों का जलीय निषेचन भी छिड़का जाता है। एक लीटर जल में ३५० ग्राम पत्ती के हिसाब से फसल की जरूरतों के अनुरूप रात भर भिगोकर रखना और छान कर छिड़काव करना चाहिए।
८. यद्यपि नीम सामग्री, रासायनिक कीटनाशकों की तरह तेज प्रभावकारी नहीं होती, किन्तु उसकी विशेषता यह है कि वह भण्डारित बीज के अंकुरण की क्षमता को नष्ट नहीं करती है। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि धान में २.५ प्रतिशत नीम गिरी का पाउडर या २ प्रतिशत नीम खली का चूर्ण मिलाकर रखा जाय, तो उसको बोने पर जड़ एवं तना में काफी विकास तथा उत्पादन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है। मक्का बीज को १००:१ में नीम तेल में भिगोकर तथा गेहूँ बीज में २००:१ में नीम पाउडर मिलाकर रखने से घुन आदि से ३०० दिन तक अच्छी तरह बचाया जा सकता है।



कीटनाशक बनाने की घरेलू विधि
१. नीम के बीज, गिरी या खली तीनों से कीटनाशक पाउडर बनाये जाते हैं। इनको चूर्ण बनाकर एवं पीसकर पाउडर बनाया जाता है। इसका उपयोग खरीफ एवं रबी दोनों फसलों में तनाबेधक कीटों को मारने के लिए किया जाता है। इसे पत्तियों के बीच गोल चक्कर (whorl) में डालना चाहिए।
२. नीम का जलीय निषेचन बनाने के लिए नीम बीज, गिरी या खली को ठंढ़ा या हल्के गर्म जल में डालकर कम से कम ४-५ घंटे तक छोड़ दें, फिर छान लें। बीज की गुणवत्ता एवं कीटों के प्रभाव के अनुरूप १ लीटर जल में १० से ६० ग्राम तक बीज, गिरी या खली डालना चाहिए। इसे निम्नलिखित तालिका से भी समझ जा सकता है-
आधार सामग्री कीटों के कम प्रभाव में ग्राम/प्रतिलीटर जल कीटों के अधिक प्रभाव में ग्राम/प्रतिलीटर जल
नीम पाउडर १५ से ३० ग्राम / लीटर ४० से ६० ग्राम / लीटर
गिरी पाउडर १० से २० ग्राम / लीटर ३० से ४० ग्राम / लीटर
बीज खली पाउडर १५ से ३० ग्राम / लीटर ४० से ६० ग्राम / लीटर
गिरी खली पाउडर १० से २० ग्राम / लीटर ३० से ४० ग्राम / लीटर


केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान (राजमुंदरी) ने एक दूसरी विधि भी इजाद की है। १-२ किलो गिरी पाउडर पतले कपड़े में बांधकर १०० लीटर पानी में १५ मिनट तक छोड़ दें। इससे भी घोल तैयार हो जाता है। यह घोल खासकर free-feeding coleopterous और lepidopterous, leafminer एवं grasshoppers कीटों को नियंत्रित करने में अत्यन्त सक्षम व प्रभावकारी हैं।
३. वैज्ञानिकों का सुझाव है कि नीम बीज को छिलका सहित अच्छी तरह सुखाकर रखना चाहिए और जब जरूरत हो तभी उसका चूर्ण, पाउडर, तेल आदि बनाकर उपयोग में लाया जाना चाहिए। चूर्ण, पाउडर बनाकर अधिक समय तक रखने से आक्सीकारक क्रिया द्वारा उसकी कीटनाशी क्षमता कम हो जाती है। गरी या पाउडर में नमी भी लग जाने से नुकसान होता है। सूखे बीज को वातित (airated) पैकिंग (जूट के बोरे या टोकरी) में रखना चाहिए और उसे घर के छत में टांग देना चाहिए, जहाँ ताप अधिक और नमी कम होती है। प्लास्टिक के थैले में नीम बीज, गिरी या पाउडर का निर्वातित (vacume) पैकिंग कुछ महीनों तक अनुकूल वातावरण में सुरक्षित रह सकता है।
विकासशील या गरीब देशों में, विशेषकर भारत में जहाँ नीम वृक्ष बहुतायत में है, कृषकों को अपने फसलों तथा भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए नीम सामग्रियों का उपयोग अवश्य करना चाहिए। इसी के साथ हर किसान को अधिक से अधिक नीम वृक्ष लगाने पर भी ध्यान देना होगा, ताकि कीटनाशकों के मामले में आत्मनिर्भर बना जा सके और बाह्य कम्पनियों की पेटेन्ट चुनौतियों का भी सामना किया जा सके।

उर्वरक रूप में नीम-खली

१. सिंथेटिक रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पन्न कृषिक, पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संकटों को देखते हुए पूरी दुनियाँ में आज ऐसे कृषि-प्रबन्धन पर जोर दिया जा रहा है, जो शुद्ध खाद्यान्न दे, पर्यावरण प्रदूषित न करे, जीवन को क्षति न पहुँचावे, जिससे उत्पादन में कमी न हो, अनुपजाऊ भूमि का उपयोग हो सके, कृषि आधारित उद्यम एवं रोजगार की वृद्धि हो तथा खेती में विविधता आवे। ये सारी अपेक्षाएँ तभी पूरी हो सकती हैं, जब कार्बनिक खाद के स्रोतों का विकास हो, जैसे वानिकी, बागवानी, पशु (गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर आदि) का पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन, फसलों में विविधता आदि हो और कुदरती खादों का प्रयोग हो। नीम वृक्ष की इस पूरी समन्वित कृषि प्रबन्धन में आंशिक ही सही, किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कार्बनिक खाद का एक प्रमुख स्रोत है।
२. मिट्टी में सुधार के लिए नीम खली के प्रयोग पर इधर काफी गहन अनुसंधान हुए हैं। खेतों में इसका प्रयोग नाइट्रोजन के अभाव की पूर्ति और फसल के पोषण के लिए किया जाता है। यह प्राकृतिक खाद के रूप में बेमिशाल है। भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने, उसकी ताकत बनाये रखने में यह बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह बंजर भूमि को उर्वर बनाने में भी बहुत उपयोगी है। इसमें कैल्सियम खनिज उपलब्ध है,जो मिट्टी की क्षारीयता को बदलकर उपजाऊ बनाता है। बंजर तथा शुष्क भूमि में यह नमी भी लाता है।
३. नीम खली में अन्य खलियों की अपेक्षा सल्फर (१.०७ से १.३० प्रतिशत) अधिक होता है। यह एक शानदार उर्वरक एवं पोषक के रूप में काम करता है। सिर्फ आर्गेनिक नाईट्रोजन के रूप में ही नहीं, नाइट्रीकरण निरोधक (नाईट्रोजन नियामक) के रूप में भी यह काम करता है। फिलिपाइन्स के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा किये गये प्रयोग से पाया गया कि नीम खली को यूरिया के साथ धान के खेत में डाला जाय तो वह नाईट्रेजेनस (नेत्रजनीय) उर्वरक के रूप में काम करता है। यह जैविक कार्बनिक खाद का भरपूर स्रोत है। रेंड़ी खाद में जहाँ ४.३ प्रतिशत, महुआ में २.५ प्रतिशत तथा सूरजमुखी में ४.९ प्रतिशत नेत्रजन पाया जाता है, वहीं नीमखली में इसकी मात्रा ५.२ प्रतिशत होती है।
४. नीम खली के उपयोग से भूमि की मृदा (नमी) बनी रहती है, कीटों/दीमक तथा संक्रामक जीवाणुओं के प्रकोप को भी यह प्रतिबन्धित कर फसल को बचाता है। यह उन जैव कीटों की रक्षा एवं वृद्धि करता है, जो फसल के लिए उपयोगी हैं। इस खली द्वारा उत्पादित अन्न में भी कीट (घून आदि) लगने की संभावना बहुत कम होती है।
५. फलदार वृक्षों की वानिकी के समय उसके गड्ढों में नीम खली मिलाने से कीटों/दीमकों से वृक्ष की सुरक्षा होती है और उसका पोषण भी होता है। प्राकृतिक खाद की तरह पशुखाद से भी मिट्टी की नमी बनी रहती है, जो फसलों को सूखे से बचाता है। पशुपालन से उर्वरक के अतिरिक्त बायोगैस संयंत्र द्वारा उष्मा भी प्राप्त की जा सकती है।
६. प्राकृतिक उर्वरक (नीम खली आदि) अवक्रमण उत्सर्जन (Biodegradable) और जीवनाशी प्रबन्धन के लिए अच्छा स्रोत है, इसमें दुष्ट कीटों की प्रतिरोधी क्षमता को नष्ट करने की ताकत अधिक है। इसे मिट्टी में डालने से फसल पर कवक, निमिटेडो आदि का संक्रमण नहीं होता।
७. अंगूर की खेती करने वाले दक्षिण भारतीय कृषक नीम खली के विषय में कहते हैं-"We use it mainly to avoid termites and ants, further it boosts the yeild." नीम खली Farmyard Mannure से भी अधिक शक्तिशाली उर्वरक पाया गया है। खेतों में डालने पर यह मिट्टी को पोषण तो देता ही है, मिट्टी को कीड़ों, गोलकृमियों तथा फुंगियों से भी बचाता है।
८. नीम खली में उपलब्ध ट्राइटरपेन्स संघटन/यौगिक मिट्टी में नाइट्रीकारी जीवाणुओं (Nitrifying Bacteria) की सक्रियता को मंद करता है और डाले गये उर्वरकों से अधिक नाइट्रोजन उत्पन्न करता है। संवर्द्धित नीम खली ५६.५ प्रतिशत नाइट्रोजन ६० दिन में छोड़ता है। इसमें कार्बोहाइड्रेड २६.१ प्रतिशत एवं क्रूड प्रोटीन ३६ प्रतिशत पाया जाता है। यह धान, कपास तथा गन्ने की फसल के लिए विशेष उपयोगी है। इसे यूरिया एवं सुपर सल्फेट की थोड़ी मात्रा के साथ (लगभग ९:१ अनुपात में)मिलाकर खेत में डालने पर २५ से ५० प्रतिशत तक यूरिया की बचत करता है।
९. टमाटर के पौधों की जड़ों में बड़ी-बड़ी ग्रंथियां उत्पन्न हो जाती हैं और पत्ते सूखने लगते हैं। जड़ भी गलने लगता है। यह रोग जिस जीवाणु से होता है, उसे निमेटोड (गोलकृमि) कहते हैं। इसके रोकथाम के लिए अन्य उपायों के अतिरिक्त जुताई के समय प्रति एकड़ १० क्विंटल नीम खली डालने पर इस रोग के लगने की संभावना प्राय: समाप्त हो जाती है।
१०. उर्वरक खाद, जैसे यूरिया और अमोनियम मृदा में क्रिया करके एसिड उत्पन्न करते हैं। सोडियम नाइट्रेट के लम्बे समय तक उपयोग से मृदा क्षारीय बन जाती है, जिसका पौधों की वृद्धि एवं विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। नाइट्रेट की अधिक मात्रा जल में घुलकर अन्तत: जल-स्रोत में मिल जाती है, अत: पेय जल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक होने से उसका सेवन हानिकारक हो जाता है।
११. एक हेक्टेयर भूमि में कृषि के लिए कार्बनिक खाद हेतु ३ नीम का पेड़ और २ पशु (गाय, भैंस या बैल) के गोबर पर्याप्त हैं। इनसे खेत को सभी आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति हो सकती है।
१२. भूमि की गहरी जुताई, उसे धूप में कुछ दिन तक छोड़ देना, फसलों में हेर-फेर (क्योंकि हर कीट हर फसल पर नहीं लगते), परजीवी कीटों (जो दूसरे कीटों का भक्षण करते हैं) की रक्षा और कीट-भक्षी पक्षियों की रक्षा, उत्तम एवं सुरक्षित खेती के सूत्र हैं।
१३. एक ग्रामीण कहावत है-


वही किसानी में है पूरा जो छोड़े हड्डी का चूरा।
गोबर मैला नीम की खली इनसे खेती दूनी फली।


कार्बनिक एवं अकार्बनिक उर्वरक
फसलों के लिए जरूरी उपरोक्त तत्त्वों के दो स्रोत हैं- कार्बनिक (organic) खाद और अकार्बनिक (inorganic) खाद। कार्बनिक खाद, जिन्हें कम्पोस्ट खाद या प्राकृतिक खाद भी कहते हैं, के स्रोत वनस्पति जगत तथा जीवधारियों के अंग-अपशिष्ट, अर्थात् पेड़-पौधों के फल, बीज, पत्ते, बीजों के तेल एवं खली तथा मनुष्य एवं पशु-पक्षियों के मल-मूत्र, हड्डी, फसलों के डंठल, अन्न की भूसी, छिलका, बुहारन की राख इत्यादि हैं। अकार्बनिक खाद के स्रोत मुख्यत: खनिज पदार्थ एवं कृत्रिम साधन हैं।कार्बनिक एवं अकार्बनिक खाद के कुछ प्रमुख गुण-दोष इस प्रकार हैं -
१. कार्बनिक खाद फसलों पर जहाँ धीरे-धीरे असर डालता है, वहाँ अकार्बनिक खाद तेज असर डालता है।
२. कार्बनिक खाद का प्रभाव जहाँ दूसरे, तीसरे फसलों तक बना रहता है, वहाँ अकार्बनिक खाद का प्रभाव प्राय: पहली फसल तक (विशेषत: नाइट्रोजन का असर खत्म होने तक) रहता है।
३. कार्बनिक खाद से मिट्टी की प्रकृति एवं ताकत अच्छी बनी रहती है, वहाँ अकार्बनिक खाद के प्रयोग से मिट्टी की प्रकृति एवं ताकत धीरे-धीरे बिगड़ने व क्षीण होने लगती है। मिट्टी में अम्लीयता एवं क्षारीयता की मात्रा क्रमश: बढ़ने से भूमि की उर्वरता शक्ति के ह्लास के साथ ऊपज भी कम होने लगती है।
४. कार्बनिक खाद के प्रयोग से आंशिक उपयोगी तत्त्वों की पूर्ति स्वत: होती रहती है, जबकि अकार्बनिक खाद के प्रयोग करने पर इनकी अतिरिक्त पूर्ति करनी होती है।
५. जिस खेत में कार्बनिक खाद का प्रयोग होता है, उसकी वर्षा को धारण करने की क्षमता अधिक होती है, जबकि अकार्बनिक खाद के प्रयोग से मिट्टी की धारीय क्षमता कम होती है, जिसके कारण वर्षा जल बहुत कुछ प्रक्षालित होकर बह जाता है।
६. कार्बनिक खाद अधिक मात्रा में देने पड़ते हैं, लेकिन एक सीमा के बाद मात्रा नहीं बढ़ाने पर भी ऊपज का औसत उत्पादन बना रहता है, जबकि अकार्बनिक खाद की थोड़ी मात्रा से काम तो चल जाता है, लेकिन कुछ ही वर्षों बाद उसकी मात्रा न बढ़ायी जाय तो ऊपज घटने लगती है।
७. कार्बनिक खाद फसल बोने से पहले जुताई करते समय ही खेत में डाल दिया जाता है, इससे श्रम एवं समय की बचत होती है तथा फसलों का नुकसान कम होता है। अकार्बनिक खाद फसल बोते समय मिट्टी में या खड़ी फसल में ऊपर से छिड़ककर डाला जाता है। खड़ी फसल में अकार्बनिक खाद का प्रयोग करने से यदि खाद के अंश फसलों के गोलक (पत्तों के बीच वाला ऊपरी मुँह) में पड़ जाय तो वह नुकसान करता है, साथ ही खाद छीटने वाले व्यक्ति के पैर से कुचल कर बहुत से फसल नष्ट भी हो जाते हैं, अतिरिक्त श्रम भी करना पड़ता है। फसलों के बीच से गुजरने पर सही छिड़काव न होने से कहीं अधिक तो कहीं कम खाद की मात्रा पड़ती है। इससे खेत के विभिन्न हिस्सों में फसलों की ऊपज में अन्तर आ जाता है।
८. कार्बनिक खाद समेकित कृषि प्रबन्धन में निजी संसाधनों से सहज एवं कम मूल्य में या नि:शुल्क प्राप्त हो जाते हैं, जबकि अकार्बनिक खाद के लिए कारखानों व बाजारों पर निर्भर होना पड़ता है, साथ ही खाद की कभी-कभी अनुपलब्धता या ऊँची कीमत या व्यावसायियों की मुनाफाखोरी का भी शिकार होना पड़ता है।
९. कार्बनिक खाद का उपयोग किये जाने से उसके प्राप्त होने वाले स्रोतों, जैसे- बागवानी, पशुपालन, मछली पालन, मुर्गी पालन, रेशम कीट पालन, मधुमक्खी पालन और इन पर आधारित विभिन्न रोजगारों को भी बढ़ावा मिलता है, जिससे कृषि-जीवन में आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ भौगोलिक एवं पर्यावरणीय संतुलन भी बना रहता है। इसके विपरीत अकार्बनिक खाद के प्रयोग से उपरोक्त उद्यम-रोजगारों की कमी होती है, कृषक जीवन परावलम्बी बनता है, बेरोजगारी बढ़ती है और पर्यावरणीय असंतुलन भी उपस्थित होता है।
१०. कार्बनिक खाद के प्रयोग से अनुपजाऊ मिट्टी को भी उपजाऊ बनाया जा सकता है, जबकि अकार्बनिक खाद के कुछ वर्षों तक नियमित प्रयोग होते रहने से उपजाऊ मिट्टी भी अनुपजाऊ या बंजर हो जाती है।
११. कार्बनिक खाद मिट्टी एवं पर्यावरण में जैविकीय संतुलन कायम रखता है, कीटों की प्रतिरोधी क्षमता या उनकी प्रजाति में वृद्धि अथवा पुराने कीटों का पुनरुत्थान नहीं होने देता जबकि अकार्बनिक खाद में ये गुण नहीं होते। कार्बनिक खाद के उपयोग से फसल एवं पौधों के लिए आवश्यक जीवाणुओं की वृद्धि तथा उपयोगी कीटों-मधुमक्खी वगैरह को संरक्षण मिलता है, जबकि अकार्बनिक खाद उन्हें नष्ट करते हैं।
१२. कार्बनिक खाद से भूमिगत जल, मृदा, ऊपरी जल, वायु एवं उत्पादित पदार्थ प्रदूषित नहीं होते, बल्कि उसमें शुद्धता एवं पौष्टिकता आती है, जबकि अकार्बनिक खाद से सब कुछ प्रदूषित होता है, शुद्धता नष्ट होती है और पोषक तत्त्व की कमी होती है।
१३. कार्बनिक खाद का उपयोग बढ़ने से उन कल-कारखानों को स्थापित करने की आवश्यकता नहीं होगी, जिनमें अकार्बनिक खाद बनाये जाते हैं और जिनसे बड़े पैमाने पर निकलने वाले जहरीले धुएँ तथा अपशिष्ट पदार्थों (मलवों) के कारण दिन-प्रतिदिन पर्यावरण संकट बढ़ते जा रहे हैं और जिनसे तमाम लोग मौत के शिकार होते हैं।

Issues