मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

जीवनशैली को सर्वांगीण बनायें, प्रकृति को बचाएं

विकास की रफ्तार बहुत तेज हुई है उसका श्रेय विज्ञान को ही है। सृष्टि संतुलन की समस्या का श्रेय भी विकास की आंधी को ही है। असंतुलित विकास को एक नदी का प्रवाह मानें तो बाढ़ का खतरा हो रहा है। मानवीय मूल्य और पर्यावरण ये दोनों तटबंध टूट गये हैं। अब जल प्रवाह की रोकथाम करना संभव नहीं है। मानवीय मूल्यों के विकास और पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ जो विकास होता है, वह संतुलित विकास है। उससे महत्वकांक्षा अथवा आर्थिक स्पर्धा ने मानवीय मूल्यों का पर्यावरण दोनों की उपेक्षा की है फलतः सृष्टि संतुलन की समस्या उत्पन्न हूई है। विकास के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण सम्यक नहीं है। वह संवेग के अतिरेक से प्रभावित है। अप्रभावित चिंतन और अप्रभावित बुद्धि का निर्णय सही होता है। संवेग की अतिरेक दशा में चिंतन और बुद्धि दोनों निष्क्रिय हो जाते हैं। इस निष्क्रियता की भूमिका पर होने वाला विकास मानवीय सभ्यता और संस्कृति के लिए वरदान नहीं होता। औद्योगिक और आर्थिक विकास ने कुछ समस्यायें सुलझायी है।
आज रोटी, कपड़ा अधिकांश गरीबों की झोपड़ी तक पहुंच रहे हैं। मकान की समस्या अभी भी बनी हुई है। फिर भी यह करने में संकोच नही होगा - आर्थिक विकास ने अमीरी को बढ़ावा देने के साथ-साथ गरीबी को बढ़ावा दिया है। वर्तमान में संपत्ति और उपभोग के साधनों पर अल्पसंख्यक व्यक्तियों को अधिकार है। बहुसंख्यक लोग उस अधिकार से वंचित है। विकसित राष्ट्र जितनी साधन सामग्री का उपभोग कर रहे हैं, उससे न्यूनतर उपभोग सामग्री विकासशील राष्ट्रों के पास है और अविकसित राष्ट्रों के पास न्यूनतम। गरीबी की अनुभूति और उससे उत्पन्न असंतोष आज जितना जटिल है उतना अतीत में नहीं था। वह असंतोष प्रकृति के नियमों को भंग करने का हेतु बन रहा है। हर व्यक्ति येन केन प्रकरेण अमीर बनना चाहता है उस धन में जंगलों की कटाई हो सकती है फैक्ट्रियों का कचरा नदियों में प्रवाहित कर जल को दूषित किया जा सकता है और भूमि का मर्यादाहीन खनन किया जा सकता है और सब कुछ हो रहा है। हम संवेगातिरेक की समस्या को सुलझाये बिना अनैतिकता अथवा अप्रमाणिकता की समस्या को नहीं सुलझा सकती।
अनैतिकता की समस्या को सुलझाये बिना सृष्टि संतुलन और पर्यावरण की समस्या को नहीं सुलझा सकते। बढ़ती आबादी स्वयं एक समस्या है आदमी की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये बड़े उद्योगों की जरूरत है इसलिए विकास की सीमा को निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस तर्क के पीछे छिपी हुई सचाई को कोई व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। हम समस्या के दूसरे पक्ष पर विचार करे। लोभ एक तीव्र संवेग है। उसकी प्रेरणा ने विकास की अवधारणा को जो आधार दिया है उसे सीमित करना आवश्यक है। हमारा अभिमत है कि असंतुलित संवेग और असंतुलित विकास की अवस्था में प्रकृति के साथ जीने की कल्पना कठिन हो जाती है। आज का करणीय कार्य यह है कि हम लोभ के संवेग के साथ करुणा के संवेग को जागृत करें। लोभ के संवेग को नियंत्रित करने का शक्तिशाली अस्त्र करुणा, अहिंसा मैत्री है। महावीर ने कहा था छोटे से छोटा जीव के अस्तित्व को अस्वीकार मत करो और अपने अस्तित्व को भी अस्वीकार मत करो जो दूसरे जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह दूसरे जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।
नैतिक मूल्यों को ह्रास -
दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला ही प्रकृति के साथ जी सकता है कुछ चिंतकों का तर्क है बुद्धिमान मनुष्य प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता है, विकास के लिए वैसा करना जरूरी है। वह प्रकृति में होने वाली क्षति की पूर्ति करना भी जानता है इसलिए विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता है। उसकी कोई सीमा नहीं हो की जा सकती। यह चिंतन अर्थहीन नहीं है ऊर्जा का व्यय होता है तो उसके नये स्रोत खोजे जा सकते हैं जंगलो की कटाई होती है तो नये जंगल तैयार किये जा सकते हैं।
नई दिशा -
विश्वविद्यालय की शिक्षा ने बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक विकास के नए द्वार खोले हैं। हम इस युग के चिन्तन मंथन और सुविधा की प्रचुर सामग्री से संतुष्ट है इसलिए इस दिशा में निरंतर आगे बढ़ने की बात सोच रहे है। तनाव, भय, अपराध और मादक वस्तुओं के सेवन की प्रवृत्ति संकेत दे रही है कि मनुष्य के भीतर भयंकर असंतोष है और वह असंतोष मनुष्य को प्रकृति के साथ अन्याय करने के लिए विवश कर रहा है।
सुख की अवधारणा -
जब तक इन्द्रियजन सुख संवेदना के आधार पर चलने वाली जीवनशैली होगी तब तक हम प्रकृति के साथ जीने की बात संगोष्ठियां और संभाषणों में भले ही करें यथार्थ के धरातल को वह प्रभावित नहीं कर पायेगें। इन्द्रिय चेतना के स्तर से ऊपर उठकर चिंतन करने का अर्थ होगा सुख की अवधारणा में परिवर्तन।
मध्यम मार्ग - प्रकृति के साथ होने वाले व्यवहार में सब वैज्ञानिक और विचारक एक मत नहीं है। कुछ विचारकों का मत है - प्रकृति के प्रकोप को शांत करने की विधियां हमारे पास है इसलिए पर्यावरण प्रदूषण की विभिषिका विकास की यात्रा में बाधा नहीं बन सकती।

आपदाओं से बचाते है मैन्ग्रोव वन - डा. चन्द्रशीला गुप्ता

आम आदमी का मैन्ग्रोव शब्द से कोई खास परिचय नही होता है। यहां तक कि कुछ लोग शब्द का विश्लेषण ‘आम के पेड़ों का वन’ के रूप में कर लेते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि मैन्ग्रोव पुर्तगाली शब्द मैन्ग्यू अर्थात् कम विकसित या ठिगने बड़े पौधों का समूह से बना है। हिन्दी में हम इन्हें कच्छीय वनस्पति कहते हैं। ये विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियां हैं जो खारे पानी को सहन कर सकती है और समुद्री पानी में आंशिक रूप से डूब जाने पर भी जीवित रह सकती है। ये जंगल समुद्र तटों पर नदियों के मुहानों व ज्वार प्रभावित क्षेत्रों में पाये जाते हैं। समुद्री पानी के रासायनिक गुणधर्म काफी भिन्न होते हैं। इसमें लवण ज्यादा होते हैं और नाइट्रोजन की बेहद कमी होती है दरअसल नाइट्रोजन के बिना तो जीवन संभव नहीं है। मगर समुद्र में इसकी कमी नदियों द्वारा बहाकर लाए गए मृत जैविक पदार्थ पूरा करते है। यही वजह है कि नदी का मुहाना काफी उपजाऊ क्षेत्र होता है जबकि मुख्य भूमि से दूर समुद्री पानी काफी अनुत्पादक होता है जहां केवल कोरल जैसे स्वपोषी ही पनप सकते हैं। इन उपजाऊ क्षेत्रों में प्रकृति ने यहां की विशिष्ट परिस्थिति के साथ तालमेल बैठाकर अपने ही प्रकार की अनोखी वनस्पति मैन्ग्रोव को जन्म दिया।
मुर्गी पहले या अंडा?
मैन्ग्रोव वनस्पतियां समुद्र तट को आगे बढ़ाने की अदुभुत क्षमता रखती है लेकिन यह कहना कठिन है कि मलबा इनके कारण जमा हुआ या मलबे के कारण इन्होंने जड़ पकड़ना शुरू किया। प्रश्न कुछ ऐसा ही है कि पहले मुर्गी पैदा हुई या अण्डा? लेकिन फिर भी यह तथ्य है कि जब एक बार यह वनस्पति किसी स्थान पर विकसित हो जाती है तब नदियों द्वारा लाया गया मलबा वहां लगातार जमा होने लगता है। धीरे-धीरे वहां जमीन ऊपर उठने, लगती है, वनस्पतियां सक्रिय होने लगती है। समुद्र तट का यह भाग ठोस रूप धारण करने लगता है, एक अंतराल पश्चात यहां डेल्टाओं का उद्भव होता है। मैन्ग्रोव के तने के ऊपरी भाग से बहुत सारी जड़े निकलकर नीचे की ओर झुकते व फैलते हुए मलबे तक पहुंचकर जम जाती है। नई जड़ों का कुछ भाग मलबे या दलदल की सतह के बाहर होता है। इसमें मौजूद छिद्र श्वसन में मदद करते हैं। जड़ का मलबे के भीतर का हिस्सा मृदा बनाता जाता है और नई जड़ों से नए पेड़ों के तने उगते जाते हैं। इन पौधों में बीज अंकुरण के लिये बड़ी सुरक्षित विधि अपनाई गयी है। बीज गिरने से पहले ही अंकुरित होना शुरू हो जाता है। फायदा यह होता है कि दलदल में गिरने के साथ ही ये अपनी जड़े जमा लेते है। इसके अलावा बीज में गूदे की ज्यादा मात्रा होने से थोड़े भारी होते हैं और दलदल में गिरने पर भीतर गहराई में धंस जाते हैं।
लवण सहनशीलता -
मैन्ग्रोव के तने के ऊपरी भाग से बहुत सारी जड़े निकलकर नीचे की ओर झुकते व फैलते हुए मलबे तक पहुंचकर जम जाती है। नई जड़ों का कुछ भाग मलबे या दलदल की सतह के बाहर होता है। इसमें मौजूद छिद्र श्वसन में मदद करते हैं। जड़ का मलबे के भीतर का हिस्सा मृदा बनाता जाता है और नई जड़ों से नए पेड़ो के तने उगते जाते हैं। इन पौधों के बीज अंकुरण के लिये बड़ी सुरक्षित विधि अपनाई गयी है। बीज गिरने के पहले ही अंकुरित होना शुरू हो जाता है। फायदा यह होता है कि दलदल में गिरने के साथ ही ये अपनी जड़े जमा लेते है। इसके अलावा बीज में गूदे की ज्यादा मात्रा होने से थोड़े भारी होते हैं और दलदल में गिरने पर भीतर गहराई में धंस जाते हैं।
लवण सहनशीलता -
मैन्ग्रोव वनस्पतियों में लवण सहनशीलता का विशेष गुण होता है। समुद्र तट रेखा के नजदीक ज्वार का प्रभाव सबसे अधिक होता है और स्थलीय भाग की और बढ़ने पर धीरे-धीरे पानी या दलदल में नमक की मात्रा कम होती जाती है। इसलिये सबसे ज्यादा लवण सहृ पेड़ समुद्र तटीय रेखा पर पाए जाते है। फिर कम लवण सहृ पेड़ क्रमिक रूप से (नमक स्तर घटने के अनुसार) अलग-अलग समूह में रहते हैं। जहां से जमीन ऊपर उठना शुरू हो जाती है। यानी खारा पानी नीचे रह जाता है। वहां मैन्ग्रोव क्षेत्र समाप्त हो जाता है। मैन्ग्रोव वनों की बदौलत समुद्र तट आगे बढ़ना शुरू हो जाते है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ही प. बंगाल व बांग्लादेश के दक्षिण भू-भाग ने 5000 वर्ष पूर्व समुद्र से उभरना आरंभ करते हुए वर्तमान स्वरूप लिया है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार अपने प्रारंभिक चरण में बिहार की राजमहल पहाड़ियों से लेकर बांग्लादेश के दक्षिणी भू-भाग ने 5000 वर्ष पूर्व समुद्र से उभरना आरंभ करते हुए वर्तमान स्वरूप लिया है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार अपने प्रारंभिक चरण में बिहार की राजमहल पहाड़ियों से लेकर बांग्लादेश के सिल्हट क्षेत्र तक का इलाका ऊंची-नीची जमीन से जुड़ा एक समुद्री ताल था।
गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा भारी मात्रा में लाए गए मलबे के लगातार जमा होते रहने के कारण डेल्टाओं का निर्माण होना प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे मैन्ग्रोव वनस्पतियों के बनने से लैगून का भूमिकरण होता गया। यही नवनिर्मित भूमि सूखकर निवास योग्य हुई और गांव व शहर बसने लगे। यही वजह है कि इन क्षेत्रों में मनुष्य द्वारा स्थापित होने का इतिहास 1000 वर्षों से ज्यादा पुराना नहीं है। हमारा देश 3 दिशाओं से समुद्र से घिरा हुआ है और उसकी समुद्र तट रेखा पश्चिम में पाकिस्तानी सीमा से शुरू होकर गुजरात, कोंकण, मलाबार, कन्याकुमारी होते हुए ऊपर उठकर आंध्र प्रदेश व उड़ीसा से घूमती हुई बंगाल के सुन्दरवन पार करती हुई बांग्लादेश की सीमा में मिलने तक लगभग 5,500 कि.मी. लंबी है। इस संकरे पट्टीनुमा भाग में बालूघाट मडफ्लेटस उबड़-खाबड़ चट्टाने, कोरल रीफ व मैन्ग्रोव वन भरपूर है। इनमें जीवन के सर्वाधिक रूप दिखाई देते हैं। भारत व बांग्लादेश की सीमा पर गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहानों पर स्थित विश्व का सबसे बड़ा मैन्ग्रोव सुन्दरवन अद्वितीय है। यह लगभग 51,760 वर्ग कि.मी. क्षेत्र फैला हुआ है। भारत में इसका मात्र 4,226 वर्ग कि.मी. क्षेत्र है जहां विश्व के 60 प्रतिशत बाघ पाए जाते हैं। कभी अतीत में कोलकाता महानगरी भी सुन्दरवन का ही हिस्सा रही होगी। कुछ वर्ष पूर्व यहां मेट्रो रेल निर्माण कार्य के लिये भूमिगत खुदाई की गई तो मैन्ग्रोव वनस्पतियों के अवशेष पाए गए थे।
महत्वपूर्ण इकोसिस्टम -
मैन्ग्रोव वनों में विशेष प्रकार के प्राणी निवास करते है। सुन्दरवन में बाघ, हिरण, सुअर, बंदर, लंगूर, लोमड़ी, उदबिलाऊ, सांप, जंगलीबिल्ली, नेवले कई तरह के केकड़े व असंख्य कीड़े मकोड़े, पतंगे पाए जाते हैं। घड़ियाल व कछुए भी बहुतायत मिलते हैं। पक्षी मुख्यतः प्रवासी होते है जो ज्यादातर उत्तरी गोलार्ध की ठंड से बचने व प्रजनन के लिये यहां आते हैं। मैन्ग्रोव कई प्रकार की समुद्री मछलियों के अण्डे देने के क्षेत्र होते हैं। इन वनों में मौजूद वनस्पतियां, प्राणी, मृत व सड़े गले पदार्थ समुद्री जीवों के लिये भांति-भांति के भोजन उपलब्ध कराते हैं। इन प्राकृतिक आवासों में संसार की सबसे चिन्ताकर्षक समुद्री नर्सरी विद्यमान है। आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सादे पानी की मछलियां अपने प्रजनन के लिये डेल्टा क्षेत्र में आती है और शैशवकाल बिताने के पश्चात पुनः नदियों की ओर अग्रसर होकर विकास करती है। ये करीब 1600 कि.मी. यात्रा करती है। यहां मौजूद घड़ियाल व प्रवासी पक्षी भी अपने-अपने क्रिया कलापों से विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। नदियों द्वारा लाए गए मलबे में विद्यमान मृतजीवों का भोजन कर घड़ियाल इन क्षेत्रों में सफाईकर्मी की भूमिका निभाते है। साथ ही बड़ी परभक्षी मच्छलियों को खाकर मत्सियकी को संरक्षण देते हैं। मैन्ग्रोव का प्रत्येक आर्थिक महत्व भी कम नहीं है। जलाऊ लकड़ी का स्रोत होने के अलावा यहां पाए जाने वाले विशिष्ट पेड़ पौधों के माध्यम से शाकाहारी प्राणी अपना आहार (फूल, फल, शहद, साग, चारा आदि) प्राप्त करते हैं। तदोपरांत परभक्षी प्राणियों का शिकार बन प्राकृतिक भोजन श्रृंखला को गतिमान करते हैं। इन जंगलों में अनेक जड़ी बूटियां भी पाई जाती है। यहां पाया जाने वाला रैनिन काफी उपयोगी है। स्पष्ट है कि मैन्ग्रोव वन विश्व में सबसे उत्पादक इकोसिस्टम का अंग है। जो समुद्री भूभाग को उपजाऊ क्षेत्र बनाए रखकर मछलियों व अन्य समुद्री जीवों के विकास में मददगार होने के साथ-साथ समुद्र तटों में मिट्टी के कटाव व इनलैंड सूखे रोकने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
बढ़ रहा है तूफानों का देश
सुन्दरवन जैसे विशाल वेटलैंड प्रदेश पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में भूमिका निभाते हैं जिसका मानव पर कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ता है लेकिन आर्थिक विकास की अंधाधुंध दौड़ में वनों की कटाई के कारण मैन्ग्रोव प्रदेश की इकोलौजी छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण आन्ध्र, कच्छ, उड़ीसा, बांग्लादेश जैसे क्षेत्रों के प्रति वर्ष समुद्री तूफानों की मार झेलनी पड़ रही है। भारतीय तटरेखा के समीप बंगाल की खाड़ी में प्रतिवर्ष 8-10 चक्रवात आ रहे है जबकि अरब सागर तट पर एक चक्रवात आता है। हमारा पूर्वी तट व बांग्लादेश इन चक्रवाती तूफानों के प्रति संवेदनशील है। सन् 1999 में आए सुपर चक्रवात ने उड़ीसा के तटीय इलाकों में जो तबाही फैलाई थी उससे आज तक उड़ीसा उभर नहीं पाया है। सुन्दरवन को मानव अतिक्रमण के फलस्वरूप काफी नुकसान पहुंच चुका है, खासकर बांग्लादेश वाले भाग में। यही वजह है कि वहां आए दिन समुद्री तूफानी की मार पड़ती है। भारतीय सुन्दरवन भी सिकुड़ता जा रहा है लेकिन बांग्लादेश के मुकाबले यह मानव अतिक्रमण (आबादी 32 लाख) के बावजूद अभी भी सुरक्षित है। विशेषज्ञों का कहना है कि चक्रवाती तूफानों का वेग यहां 60 प्रतिशत कम हो जाता है। यही वजह है कि चक्रवाती तूफानों से प. बंगाल में कम क्षति होती है। मैन्ग्रोव वनों की इकोलौजीगत संवेदनशीलता को देखते हुए भारत सरकार ने 1950 के दशक से ही इनके संरक्षण कार्यक्रमों की ओर ध्यान देना आरंभ कर दिया है। सन् 1972 में सुन्दरवन को बाघ रिजर्व व सन् 1985 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया है ताकि भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर स्थित बाघ को समुचित संरक्षण प्रदान किया जा सके। राष्ट्र संघ ने 1977 में सुन्दरवन को विश्व संपत्ति घोषित किया है। फिर पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 के अंतर्गत मैन्ग्रोव को संवेदनशील तंत्र घोषित कर इनके दुरुपयोग व अप्राकृतिक दोहर पर रोक लगाई है। यदि मैन्ग्रोव योग्य क्षेत्रों में इन्हें बहाल किया जाए तो समुद्री चक्रवाती तूफानों के साथ-साथ त्सूनामी जैसी आपदाओं की विकरालता को भी कम किया जा सकेगा। अतः मैन्ग्रोव वनों के संरक्षण व प्रसार के लिये मुम्बई हाईकोर्ट ने भी आवश्यक निर्देश दिए हैं। दून दर्पण (देहरादून), 21 Jan. 2006

हिमयुग की आहट है ग्लोबल वार्मिंग

क्या आपने कभी सोचा है कि यदि पृथ्वी का अंत हुआ तो किस तरह होगा? एक झटके में या फिर आहिस्ता-आहिस्ता? यदि कोई बड़ा एस्ट्रायड या धूमकेतु पृथ्वी से टकराता है तो एक झटके में ही पृथ्वी से जीवन का समूल नाश हो जाएगा और यदि तुरंत रोकथाम के उपाय नहीं किए गए तथा ग्लोबल वार्मिंग इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो पृथ्वी से मानव समेत जीवों की सभी प्रजातियां आहिस्ता-आहिस्ता विलुप्त हो जाएगी। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे ने मुख्यतः 1990 के अंतिम महीनों के बाद से दुनियाभर का ध्यान आकर्षित किया है। आइए जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग है क्या?
पृथ्वी पर जीवन को विकसित करने और इसे फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने का काम वायुमंडल करता है। हमारे वायुमंडल में मुख्यतः आक्सीजन और कार्बन डाई आक्साइड जैसी अन्य ‘ग्रीन हाउस’ गैसें विद्यमान हें जो धरती से परावर्तित सूर्य की किरणों के कुछ अंश सोखकर पृथ्वी को गर्म रखती है और अतिरिक्त गर्मी को अंतरिक्ष में विलीन हो जाने देती है। वर्तमान में ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ जाने के कारण यह प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा गया है। ग्रीन हाउस गैसें यदि अत्यधिक बढ़ जाएंगी तो न केवल पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश ही पहुंचना कम होता जाएगा, बल्कि पृथ्वी से परावर्तित सूर्य की किरणें और अतिरिक्त गर्मी भी वायुमंडल से बाहर नहीं जा सकेगी। इस स्थिति में पहले तो पृथ्वी का तापमान बढ़ता चला जाएगा और उसके बाद सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में न मिलने के कारण पृथ्वी तेजी के साथ ठंडी होने लगेगी और हिमयुग आ जाएगा। यह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें मानव, पेड़-पौधों व जानवरों समेत जीवन का प्रत्येक स्वरूप विलुप्त हो जाएगा। पृथ्वी का जैविक इतिहास बताता है कि बीते 50 करोड़ वर्षों में छह ऐसी घटनाएं घट चुकी है जब पृथ्वी से ज्यादातर जीव प्रजातियां लुप्त हो गई। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हम अब सातवीं बार पृथ्वी से जीवन विलुप्त होने के डर के साए में जी रहे है।
फिल्म ‘द डे आफ्टर टुमारो’ में निर्देशक रोनाल्ड एमेरिक ने ग्लोबल वार्मिंग के खतरनाक स्वरूप से लेकर हिमयुग के आगमन तक की स्थिति दर्शाई है। दूसरी ओर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर शीर्ष मौसम व भू विज्ञानियों और राजनीतिज्ञों के बीच एक अलग बहस चल रही है और इस बहस का कारण है पेटागन की एक रिपोर्ट। यह रिपोर्ट अमेरिका के समक्ष उत्पन्न होने वाले दीर्घकालीन खतरों को भांपने व उनका आंकलन करने का काम करने वाले पेंटागन के एक वरिष्ठ सदस्य एंड्रयू. डब्लू. मार्शल के दो सलाहकारों द्वारा ‘एन एबरप्ट क्लाईमेंट चेंज सिनारियो एंड इट्स इम्प्लीकेशंस फार यूनाईटेड स्टेट्स नेशनल सिक्योरिटी’ शीर्षक से लिखी गई है। मार्शल का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से संबंधित यह रिपोर्ट उन्होंने पिछले वर्ष देश के शीर्ष वैज्ञानिक सलाहकार केंद्र नेशनल एकेडमीज आफ साइंस के इसी विषय पर एक अध्ययन को पढ़ने के बाद तैयार करवाई है। नेशनल एकेडमीज आफ साइंस ने अपने अध्ययन में ग्लोबल वार्मिंग के प्रति स्पष्ट चेतावनी देते हुए इसे मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए सबसे गंभीर खतरे के रूप में चिन्हित किया है। पेंटागन की यह अतिगोपनीय रिपोर्ट मीडिया में कैसे लीक हो गई? यह एक अलग रहस्य है, बहरहाल ब्रिटेन का एक समाचारपत्र ‘द आब्जर्वर’ इस पर टिप्पणी करते हुए लिखता है, ‘पेंटागन ने इस रिपोर्ट द्वारा बुश से कहा है कि वातावरण में हो रहे बदलाव अंततः हमें नष्ट कर देंगे।’ पेंटागन की गोपनीय रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के तौर पर प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही शहरों में अराजकता और नाभिकीय युद्ध तक की स्थिति उत्पन्न होने की आशंका जताई गई है। उधर कुछ पर्यावरणविदों और विज्ञानियों का मानना है कि पैंटागन की इस रिपोर्ट और रोनाल्ड एमेरिक की फिल्म से आम लोगों में ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए जागरूकता बढ़ेगी। वहीं कुछ विज्ञानियों का मानना है कि इस रिपोर्ट से और कुछ हो या न हो विकासशील देशों के विरुद्ध बुश प्रशासन के हाथ ग्लोबल वार्मिंग नाम का एक नया हथियार जरूर लग गया है। पेंटागन के श्री मार्शल के लिए एक लाख डालर की ग्रांट के बदले यह रिपोर्ट लिखने वाले उन दो सलाहकारों में से एक पीटर श्वार्टज का कहना है कि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में जानबूझकर सबसे बदतर स्थितियों का जिक्र किया है। वह कहते हैं कि मेरा लक्ष्य सैन्य रणनीतिज्ञों को उस परिस्थिति के बारे में सोचने के लिए मजबूर करना था जिसकी कल्पना करना भी कठिन है। रोनाल्ड एमरिक की फिल्म में तो इससे भी कहीं आगे की स्थिति दिखाई गई है। फिल्म डे आफ्टर टुमारो का मुख्य पात्र एक पेलियो क्लाईमेटोलाजिस्ट (भूतकाल में मौसम में हुए बदलावों का अध्ययन करने वाला विज्ञानी) प्रो. एड्रियन हाल है जिनकी मुख्य चिंता ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न होने वाली बदतर स्थितियों से इस दुनिया को और अपने बेटे सैम को बचाना है।

खतरनाक दौर में जलवायु - भारत डोगरा

पिछले दिनों भारत के अनेक शहरों से सर्दी के पुराने रिकार्ड टूटने के समाचार मिले। उधर, चीन ने 20 वर्षों में अपनी सबसे भीषण सर्दी का मौसम भी इस वर्ष ही घोषित किया। कुल मिलाकर एशिया के एक बड़े भाग से भीषण शीत-लहर के समाचार मिले हैं पर इसमें एक अलग ही सच्चाई है कि आस्ट्रेलिया में 2005-06 को पिछले 95 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया। पिछले 105 वर्षों में सबसे कम वर्षा आस्ट्रेलिया में इस वर्ष हुई। विश्व स्तर पर वर्ष 2005 को पिछले 145 वर्षों में दूसरा सबसे गर्म वर्ष माना गया। इस वर्ष आकर्टिक सागर में जितनी बर्फ पिघली उतनी पहले कभी नहीं। इतना ही नहीं, इस वर्ष अटलांटिक महासागर में 27 ट्रापिकल तूफान दर्ज किए गए, जो अपने में एक रिकार्ड है।
वर्ष 2005 में मौसम में जुड़े हादसों के बारे में अनुमान लगाया गया कि इनमें 200 अरब डालर की हानि हुई, हालांकि कुछ लोग इससे अधिक क्षति भी बता रहे हैं। दूसरे शब्दों में हर तरह का प्रतिवादी मौसम वर्ष 2005 में तथा इस वर्ष के आरंभिक दिनों में देखा गया। यह प्रवृत्ति इससे पहले के कुछ वर्षों में भी देखी गई थी। वर्ष 2003 में एक अभूतपूर्व घटना देखी गई कि यूरोप विशेषकर फ्रांस में गर्मी की लहर या हीट वेव में हजारों लोग मारे गए, जिनमें अधिकतर वृद्ध थे। उस समय इस हीट वेव में बीस हजार लोगों के मरने की बात स्वीकार की गई थी, पर न्यूजवीक पत्रिका ने पिछले वर्ष अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि इस हीट वेव में यूरोप में मरने वाले लोगों की संख्या चालीस हजार तक पहुंच गई थी। विख्यात पत्रिका साइंस में कुछ समय पहले समुद्री तूफान हरीकेन पर एक अध्ययन प्रकाशित किया गया। इसमें बताया गया है कि लगभग 35 वर्ष पहले अधिक उग्रता वाले श्रेणी 4 या 5 के तूफान कुल तूफानों के मात्र 20 प्रतिशत थे, जबकि हाल के समय में यह कुल तूफानों के 35 प्रतिशत हो गए हैं। दूसरे शब्दों में हरीकेन की विनाशक क्षमता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। ये सब जानकारियां एक-दूसरे से अलग नहीं है और न ही उनमें कोई विरोधाभास है। जलवायु बदलाव की चेतावनियां देने वाले वैज्ञानिक लगभग 15 वर्षों से तो ऐसी चेतावनियां देते ही रहे हैं कि हर तरह के प्रतिवादी प्रतिकूल मौसम की संभावना है। इस भविष्यवाणी के अनुकूल ही रिकार्ड गर्मी भी दर्ज हो रही है और रिकार्ड सर्दी भी। कहीं भयानक बाढ़ व तूफान है तो कहीं भीषण सूखे की स्थिति। जलवायु बदलाव को विकास के मुद्दे से जोड़कर अभियान चलाने वाली पश्चिमी देशों की 21 संस्थाओं ने हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में बताया है कि इस कारण सबसे गंभीर स्थिति अफ्रीका में है, जहां वर्षा चक्र गड़बड़ाने के कारण वर्षा आधारित खेती पर निर्भर 70 प्रतिशत लोग गंभीर स्थिति में है। सबसे अधिक चिंताजनक तो कई विशेषज्ञों की यह अपेक्षाकृत नई चेतावनी है कि मात्र 20 वर्षों में ही स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। यह स्थिति तब होगी जब वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा 400 पी.पी.एम. (पार्टस पर मिलियन) तक पहुंच जाएगी। औद्योगिक क्रांति से पहले यह गणना 280 पी.पी.एम. तक थी और उसके बाद पता ही नहीं चला कि कब यह बढ़ती हुई 370 पी.पी.एम. तक पहुंच गई। इस समय कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन की स्थिति देखते हुए अनुमान हे कि यदि इसे कम करने के सफल प्रयास नहीं हुए तो 20 वर्ष में यह 400 पी.पी.एम. तक पहुंच जाएगी। तब जलवायु बदलाव की समस्या को नियंत्रित करना आज की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन हो जाएगा। यह इतनी गंभीर समस्या है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके प्रति अपेक्षित चिंता नहीं प्रदर्शित की जा रही।
जब हम विश्व स्तर के नेतृत्व को देखते है कि वे इस बारे में क्या कर रहे हैं तो मन दुःख और चिंता से भर जाता है। वास्तव में केवल चिंता करने भर से काम नहीं चलेगा। चूंकि यह संकट सारी धरती का है अतः सभी को इस बारे में सोचना होगा कि वह अपने स्तर पर इस सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट को कम करने में क्या भूमिका निभा सकता है? जलवायु बदलाव का संकट ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ा है और आगे इसका मुख्य कारण फासिल ईंधनों की अधिक खपत है। प्रायः यह स्वीकार किया जाता है कि आम नागरिक तेल की खपत की कम कर या तेल को बचाकर जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में अपना योगदान दे सकते हैं। यह अपनी जगह पर सही सोच है पर इसे और व्यापक बनाना चाहिए। आधुनिक अर्थव्यवस्था में लगभग सभी उत्पादों को बनाने में फासिल ईंधन विशेषकर तेल की खपत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होती है। केवल तेल की खपत कम करना पर्याप्त नहीं है, अपितु पूरी जीवन-शैली को सादगी की ओर ने जाना जरूरी है। पश्चिमी देशों के जलवायु बदलाव के संकट को कम करने के प्रयासों में यही भूल कमी है कि वे जीवन शैली को बदलने व उसे सादगी की ओर ले जाने के महत्व को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। यदि हम अपने देश से यह संदेश एक महत्वपूर्ण आंदोलन या अभियान के रूप में भेज सकें तो उसका असर विश्व स्तर पर भी हो सकता है, क्योंकि बुनियादी सच्चाई यही है कि सादगीपूर्ण जीवन मूल्य अपनाएं बिना पर्यावरण और विशेषकर जलवायु बदलाव का संकट हल नहीं हो सकता। इसके साथ ही सबसे गरीब व कमजोर वर्ग की सहायता के लिए भी और सक्रिय होने की जरूरत है। वैसे तो प्रतिकूल मौसम सबको प्रभावित करता है, पर इसका सबसे विकट असर उन पर पड़ता है जो सबसे गरीब व कमजोर वर्ग के हैं। यदि शीत लहर भीषण है तो उसका भी सबसे बुरा असर बेघर लोगों पर पड़ता है और यदि गर्म हवाएं चल रही हैं तो इसका शिकार भी आश्रयविहीन गरीब लोग सबसे पहले बनते है। समुद्री तूफान हो या बाढ़, झोपड़ीवासियों का जीवन सबसे अधिक खतरे में पड़ता है। इसलिए जलवायु बदलाव व प्रतिकूल मौसम के दौर में नए सिरे से गरीब व कमजोर वर्ग की समस्याओं की महत्व देना होगा और उन्हें हल करने के लिए असरदार कदम उठाने होंगे। सरकार को तो अपनी नीतियों की दिशा निर्धन व कमजोर वर्ग के पक्ष में करनी ही चाहिए, नागरिकों को भी अपनी ओर से इस कार्य में भरपूर सहयोग देना चाहिए। उदाहरण के लिए सरकार व नागरिकों में परस्पर सहयोग से एक बहुत सार्थक अभियान यह हो सकता है कि सब छोटे-बड़े शहरों में आश्रय स्थल बनाएं जाएं। इन आश्रय स्थलों में किसी भी समय जरूरतमंद लोग शरण लेकर प्रतिकूल मौसम से अपना बचाव कर सकें। जहां तक सरकारी नीतियों का सवाल है तो उनमें पर्यावरण रक्षा व निर्धन वर्ग की सहायता पर कहीं अधिक ध्यान देना चाहिए। सरकार को अपनी योजना में इस ओर भी ध्यान देना होगा कि जलवायु बदलाव के इस दौर में उसकी मशीनरी गंभीर आपदाओं व प्रतिकूल मौसम के लिए कहीं अधिक तैयार रहे।

अप्रभावी है, पर्यावरण प्रभाव आंकलन का कानून

सन् 1994 में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण प्रभाव आंकलन उर्फ ‘इनवायर्नमेंट इम्पेक्ट असेसमेंट’ (ई.आई.ए.) पर एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके अनुसार औद्योगिक तथा विकासपरक गतिविधियों की खातिर केन्द्र सरकार की पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए आंकलन अनिवार्य हो गया है। इसमें परियोजनाओं के संभावित पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करना होता है ताकि संभावित लागत तथा उसके लाभों को सुनिश्चित किया जा सके। इस सारी कवायद का उद्देश्य पर्यावरण तथा सामाजिक नुकसानों को कम या उन प्रभावों को न्यूनतम करना है जिन्हें संशोधनों के पैबंद लगा दिए गए हैं। इस बारे में उत्तरांचल स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘अकेडमी फार माउंटेन एनवायरोनिक्स’ के प्रमुख श्रीधर आर, कहते हैं कि सार्वजनिक सुनवाई की अनिवार्यता जैसे कुछ संशोधन अच्छे हैं लेकिन अन्य अधिकांश संशोधनों ने मूल अधिसूचना को कमजोर ही बनाया है। समय परियोजनाओं के स्थल चयन के साथ शुरू होती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना के मुताबिक केवल 8 प्रकार की परियोजनाओं में ही स्थल चयन की आवश्यकता है जबकि अधिकांश मामलों में परियोजना की जगह का सर्वाधिक महत्व होता है ताकि पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों को न्यूनतम किया जा सके। लोगों को सूचित किए बिना परियोजना स्थलों को चुनने से उनका प्रभाव पड़ता है। शायद इसीलिए लोग शुरूआत से ही इससे असहमत होते हैं।
इसके बाद आती है पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ई.आई.ए.) रिपोर्ट की तैयारी और लागू करने की। नियमानुसार किसी भी एजेंसी की परियोजना प्रस्तावक यह कार्य सौंप सकता है। ऐसे में यह एजेंसी प्रस्ताव की समर्थक हो जाती है। एक गैर-सरकारी संगठन ‘दिल्ली फोरम’ के सुपर्णो लाहिड़ी प्रश्न उठाते हैं कि जब कोई आपको रिपोर्ट तैयार करने के लिए पैसे देता है तो क्या आप उसके विरुद्ध फैसला देंगे? कई बार तो ऐसा भी होता है कि जांच एजेंसी नियमानुसार खुद आंकड़े इकट्ठे करने की जहमत तक नहीं उठाती और वह परियोजना प्रस्तावक द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को ही स्वीकार कर लेती है। उद्योगों की ‘ई.आई.ए.’ रिपोर्ट भी किसी समस्या से कम नहीं होती। उदाहरण के लिए जिस किस्म की मशीनें और तकनीकें लगाई जाती हैं, उसे एक महत्वपूर्ण मापदण्ड नहीं माना गया है। उन कंपनियों को भी मंजूरी दी गई है जो बरसों पुरानी तकनीक स्थापित करती है। इसी तरह मात्र 32 उद्योगों को सर्वोच्च प्रदूषण फैलाने वाले मानते हुए उनके लिए ‘ई.आई.ए.’ की अनिवार्यता लागू की गई। इन्हें ऐसे उद्योग माना गया है जिनका पर्यावरण और लोगों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। लेकिन चन मापदण्ड में उन उद्योगों पर विचार नहीं किया गया है जिनकी आपूर्ति या उत्पाद पर्यावरण पर असर डालते हैं। इस वर्ग में आने वाले बोतल बंद पानी और शीतल पेय उद्योगों को बख्श दिया गया है जो भूजल को उलीचते हैं और आस-पास के वातावरण पर भी भारी प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण मंजूरी की संपूर्ण प्रक्रिया में जन सुनवाई द्वारा जन भागीदारी अनिवार्य है लेकिन इसे पूरी तरह नकार दिया जाता है और अधिकांश मामलों में निश्चित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए ‘रायगढ़ जिला बचाओ संघर्ष मोर्चा’ रायगढ़ (छत्तीसगढ़) के रमेश अग्रवाल कहते हैं - ‘छत्तीसगढ़ में जिंदल स्टील और पावर लिमिटेड के विस्तार में स्थानीय प्रशासन ने सार्वजनिक सुनवाई हेतु यथोचित नोटिस जारी नहीं किए थे।’ जन सुनवाई अधिकांशतः जिला मुख्यालय पर की जाती है जो प्रभावित क्षेत्रों से काफी दुर होता है। इससे प्रभावित लोगों की भागीदारी पर कुठाराघात होता है। कई मौकों पर परियोजना प्रस्तावक के कार्यालय में ही जनसुनवाई होती है जिसका प्रभाव क्या होता होगा, आसानी से समझा जा सकता है। वैसे भी परियोजना प्रस्तावकों को अपने पक्ष में भीड़ इकट्ठा करने में महारत होती है। सुनवाई पूरी हो जाने के पश्चात राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा रिपोर्ट तैयार की जाती है। इस रिपोर्ट में सुनवाई के दौरान उठाए गए सभी मुद्दों में घालमेल कर दिया जाता है और फिर इसे पर्यावरण तथा वन मंत्रालय को भेजा जाता है। यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाती इसलिए पूरी प्रक्रिया में प्रभावित लोग किसी भी तरह नहीं जान पाते कि इसमें इनके मुद्दे भी शामिल किए गए हैं या नहीं। अंतिम रूप में मंजूरी देने से पहले पर्यावरण तथा वन मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति इस रिपोर्ट को देखती है लेकिन ऐसा किया जाना कानूनी रूप से जरूरी नहीं है। इसलिए यदि किसी प्रकरण में सार्वजनिक सुनवाई की रिपोर्ट परियोजना के प्रतिकूल हो, जो कि शायद ही कभी होता है, तो भी मंत्रालय अंतिम मंजूरी दे सकता है।हिमाचल प्रदेश की पार्वती - एक और चमेरा-तीन जल विद्युत परियोजनाओं के साथ यही हुआ था। इस बारे में ‘साउथ एशियन नेटवर्क आन डेम्स, रिवर्स एण्ड पीपुल (सैन्ड्रप)’ के हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि ‘दोनों ही मामलों में सार्वजनिक सुनवाई में ‘ई.आई.ए.’ मापदण्डों और सार्वजनिक सुनवाई अधिसूचनाओं का उल्लेखन हुआ है।’ इतना ही नहीं, राज्य सरकार से मंजूरी प्राप्त न होने के बावजूद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में चमेरा-तीन और पार्वती-तीन को हरी झण्डी दे दी थी। दोनों ही मामलों में एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम ‘नेशनल हाइड्रो पावर कार्पोरेशन’ (एन.एच.पी.सी) प्रस्तावक था जबकि ऐसे मामलों में परियोजना को राज्य सरकार के माध्यम से प्रस्तावित किया जाना चाहिए। मंजूरी से असंतुष्ट समूहों और व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अपील प्राधिकरण (एन.ई.ए.ए) के रूप में एक सुधार प्रक्रिया उपलब्ध है जिसका गठन पर्यावरण मंजूरी से संबंधित शिकायतों के निवारण के लिए 1997 में किया गया था। इस प्राधिकरण में एक अध्यक्ष (उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश), एक उपाध्यक्ष (सचिव स्तर के एक अधिकारी) और तीन तकनीकी सदस्य होते हैं, लेकिन पिछले पांच वर्षों से इस प्राधिकरण को कोई प्रमुख नहीं है, दो सालों से यहां तक भी तकनीकी सदस्य नहीं है और उपाध्यक्ष का कार्यकाल पिछली जुलाई में समाप्त हो चुका है। 1997 से 2003 के दौरान इसके समक्ष केवल 15 मामले दर्ज किए गए थे, लेकिन किसी भी प्रकरण में मंजूरी के विरुद्ध दिए गए आदेश को कोई परिणाम नहीं निकला। 2004 में तो इसके समक्ष एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया था। असंतुष्ट पक्ष को मंजूरी से 30 दिन या देरी का कारण बताने पर 90 दिनों के भीतर आपत्ति दाखिल करना होता है। इस बारे में श्री लाहिड़ी कहते हैं कि दूरस्थ इलाकों में रहने वाले प्रभावित लोग इस अंतिम तिथि के भीतर अपनी आपत्तियां दर्ज नहीं कराते हैं कि मंजूरी-पत्र कब जारी किया गया है। जब तक उन्हें खबर मिलती है, काफी देर हो चुकी होती है। हाल ही में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इस प्रक्रिया में बदलाव का प्रस्ताव किया है लेकिन इससे भी सुधार असंभव है। इसका प्रमुख कारण है कि यह प्रक्रिया अत्यधिक ढीली-ढाली है। पर्यावरण आंकलन रिपोर्ट में आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं वो अपर्याप्त होते हैं। इसके अनुमोदन को लेकर इतने भारी दबाव आते हैं कि मंत्रालय में बैठे लोग अपर्याप्त जानकारी के बावजूद सिर्फ हां ही कह देते हैं। इतना नहीं ई.आई.ए./ई.एम.पी. रिपोर्टों का स्तर भी बहुत ही कमजोर होता है। इसमें पर्यावरण तथा वन मंत्रालय और राज्यों के प्रदूषण निवारण डलों की प्रक्रियाएं इतनी पेचीदा हैं कि इससे भी देरी होती है। प्रस्तावित बदलावों में जो प्रावधान हैं उनसे यह ढर्रा तो ठीक होने से रहा। वे तो मंजूरी की प्रक्रिया और सरल कर इसकी अवधि ही घटाना चाहते हैं। प्रस्तावित बदलावों में कुछ परियोजनाओं को मंजूर करने का दायित्व राज्य सरकारों को सौंपकर प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण की वकालत भी की गई है लेकिन निर्णय लेने के विकेन्द्रीकरण के साथ ही क्षमता निर्माण का भी विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। पर्यावरण मंजूरी में सुधार एकदम शुरूआत से ही होने चाहिए। इनमें वे प्राधिकरण भी शामिल होना चाहिए जो इस सारी प्रक्रिया को संभालता है। सारी कवायद में पर्यावरण मंत्रालय सर्वोच्च बना रह सकता है, लेकिन अधिकांश प्रक्रियात्मक कार्य राज्य स्तरीय पर्यावरण आंकलन प्राधिकरण को दिए जाने की आवश्यकता है। राज्य आंकलन प्राधिकरण या तो एक स्वतंत्र निकाय होना चाहिए या फिर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक अंग। इस तरह के ढांचे को यथोचित क्षमता निर्माण की आवश्यकता है, जिसके लिए इसे उच्चतम तकनीकी की जरूरत होगी। परियोजना प्रस्तावक को अपने प्रस्ताव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तथा राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्राधिकरण, दोनों को ही प्रस्तुत करना चाहिए। प्रस्ताव में न केवल परियोजना के औचित्य को स्पष्ट करना चाहिए बल्कि इसके साथ अन्य विकल्पों का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहिए। इसके साथ-साथ परियोजना रहित परिदृश्य भी प्रस्तुत करना चाहिए तथा यह स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर चुनी गई जगह ही सबसे अच्छी क्यों है? इसमें परियोजना के विकल्प तथा उपयोग में लाई जाने वाली तकनीकी प्रक्रिया का भी खुलासा किया जाना चाहिए। प्रस्तावों तथा विकल्पों का मूल्यांकन करने के बाद राज्य स्तरीय, पर्यावरण आंकलन प्राधिकरण को स्थल चयन के प्रश्न से निपटना चाहिए। यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि स्थल चयन केवल ‘ई.आई.ए.’ अध्ययन तक ही सीमित होगा तथा इसे परियोजना की मंजूरी के रूप में नहीं माना जाएगा। यदि आवश्यक हुआ तो प्राधिकरण सदस्य प्रस्तावित स्थल का दौरा भी कर सकते हैं।

पर्यावरण का गहराता संकट - विंध्यमणि

एक खबर के मुताबिक झारखंड में कभी भी हाथियों का हमला हो सकता है। उड़ीसा और झाड़खण्ड के जंगल हाथियों से आक्रांत है और यह प्रभाव्य कभी भी जंगल के बाहर व्यापक रूप में भयंकर रूप धारण कर सकता है। बेतहाशा कट रहे जंगल, पशु और पक्षियों का असुरक्षित बनता जा रहा जीवन हमारे पर्यावरण के लिए आने वाली जनरेशन के लिए अच्छा नहीं है। एक समय था कि हर ऋतु का एक खास समय होता था। जाड़ा गर्मी व बरसात सब क्रम से और समय पर आते थे लेकिन आज सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया है। जाड़े में बरसात होती है। जाड़ा भी कुछ परिवर्तित लिए हुए है। गर्मी का तो कहना ही क्या। गर्मी इतनी पड़ती है कि सब कुछ सूखने के कगार पर हो। बारिश तो ऐसी कि लगेगा अब पूरा संसार ही डूबने वाला है। यह सब प्रकृति के असंतुलन के कारण है।
हमारा समाज और उसमें रहने वाले व्यक्तियों की सोच इतनी संकुचित होती जा रही है कि वहां और सब चीजों के लिए वक्त तो है लेकिन पर्यावरण को संरक्षित करने और उसके लिए खुद पहल करने के लिए जरा-सा भी समय नहीं है। जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है क्या उसी अनुपात में संसाधनों का दोहन नहीं हो रहा है? नयी आवासीय व्यवस्थाएं हमारे वनों को काल की तरह लीलती चली जा रही है। हम मौन है और सच तो यह है कि अपने क्षणिक सुख में मस्त है। जिस प्रकृति ने हमारे लिए ढेर सारे उपादान दिये क्या उसके लिये हमारा कोई कर्तव्य नहीं है। आज समय की आवश्यकता है कि हमें अपने आस-पास के पर्यावरण वातावरण पर जरूर नजर रखनी चाहिए। चाहे पानी बचाना हो या पालीथीन का प्रयोग न करना हो। विद्युत ऊर्जा की बचत करना हो या फिर बरसात के पानी को रोककर उन्हें शुद्ध करके पीने योग्य बनाना हो। ये सब बातें सुनने करने में बहुत छोटी जरूर लगती है और इनका प्रभाव चूंकि प्राथमिक स्तर का लगता है इसलिए ये सब हमारी सामान्य दिनचर्या और सामान्य जरूरतों से शुरू की गयी जागरूक पहल हमें पर्यावरण के प्रति एकजुटता में काफी मदद करती है।
अभी कुछ ही वर्षों पहले की बात है राजस्थान में पानी के लिए वो तबाही मची थी कि लोग गंदे पानी के प्रयोग से बीमारियों का शिकार हूए। पीने के लिये पानी जहां न मयस्सर हो क्या वहां बारिश के पानी को रोककर उसे शुद्ध करके पीने योग्य नहीं बनाया जा सकता? यह एक देश व्यापी पहल का स्वरूप होना चाहिए। भूमंडलीकरण के प्रभाव से जहां शहर के साथ-साथ गांव और कस्बों में संचार माध्यमों की उपलब्धता ने दुनिया को काफी छोटा कर दिया है। वहीं इसके बावजूद हमारी समस्याएं, बीमारियां और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी होती जा रही है। जैविक खादों का उत्पादन कम हो रहा है। उर्वरक का बहुतायत प्रयोग जमीन की उर्वरा शक्ति को बंजर बना रहा है। सोना उगलने वाली धरती से ठीक से अन्न का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी इकाइयां स्थापित कर हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर रही है जो कि सीमित है जंगल कट रहे हैं। नये पार्क बन रहे हैं। उनमें लुभाने के लिए विदेशी पौधे लगाये जा रहे हैं। लेकिन इन सब क्रिया कलापों से हमारा जीवन कब तक सुरक्षित रहेगा यह विचारणीय प्रश्न है सरकार हर वर्ष गंगा सफाई के लिए लाखों रुपये और पेड़ लगाने को प्रोत्साहन देने के लिए तमाम योजनाओं में करोड़ों का धन सामग्री लगाती है लेकिन वह सारी धन सामग्री बंदरबाट के जरिए सही जगह पर नहीं पहुंच सकती। पर्यावरण को सुधारने और उसका पोषण करने के लिये लाखों संस्थाएं देश में संचालित है, लेकिन सभी संस्थाओं का प्राथमिक स्तर अच्छा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। छोटे स्तर पर किया गया कार्य, गांव कस्बों से शुरू किया गया कार्य जिसमें कि धन भी कम लगेगा ज्यादा प्रभावकारी हो सकता है। पर्यावरण की सुन्दरता जैसी भारत में है वैसी किसी भी अन्य देश में नहीं देखने को मिलती है। हर प्रकार के पेड़, पौधों, फल व फसल के लिये हमारे देश की जमीन सर्वाधिक उपयुक्त है। लेकिन जिस तरह से पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है। वह हमारे विकास के रास्ते को अवरुद्ध कर रहा है। जहां तक हमारे ईंधन की बात है तो लोगों को जान लेना चाहिए कि भविष्य में पेट्रोल, डीजल आदि मिलने से रहा। आने वाला समय बायोडीजल का है जिस तरह से हर्बल ने बाजार में अपनी स्थिति को मजबूत बना लिया है उसी तरह बायोडीजल पूर्णतः हमारे ईंधन का स्रोत होगा। बायोडीजल का स्रोत होगें प्राकृतिक उपादान जैसे-सूरजमुखी, अरण्डी, नारियल, सोयाबीन, जैतून, बिनौला आदि। इन्ही सब पर आश्रित होगी भविष्य में चलने वाली गाड़ियां। जेट्रोफा जैसा पौधा आज भी बायोडीजल का सबसे बड़ा पर्याय होकर इसी दिशा में काफी सहायता प्रदान कर रहा है। दिल्ली में तो इससे ट्रेन भी चलती है। अब प्रश्न उठता है कि ये जेट्रोफा की खेती कहां की जायेगी। निश्चित तौर पर यह कार्य जमीन पर ही हो सकता है। अगर जमीन की गुणवत्ता दिनों-दिन गिरती जायेगी तो जाहिर है कि धरती पर कुछ भी उगाना बड़ा मुश्किल हो जायेगा और जब धरती पर कुछ उगेगा ही नहीं तो हमारा और पशु पक्षियों का जीवन भला कैसे सुरक्षित रहेगा?
प्रकृति हमेशा से मानव जाति की सहयोगी रही है। यह सहयोग जब प्रकृति को इसका प्रयोग करने वालों या फिर इसके प्रभाव में रहने वालों से मिलता है तभी पर्यावरण को संरक्षित किया जाता है। अशिक्षा के घटाटोप ने हमारे देश में एक लंबे समय तक साम्राज्य बनाये रखा। स्थिति अब काफी सुधर चुकी है। लेकिन फिर भी देश के तमाम क्षेत्र आज भी अशिक्षा के अंधकार में जी रहे हैं। जानवरों का शिकार करके उन्हें खा जाना एक आम बात है। अशिक्षा ने उन्हें यह समझने का अवसर ही नहीं दिया कि वे क्या कर रहे हैं? सरकारी आंकड़े यह बताते हैं कि पर्यावरण को संरक्षित करना चाहिए। यह बात तमाम लोगों को मालूम ही नहीं है कि वे जी रहे हैं तो जी रहे है जब समस्या मुंह के सामने आ खड़ी होती है तब लगता है कि इसकी जानकारी के अभाव में हम पर्यावरण का इतना नुकसान कर रहे थे। ये धरती रत्नगर्भा है इससे उत्पादन के साथ ही जीव जगत की रक्षा भी होती है। यह तभी तक रक्षा कर सकती है जब तक हम इसके उपादान को सुरक्षित रखेगें। हाइटेक सिटी का शोर और धुंआ हमारे वातावरण में जहर घोल रहा है। इससे लोग बहरे हो रहे है। मानसिक व्याधियों के गिरफ्त में आ रहे हैं और साथ ही ओजोन पर्त में छेद होने से पराबैंगनी किरणे हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर डालने के लिए पूरी तरह से सक्रिय है। जब तक धुंए पर हमारा नियंत्रण नहीं होगा हमारा पर्यावरण शुद्ध नहीं होगा। इसके लिए सक्रिय जागरूकता की जरूरत है। इस कार्य में सर्वाधिक सफल कार्य एक युवा कर सकता है। देश का युवा वर्ग अपनी जागरूकता से पर्यावरण को संरक्षित करने के उपाय को जनमानस में फैलाकर इस तरह के कार्यक्रम को सफल बना सकता है। तब और अच्छा होगा जब हमारे देश का हर व्यक्ति अपनी धरती और पर्यावरण के लिये पूरी तरह सचेष्ट होकर इस अभियान में अपना योगदान देगा। दून दर्पण (देहरादून), 18 Jan. 2006

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

वनाच्छादित धरा ही मानव के सुकून

औद्योगिक क्रांति के बाद पृथ्वी पर आए परिवर्तन के इस दौर में मानव के सुकून के लिए वनाच्छादित धरा ही एकमात्र आधार है, इसके लिए पौधों का रोपण और उनका संरक्षण ही एकमात्र विकल्प है। इस दिशा में न केवल वन विभाग अपितु जनसामान्य को भी प्रयास करने होंगे। यह विचार वन मण्डल डगरपुर के तत्वावधान में विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर मंगलवार को वन विभाग कार्यालय में आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने व्यक्त किए।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए उप वन संरक्षक ओ.सी.चन्देल ने कहा कि विगत छः दशकों में मानवीय गतिविधियों में इजाफे के चलते वायुमण्डल का रासायनिक संगठन पूरी तरह से बदल गया है, गैसों का अनुपात गडबडा गया है और जलवायु में भी बदलाव होने लगा है। इन समस्त परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए पृथ्वी को वनाच्छादित करना बेहद आवश्यक है और इसके लिए दृढ संकल्पित होकर समन्वित प्रयास करने होंगे। उन्होंने कहा कि औद्योगिकरण के चलते पृथ्वी संकट में है और ऐसी स्थिति में इस पृथ्वी पर सजीव प्राणी भी संकट में हैं। उन्होंने विभागीय कर्मचारियों व आमजनों से आग्रह किया कि पृथ्वी पर बढते प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन को रोकने के लिए जनचेतना जाग्रत करने के गंभीर प्रयास करें और विश्व पृथ्वी दिवस के मौके पर जीवन को बचाने के लिए प्रयास करने के संकल्प लें। संगोष्ठी को संबोधित करते हुए पर्यावरणीय विषयों के जानकार वीरेन्द्रसिंह बेडसा ने ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस इफेक्ट से हुए ओजोन परत के छेद और उससे पृथ्वी व सजीव जगत पर होने वाले प्रभावों के बारे में जानकारी देते हुए इस दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता प्रतिपादित की। उन्होंने बताया कि प्रतिवर्ष दुनिया में 18 लाख लोग प्रदूषित जल से मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं वहीं ग्लोबल वार्मिंग से तापमान में बढोत्तरी व ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के जलस्तर बढने की स्थिति म जलप्रलय होने की संभावना है। बेडसा ने कहा कि बढते औद्योगिकरण के दुष्प्रभावों को दुनिया ने असामान्य तापमान, बर्फबारी, अतिवृष्टि और समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं यथा भूकम्प, बाढ, सुनामी आदि के रूप में देखा है तथापि आज भी मानव पृथ्वी को बचाने के लिए जागरूक नहीं हुआ है। उन्होंने आह्वान किया कि समय रहते इस दिशा में प्रयास हो ताकि हम हरी-भरी, स्वच्छ, स्वस्थ व संपन्न पृथ्वी की सौगात आने वाली पीढयों को दें। संगोष्ठी को वन मण्डल डूंगरपुर के कार्यालय सहायक कुरीलाल,वनपाल धूलाराम पंचाल, मांगीलाल तथा वन सुरक्षा एवं प्रबन्ध समिति सिंदडी के अध्यक्ष कालूराम ने भी संबोधित किया। इस मौके पर राजस्थान वानिकी एवं जैव विविधता परियोजना द्वारा प्रकाशित साहित्य का वितरण किया गया और समुद्र जलस्तर में ईजाफा, फसल उत्पादकता, महामारी, पारिस्थितिकी तंत्र आदि विषयों पर मौजूद संभागियों को तथ्यात्मक जानकारी प्रदान की गई। संगोष्ठी का संचालन क्षेत्रीय वन अधिकारी पी.सी.कुमावत ने तथा आभार प्रदर्शन नटवरसिंह शक्तावत ने किया। इधर राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में इको क्लब के तत्वावधान में विश्व पृथ्वी दिवस के मौके पर विद्यालय के प्रधानाचार्य डॉ. हितेश भट्ट की अध्यक्षता में विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में जयप्रकाश पण्ड्या, योगेशचंद्र पण्ड्या, देवीलाल जैन, भूपेन्द्र कुमार जैन आदि वक्ताओं ने हिमस्खलन, खनन, भूजल दोहन, वनसंपदा आदि विषयों पर वार्ताएं प्रस्तुत की। इस मौके पर विद्यालय में एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया।

पर्यावरण दिवस

Bonddonraj
भारत का पर्यावरण आंदोलन इस देश की अन्य बहुत-सी बातों की तरह ही विरोधाभासों एवं जटिलताओं में संतुलन बनाकर चलने की दरकार रखता है : अमीर और गरीब के बीच संतुलन, मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन। वैसे भारत का पर्यावरण आंदोलन एक मानी में विशिष्ट है और इसी विशिष्टता में इसके भविष्य की कुंजी है। अमीर देशों के पर्यावरण आंदोलन तब शुरू हुए, जब वे धन-संपत्ति के निर्माण काल से गुजर चुके थे और अपशिष्ट निर्माण के काल से गुजर रहे थे। अतः वे अपशिष्ट नियंत्रण की बात करने लगे लेकिन वे अपशिष्ट निर्माण के ढाँचे को ही परिवर्तित करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत भारत में पर्यावरण आंदोलन धन-संपत्ति के निर्माण काल के दौरान ही विकसित हो रहा है, लेकिन जबर्दस्त असमानता और गरीबी के बीच। तुलनात्मक रूप से गरीबों के इस पर्यावरणवाद में परिवर्तन के सवाल के जवाब पाना असंभव है, जब तक कि सवाल ही न बदल दिया जाए।अब जरा इस आंदोलन के जन्म एवं विकास पर गौर करें। इसकी शुरुआत हुई 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में, पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन में इंदिरा गाँधी के प्रसिद्ध वाक्य से कि 'गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता है।' लेकिन इसी दौरान हिमालय में चिपको आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने हमें बता दिया कि दरअसल गरीब अपने पर्यावरण की चिंता भी करते हैं। दूसरे शब्दों में गरीबी नहीं, दोहक और शोषक अर्थव्यवस्थाएँ सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता हैं। अस्सी के दशक में संस्थागत ढाँचा खड़ा कर पर्यावरण विभाग का गठन किया गया। तब मुख्य उद्देश्य था वनों की कटाई रोकना।

1980 का वन संरक्षण अधिनियम हरियाली को बचाने एक निष्ठुर उपाय था। इसके तहत केंद्रीय मंत्रालय की स्वीकृति के बिना वन भूमि का एक हैक्टेयर भीगैर-वन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। आंदोलन के इस दौर में देश ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिकारों का केंद्रीकरण कर दिया। नब्बे के दशक में इन कार्यक्रमों व संस्थानों का काम आगे बढ़ा। इस दशक में मुख्य लक्ष्य था परिवर्तन को लागू करना व उसका प्रबंधन करना लेकिन इसे लागू करने के लिए समय ही नहीं मिला। इस दशक में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तीव्र हुई और उदारीकरण का दौर चला, जिसमेंजल एवं वायु प्रदूषण तथा विषैले अपशिष्ट संबंधी नई एवं महत्वपूर्ण समस्याएँ उभरकर सामने आईं। तीव्र आर्थिक परिवर्तन के चलते पर्यावरण का संकट बढ़ गया। नई, जटिल समस्याओं को नए, सुलझे हुए समाधानों की तलाश थी। जर्जर हो रहे औपचारिक संस्थानों की जगह नए ढाँचोंऔर संगठनों ने ली। एक तरफ थी सक्रिय (कभी-कभी अति-सक्रिय होने का आरोप झेलती) न्यायपालिका, जो पर्यावरणीय सरोकारों का प्रबंधन अपने हाथों में लेने लगी। पर्यावरण सुधार हेतु हजारों नागरिकों द्वारा दायर की जाने वाली याचिकाओं ने उसका उत्साहवर्द्धन किया। अदालतों को जल्द हीयह अहसास हो गया कि वे आदेश पारित तो कर सकती हैं लेकिन उन पर अमल नहीं कर सकतीं। सो उन्होंने अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया, जो अदालती फैसलों के अमल पर निगरानी रखें। दूसरी तरफ मीडिया का समर्थन प्राप्त नागरिक समूह पर्यावरण के सक्रिय रखवाले एवं प्रबंधक बन गए। औपचारिक संस्थानों का काम भी इन्होंने अपने हाथों में ले लिया। विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के आकलन में उद्योग व नौकरशाही की साँठगाँठ से होने वाले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए नागरिक समाज आगे आया। जन-सुनवाइयों की अवधारणा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। आज हमारे सामने दो मुख्य चुनौतियाँ खड़ी हैं। एक ओर तो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की सघनता बढ़ रही है, जिससे अधिक संघर्ष व अधिक पर्यावरण ह्रास हो रहा है। दूसरी ओर वे गरीब लोग और भी अधिक हाशिए पर चले गए हैं, जो पर्यावरण पर ही जीते हैं और जिनके लिए पर्यावरण ही आर्थिक परिवर्तन लाने का जरिया है।

यूँ विश्व भर में पर्यावरणीय सरोकार जनांदोलनों की ही उपज रहे हैं। इन आंदोलनों की वजह से उपजे राजनीतिक दबाव के चलते ही पहले कानून बने और फिर इन्हें लागू करने के लिए संस्थान। हमारे यहाँ जनांदोलन सेपहले कानून और संस्थान बन गए लेकिन ये कारगर नहीं हो पाए। अतः भारत में पर्यावरण आंदोलन का काम मुख्यतः दबाव निर्मित करना है ताकि सरकार स्वयं द्वारा बनाए गए कानूनों व नियमों को ठीक से लागू कराए। पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।

विनाश का पर्याय बनता विकास

बिट्टू सहगल

दृष्टिकोण. बहुत दिन नहीं हुए जब कलकल बहती स्वच्छ नदियां, हरे-भरे जंगल, उपजाऊ मिट्टी और मत्स्य संसाधनों से भरपूर तटीय इलाके भारत की शान थे। सदियों पहले भारतीय उपमहाद्वीप पर रहने वालों के लिए ये प्रकृति के उपहार थे। पिछली सदी की शुरुआत तक लगभग आधा उपमहाद्वीप घने वनों से आच्छादित था।
उस समय अगर आप जमीन पर सौ बीज बिखेरते तो संभव है कि आधे से अधिक बीज जड़ पकड़ लेते, क्योंकि उस समय देश की मिट्टी उपजाऊ, जलवायु बढ़िया और जल संसाधन प्रचुर थे। उस समय हमारा सुंदर भारत चमगादड़ों, हाथियों और तरह-तरह के पशु-पक्षियों का साझा बसेरा था और वे ही यहां के बागबान भी थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बहुत चालाकी से भारत के शोषण की साजिश रची थी। उसे ब्रिटेन के जहाजरानी उद्योग के लिए उम्दा किस्म की लकड़ी की जरूरत थी, तो पूरी दुनिया में कारोबार के लिए मसालों, कपड़ों और रंजकों की जरूरत थी। इसी वजह से उसने भारत को उपनिवेश बनाया था। अपने संकुचित स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता से दोहन किया।
साथ ही उन्होंने मानवाधिकारों का भी बुरी तरह हनन किया। इसी वजह से हमें आजादी की लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। देश को शोषण की जंजीरों से मुक्त करने के लिए ही महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस जैसे लोगों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। दुर्भाग्य से जब अंग्रेज देश छोड़कर गए, तब वे उपनिवेशीकरण के अपने संसाधन साथ नहीं ले गए। उस समय के विशेषाधिकार प्राप्त भूरे साहबों के वर्ग ने फौरी तौर पर इन संसाधनों पर कब्जा जमा लिया।
ये भूरे साहब उपमहाद्वीप के उपनिवेशीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में गोरों से भी बढ़-चढ़कर थे। इसके बाद देश की एक पूरी पीढ़ी ने विकास का वह सपना अपना लिया, जो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेजों से सीखा था और शहरी भारत ग्रामीण भारत को उपनिवेश बनाने में जुट गया।
इसके तहत देश में यह परवाह किए बिना हजारों बांध बना डाले गए कि उनसे देश को वास्तव में कोई फायदा मिल भी रहा है या नहीं। अंधाधुंध खानें खोदी गईं। डीडीटी जैसे कीटनाशकों का इतना ज्यादा छिड़काव किया गया कि कीड़े-मकोड़ों के साथ मनुष्य भी दम तोड़ने लगा। कई परमाणु बिजलीघर भी यह सोचे बगैर बना दिए गए कि इनसे निकलने वाला घातक अपशिष्ट कैसे ठिकाने लगाया जाएगा।
शहरी ग्राहकों को ऊंची कीमतों पर लकड़ी बेचने के लिए कोई भी कभी भी कुल्हाड़ी, बुलडोजर या दूसरे औजार लेकर हमारे असुरक्षित वनों को काटने पहुंच जाता है। इससे हमारे वनों में बाघों, हाथियों और प्रवासी पक्षियों को मारने और पकड़ने का अनवरत सिलसिला भी चल निकला। बर्बादी का यह सिलसिला दशकों से चल रहा है और आज भी जारी है।
यही कारण है कि आज चीता विलुप्त हो गया है और शेर विलुप्त होने की कगार पर है। और इसी कारण हम आज भी शिकारियों के हाथों रोजाना एक बाघ या तेंदुआ गंवा रहे हैं। इसी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप में आज जितनी तेजी से वन काटे जा रहे हैं उतनी तेजी से पहले कभी नहीं काटे गए। इसलिए किसी को इस बात पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि हर साल लाखों एकड़ उपजाऊ भूमि बंजर में बदलती जा रही है।
आज देश में कोई ऐसी नदी नहीं बची है जिसका पानी पीने के लिए सुरक्षित हो। बाढ़ और भूस्खलन हमारे यहां रोजमर्रा की बात हो गई है और जब-तब पड़ने वाला सूखा अर्थशास्त्रियों के भ्रामक आकलनों का मजाक उड़ाता है। हमारे देश का सकल राष्ट्रीय उत्पाद और प्रतिव्यक्ति आय बढ़ रही है लेकिन सकल प्राकृतिक उत्पाद घट रहा है।
इन सबमें सबसे ऊपर यह है कि हमारे समुद्र तटीय इलाकों, नदियों व तालाबों में मछलियां पकड़े जाने की दर में तेजी से गिरावट आ रही है। इस कारण से एक समय आत्मनिर्भर रहे लाखों मछुआरे और किसान अस्तित्व बचाने के लिए शहरों की ओर भाग रहे हैं। अब तक तीन करोड़ से भी अधिक लोग बांधों, खदानों और बड़ी परियोजनाओं के कारण उजड़ चुके हैं और वे अब शहरी गंदी बस्तियों में जीवन बसर करने के लिए मजबूर हैं। कभी वे कहते थे कि हम फिर वन विकसित करेंगे और कृत्रिम नदियां बहाएंगे। अब वे विकास के नाम पर देश की पारिस्थितिकी की चिंता को बाला ए ताक रख चुके हैं।
इन हालात में अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों के वास्ते देश के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिए आज दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन को शुरू करने की जरूरत है। आज हम एक परमाणु बिजलीघर बनाकर उसके अपशिष्टों को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी अपने बच्चों पर नहीं डाल सकते। ऐसा करना अपने बच्चों के स्वास्थ्य, खुशी और सुरक्षा का उपनिवेशीकरण करना होगा। जंगल, मिट्टी और नदियों के जल का हमेशा के लिए लुप्त हो जाना भी एक तरह के उपनिवेशीकरण का ही नतीजा है।
युवा पहले की तुलना में आज ज्यादा प्रतिबद्ध हैं। दस लाख से अधिक बच्चे देश के राष्ट्रीय पशु बाघ को बचाने की बात कर रहे हैं। वे अपने स्कूलों में अपशिष्टों के रिसाइकल, जल के दुरुपयोग को रोकने और ऊर्जा के उपभोग को कम करने के लिए भी अभियान चला रहे हैं। आज हरेक राजनीतिक दल के घोषणापत्र में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा शामिल करने का प्रेस और जनता की ओर से काफी दबाव है। भले ही ये राजनीतिक दल पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कुछ न करें पर दावे सभी दलों की ओर से किए जा रहे हैं।
आज जब पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, वन अधिकार कानून में की गई पिछली गलतियों को सुधारने की जरूरत है। इस कानून को गलत और अकुशल तरीके से लिखा गया था, जिस कारण से सुरक्षा तंत्र पर इसका खास प्रभाव नहीं पड़ा। यहां तक कि इस कानून के द्वारा वनवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। इस कानून की खामियों का फायदा उठाते हुए कोई झींगापालक किसान, कोई खदान मालिक या पर्यटन व्यवसाय में लगा व्यक्ति भी वनवासी होने का दावा कर सकता है क्योंकि इस कानून में वनवासी की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई है।
साथ ही भू माफिया वनों की जमीन को झपटने के फेर में हैं। इन्ही कारणों से कुछ लोग भारत के वनों और आदिवासियों के अधिकारों को संरक्षित करने की हिमायत कर रहे हैं और इस संबंध में कारगर नए कानून बनाने के लिए वे सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देने जा रहे हैं। अगर वे देश के वनों के संबंध में नए कानून बनवा पाने में नाकाम रहे तो वनों केविनाश का खमियाजा आने वाली पीढ़ियां भी चुकाएंगी।
http://www.bhaskar.com/2008/02/14/0802140030_edit.html

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

ठिकाना पेड़, जुनून जंगल की रखवाली का

विष्णु चंद्र पालवह रहता है जंगल में पेड़ पर। उसके दोस्त-समाज हैं जंगली जीव। बेइंतहा मोहब्बत करता है पेड़-पौधों से। जंगल की रक्षा को लेकर वह इतना संजीदा है कि पिछले 20 साल से घर गया ही नहीं। वन में एक पेड़ को ही आशियाना बना लिया और पेड़ के ऊपर ही कमरा बनाकर रहता है ताकि उसके जंगल की रक्षा के मिशन में किसी प्रकार का खलल न पैदा हो सके।जी, हां। इस तरह की बातें या घटना आपने फिल्मों में देखी होगी। खासकर टारजन फिल्म में। उस फिल्म का टारजन अफ्रीका की अमेजन नदी घाटी में घने जंगलों में रहता है और जंगलों को बचाने के लिए काम करता है।

लेकिन हम बात कर रहे हैं पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में रहने वाले एक टारजन की जो पिछले 20 साल से जंगल के पेड़ को अपना ठिकाना बनाए हुए है और जिस पर जुनून सवार है जंगल की रखवाली का। पुरुलिया के इस टारजन का नाम है विपद तारण मुंडा।दरअसल आम इंसानों की तरह घर के बजाय पेड़ के ऊपर घर बनाकर रहने वाला यह युवक हाथ में प्रचलित हथियार लिये जंगल की रखवाली में लगा रहता है। जिले के कोटशिला थाना क्षेत्र अंतर्गत अयोध्या पहाड़ से सटे लगभग 15 किलोमीटर क्षेत्र में फैले गोविंदपुर जंगल के पास मुरगुमा ग्राम के वृद्ध मुंदलु मुंडा का पुत्र है विपद तारण मुंडा। अपनी इस जीवन शैली व जंगल से जुड़ाव के बारे में उसने दैनिक जागरण से काफी अंतरंग बातचीत की। विपद तारण ने बताया कि जब छोटा था, तब इस जंगल की पहरेदारी उसके पिता मुंदलु मुंडा करते थे। तभी से उसे जंगल और जंगली जानवरों से प्रेम हो गया। अब पिता ने जंगल की रखवाली का जिम्मा उसे ही सौंप दिया है।

अब इसी जंगल के एक बड़े कुसुम के पेड़ के ऊपर बांस, लकड़ी व टिन से उसने एक घर बना लिया है। इस घर में वह रहता है। हाथ में चाकू, तीर-धनुष व बल्लम लेकर दिन रात जंगल की सुरक्षा करते-करते करीब 20 साल गुजर चुके हैं। वह अपना काम पूरी निष्ठा से कर रहा है। हालांकि जंगल की रखवाली के समय उसे कई बार खतरों का भी सामना करना पड़ा। जान पर भी बन आयी। लेकिन जुनून ऐसा कि इसके बाद भी वह अपने काम में लगा है। अनवरत। बिना किसी डर भय के। वह बताता है कि जंगल की रखवाली करने के दौरान एक बार जंगली भालू ने उसपर हमला कर दिया था। लेकिन कोई चोट नहीं आई। वह बताता है कि उसे जंगली जानवर भी चाहने लगे हैं। जंगल में 18 हाथियों से उसकी दोस्ती इसी का प्रमाण है। विपद जंगल के फल व सब्जियों को खाकर काम चलाता है। इस जंगल के आसपास के लक्षीपुर, गुरगुमा, वेगुन कोदर समेत अन्य गांवों के ग्रामीण विपद को जानते हैं और उसे बहुत चाहते हैं। उसे हर तरह से सहयोग देने में भी लगे रहते हैं।शायद यही कारण है कि पिछले 20 साल में इस जंगल में लकड़ी चोरी की घटना बहुत कम हुई है। वन विभाग उसके काम से काफी प्रभावित है। डीएफओ के वालागुरमन ने इसके लिए टारजन विपद तारण मुंडा को पुरस्कृत करने का मन बनाया है। लेकिन विपद तो अपनी निष्काम सेवा में किसी तरह की अपेक्षा रखता ही नहीं। वह तो किसी सन्यासी की मानिंद सेवा में लगा रहता है। इसी के लिए तो उसने छोड़ा था घर। त्याग किया था समाज का। दूर हुआ था अपनों से। अब तो जंगल, पेड़-पौधे और जानवर ही उसके लिए सब कुछ हैं। वह किसी से कुछ मांगता तक नहीं। जंगल को ही उसने जीवन बना रखा है।
साभार-जागरण

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए ज्यादा जींस न धोएं

नई दिल्ली, 15 अप्रैल (आईएएनएस)। यदि आप जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटना चाहते हैं तो अपनी जींस को कम से कम तीन बार पहनने के बाद ही धोएं। इतना ही नहीं इसे ड्राइक्लीन करने के बजाय ठंडे पानी में धोएं और आयरन न करें।
'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' (यूएनईपी) ने कहा है कि ऐसा करने से तीन गुने ऊर्जा की बचत हो सकती है। इस संबंध में यूएनईपी के प्रौद्योगिकी, उद्योग और आर्थिक मंडल (यूएनईपी डीटीआईई) ने 30 सेकेंड का एक टेलीविजन कार्यक्रम भी तैयार किया है।
यूएनईपी डीटीआईई के कम्युनिकेसन प्रमुख रोबर्ट बिस्सेट ने कहा, ''हम युवाओं तक जलवायु परिवर्तन का संदेश पहुंचाना चाहते हैं। इस वैश्विक समस्या से लड़ने के लिए युवाओं तक जानकारी पहुंचनी चाहिए।''
बिस्सेट ने कहा कि जींस को कम धोने से बिजली और पानी दोनों का इस्तेमाल कम होगा। उन्होंने कहा, ''ड्रायक्लीन में 60 फीसदी ऊर्जा की खपत होती है। यदि जींस को कम धोया जाए तो ऊर्जा की 50 फीसदी तक बचत की जा सकती है जिसका सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है। ''
उन्होंने कहा कि कपड़ा उद्योग में कई जहरीले रसायन का प्रयोग किया जाता है। कपड़ा उद्योग से पानी का अधिक उपभोग नहीं करने की भी संयुक्त राष्ट्र की संस्था ने अपील की है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

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