मंगलवार, 29 जुलाई 2008

हमें एक नई रोशनी की जरूरत है - नवभारत टाइम्स

भारत डोगरा

इंटरनैशनल मार्किट में तेल की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ने के कारण भारत जैसे अनेक तेल आयातक देशों में अब यह माना जा रहा है कि तेल के आयात पर अपनी निर्भरता को कम किया जाना चाहिए। इसीलिए भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश की है। सचाई तो यह है कि ऐसा अहसास बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अब अगर तेल की कीमतें कुछ कम हो जाएं तो भी नए एनर्जी सोर्स तलाशने की जरूरत बनी रहेगी। तेल उत्पादन अपने पीक पर पहुंच रहा है और अब इसके भरोसे बैठा नहीं रहा जा सकता।

एनर्जी के मामले में दुनिया के देशों और इलाकों की स्थिति अलग-अलग है। कहीं तेल का भंडार है, तो कहीं गैस का। कहीं कोयले के भंडार हैं तो कहीं यूरेनियम के। कहीं सोलर एनर्जी की भरपूर क्षमता है, तो कहीं बायो-गैस की। कई देशों में पशुधन (जैसे बैल, ऊंट, आदि) ने एनर्जी सप्लाई में अहम योगदान दिया है। कहीं पनबिजली की दृष्टि से बहुत अनुकूल स्थिति है तो कहीं विंड पावर की दृष्टि से। लेकिन जब से वेस्ट एशिया में तेल के भंडार मिलने लगे, तब से ऊर्जा के अन्य सभी स्रोतों की उपेक्षा होने लगी। पूरी दुनिया की एनर्जी पॉलिसी तेल की आसान उपलब्धि पर आश्रित हो गई।

हां, इतना जरूर है कि जहां कोयले के ज्यादा भंडार मौजूद थे वहां ताप बिजलीघरों को महत्व दिया गया। फिर जब बांधों का निर्माण बिजली उत्पादन के लिए होने लगा तो कई वजहों से विशालकाय योजनाओं पर जोर दिया जाने लगा। परमाणु ऊर्जा के प्रवेश के बाद फ्रांस जैसे गिने-चुने देशों ने इसे अपनी ऊर्जा का मुख्य स्रोत बना लिया।

कुल मिलाकर दुनिया में 4 मुख्य ऊर्जा स्रोतों से काम चलाया जा रहा है- तेल व गैस, कोयला, बड़े बांध और परमाणु। कोयले, तेल और गैस से चल रहे बिजलीघरों को वायु प्रदूषण के लिहाज से बुरा माना गया। जलवायु बदलाव का गंभीर खतरा सामने आने के बाद कोयले और तेल की खपत को कम करने के लिए विश्व स्तर पर जोर दिया गया, क्योंकि ये जीवाश्म ईंधन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मुख्य वजह माने गए हैं। उधर, बड़े बांधों से विस्थापन के साथ पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हुईं। परमाणु ऊर्जा के साथ दो बड़ी दिक्कतें हैं। एक तो दुर्घटना होने पर बहुत बड़ा खतरा पैदा होता है, जैसा चेरनोबिल में देखा गया। दूसरा, इसके कचरे का निपटान आसान नहीं है।

इन समस्याओं को देखते हुए कई देशों ने ऊर्जा के उन स्रोतों की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया जो रीन्यूएबल या अक्षय हैं। कम से कम छोटे स्तर पर उत्पादन के दौर में इनसे पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता। इन ऊर्जा स्रोतों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा को अहम दर्जा हासिल है। इसके अलावा बड़े बांधों की बजाय ऐसी बहुत छोटे स्तर की (माइक्रो) पनबिजली योजनाओं की चर्चा चली है जिनसे न तो विस्थापन होगा, न पर्यावरण विनाश और जो स्थानीय लोगों के अपने नियंत्रण में चलाई जा सकती हैं।

इसी तरह बायो गैस की अहमियत को नए सिरे से कायम करने की जरूरत महसूस की जा रही है। पहले यह कहा जाता था कि इससे जो अपेक्षाएं थीं, वे पूरी नहीं हुई हैं। पर अब गलतियां सुधारने और बेहतर मॉडल तैयार करने की चर्चा है। इसके साथ पशुधन का विकास भी जुड़ा है। एक समय था जब ट्रैक्टरों और पंपिंग सेट को बढ़ावा दिया गया। लेकिन बिजली और डीजल का संकट बढ़ने पर बहुत से किसान फिर से बैल, बैलगाड़ी और रहट को याद करने लगे हैं।

भारत जैसे ग्राम प्रधान देशों के लिए एक अहम सोच यह भी है कि जहां तक मुमकिन हो, गांवों को एनर्जी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाए। इलाके की विशेषताओं और क्षमताओं के मुताबिक कहीं पवन ऊर्जा की भूमिका ज्यादा होगी, तो कहीं छोटी पनबिजली परियोजनाओं की, तो कहीं सौर ऊर्जा की। चरागाहों की रक्षा कर स्थानीय प्रजातियों के पशुधन को बढ़ाया जाएगा और उसका इस्तेमाल खेती, यातायात और कुटीर उद्योगों में होगा। पहाड़ी इलाकों में घराटों या छोटी पनचक्कियों को बढ़ावा दिया जाएगा।

खेती को फर्टिलाइजर्स पर कम निर्भर किया जाए तो इससे तेल और गैस की काफी बचत हो सकती है। अमेरिका में फूड से बायो-फ्यूल बनाने का गलत तरीका अपनाया गया है, लेकिन अगर पहले से उग रहे किसी स्थानीय पेड़ या घास से गांव की जरूरत लायक बायोडीजल बन सके तो क्या बुराई है? गांवों के पढ़े-लिखे युवाओं, को नए तरीके खोजने की प्रेरणा दी जानी चाहिए।

कुछ अरसा पहले यूपी के ललितपुर जिले के किसान मंगल सिंह ने मंगल वॉटर वील बनाया, जिससे बिजली या डीजल के बिना सिंचाई का पानी नदी-नालों से लिफ्ट हो सकता है। इस टैक्नीक पर पेटेंट भी हासिल हुआ है। अगर ऐसी खोजों का सही प्रचार-प्रसार किया जाता तो अरबों रुपये की एनर्जी बच सकती थी।

सूखती रही गंगा तो सुबह-ए-बनारस कैसे होगी - पीटीआई

वाराणसी : गंगा के किनारे हजारों साल पहले बसी काशी (आधुनिक वाराणसी )का अस्तित्व आज खतरे में है। वजह है पानी की कमी से गंगा का सूखते जाना। इस पवित्र नदी का पाट पिछले 20 सालों में ही लगभग 100 मीटर सिकुड़ गया है।

आंकड़े बताते हैं कि 1988 में काशी में गर्मियों के दौरान गंगा नदी की औसत चौड़ाई 340-350 मीटर हुआ करती थी। लेकिन इस साल इस नदी की धारा महज 250 मीटर के आसपास रह गई है। यह स्थिति गंभीर ही नहीं भयानक लगती है।

आईआईटी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्थापित 'गंगा अनुसंधान प्रयोगशाला' के प्रमुख प्रोफेसर उदयकांत चौधरी ने बताया कि 1988 में उनके रिसर्च में गंगा नदी में जल स्तर मई महीने में समुद तल की तुलना में 58.8 मीटर से लेकर 58.6 मीटर तक नापा गया था जो इन गर्मियों में सवा मीटर से ज्यादा घट कर 57.2 मीटर के आसपास रह गया है।

सवाल उठता है कि बनारस के अस्तित्व से जुड़ी गंगा में जब जल के बजाय बालू के टीले ही रह जाएंगे तो यहां दुनिया भर में मशहूर 'सुबह ए बनारस' कैसे होगी? कौन आएगा यहां पर्यटन करने। दूसरी ओर देश की दूसरी नदियों के साथ गंगा के जल का सबसे प्रामाणिक अध्ययन करने वाली केंद्र सरकार की संस्था केंद्रीय जल आयोग के मुख्य अभियंता ए. के. गंजू ने बताया कि स्थिति उतनी भयानक नहीं है जितनी बताई जा रही है।

यह पूछे जाने पर कि आयोग के आंकडे़ क्या कहते हैं गंजू ने गंगा में पानी के स्तर की माप गोपनीयता के नाम पर बताने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि उन्होंने यह जरूर बताया कि समुद्र तल की तुलना में वाराणसी में गंगा का जलस्तर इस समय 57.7 मीटर के आसपास है जो बरसात में अभी भी 75 मीटर के ऊपर तक चला जाता है।

भारत-बांग्लादेश गंगा जल समझौते की वजह से केंद्र सरकार का कोई भी अधिकारी गंगा में जल की स्थिति पर मुंह खोलने को राजी नहीं हैं लेकिन दबी जुबान से गंगा में जल की भारी कमी को सभी स्वीकार करते हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भूगर्भ शास्त्र के पूर्व प्रोफेसर व गंगा और काशी के अन्य जल सोतों का अध्ययन करने वाले प्रोफेसर जी. सी. चौधरी ने भी स्वीकार किया कि गंगा में जलस्तर गिरने से अब गर्मियों में वाराणसी के भूजल भंडार से ही गंगा नदी में पानी की कुछ भरपाई हो रही है।

इससे यहां के भूजल भंडार में जल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। गंगा में पानी की इतनी कमी हो गई है कि बनारस के ऐतिहासिक रामनगर किले के सामने गंगा में लगभग 200 मीटर चौड़ी बालू की पट्टी लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबाई तक खिंच गई है। यह हालत काशी के रेगिस्तानी भविष्य की ओर इशारा करती है।

बनारस के भूजल में परमाणु रेडियो-धर्मिता पायी गयी

भारत सरकार न केवल भारत-अमरीका परमाणु संधि को बेहद उत्साह के साथ आगे बढ़ा रही है बल्कि इस तथ्य को भी नकार रही है कि विश्व में परमाणु कचरे को सुरक्षा पूर्वक नष्ट करने का कोई तरीका अभी तक इजात नहीं हुआ है.
भारत में सालों से जादूगोड़ा में परमाणु कचरे को फेंका जाता है - और चूँकि जादूगोड़ा बनारस के नज़दीक ही है, यह हो सकता है कि जादूगोड़ा में परमाणु रेडियो-धर्मी कचरे की वजह से बनारस के भू-जल में रेडियो-धर्मिता आ गयी हो.
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भूतपूर्व आचार्य जी सी अगर्वाल और आचार्य एस.के अगर्वाल ने शोध किया और पाया कि बनारस के भू-जल में रेडियोधर्मी युरेनिम है.
हालाँकि उत्तर प्रदेश और केंद्रीय भारत सरकार इस रपट से बे-खबर है.
इस शोध में ११ ट्यूब-वेल से सैम्पल लिए गए थे. इस शोध में रेडियोधर्मी युरेनिम की मात्रा २ - ११ पार्ट पर बिलियोन पाई गयी. युरेनिम की जो मात्रा 'सुरक्षित' मानी गयी है वोह १.५ पार्ट पर बिलियोन है.
शोधकर्ताओं के अनुसार भूजल में अन्य भारी मेटल भी पाए गए जैसे कि च्रोमिम, मग्नेसियम, निक्केल, फेर्रोउस, कोप्पेर, जिंक और लेड.
उत्तर प्रदेश के पोल्लुशन कण्ट्रोल बोर्ड (प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) के सदस्य-सचिव सी.एस भट्ट के अनुसार उनके पास ऐसी कोई रपट नहीं आई है कि बनारस के भूजल में रेडियोधर्मी युरेनिम है, और यदि रेडियोधर्मी युरेनिम हो भी तो उनके पास कोई ऐसी जांच करने के संसाधन नहीं है जिससे यह पता लगाया जा सके।
रेडियोधर्मी युरेनिम से स्वास्थ्य पर भयंकर कुप्रभाव पड़ सकते हैं जिनमें पार्किन्सन बीमारी और अन्य दिमागी बीमारियाँ प्रमुख हैं, और कैंसर का अनुपात भी बढ़ सकता है।

पानी वही, जो डायनासॉर पीते रहे

संजय वर्मा - नवभारत टाइम्स

भविष्य में भी इंसान वही पानी पी रहे होंगे, जो लाखों साल पहले धरती पर विचरते डायनासॉरों ने पीया था और अपने शरीर से बाहर निकाला था। यह एक अकल्पनीय सी संभावना है, पर इसकी अकल्पनीयता साबित करने से पहले अगर यह तथ्य देखा जाए कि पृथ्वी पर आज भी वही पानी लगभग उसी मात्रा में विद्यमान है, जितना कई लाख साल पहले था और आगे भी इतनी ही मात्रा में बचा रहेगा, तो इस संभावना में कुछ भी असामान्य नहीं लगता।

भले ही मंगल पर बर्फ और पानी मिल जाए, पर सच तो यह है कि आगे भी पृथ्वी पर पानी की मात्रा आज जितनी ही उपलब्ध रहेगी। वह बेशक कहीं बाहर नहीं जाएगा, पर तय है कि इस ग्रह पर पानी कहीं स्पेस से भी नहीं आएगा। लेकिन यहां कुछ मुश्किलें हैं। असल में, पृथ्वी पर मौजूद पानी लगातार प्रदूषित किया जा रहा है, उसके सोर्स घट रहे हैं और बढ़ती आबादी के कारण उसकी खपत में इज़ाफा हो रहा है। इसलिए सवाल यह है कि क्या आगे भी हमें ज़रूरत के मुताबिक पेयजल मिलता रहेगा?

जल संसाधनों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए साफ पेयजल की उपलब्धता एक बड़े संकट की तरह नज़र आती है, पर इसका एक हल समुद्री जल में छिपा है। धरती की दो तिहाई जगह घेरने वाले समुद्रों को देख कर यह सवाल हर किसी के मन में उठता है कि इस पानी को पीने लायक क्यों नहीं बनाया जा सकता।

समुद्रों में पृथ्वी का 97 फीसदी पानी मौजूद है। शेष पानी का बड़ा हिस्सा बर्फ के रूप में पर्वतों और पृथ्वी के ध्रुवों पर जमा है और बहुत थोड़ा सा पानी नदियों, झीलों और भूजल के रूप में हमारे पीने के लिए उपलब्ध है। पर इस सिलसिले में समुद्रों को बड़ी हसरत से देखते आए हैं। हम जानते हैं कि अगर इसमें से नमक अलग किया जा सके, तो अगली कई सदियों तक इंसानों की पानी की ज़रूरत आसानी से पूरी की जा सकती है। पर समुद्री जल से नमक को छान लेना कभी आसान नहीं रहा। वैसे तो 19वीं सदी के आखिर में यमन और सूडान आदि मुल्कों में समुद्री जल को पेयजल में बदलने का काम शुरू हो गया था, पर आज, जबकि दुनिया में डिसेलिनेशन (समुद्री जल को पीने के पानी में बदलने की प्रक्रिया) के 13080 प्लांट कायम हैं, तो भी इनसे इस्तेमाल योग्य पानी की ग्लोबल ज़रूरत का सिर्फ 0.5 फीसदी ही उत्पादित किया जा सका है।

समुद्र के खारे पानी को मीठे पानी में बदलने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है। नमक छान कर समुद्री जल को मीठा पानी बनाने में फिलहाल थर्मल डिसेलिनेशन तकनीक को काम में लाया जा रहा है, पर रिवर्स ऑस्मोसिस के इस काम की लागत काफी ज़्यादा है। भारत जैसे देश में इस तरह डिसेलिनेशन से मिलने वाले पानी की मौजूदा कीमत 50-55 रुपये प्रति लीटर बैठती है, जो बोतलबंद पानी से कई गुना ज़्यादा है। लेकिन हम जानते हैं कि डिसेलिनेशन की लागत आगे चलकर कम होनी है। इसे कम किया ही जाना होगा, क्योंकि आखिर में हमारे पास समुद्र ही होंगे, जहां पानी होगा। वजह, भूजल का स्तर इतना नीचे हो गया होगा कि उसे वहां से खींचकर निकालना बेहद मुश्किल और बेहद महंगा होगा। सभी नदियों का जल या तो यमुना की तरह भयानक ढंग से प्रदूषित होगा या वे सूख चुकी होंगी। और झीलें-झरने तो शायद किताबों या कंप्यूटर स्क्रीनों पर ही बची रह पाएं।

लेकिन समुद्र से मिले पानी में भी यह बात कॉमन रह सकती है कि मुमकिन है उसे अतीत में डायनासॉरों ने पीया हो।

कौवों का कम होना पर्यावरण के लिए खतरनाक संकेत

वाराणसी (आईएएनएस)। पर्यावरण का अहम हिस्सा रहे गिद्ध अब इतिहास के पन्नों में दर्ज होने के कगार पर हैं, पर बात गिद्धों तक ही खत्म होती नजर नहीं आती। आज जो हालात हैं उसमें अब कौवों की बारी नजर आ रही है, क्योंकि जिस तरह से कौवों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है उससे आने वाले दिनों में प्यासे कौवे की कहानी सिर्फ कहानी भर ही रह जाने की उम्मीद है।

आज हम विकास की इस अंधी दौड़ में कौवों की महत्ता को भले ही न समझ पा रहे हों लेकिन लगातार कम होती उनकी संख्या से पर्यावरण प्रेमी जहां इसे पर्यावरण के लिए एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं वहीं वैज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि कौवों की स्थिति भी कही गिद्धों की तरह ही न हो जाए।

आज भी कौवा जितना उपयोगी पर्यावरण के लिए है उतना ही वह मानव जीवन के लोक व्यवहार में भी शामिल है। पहले कागा जब मुंडेर पर बोलता था तो मेहमानों के आगमन का सूचक होता था और यदि किसी को चोंच मार देता था तो उसके लिए घोर अपशकुन माना जाता था। पुरखों की बनाई हुई यह कहावत शकुन और अपशकुन को लेकर शायद कम थी उसकी महत्ता को लेकर ज्यादा थी।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर डाक्टर बी. डी. त्रिपाठी कौवों की लगातार कम होती संख्या का कारण बताते हुए कहते हैं कि "ऐसा दो कारणों से हो रहा है। पहला कारण तो यह है कि वातावरण में अचानक जो परिवर्तन हो रहा है और खाद्य पदार्थो में जो जहरीली चीजें आ रही हैं, इनकी वजह से कौवों की प्रजनन क्षमता में कमी आने लगी है और दूसरी वजह यह है कि धुआंधार वृक्षों की हो रही कटाई से इनके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है, क्योंकि कौवों का स्वभाव है कि वे एकांत में अपना घौंसला बनाते हैं जो आजकल उन्हें कम मिल पा रहा है।

गौरतलब है कि यहां कौवों की मुख्यत: दो प्रजातियां आम तौर पर देखी जातीं हैं। एक जो पूरे काले होते हैं और दूसरे जिनके गले में सफेद धारी होती है। कौवों की लगातार कम हो रही संख्या पर शोध कर रहे डाक्टर त्रिपाठी बताते हैं कि सफेद धारी वाले कौवे तो अभी दिखाई पड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी प्रधिरोधक क्षमता काले कौवों से कुछ ज्यादा होती है। लेकिन डाक्टर त्रिपाठी इस बात से आगाह करते हैं कि इसका यह मतलब नहीं कि सफेद धारी वाले कौवों पर बदलते पर्यावरण का असर नहीं पड़ेगा।

कहना न होगा कि इनकी लगातार कम होती संख्या गिद्धों के खत्म होने से कम खतरनाक नहीं है। इनके नहीं रहने से पृथ्वी की पूरी खाद्य श्रृंखला ही असंतुलित हो जाएगी।

इंसानी जिंदगी में कौवों के महत्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की जिंदगी में तमाम किस्से कौवों से जोड़ कर देखे जाते रहे, लेकिन अब इनकी कम होती संख्या चिंता का सबब बन रही है। जानकार कहते हैं कि इसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम ख़ुद ही हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करके कौवों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

कौवा के सिर पर चोंच मारना किसी इन्सान के लिए अपशकुन होता है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन आज जाने- अनजाने मशीनीकरण के इस युग में हम जिस तरह प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहे हैं उससे इन कौवों के लिए अपशकुन जरूर साबित होने जा रहा है। अगर इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया और यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब कौवे भी गिद्धों की तरह कहीं नजर न आएं।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

पर्यावरण के लिए गांधीगीरी का रास्ता

शिशिर प्रशांत / July 08, 2008


डॉ. जी. डी. अग्रवाल आजकल सुर्खियों में हैं। वजह यह है कि उन्होंने उत्तराखंड के पहाड़ी नगर उत्तरकाशी में अनिश्चितकालीन अनशन शुरू किया। उनका विरोध प्रदेश में जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण को लेकर है।
कुछ लोग गलती से उन्हें पर्यावरण सचेतक सुंदर लाल बहुगुणा भी समझ लेते हैं। जब उनके अनशन की खबरें स्थानीय अखबारों और टेलीविजन चैनलों में आनी शुरू हुई तो लोगों को यह अंदाज हुआ कि वह बहुत ही अलग तरह के व्यक्ति हैं। अग्रवाल मध्य प्रदेश के चित्रकूट से ताल्लुक रखते हैं। उन्होंने बहुगुणा की तरह ही इस विरोध की कमान संभाल ली है। अग्रवाल के करीबी लोगों का कहना है कि उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में बहुत बेहतर काम किया है। अग्रवाल ने कैलीफोर्निया यूनीवर्सिटी से पीएचडी की है और वह आईआईटी कानपुर में सिविल ऐंड इनवायरमेंटल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख थे। इसके अलावा वह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले सचिव थे और उन्होंने वहीं से सुधार का बीड़ा उठा लिया था।
अग्रवाल ने गांधीवादी विचारों को अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया। उन्होंने शादी भी नहीं की। वह अपनी जिंदगी को बेहद साधारण तरीके से जीते हैं और अपने कपड़े भी खुद ही साफ करते हैं। यही नहीं वह अपना खाना भी खुद ही बनाते हैं। इसके अलावा वह चित्रकूट की कुटिया को भी गांधी जी की तरह ही खुद से साफ भी करते हैं। गांधीवादी विचारों के पैरोकार 76 साल की उम्र होने के बावजूद भी साइकिल की सवारी करते हैं। जब उन्हें कहीं दूर जाना होता है तो वह साधारण बस या फिर ट्रेन की सवारी करते हैं।
मशहूर पर्यावरणविद् और मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और सीएसई के संस्थापक अनिल अग्रवाल ने इकोलॉजी के क्षेत्र में अपना एक मुकाम बनाया है जो अग्रवाल के ही शिष्य रहे हैं। इस तरह के शिष्यों की सूची अंतहीन है। दूसरे मैगसेसे विजेता एम. सी. मेहता और पीएसआई के सेक्रटरी रवि चोपड़ा, अग्रवाल को बेहद सम्मान का दर्जा देते हैं। चोपड़ा बताते हैं कि अग्रवाल ने भागीरथी नदी के किनारे उत्तरकाशी में अनशन के दौरान भी अपने समय का किस तरह सही इस्तेमाल किया। अग्रवाल ने गंगोत्री के संरक्षण के लिए जहां से भागीरथी निकलती है, पेन और कागज का इस्तेमाल करके योजना बना डाली।

अग्रवाल का मानना है कि अगर इसके संरक्षण के कुछ कड़े उपाय नहीं किए गए तो यह पवित्र नदी भविष्य में बिल्कुल सूख जाएगी। उनका कहना है कि उत्तरकाशी के निचले स्तर की नदियां सूखी पड़ी हैं। वह चेतावनी देते हुए कहते है कि अगर इन नदियों पर इस तरह की निर्माण परियोजनाएं चलती रहीं तो ये नदियां सूख जाएंगी और पारिस्थितकी तंत्र पर इसका असर जरूर पड़ेगा खासतौर पर जलीय जीव जंतुओं पर। अग्रवाल ने 17 दिन का अपना उपवास सोमवार की शाम को तोड़ा जब उन्हें केंद्र की ओर से यह आश्वासन मिला कि एक विशेषज्ञ समिति बनाई जाएगी जो भागीरथी नदी की वर्तमान स्थिति का जायजा लेगी। यह समिति तीन महीनों में अपनी रिपोर्ट देगी।
हालांकि अग्रवाल के नजदीकी सूत्रों का कहना है कि वह अपना उपवास तोड़ने के बाद से खुश नहीं हैं। उन्होंने अनाज लेने से मना कर दिया है और उनका कहना है कि वे केवल फल, सब्जियां और पानी पर ही जिंदा रहेंगे जब तक वह अपने लक्ष्य को नहीं पा लेते। अग्रवाल का कहना है कि भागीरथी नदी के ऊपरी हिस्से में कोई ऐसा काम नहीं होना चाहिए जिससे प्राकृतिक संतुलन, पारिस्थितिकी और पर्यावरण शुद्धता पर कोई असर पड़े। अग्रवाल के दबाव की वजह से ही उत्तराखंड सरकार ने अपनी दो बड़ी परियोजनाओं 480 मेगावॉट की पाला मनेरी और 400 मेगावॉट की भैरोंघाटी परियोजना पर काम करवाना रोक दिया है।
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एडवेंचर सेल पढ़ाएगी पर्यावरण का पाठ

निखिल सूर्यवंशी
भोपाल. बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की एडवेंचर सेल अब केवल स्पोर्ट्स के लिए ही नहीं जानी जाएगी बल्कि पर्यावरण क्षेत्र में भी इसकी ख्याति फैलेगी। पहाड़ों पर खतरों से खेलना सिखाने वाली एडवेंचर सेल जल्द ही बर्ड वॉचिंग, नेचर वॉक सहित पर्यावरण की जागरूकता के लिए कार्य करेगी।
विवि की इस सेल ने यह प्रस्ताव तैयार कर लिया है। यह सेल विभिन्न कार्यक्रम आयोजित कर पर्यावरण बचाने के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रचार-प्रसार भी करेगी। सेल की योजना बीयू कैंपस में ही बर्ड वॉचिंग की व्यवस्था करने की है। यह छात्रों के ज्ञान वर्धन में सहायक होगी।

योजना में शामिल है
खेल के दायरे से निकलकर पर्यावरण से जुड़ने वाली यह सेल बर्ड वॉचिंग, नेचर वॉक और ईको-पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रम आयोजित करेगी, ताकि पर्यावरण के प्रति अधिक से अधिक लोगों को जागरूक किया जा सके। संबंधित अधिकारी ने बताया कि ऐसे स्थानों की तलाश जारी है जिन्हें ईको-पर्यावरण के उपयुक्त बनाया जा सके। इसके लिए सर्वे भी किया जाएगा। सेल द्वारा तैयार योजना का उद्देश्य है छात्रों को कैंपस में ही प्रकृति से जुड़ी जानकारी प्रदान करना है।

छात्रों को होगा लाभ
सेल से जुड़े अधिकारी के अनुसार कई छात्रों को पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी जानकारी नहीं होती, न वे बर्ड वॉचिंग के बारे में जानते हैं और न ही इसके महत्व के बारे में। जीव जन्तुओं का हमारे जीवन में क्या महत्व है छात्रों के लिए यह जानना आवश्यक है। उन्हें इससे जुड़ी जानकारी प्रदान करने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे साथ ही विशेषज्ञों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाएगा।

क्यों लिया गया फैसला
एडवेंचर सेल अब तक छात्र केवल रॉक क्लाईमिंग, क्लाईमिंग, रैपलिंग, जुमारिंग, पैरासेलिंग, रिवर क्रॉसिंग, रॉप वॉकिंग और कैंपिंग जैसी गतिविधियों में भाग लेते थे जो उन्हें रोमांच से तो भर देती थीं लेकिन प्रकृति के अधिक नजदीक जाने के लिए आवश्यक था कि पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। हाल ही में पहली बार ऐसा कैंप आयोजित किया गया जिसमें लोगों और छात्रों की प्रतिक्रिया सराहनीय रही। इसके पश्चात निर्णय लिया गया कि इसे एडवेंचर सेल में शामिल कर लिया जाए।
पर्यावरण के प्रति छात्रों को जागरूक करने के लिए एडवेंचर सेल अब बर्ड वॉचिंग और नेचर वॉक सहित कई कार्यक्रम आयोजित करेगी। नए स्थान तलाश किए जाएंगे और उन्हें ईको-पर्यावरण के रूप में विकसित किया जाएगा। बीयू कैंपस में ही बर्ड वॉचिंग कैंप की स्थापना की जाएगी।
-मुकेश शर्मा, प्रभारी, एडवेंचर सेल

पर्यावरण प्रबंधन पद्धति प्रमाणन - क्या है

अंतर्राष्‍ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) विश्‍वभर के संगठनों को उनकी गतिविधियों, उत्‍पादों और सेवाओं के पर्यावरण संबंधी प्रभावों का प्रबंध करने के लिए ढॉंचा और सतत विकास प्राप्‍त करने के लिए सबके लिए एक जैसी अंतर्राष्‍ट्रीय पर्यावरण प्रबंध पद्धति (ईएमएस) बनाना, जो पर्यावरण प्रबंधन के एक साधन के रूप में प्रयुक्‍त हो, के लिए ISO 14000 श्रृंखला के मानकों का प्रकाशन किया है । ISO 14000 आधारभूत मानकों की एक ऐसी विकासशील श्रृंखला है, जिसमें पर्यावरण संबंधी विभिन्‍न क्षेत्र शामिल हैं । ISO 14000 में छह भिन्‍न-भिन्‍न किंतु संबंधित विषयों के बारे मे बताया गया है जैसे पर्यावरण प्रबंध पद्धति (ईएमएस), पर्यावरण ऑडिटिंग (ईए), पर्यावरण निष्‍पादन मूल्‍यांकन (ईपीई), पर्यावरण लेबलिंग (ईएल), जीवन चक्र आकलन (एलसीए) और उत्‍पाद मानकों में पर्यावरण पहलू (ईएपीएस) । इसके साथ ही ये मानक प्रभावी पर्यावरण प्रबंध पद्धति को लागू करने के लिए आवश्‍यक मार्गदर्शन देते हैं ।

आवेदकों के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत

प्रस्‍तावना
भारतीय मानक ब्‍यूरो (भा मा ब्‍यूरो) भारत का एक राष्‍ट्रीय मानक निकाय के रूप मे पिछले पॉंच दशकों से अधिक समय से भारतीय उद्योग को राष्‍ट्रीय मानकों के निर्धारण और उत्‍पाद प्रमाणन योजना के प्रचालन से सेवा प्रदान कर रहा है ।
पर्यावरण के प्रति जनता की जागरूकता में वृद्धि होने के कारण IS/ISO 14000 मानकों की श्रृंखला के अनुसार भा मा ब्‍यूरो ने पर्यावरण प्रबंध पद्धति (ईएमएस) प्रमाणन आरंभ किया है, जो किसी संगठन की प्रक्रिया में निर्णय लेने के लिए महत्‍वपूर्ण तत्‍व बन गया है । ये मानक पर्यावरण प्रबंध पद्धति पर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय रूप से स्‍वीकृत ISO 14000 मानको की श्रृंखला के अधिग्रहण और समान है ।
इस योजना में IS/ISO 14001 के अनुसार पर्यावरण प्रबंध पद्धति प्रमाणन लाइसेंस की स्‍वीकृति दी जाती है जो ISO 14001:1996 के समान है ।

ISO 14001:1996 “पर्यावरण प्रबंध पद्धति – उपयोग के लिए मार्गदर्शन सहित विशिष्टि

ISO 14001:1996 कार्यान्‍वन किया जाना चाहिए, जिससे कानूनी और नियामक अपेक्षओं के अनुपालन/अनुरूपता, पर्यावरण निष्‍पादन में सतत सुधार के लिए संगठन की क्षमता का पता चल सके । यह मानक संगठन को आवधिक पुनर्विचार और पर्यावरण प्रबंध पद्धति (ईएमएस) के मूल्‍यांकन के लिए उत्‍साहित करता है जिससे सुधार और उनके कार्यान्‍वन के अवसरों की पहचान हो सके । यह पद्धति आधारित मानक है, जो किसी संगठन को उसके पर्यावरण प्रभाव/मुद्दे के प्रबंध के लिए ब्‍लू-प्रिंट देता है ।
ईएमएस सतत सुधार की प्राप्ति के लिए ढांचागत प्रक्रिया प्रदान करता है, जिसकी दर और सीमा संगठन के द्वारा सामाजिक-आर्थिक और अन्‍य परिस्थितियों के प्रकाश मे निर्धारित किया जा सकता है ।
समग्र प्रबंध पद्धति सहित पर्यावरण विषयों का एकीकरण पर्यावरण प्रबंध पद्धति के प्रभावी कार्यान्‍वन में सहयोग देता है ।

प्रमाणन कैसे प्राप्‍त करें
आवेदन पत्र और उसकी प्रक्रिया
वह संगठन जो IS/ISO 14001 के अनुसार पर्यावरण प्रबंध पद्धति (ईएमएस) के लिए लाइसेंस प्राप्‍त करना चाहता है, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इस मानक के अनुसार ईएमएस का प्रचालन कर रहे हैं । संगठन को भा मा ब्‍यूरो के निकटतम क्षेत्रीय कार्यालय में निर्धारित आवेदन शुल्‍क, जैसा लागू हो, सहित तिहरे (फार्म IV) में निर्धारित प्रोफार्मा पर आवेदन करना चाहिए । प्रत्‍येक आवेदन पत्र के साथ प्रलेखित पर्यावरण प्रबंध पद्धति ( जैसे पर्यावरण मैनुअल आदि) के साथ पूरक प्रश्‍नावली (फार्म VII) आवश्‍यक है । शुल्‍क की सूची निम्‍नलिखित अनुसार है। आवेदन पत्र अहस्‍तांतरणीय है। कृपया आवेदक पत्र और प्रश्‍नावली उपमहानिदेशक (अपने क्षेत्र) को भेंजे ।
आवेदन पत्र में संगठन के मालिक, भागीदार अथवा मुख्‍य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) अथवा संगठन की तरफ से कोई अन्‍य व्‍यक्ति जिसे हस्‍ताक्षर करने का प्राधिकार दिया हो, हस्‍ताक्षर होने चाहिए । आवेदन पत्र में हस्‍ताक्षर करने वाले व्‍यक्ति के नाम और पदनाम आवेदन-पत्र में दिए खाली जगह में स्पष्‍ट रूप से लिखे जाने चाहिए । लाइसेंसधारी नवीकरण आवेदन पत्र को इस वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं ।
http://www.bis.org.in

मुनाफा नहीं, पर्यावरण है सुजलॉन का मकसद

कारोबार बढ़ाने के लिए कंपनी का संचालन कारोबारी घरानों नहीं बल्कि अमेरिकी या यूरोपीय मॉडल पर होगा

ब्लूमबर्ग



पुणे में कंक्रीट की पांच मंजिला इमारत में अचानक बिजली चली जाती है और अंधेरा हो जाता है। लगभग 30 सेकंड बाद बैकअप जेनरेटर चालू होता है और लाइट जलती है।


यह नजारा है दुनिया की शीर्ष पांच टरबाइन निर्माता कंपनियों में से एक भारतीय कंपनी सुजलॉन के मुख्यालय का। कंपनी के संस्थापक तुलसी तांती ने कहा 'हमारे लिए तो यह रोज का काम है। देश में अपने कारोबार को बढ़ावा देने के लिए आपको देश में मौजूद संसाधनों की सीमाओं को जानना पड़ता है।'

50 वर्षीय तांती ने एक दशक पहले बिजली की कटौती और इसकी बढ़ती कीमतों से जूझती हुई भारतीय कंपनियों को पवन चक्कियों की आपूर्ति करना शुरू किया था। वर्ष 1993 में गुजरात में अपनी टेक्सटाइल कंपनी के बढ़ते बिजली बिल को कम करने के लिए दो पवन चक्कियां खरीदी थी। तांती ने कहा, 'दो साल में ही हमें इस क्षेत्र में मौजूद आर्थिक संभावनाओं का अंदाजा हो गया था। तब हमने इसी क्षेत्र पर ध्यान देने के बारे में सोचा।'

साल 1995 में सुजलॉन की स्थापना हुई और आज सुजलॉन इस क्षेत्र में दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी कंपनी है। विंड टरबाइन निर्माता कंपनियों के लिए मांग के साथ तालमेल बिठाना काफी मुश्किल हो रहा है। कच्चे तेल की कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल होने से और लगातार बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से विंड टरबाइनों की मांग में तेजी से इजाफा हो रहा है।

चीनी बाजार पर नजर


पिछले साल चीन की सरकार ने साल 2020 तक देश की कुल ऊर्जा खपत का लगभग 15 फीसदी पवन ऊर्जा के जरिये किया जाए। जनवरी में यूरोपीय संघ ने भी कार्बन रहित ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ाकर 2020 तक 20 फीसदी करने की मंजूरी दी थी। साल 2005 तक यह आंकड़ा 6 फीसदी ही था। साफ सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के निर्देशों का पालन करने के लिए लगभग सभी कंपनियां अब पवन ऊर्जा के इस्तेमाल को तरजीह दे रही हैं। कंपनी इस बाजार में मौजूद संभावनाओं को भुनाना चाहती है।

फर्श से अर्श तक


गेहूं की खेती करने वाले किसान के घर पैदा हुए तुलसी तांती और यूबी समूह के चेयरमैन विजय माल्या में कुछ समानताएं हैं। हाई स्कूल के बाद तुलसी ने एक सरकारी पॉलीटेक्नीक संस्थान से इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिप्लोमा लिया। साल 2005 में सुजलॉन का आईपीओ आने के बाद तांती और उनके परिवार की कुल संपत्ति लगभग 95 अरब रुपये की हो गई है।

लेकिन इन सबके बावजूद तांती चकाचौंध से दूर रहते हैं। सुजलॉन के चेयरमैन पुणे में अपनी पत्नी के साथ चार बैडरूम वाले अपार्टमेंट में रहते हैं। जहां पर 4,000 वर्ग फीट जमीन की कीमत लगभग 6 करोड़ रुपये है। उनसे छोटे तीन भाई सुजलॉन में कार्यकारी हैं और इसी इमारत के दूसरे अपार्टमेंट में रहते हैं। पुणे में अपने छोटे से दफ्तर से तांती बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ते हुए खतरे को देखते हुए अपनी कंपनी का विकास और तेजी से करने की कोशिश कर रहे हैं।

सुजलॉन के दुनिया भर में लगभग 13,000 कर्मचारी हैं और कंपनी उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और चीन में उत्पादों का निर्यात करती है। कंपनी की योजना साल 2013 तक वैश्विक बाजार में अपनी हिस्सेदारी 25 फीसदी करने की है। इसके साथ ही कंपनी विंड टरबाइन के बाजार में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी बन जाएगी। तांती ने कहा, 'तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमें भी तेजी से काम करना होगा। इसीलिए इस समय तेजी से विकास हमारा पहला लक्ष्य है न कि मुनाफा कमाना।'

नहीं पसंद भाई-भतीजावाद

अपना साम्राज्य खड़ा करने वाले तांती बाकी भारतीय कारोबारियों से अलग हैं। जब तांती रिटायर होंगे तो वह अपने कारोबार की बागडोर अपने बच्चों के हाथों में नहीं सौपेंगे। तांती के दो बच्चे हैं और दोनों ही हाँग काँग में हैं। 23 साल का बेटा प्रणव मेरिल लिंच ऐंड कंपनी के लिए काम करता है और 22 साल की बेटी निधि क्रेडिट स्विस ग्रुप के लिए काम करती है।

इस बारे में तांती कहते हैं, 'मैंने वह काम नहीं किया जो मेरे पिताजी करते थे। मेरे बच्चे भी मेरे नक्शेकदम पर नहीं चलेंगे। सुजलॉन का संचालन पूरी तरह से एक व्यावसायिक टीम करेगी। निदेशक मंडल में परिवार का एक सदस्य रहेगा। हम इस कंपनी को अमेरिकी या यूरोपीय कंपनी की तरह ही चलाएंगे।'
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