मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

आपदाओं से बचाते है मैन्ग्रोव वन - डा. चन्द्रशीला गुप्ता

आम आदमी का मैन्ग्रोव शब्द से कोई खास परिचय नही होता है। यहां तक कि कुछ लोग शब्द का विश्लेषण ‘आम के पेड़ों का वन’ के रूप में कर लेते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि मैन्ग्रोव पुर्तगाली शब्द मैन्ग्यू अर्थात् कम विकसित या ठिगने बड़े पौधों का समूह से बना है। हिन्दी में हम इन्हें कच्छीय वनस्पति कहते हैं। ये विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियां हैं जो खारे पानी को सहन कर सकती है और समुद्री पानी में आंशिक रूप से डूब जाने पर भी जीवित रह सकती है। ये जंगल समुद्र तटों पर नदियों के मुहानों व ज्वार प्रभावित क्षेत्रों में पाये जाते हैं। समुद्री पानी के रासायनिक गुणधर्म काफी भिन्न होते हैं। इसमें लवण ज्यादा होते हैं और नाइट्रोजन की बेहद कमी होती है दरअसल नाइट्रोजन के बिना तो जीवन संभव नहीं है। मगर समुद्र में इसकी कमी नदियों द्वारा बहाकर लाए गए मृत जैविक पदार्थ पूरा करते है। यही वजह है कि नदी का मुहाना काफी उपजाऊ क्षेत्र होता है जबकि मुख्य भूमि से दूर समुद्री पानी काफी अनुत्पादक होता है जहां केवल कोरल जैसे स्वपोषी ही पनप सकते हैं। इन उपजाऊ क्षेत्रों में प्रकृति ने यहां की विशिष्ट परिस्थिति के साथ तालमेल बैठाकर अपने ही प्रकार की अनोखी वनस्पति मैन्ग्रोव को जन्म दिया।
मुर्गी पहले या अंडा?
मैन्ग्रोव वनस्पतियां समुद्र तट को आगे बढ़ाने की अदुभुत क्षमता रखती है लेकिन यह कहना कठिन है कि मलबा इनके कारण जमा हुआ या मलबे के कारण इन्होंने जड़ पकड़ना शुरू किया। प्रश्न कुछ ऐसा ही है कि पहले मुर्गी पैदा हुई या अण्डा? लेकिन फिर भी यह तथ्य है कि जब एक बार यह वनस्पति किसी स्थान पर विकसित हो जाती है तब नदियों द्वारा लाया गया मलबा वहां लगातार जमा होने लगता है। धीरे-धीरे वहां जमीन ऊपर उठने, लगती है, वनस्पतियां सक्रिय होने लगती है। समुद्र तट का यह भाग ठोस रूप धारण करने लगता है, एक अंतराल पश्चात यहां डेल्टाओं का उद्भव होता है। मैन्ग्रोव के तने के ऊपरी भाग से बहुत सारी जड़े निकलकर नीचे की ओर झुकते व फैलते हुए मलबे तक पहुंचकर जम जाती है। नई जड़ों का कुछ भाग मलबे या दलदल की सतह के बाहर होता है। इसमें मौजूद छिद्र श्वसन में मदद करते हैं। जड़ का मलबे के भीतर का हिस्सा मृदा बनाता जाता है और नई जड़ों से नए पेड़ों के तने उगते जाते हैं। इन पौधों में बीज अंकुरण के लिये बड़ी सुरक्षित विधि अपनाई गयी है। बीज गिरने से पहले ही अंकुरित होना शुरू हो जाता है। फायदा यह होता है कि दलदल में गिरने के साथ ही ये अपनी जड़े जमा लेते है। इसके अलावा बीज में गूदे की ज्यादा मात्रा होने से थोड़े भारी होते हैं और दलदल में गिरने पर भीतर गहराई में धंस जाते हैं।
लवण सहनशीलता -
मैन्ग्रोव के तने के ऊपरी भाग से बहुत सारी जड़े निकलकर नीचे की ओर झुकते व फैलते हुए मलबे तक पहुंचकर जम जाती है। नई जड़ों का कुछ भाग मलबे या दलदल की सतह के बाहर होता है। इसमें मौजूद छिद्र श्वसन में मदद करते हैं। जड़ का मलबे के भीतर का हिस्सा मृदा बनाता जाता है और नई जड़ों से नए पेड़ो के तने उगते जाते हैं। इन पौधों के बीज अंकुरण के लिये बड़ी सुरक्षित विधि अपनाई गयी है। बीज गिरने के पहले ही अंकुरित होना शुरू हो जाता है। फायदा यह होता है कि दलदल में गिरने के साथ ही ये अपनी जड़े जमा लेते है। इसके अलावा बीज में गूदे की ज्यादा मात्रा होने से थोड़े भारी होते हैं और दलदल में गिरने पर भीतर गहराई में धंस जाते हैं।
लवण सहनशीलता -
मैन्ग्रोव वनस्पतियों में लवण सहनशीलता का विशेष गुण होता है। समुद्र तट रेखा के नजदीक ज्वार का प्रभाव सबसे अधिक होता है और स्थलीय भाग की और बढ़ने पर धीरे-धीरे पानी या दलदल में नमक की मात्रा कम होती जाती है। इसलिये सबसे ज्यादा लवण सहृ पेड़ समुद्र तटीय रेखा पर पाए जाते है। फिर कम लवण सहृ पेड़ क्रमिक रूप से (नमक स्तर घटने के अनुसार) अलग-अलग समूह में रहते हैं। जहां से जमीन ऊपर उठना शुरू हो जाती है। यानी खारा पानी नीचे रह जाता है। वहां मैन्ग्रोव क्षेत्र समाप्त हो जाता है। मैन्ग्रोव वनों की बदौलत समुद्र तट आगे बढ़ना शुरू हो जाते है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ही प. बंगाल व बांग्लादेश के दक्षिण भू-भाग ने 5000 वर्ष पूर्व समुद्र से उभरना आरंभ करते हुए वर्तमान स्वरूप लिया है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार अपने प्रारंभिक चरण में बिहार की राजमहल पहाड़ियों से लेकर बांग्लादेश के दक्षिणी भू-भाग ने 5000 वर्ष पूर्व समुद्र से उभरना आरंभ करते हुए वर्तमान स्वरूप लिया है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार अपने प्रारंभिक चरण में बिहार की राजमहल पहाड़ियों से लेकर बांग्लादेश के सिल्हट क्षेत्र तक का इलाका ऊंची-नीची जमीन से जुड़ा एक समुद्री ताल था।
गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा भारी मात्रा में लाए गए मलबे के लगातार जमा होते रहने के कारण डेल्टाओं का निर्माण होना प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे मैन्ग्रोव वनस्पतियों के बनने से लैगून का भूमिकरण होता गया। यही नवनिर्मित भूमि सूखकर निवास योग्य हुई और गांव व शहर बसने लगे। यही वजह है कि इन क्षेत्रों में मनुष्य द्वारा स्थापित होने का इतिहास 1000 वर्षों से ज्यादा पुराना नहीं है। हमारा देश 3 दिशाओं से समुद्र से घिरा हुआ है और उसकी समुद्र तट रेखा पश्चिम में पाकिस्तानी सीमा से शुरू होकर गुजरात, कोंकण, मलाबार, कन्याकुमारी होते हुए ऊपर उठकर आंध्र प्रदेश व उड़ीसा से घूमती हुई बंगाल के सुन्दरवन पार करती हुई बांग्लादेश की सीमा में मिलने तक लगभग 5,500 कि.मी. लंबी है। इस संकरे पट्टीनुमा भाग में बालूघाट मडफ्लेटस उबड़-खाबड़ चट्टाने, कोरल रीफ व मैन्ग्रोव वन भरपूर है। इनमें जीवन के सर्वाधिक रूप दिखाई देते हैं। भारत व बांग्लादेश की सीमा पर गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहानों पर स्थित विश्व का सबसे बड़ा मैन्ग्रोव सुन्दरवन अद्वितीय है। यह लगभग 51,760 वर्ग कि.मी. क्षेत्र फैला हुआ है। भारत में इसका मात्र 4,226 वर्ग कि.मी. क्षेत्र है जहां विश्व के 60 प्रतिशत बाघ पाए जाते हैं। कभी अतीत में कोलकाता महानगरी भी सुन्दरवन का ही हिस्सा रही होगी। कुछ वर्ष पूर्व यहां मेट्रो रेल निर्माण कार्य के लिये भूमिगत खुदाई की गई तो मैन्ग्रोव वनस्पतियों के अवशेष पाए गए थे।
महत्वपूर्ण इकोसिस्टम -
मैन्ग्रोव वनों में विशेष प्रकार के प्राणी निवास करते है। सुन्दरवन में बाघ, हिरण, सुअर, बंदर, लंगूर, लोमड़ी, उदबिलाऊ, सांप, जंगलीबिल्ली, नेवले कई तरह के केकड़े व असंख्य कीड़े मकोड़े, पतंगे पाए जाते हैं। घड़ियाल व कछुए भी बहुतायत मिलते हैं। पक्षी मुख्यतः प्रवासी होते है जो ज्यादातर उत्तरी गोलार्ध की ठंड से बचने व प्रजनन के लिये यहां आते हैं। मैन्ग्रोव कई प्रकार की समुद्री मछलियों के अण्डे देने के क्षेत्र होते हैं। इन वनों में मौजूद वनस्पतियां, प्राणी, मृत व सड़े गले पदार्थ समुद्री जीवों के लिये भांति-भांति के भोजन उपलब्ध कराते हैं। इन प्राकृतिक आवासों में संसार की सबसे चिन्ताकर्षक समुद्री नर्सरी विद्यमान है। आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सादे पानी की मछलियां अपने प्रजनन के लिये डेल्टा क्षेत्र में आती है और शैशवकाल बिताने के पश्चात पुनः नदियों की ओर अग्रसर होकर विकास करती है। ये करीब 1600 कि.मी. यात्रा करती है। यहां मौजूद घड़ियाल व प्रवासी पक्षी भी अपने-अपने क्रिया कलापों से विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। नदियों द्वारा लाए गए मलबे में विद्यमान मृतजीवों का भोजन कर घड़ियाल इन क्षेत्रों में सफाईकर्मी की भूमिका निभाते है। साथ ही बड़ी परभक्षी मच्छलियों को खाकर मत्सियकी को संरक्षण देते हैं। मैन्ग्रोव का प्रत्येक आर्थिक महत्व भी कम नहीं है। जलाऊ लकड़ी का स्रोत होने के अलावा यहां पाए जाने वाले विशिष्ट पेड़ पौधों के माध्यम से शाकाहारी प्राणी अपना आहार (फूल, फल, शहद, साग, चारा आदि) प्राप्त करते हैं। तदोपरांत परभक्षी प्राणियों का शिकार बन प्राकृतिक भोजन श्रृंखला को गतिमान करते हैं। इन जंगलों में अनेक जड़ी बूटियां भी पाई जाती है। यहां पाया जाने वाला रैनिन काफी उपयोगी है। स्पष्ट है कि मैन्ग्रोव वन विश्व में सबसे उत्पादक इकोसिस्टम का अंग है। जो समुद्री भूभाग को उपजाऊ क्षेत्र बनाए रखकर मछलियों व अन्य समुद्री जीवों के विकास में मददगार होने के साथ-साथ समुद्र तटों में मिट्टी के कटाव व इनलैंड सूखे रोकने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
बढ़ रहा है तूफानों का देश
सुन्दरवन जैसे विशाल वेटलैंड प्रदेश पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में भूमिका निभाते हैं जिसका मानव पर कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ता है लेकिन आर्थिक विकास की अंधाधुंध दौड़ में वनों की कटाई के कारण मैन्ग्रोव प्रदेश की इकोलौजी छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण आन्ध्र, कच्छ, उड़ीसा, बांग्लादेश जैसे क्षेत्रों के प्रति वर्ष समुद्री तूफानों की मार झेलनी पड़ रही है। भारतीय तटरेखा के समीप बंगाल की खाड़ी में प्रतिवर्ष 8-10 चक्रवात आ रहे है जबकि अरब सागर तट पर एक चक्रवात आता है। हमारा पूर्वी तट व बांग्लादेश इन चक्रवाती तूफानों के प्रति संवेदनशील है। सन् 1999 में आए सुपर चक्रवात ने उड़ीसा के तटीय इलाकों में जो तबाही फैलाई थी उससे आज तक उड़ीसा उभर नहीं पाया है। सुन्दरवन को मानव अतिक्रमण के फलस्वरूप काफी नुकसान पहुंच चुका है, खासकर बांग्लादेश वाले भाग में। यही वजह है कि वहां आए दिन समुद्री तूफानी की मार पड़ती है। भारतीय सुन्दरवन भी सिकुड़ता जा रहा है लेकिन बांग्लादेश के मुकाबले यह मानव अतिक्रमण (आबादी 32 लाख) के बावजूद अभी भी सुरक्षित है। विशेषज्ञों का कहना है कि चक्रवाती तूफानों का वेग यहां 60 प्रतिशत कम हो जाता है। यही वजह है कि चक्रवाती तूफानों से प. बंगाल में कम क्षति होती है। मैन्ग्रोव वनों की इकोलौजीगत संवेदनशीलता को देखते हुए भारत सरकार ने 1950 के दशक से ही इनके संरक्षण कार्यक्रमों की ओर ध्यान देना आरंभ कर दिया है। सन् 1972 में सुन्दरवन को बाघ रिजर्व व सन् 1985 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया है ताकि भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर स्थित बाघ को समुचित संरक्षण प्रदान किया जा सके। राष्ट्र संघ ने 1977 में सुन्दरवन को विश्व संपत्ति घोषित किया है। फिर पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 के अंतर्गत मैन्ग्रोव को संवेदनशील तंत्र घोषित कर इनके दुरुपयोग व अप्राकृतिक दोहर पर रोक लगाई है। यदि मैन्ग्रोव योग्य क्षेत्रों में इन्हें बहाल किया जाए तो समुद्री चक्रवाती तूफानों के साथ-साथ त्सूनामी जैसी आपदाओं की विकरालता को भी कम किया जा सकेगा। अतः मैन्ग्रोव वनों के संरक्षण व प्रसार के लिये मुम्बई हाईकोर्ट ने भी आवश्यक निर्देश दिए हैं। दून दर्पण (देहरादून), 21 Jan. 2006

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