शुक्रवार, 28 मार्च 2008

गरमाती धरती घबराती दुनिया - -स्वाधीन




अब इसे संयोग कहें या कुछ और। तारीख, ''1 फ़रवरी 2007'', ख़बर - वार्षिक आय की दृष्टि से दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी होने के साथ-साथ दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी ऐक्सोन मोबिल ने नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए ''वर्ष 2006'' में लगभग ''40 अरब डॉलर'' का मुनाफ़ा कमाने की घोषणा की। तारीख़, ''2 फ़रवरी 2007'', ख़बर - जलवायु परिवर्तन पर बनी अंतर्राष्ट्रीय समीति ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें वातावरण में व्यापक स्तर पर देखी गई गर्मी के लिए मानवीय क्रिया-कलापों को दोषी ठहराया गया। तारीख़, ''3 फ़रवरी 2007'', ख़बर - दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी और दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी, रॉयल डच शेल ने ''2006'' में लगभग ''26 अरब डॉलर'' का मुनाफ़ा कमाने की घोषणा की।
कभी-कभी मेरे दिल मे ख़याल आता है।। कि मैं भी अपने घर के पीछे वाला मैदान खोद कर देख ही लूँ। कहीं कुछ तेल मिल गया तो मैं भी खालिस 'पति' से अरबपति हो जाऊँ। मुद्दा यह है कि जब कुछ लोगों ने यह सवाल किया कि क्यों न इन कंपनियों के मुनाफ़े पर पर्यावरण को दूषित करने में योगदान देने के लिए एक अलग से टैक्स लगाया जाए, तो इन कंपनी वालों ने जवाब दिया कि भई, हमने तो लोगों से नहीं कहा कि वे तेल जलाएँ और गाड़ियाँ चलाएँ।
अब अगर दुनिया भर मे तेल की खपत बढ़ रही है तो इसमें हमारा क्या कसूर? गाड़ियाँ बनाने वालों के भी यही जवाब हैं। फिर भी मज़े कि बात यह है कि ''2006'' में दुनिया की ''10'' सबसे बड़ी कंपनियों में 5 तेल कंपनियाँ हैं और 4 गाड़ियाँ बनाने वाली! अब दुनिया भर की सरकारों को कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। क्या कहा, आप के पास इस समस्या का हल मौजूद है? पर आपसे किसने कहा कि हम इस समस्या का हल ढूँढ रहे हैं? अपना हल अपने पास ही रखें। हमारे दिमाग़ कि ज़मीन वैसे ही बंजर हो गई है ''ग्लोबल वार्मिंग'' से। आपका हल चलाने से फसल नहीं उगने वाली। भई हम तो ढूंढ रहे हैं एक बकरा जिसकी तरफ़ उँगली दिखाकर हम अपनी गाड़ी का महँगा पेट्रोल जलाकर यहाँ से निकल लें, और अपने कारख़ानों में वैसे ही काम करते रहें। जी हाँ यही दृश्य है हर जगह। आइए नज़र डालें ''ग्लोबल वार्मिंग'' को लेकर दुनिया भर में चल रही आर्थिक और राजनैतिक उठा-पटक पर।


धरती का तापमान शायद हमारे कारण बढ़ रहा है, शायद नहीं! इस संबंध में कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सका है। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए गठित अंतर्राष्ट्रीय समिति आई.पी.सी.सी.की मानें तो अधिकांश वैज्ञानिकों के अनुसार मानवीय गतिविधियाँ ही धरती को और गर्म कर रही हैं, हालाँकि इसका खंडन करने वाले कई वैज्ञानिक तथ्य भी मौजूद हैं। कारण जो भी हो, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य ने प्रकृति का न सिर्फ़ दोहन किया है, बल्कि उसको नुकसान भी पहुँचाया है। कम से कम इस बारे में प्रयासों की आवश्यकता तो अवश्य है। इसी आशय को लेकर संयुक्त राष्ट्र की देख-रेख में तैयार किया गया क्योटो मसौदा। यह प्रयास मनुष्य द्वारा पर्यावरण के हित में लिया गया बहुत बड़ा कदम है और ''दिसंबर 2006'' तक इस पर 169 देशों और सरकारी संगठनों की सहमति हो चुकी है। इसके द्वारा कार्बन डाई-ऑक्साइड और पाँच अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाई जा सकेगी। क्योटो मसौदे के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन विकसित देश भारी मात्रा में करते हैं। विकासशील देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तो बहुत ही कम है।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि क्योटो मसौदे में बनी सर्व-स्वीकृत राय के अनुसार अभी उचित कदम न उठाए जाने की स्थिति में भविष्य में भी विकसित देश अपनी सामजिक और विकास की ज़रूरतों के लिए पर्यावरण को इसी प्रकार प्रदूषित करते रहेंगे। क्योटो मसौदे के अनुसार ''वर्ष 2008'' तक विकसित देशों को गैसों का उत्सर्जन स्तर या तो ''1990'' की स्थिति से कम से कम ''5 प्रतिशत'' नीचे लाना होगा अथवा किसी दूसरे देश को अपना तकनीकी और वैज्ञानिक सहयोग प्रदान कर उसका उत्सर्जन स्तर पर्याप्त मात्रा में कम करना होगा। यदि कोई विकसित देश ''2008'' तक ऐसा नहीं कर पाता है तो इसकी भरपाई के लिए उन्हें तकनीकी और अन्य संसाधनों के रूप में ''2008'' और ''2013'' के बीच विकासशील देशों को बड़ी कीमत चुकानी होगी। भारत और चीन जैसी तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था वाले देशों को इस मसौदे में विकासशील देशों की श्रेणी में रखा गया है।

संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक देश है, जहाँ विश्व की ''5 प्रतिशत'' आबादी रहती है और जिसकी कुल प्रदूषण में हिस्सेदारी है ''25 प्रतिशत''! अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने क्योटो मसौदे पर हस्ताक्षर तो कर दिए हैं पर अब उसकी शर्तों पर अंतिम सहमति देने से हिचकिचा रहे हैं। अमेरिका का कहना है कि चीन और भारत पर भी गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए। अमेरिका को मुख्य आपत्ति चीन से है क्योंकि चीन ही अमेरिका के बाद विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक है। चीन इस बारे में कहता है कि जनसंख्या के हिसाब से उसका कुल प्रदूषण में हिस्सा न केवल अमेरिका और यूरोप, बल्कि विश्व के कुल औसत से भी कम है। भारत और चीन जैसे देशों की समस्या है कि वहाँ के कानून में पर्यावरण संबंधी नियम न के बराबर हैं और जो हैं भी, उनका पालन नहीं किया जाता। यदि क्योटो मसौदे में चीन और भारत को भी हिदायतें दी जाएँ तो उनकी सरकारें भी पर्यावरण के बारे में सजग होंगी। तो इस प्रकार क्योटो मसौदे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि विश्व में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश ने केवल सांकेतिक रूप से हस्ताक्षर किए हैं और दूसरे सबसे अधिक प्रदूषित देश को मसौदे के कड़े प्रावधानों से अलग रखा गया है। यह क्योटो मसौदे की सार्थकता के सामने एक प्रश्न चिह्न है। फिर भी यह कई देशों की सरकारों को पर्यावरण के मुद्दे पर जागरूक कर पाया है, यही अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
पर्यावरण से जुड़े विषयों का सीधा संबंध उद्योगों और अर्थव्यवस्था से है। बचपन में पिताजी मुझे बताते थे कि अगर किसी को पैसा कमाना है तो उसे पैसा खर्च करना सीखना होगा। मैं उलझन में पड़ जाता कि अगर किसी के पास पैसा ही नहीं है वो कैसे खर्च करेगा! लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका और कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था की बुनियाद इसी एक नियम पर टिकी है।
संयुक्त राज्य अमरीका का ''2006'' में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी.डी.पी.) था ''13000 अरब डालर'', भारत से लगभग ''15 गुना''! स्पष्ट-सी बात है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था अकेले नहीं खड़ी है। चीन, जापान और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने उसे सहारा दिया है। भारत और चीन में सस्ते श्रम की उपलब्धता और अमेरिका में जापान का निवेश अमेरिकी अर्थव्यवस्था को टिकाकर रखने वाले मज़बूत स्तंभ हैं।
इसी सिलसिले में एक प्रश्न पूछा जा सकता है - चीन में कितना प्रदूषण अमेरिकी और यूरोपीय बाज़ार की माँग पूरी करने के कारण होता है? फिर चीन में होने वाले प्रदूषण के लिए अकेले चीन को ही कटघरे में खड़ा करना कितना उचित है?
अब ज़रा एक नज़र अमेरिका पर भी डालें। संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल आबादी है ''30 करोड़'' और वहाँ के परिवहन विभाग के अनुसार पंजीकृत चौपहिया वाहनों की कुल संख्या है ''25 करोड़''। चार लोगों के एक परिवार में औसतन तीन-चार गाड़ियाँ! अब ईंधन की इतनी बड़ी खपत करने वाला एक देश बाकी देशों के तेल भंडारों पर तो नज़र रखेगा ही, साथ ही प्रदूषण भी फैलाएगा। उपभोक्तावाद से ग्रस्त पश्चिमी जीवन शैली में किसी भी वस्तु की खपत उसकी आवश्यकता से कहीं अधिक होती है।
यदि आप एक कमीज़ बाज़ार में ख़रीदने जाएँ तो बहुत संभव है कि कंपनी आपको दूसरी कमीज़ सस्ते में बेचने तो राज़ी हो और आप दो कमीज़ें लेकर लौटें। विश्व की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बुनियाद यही उपभोक्तावादी सोच है। समय रहते ऐसी अर्थव्यवस्था वाले देशों को अपनी आदतों में मूलभूत परिवर्तन लाना होगा।
मैं कई बार ऐसी किसी युक्ति की कल्पना किया करता था जिससे सारी दुनियाँ की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें पूरी की जा सकें। पर आज मुझे भरोसा हो चुका है कि ऐसी कोई युक्ति संभव नहीं क्योंकि ज़रूरतें तो पूरी की जा सकती हैं, लालच नही! निदा फ़ाज़ली ने कहा है - "लेकर तन के नाप को घूमे बस्ती-गाँव, हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव।" अब समय आ गया है कि सब यह तय करें कि हमारी आवश्यकतायें क्या हैं और परम आवश्यकतायें क्या हैं।
हम भारतवासी इससे जुड़ा सवाल यह कर सकते हैं कि हमारे पास तो हमारी आवश्यकताओं से अधिक कुछ ख़ास नहीं है, हम अपने आप को क्यों नियंत्रित करें? तो जवाब यह है कि विकसित देशों में जो हो रहा है, उससे कुछ सीख लीजिए। कहीं कल हमारी भी स्थिति उन जैसी न हो जाए। भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेज़ी बढ़ती हुई दूसरी अर्थव्यवस्था है। यदि हमने भी पश्चिम के उपभोक्तावाद का अंधानुकरण किया तो सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में तो वृद्धि अवश्य होगी पर साथ ही हम अपनी विलासिताओं के दास भी हो जाएँगे। एक आम प्रवृत्ति है "यदि मैं खर्च करने की क्षमता रखता हूँ तो भला खर्च क्यों न करूँ। इतनी मेहनत आख़िर किसलिए करता हूँ?" पर ज़रा सोचिए, हम प्रकृति से जो कुछ भी पाते हैं, क्या उसकी कीमत अदा कर पाने में सक्षम हैं? जी नहीं, आप किसी वस्तु की नहीं केवल उसके रख-रखाव और साज-सज्जा की कीमत ही अदा करते हैं। उत्पाद बनाने के लिए कंपनी ने प्रकृति का जो दोहन किया उसकी तो कोई कीमत हो ही नहीं सकती।

रविवार, 23 मार्च 2008

शहरीकरण का बोझ नहीं सह पाएगा धरती का पर्यावरण

चाहे शहरी चकाचौंध का आकर्षण हो या रोटी कमाने की मजबूरी लेकिन सच यह है कि दुनिया की करीब आधी आबादी शहरों में बसने लगी है। वातावरण में हर साल कार्बन डाईआक्साइड के रूप में घुलने वाले जहर की 80 फीसदी मात्रा इन्हीं लोगों की वजह से है। विशेषज्ञ बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि धरती की जलवायु का हश्र इसी बात पर निर्भर करता है कि हम अपने शहरों को कैसे सजाते-संवारते हैं। वे यह भी कहते रहे हैं कि शहरों का भविष्य इसी बात पर निर्भर है कि अगले 20 साल में शहरों पर लगातार बढ़ रहे बोझ को किस तरह नियंत्रित किया जाता है।

हम जैसों के लिए ज्‍यादा चिंता :

भारत जैसे विकासशील देशों के संदर्भ में यह चेतावनी कुछ ज्यादा ही गंभीर है। वजह यह कि व‌र्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक विकासशील देशों में शहरी आबादी साढ़े तीन फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है, जबकि विकसित देशों में यह दर एक फीसदी से भी कम है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक अगले 20 सालों में शहरों की आबादी जितनी बढ़ेगी, उसका 95 फीसदी बोझ विकासशील देशों पर ही पड़ेगा। यानी 2030 तक विकासशील देशों में दो अरब और लोग शहरों में रहने लगेंगे। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि अगर शहरों पर बढ़ रहे बोझ और प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया तो एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले बड़े शहरों पर भविष्य में बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा काफी बढ़ जाएगा। दुनिया के ऐसे 21 बड़े शहरों में से 75 फीसदी विकासशील देशों में ही हैं। कुछ आंकड़ों के मुताबिक 2015 तक ऐसे 33 में से 27 शहर विकासशील देशों में होंगे।

बढ़ती संख्या, घटती सुविधाएं:

शहरों पर ज्यों-ज्यों बोझ बढ़ रहा है, लोगों को मिलने वाली सुविधाएं घट रही हैं। बेहतर जिंदगी की चाह में लोग शहरों की ओर भागते हैं, लेकिन वास्तव में उन्हें मुसीबतें ही मिलती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों में 70 फीसदी से ज्यादा [करीब 90 करोड़] आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है। वर्ष 2020 तक यह संख्या दो अरब हो जाने का अनुमान है। ऐसे में जहां उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां बढ़ती हैं, वहीं पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुंचता है।

प्रदूषण की कीमत:

शहरों में विकास और बढ़ती जनसंख्या के चलते प्रदूषण भी खूब बढ़ रहा है। तेजी से विकास कर रहे चीन के खाते में दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 16 शहर हैं। प्रदूषण के चलते शहरों में हर साल करीब दस लाख लोग समय से पहले मर जाते हैं। इनमें ज्यादातर विकासशील देशों के ही होते हैं।

शनिवार, 22 मार्च 2008

प्रदूषण कम करने के लिए अमरीका में नए नियम

अमरीका में पर्यावरण की रक्षा के लिए बनी एजेंसी (ईपीए) ने लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए वायु प्रदूषण कम करने के लिए कड़े प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया है।नए प्रतिबंधों के अनुसार स्मॉग यानी धुँए और कोहरे के मिश्रण को कम करने के लिए राज्यों को नए उपाय तलाशने होंगे। पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि नए प्रतिबंध भी पर्याप्त नहीं हैं।लेकिन उद्योगों ने कहा है कि नए नियमों से उनका ख़र्च बढ़ेगा। नए नियमपर्यावरण की रक्षा के लिए बनी एजेंसी पर लंबे समय से दबाव था कि वह वायु की शुद्धता को बढ़ाने के उपाय करे।लेकिन बुश प्रशासन पर उद्योगों का दबाव था कि वह बहुत कड़े नियम लागू न करे।हो सकता है कि नियम कड़े हों, लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम वायु की शुद्धता बढ़ाने के लिए वादों को कागज़ों से निकालकर हक़ीकत में लागू करेंस्टीफ़न एल जॉनसन, ईपीए के प्रशासकनए प्रतिबंधों के हिसाब से हवा में ओज़ोन की मात्रा प्रति अरब इकाइयों में 80 इकाई से घटाकर 75 करना होगा।नए नियमों में कहा गया है कि इसके बाद ही हवा को स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त माना जा सकेगा।हालांकि ईपीए के वैज्ञानिकों ने एकमत होकर यह सिफ़ारिश की थी कि ओज़ोन की मात्रा को 70 इकाई तक कर दिया जाए।ईपीए का अनुमान है कि नए नियम लागू होने से अमरीका में कोई चार हज़ार लोगों की समयपूर्व मृत्यु को रोका जा सकेगा और सात हज़ार लोगों को अस्पताल जाने से बचाया जा सकेगा।कड़े नियमों के बारे में ईपीए के प्रशासक स्टीफ़न एल जॉनसन ने कहा, "हो सकता है कि नियम कड़े हों, लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम वायु की शुद्धता बढ़ाने के लिए वादों को कागज़ों से निकालकर हक़ीकत में लागू करें।"बहुत से वैज्ञानिक मानते हैं कि नए नियमों से प्रदूषण की वजह से स्वास्थ्य के लिए पैदा हो रहा ख़तरा बहुत कम नहीं होने वाला है।अमरीका में वायु की शुद्धता के लिए काम करने वाली संस्था 'क्लीन एयर वॉच' का भी कहना है कि नए नियम पर्याप्त नहीं है।
http://deshvideshnews.blogspot.com/2008/03/blog-post_13.html

सोमवार, 10 मार्च 2008

भूमंडलीकरण और जलवायु परिवर्तन : वंदना शिवा

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने 27 नवंबर 2007 को अपनी मानव विकास रिपोर्ट ''फाइटिंग क्लाइमेट चेंज : ह्यूमन सॉलिडेरिटी इन डिवाइडेड वर्ल्ड'' जारी की। बाली में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस से ऐन पहले जारी यूएनडीपी की रिपोर्ट में 2050 में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन की मात्रा 1990 की मात्रा से 50 फीसदी कम करने को कहा गया है। उसमें इस लक्ष्य को हासिल करने के सुझव दिए गए हैं। विकसित देशों को अपने उत्सर्जन की मात्रा में 2050 तक 80 फीसदी कटौती करनी चाहिए, 2020 तक उन्हें 20-30 फीसदी कटौती कर लेनी चाहिए। यूएनडीपी का सुझाव है कि चीन और भारत जैसे प्रमुख ग्रीनहाउस उत्सर्जक विकासशील देशों को 2020 तक कोई कटौती नहीं करनी है और उसके बाद 2050 तक 20 फीसदी कटौती करनी है।
भारत में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को यह रिपोर्ट जारी करने को कहा गया और उन्होंने रिपोर्ट जारी भी की लेकिन उसकी सिफारिशों को खारिज कर दिया। भारत के लिए अपनी नवउदारवादी नीतियों को तैयार करते समय इक्विटी को धता बताने वाले बाजारवाद के प्रबल पैरोकार अहलुवालिया ने यूएनडीपी की रिपोर्ट को इक्विटी के नाम पर खारिज कर दिया।
''(उत्सर्जन की मात्रा में) कटौती की कोई भी ऐसी रणनीति जो पूरी तरह दुनियाभर के उत्सर्जन पर आधारित हो और जिसमें विभिन्न देशों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आधार पर फर्क नहीं किया गया, मौलिक रूप से दोषपूर्ण है और वह समानता के सिध्दांतों के विरुध्द है।''
अगर योजना आयोग के प्रमुख ने कॉर्पोरेट लाभ की बजाय इक्विटी के आधार पर अपनी योजना बनाई होती तो वह भारत के खासकर गरीब और हाशिये पर जीने वाले लोगों के लिए बहुत मददगार होती। अगर उन्होंने पानी के निजीकरण की बजाय पानी की प्रति व्यक्ति समान मात्रा का समर्थन किया होता; अगर उन्होंने रिटेल क्षेत्र में कॉर्पोरेट रिटेल को प्रोत्साहन देने की बजाय फेरीवालों और दुकानदारों के आजीविका कमाने के समान अवसर का समर्थन किया होता; अगर उन्होंने हमारी कृषि के निगमीकरण (कॉर्पोटेराइजेशन) को प्रोत्साहन देने की बजाय भारत के छोटे किसानों को बढ़ावा दिया होता, अगर उन्होंने खाद्यान्न के वस्तुकरण और उसके वादा कारोबार को बढ़ावा देकर दो-तिहाई भारतीय बच्चों को कुपोषण का शिकार होने देने की बजाय प्रति व्यक्ति को खाद्यान्न का बराबर अधिकार दिया होता।
यह है ''इक्विटी स्किजोफ्रेनिया'' जिसके जरिए कॉर्पोरेट ग्लोबलाइजर चंद अमीर लोगों के हाथों में धन और संसाधनों को समेटने के लिए इक्विटी को तबाह करते हैं। वे चाहते हैं कि गरीब लोग, जिन्हें उन्होंने उनकी आजीविका और जमीन से वंचित कर दिया है, उस प्रदूषण की जिम्मेदारी ओढ़ें जिसे उन्होंने फैलाया नहीं। यह धन और संसाधनों का अतिपूंजीवाद और प्रदूषण का समाजवाद है। इसमें गरीब लोग अमीरों के हाथ अपने ''माल'' गंवा देते हैं और उनकी जिम्मेदारियों को विरासत में हासिल कर लेते हैं।
बोनयो के जंगलों के जलने से होने वाले उत्सर्जन और ग्रामीणों तथा स्थानीय समुदायों समेत सारे इंडोनेशियाइयों के उत्सर्जन को बराबर मानना गलत होगा। इन स्थानीय समुदायों को पाम आयल की खेती के लिए विस्थापित किया जा रहा है। ग्रीनपीस रिपोर्ट ''हाउ द पाम आयल इंडस्ट्री इज कुकिंग द क्लाइमेट'' में प्रदूषणकारियों व प्रदूषण में उनके हिस्से की पहचान की गई है। उसमें यह भी बताया गया है कि उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए कौन से उपाय करने की जरूरत है। प्रदूषण के चलते ही जलवायु परिवर्तन हो रहा है। पाम आयल को बढ़ावा देने में सबसे बड़ा योगदान कारगिल का है। प्रॉक्टर ऐंड गैंबल, क्राफ्ट, नेस्ले और यूनीलीवर अपने उत्पादों में पाम आयल का इस्तेमाल करके वनों की कटाई को बढ़ावा देती हैं। इस व्यापार के मुख्य खिलाड़ी हैं सिनार मास और एडीएम कूक-विल्मर। सिनार मास 15 लाख हेक्टेयर पर पाम आयल की खेती करती है और 4 लाख टन पाम आयल निर्यात करती है। एडीएम कूक-विल्मर 4 लाख,93 हजार हेक्टेयर पर खेती करती है और 10 लाख टन पाम आयल निर्यात करती है।
आम इंडोनेशियाई दावानल और छोटी-मोटी आग के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। विशाल कॉर्पोरेशन देश की उत्सर्जन मात्रा में 11 फीसदी का योगदान कर रहे हैं। जब प्रदूषण का स्रोत पता चल जाए तो इक्विटी का तकाजा यही है कि प्रदूषणकारी ही उसकी कीमत चुकाएं। इक्विटी का यह मतलब नहीं है कि प्रदूषण की जिम्मेदारी को गैर-प्रदूषकों पर थोप दिया जाए।
ग्रीनपीस ने तीन ऐसे उपाय बताए हैं जिनसे प्रति वर्ष 3.8 गीगटन उत्सर्जन कम हो सकता है। यह साल में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 8 फीसदी है : पहला, दुनिया भर में वनों की कटाई में कमी की जाए; दूसरा, इंडोनेशिया में छोटी-छोटी जगहों पर आग लगाना बंद किया जाए और आग से तबाह हुए वन क्षेत्र पर खेती पर पाबंदी लगाई जाए; तीसरा, इंडोनेशिया में आग के कारण तबाह हुए वन ह्नेत्र पर फिर से वन लगाए जाएं।
आज कोई देश नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुख्य आथक खिलाड़ी हैं। और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए प्रदूषणकारी काम विकासशील देश में ही करती हैं। इक्विटी का तकाजा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलाए प्रदूषण को उन्हीं की जिम्मेदारी और जवाबदेही मानी जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे प्रदूषण कहां फैलाती हैं। उनके द्वारा फैलाए प्रदूषण की जिम्मेदारी विकासशील देशों के गरीबों पर थोपना इक्विटी नहीं बल्कि अन्याय है।
हमें समता की अवधारण को समझ्कर कर्तव्यपरायणता की भावना लाने की जरूरत है। कर्तव्यपरायणता के साथ ही समता से ईमानदारी और स्थिरता आती है। पहला, आथक नीतियां और कार्रवाई समता पर आधारित होनी चाहिए और इसे आथक विषमता पैदा करने वालों को अपने सामाजिक, आथक तथा पर्यावरण संबंधी जिम्मेदारियों से बचने का बहाना नहीं बनना चाहिए। जो लोग देश में गरीबों को वंचित कर रहे हैं और समाज का ध्रुवीकरण कर रहे हैं उन्हें गरीबों तथा धरती को शिकार बनाते रहने के लिए विश्व मंचों पर ''इक्विटी'' लाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जिससे गरीबों की रक्षा होती है, उसी से इस धरती की भी रक्षा होती है। जिससे गरीबों को नुकसान होता है, उससे धरती का नुकसान होता है। समता के नियम और परितंत्र के नियम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
(वंदना शिवा महिलाओं और पर्यावरण के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाती हैं)
अनुवाद - मीनाक्षी अरोरा

रविवार, 9 मार्च 2008

मेहमान पक्षियों को भाने लगी है सांडी की आबोहवा : अंबरीश कुमार/ तारा पाटकर

पक्षी विहार, संडीला। बदलते मौसम और पर्यावरण असंतुलन के बावजूद सांडी पक्षी विहार में दूर देशों से आए पक्षियों का प्रवास काल बढ़ गया है। यह पर्यावरणविदों और वन्य जीव विशेषज्ञों के लिए खबर है। अभी तक उत्तर प्रदेश के तराई वाले इलाके और अन्य वन्य क्षेत्रों में अंधाधुंध कटाई व आम आदमी के बढ़ते दखल के चलते जीव- जंतुओं और पक्षियों का प्रवास प्रभावित हो रहा था। पहली बार चीन, साइबेरिया, श्रीलंका और यूरोपीय देशों से आने वाले मेहमान पक्षियों का मौसम और आबोहवा रास आने लगी है। लुप्तप्राय वन्य जीव परियोजना की वन संरक्षक ईवा शर्मा ने कहा- हमें भी यह उम्मीद नहीं थी कि परदेसी परिंदे अब तक यहां इस भारी तादाद में नजर आएंगे। वैसे तो पिछले सालों की तुलना में यहां इस बार पक्षी भी कई हजार अधिक आए। हालांकि जनवरी अंत तक मेहमान पक्षियों की संख्या दो लाख से ज्यादा थी, जो अब हजारों में है। लेकिन उनका अब तक यहां ठहरना भी बना हुआ है। सामान्य तौर पर 15 डिग्री सेल्यिस तक जा पहुंचने के बावजूद सांडी पक्षी विहार में अभी भी पक्षी जमे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में 13 पक्षी विहार हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण समसपुर पक्षी विहार, लाख बहोसी पक्षी विहार, नबावगंज पक्षी विहार और सांडी पक्षी विहार हैं। हालांकि दूर देश से आए खूबसूरत पक्षियों का जमावड़ा कतरनियाघाट के गेरूवा नदी पर भी दिखता है। वहां पर शाम होते ही जैसे सूरज की किरणें मध्दिम पड़ती हैं तो डालफिन मछलियां ऊपर आकर जहां नृत्य करती नजर आती हैं वही सुर्खाब के खूबसूरत जोड़े हवा में उड़ते नजर आते हैं। पर सांडी पक्षी विहार का दृश्य उससे काफी अलग नजर आता है। तीन किलोमीटर क्षेत्र में फैली यहां की प्राचीन दहर झील में एक नहीं सैकड़ों प्रजातियों के मेहमान पक्षी पानी में कलाबाजियां करते नजर आते हैं। इन पक्षियों में 30 से 90 सेमी गहरे पानी में रहने वाले पिनटेल, गेडवाल, शावलर, कामनटील, ब्रह्माणी डक, कूट, काम्बडक, व्हिस्लिंग टील, ब्रांज विंग्स जैकाना, मेलार्ड, कामन टील, कामन पोचर्ड आते हैं जो देखने में बतख और मुर्गाबी से मिलते-जुलते हैं। नब्बे से 120 सेमी गहरे जल में रहने वाले डार्टर, स्रेक बर्ड, किंगफिशर, लिटिल ग्रेव व टर्न आदि पक्षियों को आकर्षक गोताखोरों में शुमार किया जाता है। ये मेहमान पक्षी जल की गहराई को देखकर ही अपना बसेरा तलाशते हैं।
प्रदेश के राज्य पक्षी सारस के यहां मौजूद 27 जोड़े भी मेहमान पक्षियों के बीच में अपनी अद्भुत छटा बिखेरते दिखते हैं। लंबी दूर तक जाने वाली उनकी तेज आवाज सबका ध्यान बरबस अपनी तरफ खींच लेती है। संसार के सबसे विशाल पक्षी के रूप में चर्चित सारस जोड़ों ने यहां अंडे भी दिए हैं। सारस के विभिन्न जोड़े यहां प्रणय मुद्रा में नृत्य करते हुए नजर आते हैं। इस वर्ष जनवरी के आखिरी हफ्ते तक करीब ढाई लाख मेहमान पक्षियों ने सांडी पक्षी विहार को अपना आशियाना बना रखा था। फरवरी से इनकी संख्या में कमी आना शुरू हुई। जैसे- जैसे इनकी संख्या में कमी आनी शुरू हुई। जैसे-जैसे पारा चढ़ता जाएगा, मेहमान पक्षी अपने वतन लौटते जाएंगे। हालांकि इनमें से कुछ वे बदनसीब भी हैं जो लौट नहीं पाए क्योंकि कुछ का छुटपुट शिकार भी गांव वाले कर डालते हैं। विदेशी पक्षी आमतौर पर बाजार में नहीं उपलब्ध हैं लिहाजा इनके शौकीन लोग गांव वालों की मार्फत इनका शिकार करते हैं। आमतौर पर गांव वाले कमल के पत्तों पर हल्के किस्म का जहर रख देते हैं, िजसे खाकर ये बेहोश हो जाते हैं, जिसके बाद इन्हें पकड़कर लोग ले जाते हैं। खास बात यह है कि ये पक्षी संरक्षित पक्षियों की श्रेणी में नहीं हैं, जिसके चलते इनके छुटपुट शिकार को लेकर कोई खास हो-हल्ला नहीं मचता है।
इस समय भी सांडी पक्षी विहार में 25 हजार से ज्यादा मेहमान पक्षियों का जमावड़ा आम लोगों के साथ-साथ पर्यटकों को भी लुभा रहा है। हालांकि पर्यटकों के लिए कोई खास आवासीय सुविधा नहीं है। यहां जंगलात विभाग का एक गेस्ट हाउस मौजूद है, जिसमें दो बेडरूम का एक कमरा उपलब्ध है। सांडी पक्षी विहार में विभिन्न पक्षियों की तरफ इशारा करे हुए वन संरक्षक ईवा शर्मा ने आगे कहा- यहां जितने प्रकार के मेहमान पक्षी एक साथ देखने को मिलते हैं, अन्य किसी स्थान पर दिखना मुश्किल है। इनका संरक्षण और इनकी देखभाल हमारे लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। इनकी पेट्रोलिंग के लिए हमने यहां कई फारेस्ट गार्ड तैनात किए हैं, जो दूरबीन के सहारे पूरे क्षेत्र पर नजर रखते हैं। इसके अलावा जलकुंभी भी झील से हटवाई गई है ताकि इन मेहमान पक्षियों को जलक्रीड़ा और मौजमस्ती करने में कोई दिक्कत न हो।

बेगाना होता बसंत : राजकुमार

वसंत और कवियों का रिश्ता पुराना है। लेकिन आज जिस तरह पर्यावरण की पैतरेबाजी चल रही है उससे कवि भी ऋतुभ्रमित हैं। आज विद्यापति जैसा कोई समर्थ कवि भी नहीं दिखता जो इस 'नवजात ऋतुराज' पर छाए संकट को रूपक बनाकर हमारी आज की समस्या को उठाता। एक दो कवियों ने कहीं- कहीं इस पर चिंता जाहिर की है। रघुवीर सहाय ने लिखा है- 'और ये वसंत की हवाएं। दक्षिण से नहीं चारों ओर खुली चौड़ी-चौड़ी सड़कों से आएं। धूल और एक जाना हुआ शब्द।' वसंद मंद-मंद बयार के लिए जानी जाती रही हे। धूप में गुनगुनेपन के लिए। लेकिन पर्यावरण में उलट- फेर के कारण इतना बदलाया आया है कि यह अहसास ही नहीं रहा कि वसंत का मौसम कब गुजरा।
मुंशी द्वारका प्रसाद 'उफक' लखनवी ने लिखा है- 'साकी कुछ आज तुमको खबर है बसंत की/ हर सू बहार पेशे नजर है बसंत की।' नजीर लुधियानवी ने लिखा- 'देखो बसंत लाई है गंगा पे क्या बहार/ सरसों के फूल हो गए हर स्िमि आभाकार।'
भले ही 'फैयाज' कहते रहें- 'गुलाबी सर्दियां आईं, हवा में नर्मियां आई/ सुनहरी साअतें लेकर बसंती नमियां आईं, लेकिन इस वर्ष ऐसा कुछ भी नहीं लगा। इस वर्ष 'फल्गुन के गुलाबी छीटों से, हर सू सब्जे नहीं उगे हैं।' खेतों में हवा के चलने से जौ की हरियाली नहीं लहरा रही। न तो मटर के फूल महके न ही सरसों में फूल ही लगे। कत्ले ठीक से फूटे भी नहीं, आलू उखड़ने से पहले ही बारिश और शीत लहर की भेंट चढ़ गए। गेहूं और चने की फसलें खेतों में बर्बाद हो गईं। अब ऐसे में क्या कोई फाग और चांचर गाएगा। तापमान शून्य के आसपास जाकर स्थिर हो गया। 'चेहरे पर बसंती आलम' और 'लौंग की बेल को छूती-छूती मलिया गिर की मस्त पवन' केवल कवियों के यहां मौजूद है। बाहर दमघोंटू विषैली, हवाएं भरी हैं जो बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण का नतीजा है। श्रीकांत वर्मा ने लिखा है- 'वसंत की प्रतीक्षा में /कविताओं का जुलूस/रुका हुआ है।' अब प्रेम और रोमांस का जुलूस रुका रहे तो अच्छा ही है। कवियों को चाहिए की आज की विनाश लीला भी देख लें।
कभी मुनव्वर ने कहा था- वृंदावन की कुर्बत में यह सुंदर-सुंदर जो धरती है/ यमुना अपने जल से उसको मनसब पाक अता करती है। लेकिन आज तो यमुना ही संकट में है। एक तो शहरीकरण के बढ़ते दबाव ने उसे सिकोड़कर नाले में बदलना शुरू कर दिया है, दूसरी तरफ शहर के सारे कचरे- गंदे पानी और कल- कारखाने से निकले वाले रासायनिक अवशिष्टों को गिराकर उसे इतना जहरीला बना दिया है कि अब वह स्वयं पाक नहीं हो सकती तो दूसरे को क्या पाक अता करेगी? यमुना और वसंत का रूपक बहुत पहले ही अप्रासंगिक हो गया है। यह और बात है कि कवियों ने इस टूटने को दर्ज नहीं किया है इस रूप में।
आज यमुना के पानी में आर्सेनिक, कैडियम जैसे विषैले तत्वों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यह न सिर्फ मनुष्यों, पशु पक्षियों के लिए जहर बन चुकी है, पेड़- पौधों के लिए भी। ज्यादातर नदियों का यही हाल है। शहर का सारा जहर इन नदियों को निगल चुका है। हम जिस पॉलीथीन युग में जी रहे हैं, क्या वहां बसंत बचा रह सकता है, यह महत्वपूर्ण सवाल है। पॉलीथीन न सिर्फ पेड़- पौधे पानी के लिए नुकसानदेह हैं, हवा को भी विषैला बना रहे हैं। धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रहे हैं। ये कैंसर जैसी घातक बीमारियों के भी जन्मदाता होते हैं। जलाने पर इससे निकले वाला हाइड्रोजन साइनाइट इतना विषैला, दमघोंटू होता है कि मौत का कारण बन सकता है। ऊपर से कीटनाशक दवाएं तितलियों, भौरों व अन्य कीट- पतंगों को नष्ट कर रहे हैं। क्या ऐसे परागकणों का पल्लवन- पुष्पण और फूलों का जीवंत, मुस्कुराता जीवन संभव है। फूल, तितली और वसंत के रिश्ते संभव है? जिस तरह से तितलियों की अनेक प्रजातियों के पिछले कुछ वर्षों से विलुप्त हो गई हैं, वसंत जीवित रह पाएगा : उद्यान में उड़ रही है तितलियां/ वसंत के प्रेम पत्र।
वसंत से जुड़े शायद ही कवि हों जिनके यहां 'डाली- डाली पर मतवाली कोयल कूकती' और मीठी तान सुनाती न हो।' कोयल की कूक से ही विरहनी नारियों की विरह आर्द्रता बढ़ जाती थी। लेकिन यह जंगल और पेड़ का ही विनाश हो रहा है तो कोयल कहा कूकेगी? बढ़ता भोगवाद, अनंत सुख-संपन्नता जमा जमा करा करने की चाहत, शहरीकरण, औद्योगीकरण ने प्रकृति का ऐसा दोहन किया है कि जंगल साफ हो रहे हैं। धरती बंजर होती जा रही है। ऐसे में कहां कोयल की तान और विरही हृदय की तीव्रता। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। हम भूकंप, सुनामी, भयानक किस्म के समुद्री तूफान, अतिवृष्ट, अनावृष्टि, बाढ़, शीतलहर, बर्फबारी आदि के शिकार हो रहे हैं। कार्बन मोनो आक्साइड, कार्बन ऑक्साइड, सल्फर डाठ आक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन सल्फाइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन, नाईट्रोजन डाई बेरेलियम के अतिरिक्त रेडियोधर्मी रासायनिक यौगिकों, यूरेनियम, थोरियम आदि का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। इस कारण ओजोन परत का सुराख बढ़ते-बढ़ते अमेरिका के भूगोल के दुगुने से बड़ा हो गया है। वातानुकूलित गाड़ियों, घरों, फ्रीज, हवाई जहाज आदि से निकलने वाली गैंसे इतने हानिकारक हैं कि एक तरफ धरती को गर्म कर रही हैं तो दूसरी तरफ ओजोन परत, जो हम मनुष्य समुदायों की छत है, को तोड़-फोड़ रहे हैं उसके टूटने पराबैंगनी किरण्ों सीधे धरती तक आ रही है। यह आंख और त्वचा के लिए बेहद हानिकारक है। कैंसर रोग में बढ़ोत्तरी का एक महत्वपूर्ण कारक यही है। क्लोरो फ्लोरोकार्बन का एक- एक अणु इतना घातक है कि इस सभ्यता को नष्ट कर देगा। अमेरिका, जापान और यूरोप के कुछ देश पूरे विश्व के क्लोरो फ्लोरो कार्बन का लगभग 75 फीसदी उत्पादन उर्त्सजन कर रहे हैं और तीसरी दुनिया के देशों पर अवांछित बीमारियां लाद रहे हैं। करोड़ों लोग त्वचा कैंसर से ग्रस्त हैं तो एक अरब से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें स्वच्छ हवा नसीब नहीं है। बेंजीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सीसा आदि प्रजनन तंत्र से लेकर हृदय गति और रक्तचाप तक को गहरे प्रभावित करते हैं। जस्ता तो इतना खतरनाक है कि बच्चों की याददाश्त छीन लेता है। मानसिक रूप से विकलांग बना देता है। पर्यावरणविद लगातार इन खबरों से सचेत कर रहे हैं, लेकिन कविगण अब भी 'वसंत राग' गा रहे हैं।
गरीब आदमी को जीवित रहने के लिए तो अमीर आदमी अनंत सुखोपभोग ओर जीवन स्तर को ऊंचा उठाए रखने के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहा है। समुद्रतटीय इलाकों से मैनग्रोव के जंगल जिस तरह साफ हुए हैं, सुनामी के खतरे से कौन रोकेगा? प्रकृति को उपनिवेश बनाकर, उसका दोहन कर हम वसंत को भी सुरक्षित रख पाएंगे- यह आज महत्वपूर्ण सवाल है। यह ठीक है कि पर्यावरणविदों के दबाव में पृथ्वी को बचाने के लिए 'वन महोत्सव' मनाया जा रहा है। इक्कीस मार्च को विश्व वानिकी दिवस, बाई अप्रैल को पृथ्वी दिवस, पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। बावजूद इसके इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एग्रोफोरेस्ट्री के महानिदेशक बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि आने वाले दिन परिस्थितिकी के लिए बेहद खतरनाक होें। यह सच्चाई है कि पेड़ लगाने के अभियान में गति आई है, लेकिन हमारे यहां जो विदेशी पेड़ लगाए जा रहे हैं न उनमें फूल लगते हैं न फल। पीपल, आम, कटहल, जामुन, बरगद, नीम जैसे पेड़ जो लंबी उम्र जीते हैं, पर्यावरण के लिए बेहद अच्छे हैं। ये मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षियों के लिए भी उपयोगी हैं। फल और औषधि दोनों रूपों में काम आते हैं शहरों में तकरीबन ये पेड़ गायब हो गए हैं। शहरों में आम के पेड़ जिस तरह लुप्तप्राय हैं, उसमें छिपी कोयल की कूक का रूपक शायद ही किसी कवि की कविता में जगह बना पाए। देखते ही देखते भूमंडलीय दुनिया में पेड़-पौधे, फूल, वसंत, कोयल, तितली, वर्चुअल रियलिटी बनते जा रहे हैं।

सोमवार, 3 मार्च 2008

राजस्थान: कृष्ण जन्मभूमि के दुश्मन रामभक्त

ब्रजभूमि में अदालती आदेश की अवहेलना हो रही है
रश्मि सहगल

आईआईटी रुड़क़ी स्थित नेशनल रिमोट सेंसिंग ऑर्गेनाइजेशन द्वारा उपग्रह से ली गई तस्वीरों से जाहिर होता है कि पिछले एक दशक के दौरान खनन में 26 गुना वृध्दि हुई है।
सत्ता में आने के लिए भाजपा ने राम जन्मभूमि का पत्ता चला था लेकिन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भरतपुर में पड़ने वाले कृष्ण जन्मभूमि क्षेत्र को तबाह करने के बारे में पुनवचार नहीं किया। खुदाई के लिए पहाड़ों को बड़े पैमाने पर डायनामाइट से उड़ाने की वजह से अरावली की पहाड़ियां तबाह हो रही हैं। माना जाता है कि इसी क्षेत्र में कृष्ण ने अपनी लीला रची थी। आखिर यह विस्तृत ब्रज भूमि का ही हिस्सा है।
इस खनन से सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन हो रहा है। अदालत ने ताज ट्रेपेजियम जोन में खनन और पत्थर तोड़ने समेत हर तरह की प्रदूषणकारी गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। भरतपुर जिले के दीग और कमान तहसीलों समेत पूरी ब्रजभूमि इसी जोन में शामिल हैं। एक ओर जहां हरियाणा और उत्तरप्रदेश में ब्रज भूमि में खनन पर रोक लग गई है, राजस्थान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ताक पर रख दिया है। कभी वनाच्छादित रही इन पहाड़ियों पर अब धूल की मोटी पर्त जम गई है। ज्यादातर खानें चांद पर धब्बे जैसी लगती हैं। आईआईटी रुड़क़ी स्थित नेशनल रिमोट सेंसिंग ऑर्गेनाइजेशन द्वारा उपग्रह से ली गई तस्वीरों से जाहिर होता है कि पिछले एक दशक के दौरान खनन में 26 गुना वृध्दि हुई है।
ब्रजभूमि में आने वाले धामक नेताओं और तीर्थयात्रियों की बढ़ती शिकायतों के चलते भाजपा-आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने खनन की इन गतिविधियों की ओर से आंख फेरने के लिए वसुंधरा राजे की तीखी आलोचना की है लेकिन यहां से इतनी मोटी आय हो रही है कि राज्य सरकार को खनन कार्य रोकना मुश्किल लग रहा है।
कमान की एक कंपनी में अकाउंटेंट का काम कर चुके एक स्थानीय ग्रामीण ने स्वीकार किया, ''एक खान से मेरे मालिक को एक दिन में 16 लाख रु. और महीने में चार करोड़ रु. तक की आमदनी होती है। इन पत्थरों को तोड़कर गुड़गांव, दिल्ली और नोएडा में बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्य में प्रयोग के लिए भेज दिया जाता है।'' ऐसी कंपनियां मुख्यत: पारिवारिक स्वामित्व में चल रही हैं।
स्थानीय स्वयंसेवी संगठन ब्रज रक्षक दल (बीआरडी) के कार्यकर्ताओं का कहना है कि फिलहाल इन दो जिलों में 83 स्थानों पर खनन हो रहा है और पत्थर तोड़ने की 70 इकाइयां हैं।
इस संवाददाता ने कम पानी वाले इस क्षेत्र में 60 से अधिक ईंट भट्ठों की गिनती की। ईंट बनाने के लिए काफी पानी की जरूरत होती है और भट्ठे प्रदूषण भी काफी फैलाते हैं। हालांकि खनन करने वालों ने ग्रामीणों को लिखित आश्वासन दे रखा है कि वे दिन में 2 बजे के बाद ही डायनामाइट से विस्फोट करने का काम करेंगे ताकि गांवों की महिलाएं और बच्चे सुबह अपने मवेशियों को चरा सकें। लेकिन इस गोरखधंधे का सबसे भयावह पहलू यह है कि वे अपने आश्वासन पर शायद ही कभी अमल करते हैं।

इस संवाददाता और एक फोटोग्राफर को दिन में 11 बजे से ही विस्फोटों की आवाज सुनाई देने लगी। स्थानीय कार्यकर्ता हरिबोल बाबा, जो हमारे साथ थे, ने कहा, ''गिरती चट्टानों से दबकर मरने और गंभीर रूप से घायल होने वाले ग्रामीणों और मवेशियों की कोई गिनती नहीं है। कुछ महीने पहले छह मजदूर एक विशाल चट्टान के नीचे दबकर मर गए लेकिन चूंकि वे बिहार के थे, सो उनकी मौत की खबर की लीपापोती कर दी गई। ये खनन करने वाले मुआवजे की मामूली रकम चुका कर मामले को रफा-दफा कर देते हैं।''
राजस्थान, जहां मकराना स्थित है, में खान मजदूर संरक्षण अभियान के राणा सेन गुप्त ने कहा, ''इन खानों में काम करने वाले मजदूरों का काम बहुत खतरनाक है। हर महीने औसतन तीन लोगों की मौत होती है और 30 लोग घायल होते हैं। चट्टानों के गिरने से कई मजदूर दबकर मर जाते हैं।''
राजस्थान के राजनीतिक नेतृत्व को पारंपरिक छतरियों को हो रहे नुकसान की कोई परवाह नहीं है। ये छतरियां पत्थर पर नक्श उन चिन्हों की रक्षा करती हैं जिनके बारे में ग्रामीणों का विश्वास है कि ये'श्रीकृष्ण के पदचिन्ह' हैं। इन ग्रामीणों का कहना है कि कई छतरियां पूरी तरह नष्ट हो गई हैं।
बीआरडी के संयोजक विनीत नारायण का कहना है, ''हमारे सभी धामक ग्रंथों में कृष्ण की रास लीला का वर्णन है। इन विस्फोटों से पुराने वन, छतरी और मंदिर तबाह हो गए हैं और इसके बावजूद केंद्र सरकार ने इन सबकी ओर से आंख फेर ली है।'' भाजपा-आरएसएस के दबाव में राजस्थान के खनन और पर्यावरण मंत्री लक्ष्मीनारायण दवे पारंपरिक परिक्रमा मार्ग के 500 मीटर में खनन की सारी गतिविधि पर प्रतिबंध लगाने के लिए राजी हो गए हैं। उन्होंने कहा, ''मुझे इसकी उतनी ही चिंता है जितनी बीआरडी कार्यकर्ताओं को है। हमने एक करोड़ का नुकसान बर्दाश्त कर 19 खानों को बंद करने का आदेश दे दिया है। हम और क्या कर सकते हैं?'' लेकिन उनके इस फैसले से तीर्थयात्री या धामक संस्थाएं संतुष्ट नहीं हैं। हरिबोल बाबा ने कहा, ''तीर्थयात्रियों के विश्वास के अनुसार यात्राओं में अंतर होता है। हरिदास के अनुयायी उन्हीं स्थानों पर जाते हैं जहां उनके गुरु गए थे, चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी उन्हीं के रास्ते पर चलते हैं। ब्रज की पूरी पहाड़ी को संरक्षित करने की जरूरत है। आप यह आशा नहीं कर सकते कि एक ओर तीर्थयात्री चलें और दूसरी ओर पहाड़ी को विस्फोट से उड़ाया जाए।''
बताया जाता है कि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस मामले में वसुंधरा राजे को टोका है। स्वयं राजे हमेशा कहती रही हैं कि वे अवैध खनन रोकना चाहती हैं लेकिन इन खनन केंद्रों पर जाने से कहानी कुछ और ही कहती नजर आती है। उन खानों की रखवाली के लिए राजस्थान राज्य पुलिस के जवानों को तैनात किया गया है।
भाजपा के पूर्व सांसद और विहिप नेता अशोक सिंघल के भाई बी.पी. सिंघल को लगता है कि राजे लाखों हिंदुओं की भावनाओं की अनदेखी कर रही हैं। उनका कहना है, ''सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर नीचे तक के लागों ने उन (राजे) पर दबाव डाला है लेकिन वे अपनी मर्जी की चला रही हैं।''
सिंघल ने बताया, ''उनके मंत्री (दवे) का कहना है कि इन खानों में काम करने वाले 40 हजार मजदूरों के लिए अगर वैकल्पिक रोजगार खोज दिया गया तो वे सारी खानों को बंद कर देंगे। जब हमने मजदूरों का रजिस्टर देखा तो पाया कि केवल दो हजार मजदूरों को ही काम दिया गया है और उनमें से सभी दूसरी जगहों के लोग हैं। स्थानीय ग्रामीण इन खानों में काम करने से मना कर देते हैं।''

मानव जीवन की रक्षा के लिए प्रकृति का संरक्षण जरूरी

भोपाल, नभासं. राज्यपाल डा. बलराम जाखड ने सोमवार को होशंगाबाद जिले के नर्मदा-तवा संगम तट बांद्राभान पर आयोजित तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव के समापन अवसर पर कहा कि प्रकृति मानव की रक्षा करती है, इसलिये प्रकृति का पर्याप्त संरक्षण बहुत जरुरी है. डा. जाखड ने नदियों को जीवनदायिनी माँ का स्वरुप प्रतिपादित करते हुए लोगों को आव्हान किया कि नदियों की रक्षा के लिए वृक्षारोपण को पर्याप्त बढावा दिया जाये. गंगा-जमुना जैसी बड़ी नदियों में बढ़ते प्रदूषण पर नाराजगी व्यक्त करते हुए राज्यपाल ने कहा कि शहरों का विकास जरुरी है. तर1की जरुरी है लेकिन प्रकृति के विनाश की शर्त पर तरक्की कतई ठीक नहीं है.
समापन समारोह के विशेष अतिथि प्रदेश के संस्कृति एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने इस अवसर पर कहाकि नर्मदा समग्र का यह आयोजन पूरे देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. इस तीन दिवसीय महोत्सव में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत आलेख और विचारों का संकलन जरुरी है. उन्होंने कहाकि इस संकलन का प्रकाशन किया जायेगा ताकि यह एक दस्तावेज के रुप में भविष्य के लिए उपलब्ध हो सके. अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव के समापन अवसर पर बांद्राभान में विषय विशेषज्ञों की चर्चा के निकर्षों को बांद्राभान घोषणा पत्र के रुप में जारी किया गया. इसी के साथ, नर्मदा समग्र द्वारा वर्ष 2008-09 के लिए कार्य योजना का प्रारुप जारी किया गया. अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव के संयोजक एवं नर्मदा समग्र समिति के सचिव अनिल माधव दवे ने समापन समारोह में इसकी जानकारी दी.
बान्द्राभान घोषणा-पत्र
अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव के समापन पर आज आठ सूत्री बांद्राभान घोषणा पत्र जारी किया गया.
नदी पर होने वाले अध्ययनों, कार्यों और प्रयत्नों का आधार नदी बेसिन हो.
गत शताब्दी के अधिकतम बाढ़ स्तर को नदी का किनारा माना जाये और उसे सिर्फ नदी के लिये छोड़ा जाये.
नदियों पर काम करने वाले सभी समुदायों और संस्थाओं को एक विचार मंच और दिशा में गतिमान होने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर नदी जनपद का गठन हो.
नदियों का अपना अर्थशास्त्र होता है, अत: उनकी अपनी नदी बैंकिंग व्यवस्था विकसित होनी चाहिए. प्रत्येक नदी का अपना खाता हो जिससे संसाधनों के आमद-खर्च पर नजर रखने हेतु बैलेन्स शीट बनें.
नदी उद्गम तथा प्रारंभिक और द्वितीय चरण की जल धाराओं के संरक्षण के उल्लेखनीय प्रयासों को पुरस्कृत करने की व्यवस्था लाई जाए.
नदियों के विविध पक्षों से जुड़े विषयों पर मैदानी शोध परियोजनाओं को प्रोत्साहित किया जाये.
सहेली नदी तंत्रों पर काम करने वालों के मध्य ज्ञान, विचारों और अनुभवों के विनिमय के अवसर पैदा करने के लिये किसी व्यवस्था का निर्माण हो.
नर्मदा समग्र की योजना
हरियाली चुनरी योजना.
नर्मदा बेसिन में नदियों पर सराहनीय काम के लिये पुरस्कार
नदी में डालने हेतु मिश्रधातु के सि1के घाटों पर उपलब्ध कराना.
नदी प्रदूषण घटाने हेतु डिटर्जेंट रहित साबुन घाटों पर उपलब्ध कराना.
अगला नदी महोत्सव-2010 में

ध्रुवीय भालू हो रहे हैं लुप्त

दुनिया भर में शार्कों की संख्या भी तेज़ी से घट रही है
विश्व भर में जैव विविधता की रक्षा के लिए काम कर रही एक संस्था के अनुसार ध्रुवीय भालू और दरियाई घोड़े भी अब लुप्त हो रहे जानवरों की श्रेणी में आ रहे हैं.
ऐसा पहली बार हो रहा है जब ध्रुवीय भालू और दरियाई घोडे़ को लुप्त हो रहे जानवरों की सूची में शामिल किया गया है.
वर्ल्ड कंज़रवेशन यूनियन ( आईयूसीएन ) द्वारा जारी रेड लिस्ट ऐसे कई जानवरों और पेड़ पौधों के विवरण हैं जिनके बारे में कहा गया है कि इनकी संख्या लगातार कम हो रही है.
सूची में दरियाई घोडे़ और ध्रुवीय भालू के अलावा शार्क को भी शामिल किया गया है. इतना ही नहीं यूरोप और अफ्रीका में स्वच्छ जल में रहने वाली कई मछलियों को भी इस सूची में शामिल किया गया है.
आईयूसीएन का कहना है कि जीव जंतुओं को बचाने के लिए बनी हुई समिति के बावजूद ऐसे जानवरों की संख्या बढ़ती जा रही है.
आईयूसीएन के प्रबंध निदेशक एचिम स्टेनर कहते हैं कि इस साल की रेड लिस्ट से साफ है कि जैव विविधता में तेज़ी से कमी आ रही है.
उनका कहना है कि अगर जैव विविधता में कमी जारी रही तो यह मनुष्यों के लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है क्योंकि जानवरों के लुप्त होने का प्रभाव पूरे पर्यावरण पर पड़ता है.
इस साल की रेड लिस्ट में जानवरों और पेड़ पौधों की 16, 119 प्रजातियों के नाम है.
संगठन के अनुसार जानवरों और पेड़ पौधों के लुप्त होने के लिए जलवायु परिवर्तन को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इसके साथ ही साथ लोग भी ज़िम्मेदार हैं.
सर्वेक्षण से यह बात भी सामने आई है कि जो जानवर पहले से ही लुप्त हो रहे थे उनकी स्थिति और ख़राब है.
ध्रुवीय भालू के बारे में सर्वेक्षण में कहा गया है कि अगले 50 से 100 वर्षों में उनकी संख्या 50 प्रतिशत से 100 प्रतिशत की कमी आएगी. सूची में पहली बार आए दरियाई घोड़ों की संख्या पिछले एक दशक में ही 95 प्रतिशत घटी है.
स्थिति सबसे ख़राब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में है जहां दरियाई घोड़ों को मांस के लिए मारा जाता है.
आईयूसीएन के प्रमुख वैज्ञानिक जेफरी मैकनिले के अनुसार क्षेत्रीय अस्थिरता के कारण भी जैव विविधता में कमी आती है.
इसी तरह मछलियों की कई प्रजातियों की स्थिति दयनीय है और उनकी संख्या में लगातार कमी आ रही है. रेड लिस्ट में मछलियों की ऐसी 537 प्रजातियों को शामिल किया गया है.
आईयूसीएन का कहना है कि शार्कों और मछलियों की कम होती संख्या चिंताजनक है और इसे रोकने के लिए जल्दी क़दम उठाना ज़रुरी है.

आमेज़न में कम होते जंगल

ब्राज़ील से मिली उपग्रह की एक सूचना से पता चला है कि आमेज़न के जंगल को तेज़ी से नष्ट किया जा रहा है.सूचना के अनुसार वर्ष 2001 और 2002 के बीच जंगलों के कटने की गति चालीस प्रतिशत बढ़ी है और 1995 के बाद यह सबसे तेज़ गति है.
ब्राज़ील के नेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर स्पेस रिसर्च यानी राष्ट्रीय अंतरिक्ष शोध संस्थान (आइएनपीआई) के आँकड़े ये बताते हैं कि जंगल के 25,000 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक हिस्से के पेड़ खेती के लिए एक साल के अंदर ही काट डाले गए हैं.पर्यावरणवादियों ने इस पर चिंता व्यक्त की है.ब्राज़ील के एक पर्यावरणवादी संगठन फ़्रेंड्स ऑफ़ दी अर्थ के संयोजक मारियो मोनज़ोनी का कहना है, '' जंगलों की कटाई मे जहाँ कमी आनी चाहिए वहाँ ठीक इसके विपरीत इसमे तेज़ी आई है. ये चिंता की बात है.''पर्यावरणवादी संगठनों का कहना है कि इसका एक बड़ा कारण है दक्षिणी आमेज़न मे सोया की खेती का बड़े पैमाने पर विस्तार.उस क्षेत्र मे सोया के उत्पादन मे तेज़ी से वृद्धि हो रही है जिससे किसान भारी मुनाफ़ा कमा रहे हैं साथ ही ब्राज़ील के व्यापार को भी काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है.'प्रशासन दोषी'पर्यावरणवादी प्रशासन पर ये दोष लगा रहे हैं कि वो पर्यावरण की सुरक्षा संबंधी नियम लागू करने मे विफल हो रहा है.

लेकिन राष्ट्रपति लुइस इनासियो लूला डा सिल्वा के नेतृत्व वाली देश की मध्य-वामपंथी सरकार अगले सप्ताह जंगल काटे जाने की इस प्रक्रिया को रोकने के लिये नये प्रस्तावों की घोषणा करने वाली है.नई पर्यावरण मंत्री मरीना डी सिल्वा अमेज़न की सुरक्षा के लिये लम्बे समय से आवज़ उठाती रही हैं लेकिन जैसाकि बीबीसी के एक संवाददाता का कहना है अभी स्थिति इसके अनुकूल नही है.एक तरफ़ ये हाल है वहीं दूसरी ओर देश के पास लाखों डॉलर के नए उपग्रह और रडार की निगरानी व्यवस्था है जो इस बात की सही जानकारी दे सकते हैं कि जंगल कहाँ काटे जा रहे हैं.लेकिन बजट मे कटौती के कारण अवैध तरीक़े से जंगल काटने वालों और अवैध रूप से खेती करने वाले किसानों को रोक पाना सभंव नहीं हो पा रहा है.आमेज़न का जंगल दुनिया का सबसे बड़ा जंगल है जहाँ दुनिया के तीस प्रतिशत जानवर और पेड़-पौधे हैं.

प्रदूषण का एक घातक असर यह भी

अमेरिकी अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार वायु प्रदूषण फेफड़ों के लिए ही नहीं बल्कि शुक्राणुओं के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है. नेशनल अकेडमी आफ साइंस की पत्रिका में प्रकाशित कनाडा में हुए इस अध्ययन के अनुसार वायु प्रदूषण से न केवल शुक्राणुओं की संख्या घटती है बल्कि संबंधित डीएनए में होने वाले बदलाव के कारण आने वाली पीढि़यों में भी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.अध्ययन के तहत कैनेडा और अमेरिका के नेशनल सेंटर फार टाक्सीकोलोजीकल रिसर्च के अनुसंधानकर्ताओं ने दस हफ्तों तक चूहों पर हैमिल्टन हार्बर इलाके की प्रदूषित हवा का प्रभाव देखा. इस दौरान उन्होंने पाया कि स्वस्थ हवा में सांस लेने वाले चूहों के मुकाबले प्रदूषण झेलने वाले चूहों के शुक्राणुओं का डीएनए 60 फीसदी तक बदल गया.वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी हैरान थे कि प्रदूषण दूर किए जाने के बाद भी शुक्राणुओं में डीएनए संबंधी बदलाव जारी रहे. गौरतलब है कि ये परिणाम पहले हुए एक अध्ययन की पुष्टि करते हैं, जिसके अनुसार स्वस्थ हवा में सांस लेने वाले चूहों के मुकाबले प्रदूषित वातावरण में पलने वाले चूहों के बच्चों के डीएनए में दोगुने बदलाव देखे गये.
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सवाल यह है कि हम किसे मार रहे हैं?

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में इटावा के पास चंबल नदी में दुर्लभ प्रजाति गेवियेलिस गेंगेटिक्स के सत्रह घड़ियाल मरे हुए पाए गए. घड़ियालों की यह दुर्लभ प्रजाति अब विलुप्त होने की कगार पर है और शासन इनके संरक्षण पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इन घड़ियालों की हत्‍या की गई है और इसके लिए वन विभाग के अमले के वो लोग ही जिम्‍मेदार बताए जा रहे हैं जिन्‍हें रक्षा करने का दायित्‍व सौंपा गया.जान लीजिए कि गेवियेलिस गेंगेटिक्स एक इतनी महत्वपूर्ण प्रजाति के घड़ियाल हैं कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्वेंशन ऑफ नेचर एंड नेचरल हेरिटेज़ (आईयूसीएन) ने इसे क्रिटिकल एंडेजर्ड श्रेणी में रखा है. भारतीय वन्य जीव अधिनियम 1972 में भी इस प्रजाति को अनुसूची प्रथम में रखा गया है.इसे बचाने के लिए 1979 में चंबल नदी को घड़ियालों के लिए घोषित अभयारण्य बनाया गया. उस समय घड़ियालों की संख्या इतनी कम हो चुकी थी कि घड़ियालों की यह प्रजाति ही समाप्त हो जाती. इसी नदी से प्राप्त घड़ियालों के अंडों को इकट्ठा कर कृत्रिम प्रजनन हेतु लखनऊ स्थित कुकरेल घड़ियाल सेंटर पर ले जाया जाता था, वहां इन्हे दो-तीन साल रखने के पश्चात फिर चंबल में छोड़ दिया जाता था.वर्ष 1996 तक यह संख्या बढ़कर 1200 तक पहुंच गई किंतु वर्ष 2000 से एक बार फिर घड़ियालों के ऊपर संकट के बादल छाने लगे. कारण यह था कि अभयारण्य में जगह-जगह चोरी छिपे शिकार और उनके प्राकृत वास में बालू खनन का प्रकोप बढ़ता ही गया. पूरे चंबल नदी क्षेत्र में घड़ियालों की प्रजाति पर एक नया संकट दिख रहा है क्‍योंकि यह मानव निर्मित है.दुर्लभ प्रजाति के जानवरों के प्रति यह क्रूरतापूर्ण व्‍यवहार हमारी किस पाशविक प्रवृत्ति का द्योतक है? जीव हत्‍या का अधिकार किसने हमें दे दिया और वह भी ऐसे जीव जिन्‍हें हम पहले ही खत्‍म होने की कगार पर पहुंचा चुके हैं. सरकार उन्‍हें बचाने का अभियान चला रही है और चंद धन लोलुप अपराधी इन्‍हें मार रहे हैं. यदि इस क्रूरता पर अंकुश नहीं लगा तो एक दिन समूची मानव जाति का ही विनाश हो जाएगा.
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रविवार, 2 मार्च 2008

जिले पर रेगिस्तान का अतिक्रमण

म.प्र. राजगढ जिले, ब्यावरा। मालव धारती गहन गंभीर डग-डग रोटी, पग-पग नीर... यह कहावत राजगढ जिले की धरती पर भी लागू होती थी, लेकिन लगातार कटते वनों और जल स्त्रोतों के बेहिसाब दोहन ने इस धरती को भी बंजर और ऊसर बना दिया। अब तो जिले की चार तहसीलों में रेगिस्तान के प्रारंभिक लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं। राजस्थान के झालावाड जिले का सीमावर्ती क्षेत्र जीरापुर, खिलचीपुर या पठारी क्षेत्र राजगढ अथवा मैदानी इलाका ब्यावरा...। वनों की घटती तादाद और भूजल के अंधाधुंध दोहन ने इन तहसीलों को भी रेगिस्तानी भूमि बना दिया है। जिले की जलवायु और प्राकृतिक वातावरण बदल चुका है। वन विभाग का सर्वे बताता है कि इन चारो तहसीलों की जमीन, जलवायु और प्राकृतिक वातावरण धीरे-धीरे रेगिस्तानी होता जा रहा है। एक ही दिन में अधिक गर्म दिन और अधिक ठंडी रातें, ऊपरी मिट्टी का क्षरण, अनियमित बारिश और कांटेदार झाडियों की अधिकता इसके प्रारंभिक लक्षण ह। इन अनुभवों को कालांतर में महसूस किया जाएगा। वन विभाग ने अपने सर्वे में इन चारों तहसीलों को प्रारंभिक रेगिस्तानी लक्षण वाले इलाके घोषित किए हैं। क्षेत्र के विकास और उसको हराभरा करने के लिए विभाग ने एक कार्य योजना भी बनाई है। जिसके तहत जिले में मिशन डेजर्ट लागू किया गया है। इसके तहत वन समितियों को वन संरक्षण और संवर्धन के लिए जागरूक करना, वन्य क्षेत्र के बाहर सामुदायिक एवं भू-स्वामी हक की जमीन में फलदार एवं वानिकी प्रजाति के पौधों का रोपण करवाना, जल संरक्षण से संबंधित विभिन्न उपायों से परिचित करना, वनों पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों जैसे सोलर कूकर, बायो गैस, एलपीजी, उन्नत धुआं चूल्ह का प्रशिक्षण दिया जाना है।

बुन्देलखण्ड- क्या निराशा से आशा की राह पर आना संभव है? -भारत डोगरा

हाल के समय में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे की विकट स्थिति ने यहां के लोगों के गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाने के कई प्रयास किये गये हैं। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के सभी सात जिलों (झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर) को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है। यह रिपोर्ट सभी सातों जिलों के 35 से अधिक गांवों में वर्ष 2007-08 में गांववासियों से हुई बातचीत पर आधारित है।

इस समय क्या करना सबसे आवश्यक है-
चूंकि अब यह संभावना बहुत बढ़ गई है कि वर्ष 2008 मई व जून में या इससे पहले भी बुन्देलखण्ड में बहुत गंभीर जलसंकट उपस्थित होने वाला है, अत: अब एक ऐसा एक्शन प्लान बनाना बहुत जरूरी हो गया है जिसका केन्द्रीय बिन्दु है बुन्देलखण्ड में भूख व प्यास के संकट को कम करना। मनुष्य ही नही पशुओें की भूख-प्यास पर भी ध्यान देना जरूरी है। इसके लिये पर्याप्त संसाधन बुन्देलखण्ड के विशेष पैकेज व पहले से चल रही योजनाओं विशेषकर ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना के अन्तर्गत उपलब्ध होने चाहिए। ग्रामीण रोजगार योजना के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में कम से कम 100 करोड़ रुपया खर्च होना चाहिए। इस योजना के लिए बाधा बनी कुछ व्यवहारिक समस्याओं को शीघ्र ही सुलझाना होगा। जब अधिक संसाधन उपलब्ध होंगे तो पारदर्शिता बढ़ाने व भ्रष्टाचार रोकने के उपायों को भी उतना ही मजबूत बनाना होगा। अन्यथा पहले की ही तरह इस गंभीर संकट में भी निहित स्वार्थ संस्थाएं बजट का एक बड़ा हिस्सा हड़प कर जाएंगे। सूखा-राहत के अन्तर्गत मिल रही सहायता इतनी हों कि वास्तव में उसमें राहत मिले व चेक भुनाना भी आसान हो।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड-डे-मील व आंगनबाड़ी को सुधारना होगा। उच्चतम प्राथमिकता जल व मिट्टी संरक्षण के साथ लघु सिंचाई को मिलनी चाहिए। रोजगार गारन्टी योजना में छोटे किसानों व पट्टेदारों को अपनी भूमि बेहतर करने में भी रोजगार मिल सकता है। वर्षा मेहरबान न हुई तो गांव के तालाबों को नदियों के किनारे की लिफ्ट स्कीम से व नहरों से भरा जा सकता है। जल संरक्षण को ध्यान में रखते हुए विशेष प्रकार की रोक भी लगाई जा सकती है व यह कार्य स्थान विशेष की वास्तविक जरूरत के आधार पर, विकेन्द्रित ढंग से लोगों के विचार-विमर्श से होना चाहिए। सरकार द्वारा घोषित सामुदायिक रसोई व खाद्यान्न बैंक की नई स्कीमों को जरूरतमंदों तक पहुंचाने में देर नही होनी चाहिए। गौशाला व चारा भंडार स्थापित कर के पशुओं की रक्षा के प्रयास होने चाहिए। कम्बाईन हारवेस्टर पर रोक लगनी चाहिए ताकि अधिक भूसा बच सके व लोगों को रोजगार भी मिले। किसानों व मजदूरों को कर्ज से राहत की बहुत जरूरत हैं।

टिकाऊ -विकास की वैकल्पिक सोच-
सरकार की जल प्रबंधन, खनन, कृषि, ग्रामीण ऋण, वानिकी, उद्योग आदि सम्बन्धी नीतियां बदलना जरूरी है। कम खर्च में अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक जरूरी है परम्परागत जल स्रोतों में मरम्मत और सुधार कार्य करना व उन्हें नया जीवन देना। महोबा, चरखारी, बरुआसागर आदि ऐतिहासिक धरोहर के तालाबों से क्षेत्र में अनुकूल जलप्रबंधन के बारे में बहुत कुछ सीखा जा सकता है। नदी के पास के गावों में सिंचाई ले जाने के लिए नदी किनारे की लिफ्ट स्कीम की भी उपयोगी भूमिका हो सकती है। सामग्रीकृत वाटरशेड विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत जल संग्रहण-संरक्षण में नए कार्यो के साथ परम्परागत जल स्रोतों को नवजीवन देने के प्रयास जोड़ने चाहिए व साथ ही सामाजिक समरसता व आपसी सहयोग एकता की भावना बढ़ानी चाहिए। कृषि में परम्परागत बीजों व स्थानीय संसाधनों पर आधारित ऐसी तकनीकों को अपनाना चाहिए जिनसे किसान कर्जग्रस्त न बनें। इस बारे में विशेष सावधानी बरतनी होगी। वनरक्षा व हरियाली बढ़ाने के प्रयास बहुत जरूरी है जो विशेषकर आसपास के गांववासियों में सहयोग व सहभागिता से ही सफल हो सकते है। बुन्देलखण्ड समृध्द कुटीर उद्योगों की पहचान रखता था पर इनका ह्रास हुआ है। हाल ही में जैतपुर जिला महोबा में यहां की मशहूर खादी के उत्पादन में लगे लगभग 7000 जुलाहों व अन्य दस्तकारों को चंद भ्रष्टाचार में लिप्त दबंगों ने बेरोजगार कर दिया। मंगरौठ गांव जैसे स्थानों के एक समय विख्यात रहे दस्तकारों का रोजगार आज भी बचाया जा सकता है। किसानों व मजदूरों को कर्ज में राहत आज नही तो कल देनी ही होगी। विनाशक खनन पर भी कुछ रोक लगानी ही होगी। पंचायत स्तर पर ऐसी योजनाएं बननी चाहिए जो समता व पर्यावरण संरक्षण पर आधारित हों, जो लोगों की आजीविका व पर्यावरण की रक्षा को आपस में जोड़कर टिकाऊ विकास की ओर ले जाएं।
यह सच है कि बुन्देलखण्ड बहुत प्रतिकूल मौसम के दौर में गुजर रहा है, पर इससे बावजूद आज के गहरे दुख:दर्द को कम करने की अनेक संभावनाएं हमारे सामने है। निराशा से आशा की ओर जाने वाली राह मौजूद है, अब हमें इसी राह पर आगे बढ़ना है।
नोट - यह रिपोर्ट एक्शन एड, परमार्थ व अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान के सहयोग से लिखी गई।

बुन्देलखण्ड- क्या निराशा से आशा की राह पर आना संभव है? -भारत डोगरा 3

हाल के समय में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे की विकट स्थिति ने यहां के लोगों के गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाने के कई प्रयास किये गये हैं। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के सभी सात जिलों (झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर) को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है। यह रिपोर्ट सभी सातों जिलों के 35 से अधिक गांवों में वर्ष 2007-08 में गांववासियों से हुई बातचीत पर आधारित है।

कठिन हालात में कुछ अच्छा कार्य
किन्तु समस्याओं से घिरे बुन्देलखण्ड में कुछ अच्छे समाचार भी है। सरकारी स्तर पर कुछ सुधार नजर आने लगा है। न्यूनतम मजदूरी बढ़ाई गई है। निर्धन परिवारों के लिए खाद्य बैंक व सामूहिक रसोई की घोषणा की गई है। इस संकट से जूझने के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध करवाने वाला विशेष बुन्देलखण्ड पैकेज चर्चा में है। कुछ अधिकारियों ने अपने स्तर पर राहत तेज करने व भ्रष्टाचार दूर करने के लिए सार्थक प्रयास किये हैं।
यह विशेषकर उत्साहवर्धक समाचार है कि अपने सीमित साधनों में भी कुछ स्वैच्छिक संस्थाओं ने कुछ गांवों को सूखे के दुष्परिणाम से बचाने का सफल प्रयास किया है। उदाहरण के लिए परमार्थ संस्था ने जालौन जिले के माधौगढ़ तहसील के लछमनपुरा गांव में पहले चेकडैम, मेड़बंदी आदि से जल संरक्षण का कार्य किया। उसके बाद टयूबवैल के लिए सहायता देने वाली सरकारी योजना का लाभ लेकर यहां टयूबवैल लगवाने में मदद की। महत्वपूर्ण बात यह है कि टयूबवैल से पहले संस्था ने जल संरक्षण का महत्वपूर्ण कार्य दिया अन्यथा टयूबवैल में जल स्तर तेजी से नीचे चला जाता। इस तरह संतुलित ढंग से गांव का अधिकांष क्षेत्र सिंचित बनाया गया। अब स्थिति यह है कि आसपास के कई गांवों में जहां खरीफ व रबी दोनों विफल हैं, जबकि यहां रबी व खरीफ दोनों सफल हैं व कुछ किसान तीसरी जायद फसल भी ले रहे हैं। इस गांव में दलित छोटे किसानों ने पलायन नहीं किया है जबकि आसपास के अनेक गांवों में पलायन है। गांववासियों का पोषण व स्वास्थ्य पहले से बेहतर हुआ है। इसी तरह चित्रकूट जिले के जल संकट से ग्रस्त रहने वाले क्षेत्र में अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान नामक स्वैच्छिक संस्था ने टिकरिया, इटवां, मनगवां, केकरापार, हरिजनपुर, सुखरामपुर, पुष्कर्णी आदि अनेक स्थानों पर चैकडेम निर्माण, बंधीकरण, वृक्षारोपण, मेड़बंदी पुराने तालाबों की मरम्मत, नए तालाबों का निर्माण आदि कार्यो से लोगों को बहुत राहत दी है।
आम लोगों ने अपने स्तर पर कई सार्थक प्रयास आरम्भ किए हैं। महोबा में गांववासियों ने अपने स्तर पर अनेक परम्परागत कुंओं की मरम्मत व नये कुंआ के निर्माण का कार्य बहुत मेहनत व निष्ठा से किया है। जिला जालौन के मींगनी गांव निवासी माताप्रसाद तिवारी ने अपने गांव के नाले के आसपास 15000 पेड़ लगाने के लिए अपना जीवन समर्पण किया। उन्हें पूरी उम्मीद है कि अगले दो वर्षों में लगभग 5000 पेड़ फल देने लगेंगे। परमार्थ ने यहां बोर करवा कर व चैकडेम बनवा कर अपना योगदान भी दिया है।
मीडिया ने लोगों की समस्याओं व गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाते रहने में सार्थक व उपयोगी भूमिका निभाई है।

बुन्देलखण्ड- क्या निराशा से आशा की राह पर आना संभव है? ---भारत डोगरा 2

हाल के समय में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे की विकट स्थिति ने यहां के लोगों के गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाने के कई प्रयास किये गये हैं। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के सभी सात जिलों (झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर) को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है। यह रिपोर्ट सभी सातों जिलों के 35 से अधिक गांवों में वर्ष 2007-08 में गांववासियों से हुई बातचीत पर आधारित है।

इस दुख:दर्द के कारण व दीर्घकालीन प्रवृत्तियां
हमने कई बुजुर्ग व्यक्तियों से पूछा कि क्या उन्होंने पहले कभी इतनी देर तक चलने वाला व इतना गंभीर सूखा अपने जीवन-काल में देखा था तो उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया। इस चार-पांच वर्ष से चल रहे संकट के दौर से पहले ही बुंदेल खंड में बहुत सीमित व बेमौसम, असामयिक वर्षा की प्रवृत्ति नजर आने लगी थी। एक ही पंचायत में कुछ स्थान पर वर्शा होती तो कुछ जगह नहीं होती। ओलों से भी ऐसी क्षति देखी गई जो पहले कभी नजर नहीं आई थी। एक से दो किलोग्राम तक के वजन के ओले गिरे जबकि आधे किलोग्राम की संख्या तो काफी अधिक थी। कई गांवों में इससे खपरैल टूट गई। जिगनी गांव के पास जमीन फटने की घटना भी हुई। मौसम में आए अप्रत्याशित बदलाव जलवायु की व्यापक समस्या से जुड़े हो सकते हैं, पर स्थानीय स्तर की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना चाहिए। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। खनन में ऐसे विनाशकारी तौर-तरीके अपनाए गए, जिससे हरियाली, जलस्रोतों व भूमि की बहुत क्षति हुई। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन की बहुत क्षति भी हुई।
जलप्रबंधन में इस मूल सिध्दान्त का व्यापक स्तर पर उल्लंघन हुआ कि बड़े पैमाने पर जल दोहन से पहले जल का संग्रहण-संरक्षण रीचार्ज जरूरी है। हैंडपम्प व टयूबवैल के आगमन के बाद परम्परागत कुंओं व तालाबों की बहुत उपेक्षा की गई। यहां तक कि चरखारी, महोबा, बरुआसागर जैसे तालाबों में बहुत सराहनीय, ऐतिहासिक धरोहर के उदाहरणों की ओर भी समुचित ध्यान नहीं दिया गया। नहरों की सफाई व मरम्मत नही हुई, इसमें सिल्ट व खरपतवार जमा होते रहे। टेल के गांवों तक पानी पहुंचना समाप्त हो गया, जबकि ऊपर के क्षेत्र में बंदूक व लाठी के बल पर दबंग व्यक्ति अधिक जल का उपयोग करने वाली फसलें लगाने लगे। बांधों में अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने के कारण अचानक वेग की विनाशक बाढ़ आने लगी।
अनुचित प्राथमिकताओं व बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार के कारण विकास के बजट का बहुत दुरुपयोग हुआ। चेकडेम अगली ही वर्षा में टूट जाते थे। बड़े स्तर की जल परियोजनाओं में बहुत पैसा डूब गया पर उनका लाभ नही मिला। छोटे स्तर की कम खर्च में ज्यादा लाभ देने वाली परियोजनाओं की अपेक्षा बड़े बांध व नदी जोड़ जैसी योजनाओं की ओर अधिक धन भेजा गया, जिसमें बड़े पैमाने के ठेके मिलने की गुंजाइश थी। लोगों को बांछित लाभ दिए बिना ही परियोजनाओं के भुगतान होते रहे। यहां तक कि भूमि-सुधार जैसा कार्यक्रम भी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो गया। इसके अतिरिक्त पट्टेदारों को वन विभाग ने कब्जा लेने से रोका व अपना स्वामित्व जताया। सबसे गरीब समुदायों की उपेक्षा व शोषण का सिलसिला चलता रहा। बड़े भूस्वामियों ने न केवल उनका शोषण किया अपितु उनके नाम पर कर्ज भी लिया। विकास स्कीमों का कर्ज एक बड़ा घोटाला बनने लगा। गांववासियों को ऐसे कर्ज लेने के लिए दबाव बनाया गया जिनके लौटाने का सामर्थ्य उनमें नही था ताकि इस कर्ज से जुड़ी कमीशन व रिश्वत फल-फूल सके। विशेषकर टै्रक्टरों के कर्ज में यह बहुत देखा गया।
ये सभी समस्याएं क्षेत्र को जल संकट, वन-विनाश, पर्यावरण, गरीबी, अभाव व कर्ज के जाल, भूख व कुपोषण की ओर ले जा रही थी। इस स्थिति में जब एक लंबे समय तक चलने वाले गंभीर सूखे का सामना करना पड़ा, तो स्थितियां बहुत तेजी से बिगड़ने लगी। दूसरी ओर यदि पहले से पर्यावरण संरक्षण, अच्छे जल प्रबंधन व ईमानदारी -पारदर्शिता की षासन-व्यवस्था अपनाई जाती व उचित प्राथमिकताओं से कार्य होता तो इस तरह के गंभीर सूखे की स्थिति में भी इतने गहरे दुख:दर्द से बचा जा सकता था।
दु:ख से कहना पड़ रहा है कि जब सूखे की स्थिति विकट होने लगी उसके बाद भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली व ग्रामीण रोजगार योजना में भ्रष्टाचार की चिंताजनक स्थिति के समाचार मिलते रहे। अनेक स्थानों पर मिड-डे-मील व आंगनवाड़ी ठीक से नहीं चल सके। रोजगार गारन्टी योजना आई तो इससे लोगों को राहत, बड़े पैमाने पर जल संरक्षण व पलायन की मजदूरी को रोकने की बड़ी उम्मीदें थी। किन्तु वर्ष 2006-07 के दौरान रोजगार गारन्टी योजना के यह महत्वपूर्ण उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सके। सात जिलों में प्रति जिला 10 करोड़ से 25 करोड़ रुपये तक इस परियोजना के अन्तर्गत खर्च हुआ, जबकि प्रत्येक जिले में यहां की विकट स्थिति को देखते हुये कम से कम 100 करोड़ रुपया इस योजना पर खर्च होना चाहिए था। इस वर्ष रोजगार गारन्टी योजना के अन्तर्गत कार्य कुछ बढ़े हैं पर इस समय भी जरूरत से कहीं कम है। बड़े पैमाने पर हुए पलायन से पता चलता है कि किस हद तक यह स्कीम अपना उद्देश्य प्राप्त करने में विफल रही। पर यह अच्छा है कि अधिकांश स्थानों पर इस योजना में 100 रूपये या उससे निकट की मजदूरी मिल रही है।

बुन्देलखण्ड- क्या निराशा से आशा की राह पर आना संभव है? - -भारत डोगरा 1

हाल के समय में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे की विकट स्थिति ने यहां के लोगों के गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाने के कई प्रयास किये गये हैं। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के सभी सात जिलों (झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर) को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है। यह रिपोर्ट सभी सातों जिलों के 35 से अधिक गांवों में वर्ष 2007-08 में गांववासियों से हुई बातचीत पर आधारित है।

इस समय का गहरा दुख:दर्द
चार वर्ष के सूखे से लोगों का दुख:दर्द बहुत विकट स्थिति में पहुंच गया है। इस वर्ष खरीफ फसल की व्यापक क्षति हुई। एक के बाद दूसरे गांव में किसानों ने हमें बताया कि बीज भी लौटा नही पाया। एक बड़े क्षेत्र में रवी की बुवाई ही नही हुई क्योंकि नमी, वर्षा व संसाधनों का प्रभाव है। माह मई 2007 की रिपोर्ट में हमने बताया था कि किस हद तक प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता बढ़ चुकी है। माह जुलाई 2007 के बाद विशेषकर दीपावली के बाद बड़ी संख्या में गांववासी प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर चले गये। गांवों के बहुत से घरों में हमने ताला लगा देखा क्योंकि अतएव पूरे के पूरे परिवार ही चले गये है। अन्य परिवारों में जो बड़े-बूढ़े व महिलाएं बचे हैं उन्हें उस समय बहुत कठिनाई होती है जब प्रवासी मजदूरी के लिए बाहर गये उनके परिवार के सदस्य उन्हें पैसे भेजने में असमर्थ होते है। कई महिलाओं ने हमको बताया कि पुरुषों का स्वास्थ्य ठीक नहीं था तो भी वे मजदूरी के लिये दूर चले गये। अब तो एक समय के खाते-पीते किसान परिवारों के सदस्य भी प्रवासी मजदूरी के लिए दूर जाने को मजबूर हैं। वे प्राय: दिल्ली, मुम्बई, पंजाब, हरियाणा, सूरत व उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में जा रहे हैं। वे वहां जाकर निर्माण मजदूर, फैक्ट्री मजदूर, खदान मजदूर, ईंट भट्टा के मजदूर व हॉकर जैसे कार्य करते है। कई प्रवासी मजदूर जब घर लौटना चाहते है, तो उनके पास इसके लिये किराया तक नहीं होता है। उन्हें प्राय: पोषण व स्वास्थ्य के लिये खतरनाक स्थितियों में भी काम करना पड़ता है।
भूख व कुपोषण की समस्या बहुत बड़े पैमाने पर व गंभीर रूप में उपस्थित है। अधिकांश लोग रोटी-नमक, रोटी-चटनी व चावल-नमक ही खा रहे है। दाल, सब्जी व दूध का भोजन में स्थान बहुत तेजी से कम हुआ है। रोटी-नमक-मिर्च भी अनेक परिवारों को भरपेट नहीं मिल रहा है। अनेक परिवार दिन में एक बार ही भोजन प्राप्त कर रहे हैं। भूख से होने वाली मौतों पर जो विवाद छिड़ा रहता है, उसे हमें निरंतरता से चल रहे अल्पपोषण, कुपोषण व भूख के सन्दर्भ में समझना चाहिए। इस क्षेत्र में अनेक भूख की मौतों के समाचार मिले हैं। उदाहरण के लिये बांदा जिले के एक गांव नाहरी से ही भूख से सात मौतों का समाचार मिला है। भूख से होने वाली मौत का सही अर्थ यह है कि इस मौत में भूख व कुपोषण की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भूख व कुपोषण से कमजोर शरीर की अनेक बीमारियों से बचने की प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम रह जाती है। इस तरह भूख से होने वाली मौत को समझा जाए तो इस तरह की अनेक मौतें बुन्देलखण्ड में हो रही हैं, यह संख्या मीडिया में रिपोर्ट की गई भूख की मौतों से अधिक है।
बुन्देलखण्ड से सैकड़ों किसानों व अन्य गांववासियों की आत्महत्या के समाचार भी मिले हैं। यह एक हकीकत है कि पिछले कुछ वर्षो में किसानों को बार-बार बहुत क्षति उठानी पड़ी है। बैंकों व निजी साहूकारों के प्रति कर्ज ग्रसित किसानों की विवशता इस हद तक बढ़ गई है कि इस कर्ज को लौटाने की संभावना नजर नहीं आ रही है। इन किसानों को परिवार की दृष्टि में बहुत जरूरी माने जाने वाले खर्चों जैसे- बेटी के विवाह के खर्चों की व्यवस्था करने में बहुत कठिनाई हो रही है। अनेक परिवारों में तीन-चार वर्षों से बेटी का विवाह टलता जा रहा है। इन किसानों को बार-बार खेती में यह अनुभव हो रहा है कि बहुत मेहनत करने के बावजूद वे खर्चा तक नहीं निकाल पा रहे हैं। इन सब स्थितियों पर गहरी संवेदना से ध्यान देने पर समझा जा सकता है कि इन दिनों इन परिवारों से आत्महत्याओं व सदमे से हुई मौतों के अधिक समाचार क्यों मिल रहे हैं। अनेक गांवों में तो अभी से पानी की कमी महसूस हो रही है। यह स्पष्ट है कि गर्मियों में बहुत गंभीर जलसंकट उपस्थित होने की संभावना है। पशुओं के लिए पानी और चारे दोनों का ही संकट है। अनेक गांवों में उन्हें विशेषकर गायों को खुला छोड़ दिया गया है। हमीरपुर जिले में जिगनी गांव के किसानों ने बताया कि वे बहुत सी गायों को नि:शुल्क ही देने को तैयार हो गये क्योंकि वे उन्हें अपनी आंखों के सामने मरता नहीं देख सकते।
गांववासियों की जरूरतों पर कम से कम चर्चा तो हो रही है, पर शहरी निर्धन वर्ग की समस्याएं भी बुरी तरह उपेक्षित हैं। शहरों में शीतलहर से मरने वाले निर्धन व्यक्तियों की गंभीर समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिए। आखिर इस तरह की त्रासदियों में मरने वाले अनेक व्यक्ति वही गांवों के अभावग्रस्त लोग है जो गांवों की बिगड़ती स्थिति के कारण रोजी-रोटी की तलाश में शहर चले गये। शहरों में निर्धन-विरोधी कदम नही उठाने चाहिए। दस दिसम्बर को समाचार छपा कि बांदा मेें एक रिक्शा चालक गोविन्द ने मजबूरी में अपने दो बच्चे बेच दिए। जबकि कुछ समय पहले तक वह चाय का स्टाल चलाता था और तब उसकी हालत अच्छी थी। पर जब अतिक्रमण हटाने के नाम पर उसका टी-स्टाल तोड़ दिया गया तो उसकी गरीबी व मजबूरी के दिन आरंभ हुए व उसे चार महीने के चंदन व आठ वर्षीय शंकर को बेचना पड़ा।

शनिवार, 1 मार्च 2008

विश्व का तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद पिघल रहे हैं – ग्रीनपीस

पर्यावरण के संरक्षण के लिए सक्रिय संगठन, ग्रीनपीस ने कहा है कि तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे एशिया के लाखों लोगों को पानी की आपूर्ति कम हो सकती है और बाढ़ आने की आशंका भी बढ़ती जा रही है । ग्रीनपीस ने चीन और अन्य देशों से कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए तुरंत कदम उठाने का अनुरोध किया है ताकि विश्व के बढ़ते हुए तापमान की समस्या का सामना किया जा सके ।
ग्रीनपीस की चीनी शाखा ने कहा है कि पिछले दो सालों में किंगहाई-तिब्बती पठार की तीन यात्राओं के दौरान हिमालय के हिमनदों के उसके अध्ययन से पता चला है कि तापमान बढ़ने की वजह से वे पीछे हटते जा रहे हैं ।
बुधवार को ग्रीनपीस ने बीजिंग में पत्रकारों को सिकुड़ते हुए हिमनदों की तस्वीरें और तिब्बती ग्रामीणों के साक्षात्कार दिखाए, जिनसे संकेत मिलता है कि पानी की आपूर्ति और खेतों में फसलें प्रभावित होने लगी हैं ।
ग्रीनपीस चाइना के लिए मौसम और ऊर्जा कार्यकर्ता ली यान ने कहा है कि पिघलते हुए हिमनदों से बनी झीलों में संभवतः वह पानी इकट्ठा हो रहा है, जो आमतौर पर नीचे बहकर गांवों में चला जाता है और इस वजह से पानी की तंगी हो रही है । उन्होंने कहा कि जब इन झीलों में बहुत ज्यादा पानी भर जाएगा और वह अचानक पहाड़ों से नीचे बहेगा तो बहुत घातक होगा । सुश्री ली ने कहा कि हाल ही में हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान ग्रीनपीस को बर्फ तेजी से पिघलने का पता चला था ।
सुश्री ली ने कहा कि हिमालय पर्वत चीन के औसत से दुगनी गति से और विश्व की गति से लगभग तीन-गुनी ज्यादा गति से गर्म हो रहा है ।
ग्रीनपीस ने चीनी वैज्ञानिकों का हवाला दिया, जिन्होंने कहा है कि जिस दर से विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है, उससे 2035 तक हिमालय के सारे हिमनद गायब हो जाएंगे और अगर मौसम में परिवर्तन की प्रवृत्ति और बिगड़ी तो यह संकट इससे भी जल्दी पैदा हो सकता है ।
हिमनद के गायब होने का अर्थ है, एशिया के लाखों लोगों के लिए पानी का अभाव । तिब्बती पठार के हिमनद प्रमुख नदियों का स्रोत हैं, जिनमें चीन की याग्तज़ी और येलो नदी तथा भारत की गंगा और सिंधु नदी और दक्षिण-पूर्व एशिया की मेकोंग नदी शामिल हैं ।
ग्रीनपीस ने तापमान बढ़ने के लिए कार्बन उत्सर्जन और अन्य ग्रीनहाउस गैसों को जिम्मेदार बताया है और कहा है कि चीन तथा अन्य देशों की सरकारों को उत्सर्जन रोकने के लिए ज्यादा कदम उठाने की जरूरत है ।
समझा जाता है कि इस साल ही कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में चीन अमेरिका से आगे निकल जाएगा ।
ग्रीनपीस ने कहा है कि चीन पर्यावरण में परिवर्तन की गति धीमी करने के लिए कदम उठा सकता है और ऊर्जा क्षमता में सुधार करके तथा पुनः नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ावा देकर अपनी आर्थिक वृद्धि को बरकरार भी रख सकता है ।
यूरोपीय संघ चीन को समझाने की कोशिश कर रहा है कि उसे कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन रोकने के लिए ज्यादा बड़े कदम उठाने चाहिए । परंतु बीजिंग ने उत्सर्जन का स्तर बढ़ने के बावजूद कहा है कि विकसित देशों को विश्व का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए ।

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