मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

पर्यावरण का गहराता संकट - विंध्यमणि

एक खबर के मुताबिक झारखंड में कभी भी हाथियों का हमला हो सकता है। उड़ीसा और झाड़खण्ड के जंगल हाथियों से आक्रांत है और यह प्रभाव्य कभी भी जंगल के बाहर व्यापक रूप में भयंकर रूप धारण कर सकता है। बेतहाशा कट रहे जंगल, पशु और पक्षियों का असुरक्षित बनता जा रहा जीवन हमारे पर्यावरण के लिए आने वाली जनरेशन के लिए अच्छा नहीं है। एक समय था कि हर ऋतु का एक खास समय होता था। जाड़ा गर्मी व बरसात सब क्रम से और समय पर आते थे लेकिन आज सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया है। जाड़े में बरसात होती है। जाड़ा भी कुछ परिवर्तित लिए हुए है। गर्मी का तो कहना ही क्या। गर्मी इतनी पड़ती है कि सब कुछ सूखने के कगार पर हो। बारिश तो ऐसी कि लगेगा अब पूरा संसार ही डूबने वाला है। यह सब प्रकृति के असंतुलन के कारण है।
हमारा समाज और उसमें रहने वाले व्यक्तियों की सोच इतनी संकुचित होती जा रही है कि वहां और सब चीजों के लिए वक्त तो है लेकिन पर्यावरण को संरक्षित करने और उसके लिए खुद पहल करने के लिए जरा-सा भी समय नहीं है। जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है क्या उसी अनुपात में संसाधनों का दोहन नहीं हो रहा है? नयी आवासीय व्यवस्थाएं हमारे वनों को काल की तरह लीलती चली जा रही है। हम मौन है और सच तो यह है कि अपने क्षणिक सुख में मस्त है। जिस प्रकृति ने हमारे लिए ढेर सारे उपादान दिये क्या उसके लिये हमारा कोई कर्तव्य नहीं है। आज समय की आवश्यकता है कि हमें अपने आस-पास के पर्यावरण वातावरण पर जरूर नजर रखनी चाहिए। चाहे पानी बचाना हो या पालीथीन का प्रयोग न करना हो। विद्युत ऊर्जा की बचत करना हो या फिर बरसात के पानी को रोककर उन्हें शुद्ध करके पीने योग्य बनाना हो। ये सब बातें सुनने करने में बहुत छोटी जरूर लगती है और इनका प्रभाव चूंकि प्राथमिक स्तर का लगता है इसलिए ये सब हमारी सामान्य दिनचर्या और सामान्य जरूरतों से शुरू की गयी जागरूक पहल हमें पर्यावरण के प्रति एकजुटता में काफी मदद करती है।
अभी कुछ ही वर्षों पहले की बात है राजस्थान में पानी के लिए वो तबाही मची थी कि लोग गंदे पानी के प्रयोग से बीमारियों का शिकार हूए। पीने के लिये पानी जहां न मयस्सर हो क्या वहां बारिश के पानी को रोककर उसे शुद्ध करके पीने योग्य नहीं बनाया जा सकता? यह एक देश व्यापी पहल का स्वरूप होना चाहिए। भूमंडलीकरण के प्रभाव से जहां शहर के साथ-साथ गांव और कस्बों में संचार माध्यमों की उपलब्धता ने दुनिया को काफी छोटा कर दिया है। वहीं इसके बावजूद हमारी समस्याएं, बीमारियां और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी होती जा रही है। जैविक खादों का उत्पादन कम हो रहा है। उर्वरक का बहुतायत प्रयोग जमीन की उर्वरा शक्ति को बंजर बना रहा है। सोना उगलने वाली धरती से ठीक से अन्न का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी इकाइयां स्थापित कर हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर रही है जो कि सीमित है जंगल कट रहे हैं। नये पार्क बन रहे हैं। उनमें लुभाने के लिए विदेशी पौधे लगाये जा रहे हैं। लेकिन इन सब क्रिया कलापों से हमारा जीवन कब तक सुरक्षित रहेगा यह विचारणीय प्रश्न है सरकार हर वर्ष गंगा सफाई के लिए लाखों रुपये और पेड़ लगाने को प्रोत्साहन देने के लिए तमाम योजनाओं में करोड़ों का धन सामग्री लगाती है लेकिन वह सारी धन सामग्री बंदरबाट के जरिए सही जगह पर नहीं पहुंच सकती। पर्यावरण को सुधारने और उसका पोषण करने के लिये लाखों संस्थाएं देश में संचालित है, लेकिन सभी संस्थाओं का प्राथमिक स्तर अच्छा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। छोटे स्तर पर किया गया कार्य, गांव कस्बों से शुरू किया गया कार्य जिसमें कि धन भी कम लगेगा ज्यादा प्रभावकारी हो सकता है। पर्यावरण की सुन्दरता जैसी भारत में है वैसी किसी भी अन्य देश में नहीं देखने को मिलती है। हर प्रकार के पेड़, पौधों, फल व फसल के लिये हमारे देश की जमीन सर्वाधिक उपयुक्त है। लेकिन जिस तरह से पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है। वह हमारे विकास के रास्ते को अवरुद्ध कर रहा है। जहां तक हमारे ईंधन की बात है तो लोगों को जान लेना चाहिए कि भविष्य में पेट्रोल, डीजल आदि मिलने से रहा। आने वाला समय बायोडीजल का है जिस तरह से हर्बल ने बाजार में अपनी स्थिति को मजबूत बना लिया है उसी तरह बायोडीजल पूर्णतः हमारे ईंधन का स्रोत होगा। बायोडीजल का स्रोत होगें प्राकृतिक उपादान जैसे-सूरजमुखी, अरण्डी, नारियल, सोयाबीन, जैतून, बिनौला आदि। इन्ही सब पर आश्रित होगी भविष्य में चलने वाली गाड़ियां। जेट्रोफा जैसा पौधा आज भी बायोडीजल का सबसे बड़ा पर्याय होकर इसी दिशा में काफी सहायता प्रदान कर रहा है। दिल्ली में तो इससे ट्रेन भी चलती है। अब प्रश्न उठता है कि ये जेट्रोफा की खेती कहां की जायेगी। निश्चित तौर पर यह कार्य जमीन पर ही हो सकता है। अगर जमीन की गुणवत्ता दिनों-दिन गिरती जायेगी तो जाहिर है कि धरती पर कुछ भी उगाना बड़ा मुश्किल हो जायेगा और जब धरती पर कुछ उगेगा ही नहीं तो हमारा और पशु पक्षियों का जीवन भला कैसे सुरक्षित रहेगा?
प्रकृति हमेशा से मानव जाति की सहयोगी रही है। यह सहयोग जब प्रकृति को इसका प्रयोग करने वालों या फिर इसके प्रभाव में रहने वालों से मिलता है तभी पर्यावरण को संरक्षित किया जाता है। अशिक्षा के घटाटोप ने हमारे देश में एक लंबे समय तक साम्राज्य बनाये रखा। स्थिति अब काफी सुधर चुकी है। लेकिन फिर भी देश के तमाम क्षेत्र आज भी अशिक्षा के अंधकार में जी रहे हैं। जानवरों का शिकार करके उन्हें खा जाना एक आम बात है। अशिक्षा ने उन्हें यह समझने का अवसर ही नहीं दिया कि वे क्या कर रहे हैं? सरकारी आंकड़े यह बताते हैं कि पर्यावरण को संरक्षित करना चाहिए। यह बात तमाम लोगों को मालूम ही नहीं है कि वे जी रहे हैं तो जी रहे है जब समस्या मुंह के सामने आ खड़ी होती है तब लगता है कि इसकी जानकारी के अभाव में हम पर्यावरण का इतना नुकसान कर रहे थे। ये धरती रत्नगर्भा है इससे उत्पादन के साथ ही जीव जगत की रक्षा भी होती है। यह तभी तक रक्षा कर सकती है जब तक हम इसके उपादान को सुरक्षित रखेगें। हाइटेक सिटी का शोर और धुंआ हमारे वातावरण में जहर घोल रहा है। इससे लोग बहरे हो रहे है। मानसिक व्याधियों के गिरफ्त में आ रहे हैं और साथ ही ओजोन पर्त में छेद होने से पराबैंगनी किरणे हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर डालने के लिए पूरी तरह से सक्रिय है। जब तक धुंए पर हमारा नियंत्रण नहीं होगा हमारा पर्यावरण शुद्ध नहीं होगा। इसके लिए सक्रिय जागरूकता की जरूरत है। इस कार्य में सर्वाधिक सफल कार्य एक युवा कर सकता है। देश का युवा वर्ग अपनी जागरूकता से पर्यावरण को संरक्षित करने के उपाय को जनमानस में फैलाकर इस तरह के कार्यक्रम को सफल बना सकता है। तब और अच्छा होगा जब हमारे देश का हर व्यक्ति अपनी धरती और पर्यावरण के लिये पूरी तरह सचेष्ट होकर इस अभियान में अपना योगदान देगा। दून दर्पण (देहरादून), 18 Jan. 2006

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