मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

खतरनाक दौर में जलवायु - भारत डोगरा

पिछले दिनों भारत के अनेक शहरों से सर्दी के पुराने रिकार्ड टूटने के समाचार मिले। उधर, चीन ने 20 वर्षों में अपनी सबसे भीषण सर्दी का मौसम भी इस वर्ष ही घोषित किया। कुल मिलाकर एशिया के एक बड़े भाग से भीषण शीत-लहर के समाचार मिले हैं पर इसमें एक अलग ही सच्चाई है कि आस्ट्रेलिया में 2005-06 को पिछले 95 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया। पिछले 105 वर्षों में सबसे कम वर्षा आस्ट्रेलिया में इस वर्ष हुई। विश्व स्तर पर वर्ष 2005 को पिछले 145 वर्षों में दूसरा सबसे गर्म वर्ष माना गया। इस वर्ष आकर्टिक सागर में जितनी बर्फ पिघली उतनी पहले कभी नहीं। इतना ही नहीं, इस वर्ष अटलांटिक महासागर में 27 ट्रापिकल तूफान दर्ज किए गए, जो अपने में एक रिकार्ड है।
वर्ष 2005 में मौसम में जुड़े हादसों के बारे में अनुमान लगाया गया कि इनमें 200 अरब डालर की हानि हुई, हालांकि कुछ लोग इससे अधिक क्षति भी बता रहे हैं। दूसरे शब्दों में हर तरह का प्रतिवादी मौसम वर्ष 2005 में तथा इस वर्ष के आरंभिक दिनों में देखा गया। यह प्रवृत्ति इससे पहले के कुछ वर्षों में भी देखी गई थी। वर्ष 2003 में एक अभूतपूर्व घटना देखी गई कि यूरोप विशेषकर फ्रांस में गर्मी की लहर या हीट वेव में हजारों लोग मारे गए, जिनमें अधिकतर वृद्ध थे। उस समय इस हीट वेव में बीस हजार लोगों के मरने की बात स्वीकार की गई थी, पर न्यूजवीक पत्रिका ने पिछले वर्ष अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि इस हीट वेव में यूरोप में मरने वाले लोगों की संख्या चालीस हजार तक पहुंच गई थी। विख्यात पत्रिका साइंस में कुछ समय पहले समुद्री तूफान हरीकेन पर एक अध्ययन प्रकाशित किया गया। इसमें बताया गया है कि लगभग 35 वर्ष पहले अधिक उग्रता वाले श्रेणी 4 या 5 के तूफान कुल तूफानों के मात्र 20 प्रतिशत थे, जबकि हाल के समय में यह कुल तूफानों के 35 प्रतिशत हो गए हैं। दूसरे शब्दों में हरीकेन की विनाशक क्षमता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। ये सब जानकारियां एक-दूसरे से अलग नहीं है और न ही उनमें कोई विरोधाभास है। जलवायु बदलाव की चेतावनियां देने वाले वैज्ञानिक लगभग 15 वर्षों से तो ऐसी चेतावनियां देते ही रहे हैं कि हर तरह के प्रतिवादी प्रतिकूल मौसम की संभावना है। इस भविष्यवाणी के अनुकूल ही रिकार्ड गर्मी भी दर्ज हो रही है और रिकार्ड सर्दी भी। कहीं भयानक बाढ़ व तूफान है तो कहीं भीषण सूखे की स्थिति। जलवायु बदलाव को विकास के मुद्दे से जोड़कर अभियान चलाने वाली पश्चिमी देशों की 21 संस्थाओं ने हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में बताया है कि इस कारण सबसे गंभीर स्थिति अफ्रीका में है, जहां वर्षा चक्र गड़बड़ाने के कारण वर्षा आधारित खेती पर निर्भर 70 प्रतिशत लोग गंभीर स्थिति में है। सबसे अधिक चिंताजनक तो कई विशेषज्ञों की यह अपेक्षाकृत नई चेतावनी है कि मात्र 20 वर्षों में ही स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। यह स्थिति तब होगी जब वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा 400 पी.पी.एम. (पार्टस पर मिलियन) तक पहुंच जाएगी। औद्योगिक क्रांति से पहले यह गणना 280 पी.पी.एम. तक थी और उसके बाद पता ही नहीं चला कि कब यह बढ़ती हुई 370 पी.पी.एम. तक पहुंच गई। इस समय कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन की स्थिति देखते हुए अनुमान हे कि यदि इसे कम करने के सफल प्रयास नहीं हुए तो 20 वर्ष में यह 400 पी.पी.एम. तक पहुंच जाएगी। तब जलवायु बदलाव की समस्या को नियंत्रित करना आज की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन हो जाएगा। यह इतनी गंभीर समस्या है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके प्रति अपेक्षित चिंता नहीं प्रदर्शित की जा रही।
जब हम विश्व स्तर के नेतृत्व को देखते है कि वे इस बारे में क्या कर रहे हैं तो मन दुःख और चिंता से भर जाता है। वास्तव में केवल चिंता करने भर से काम नहीं चलेगा। चूंकि यह संकट सारी धरती का है अतः सभी को इस बारे में सोचना होगा कि वह अपने स्तर पर इस सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट को कम करने में क्या भूमिका निभा सकता है? जलवायु बदलाव का संकट ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ा है और आगे इसका मुख्य कारण फासिल ईंधनों की अधिक खपत है। प्रायः यह स्वीकार किया जाता है कि आम नागरिक तेल की खपत की कम कर या तेल को बचाकर जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में अपना योगदान दे सकते हैं। यह अपनी जगह पर सही सोच है पर इसे और व्यापक बनाना चाहिए। आधुनिक अर्थव्यवस्था में लगभग सभी उत्पादों को बनाने में फासिल ईंधन विशेषकर तेल की खपत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होती है। केवल तेल की खपत कम करना पर्याप्त नहीं है, अपितु पूरी जीवन-शैली को सादगी की ओर ने जाना जरूरी है। पश्चिमी देशों के जलवायु बदलाव के संकट को कम करने के प्रयासों में यही भूल कमी है कि वे जीवन शैली को बदलने व उसे सादगी की ओर ले जाने के महत्व को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। यदि हम अपने देश से यह संदेश एक महत्वपूर्ण आंदोलन या अभियान के रूप में भेज सकें तो उसका असर विश्व स्तर पर भी हो सकता है, क्योंकि बुनियादी सच्चाई यही है कि सादगीपूर्ण जीवन मूल्य अपनाएं बिना पर्यावरण और विशेषकर जलवायु बदलाव का संकट हल नहीं हो सकता। इसके साथ ही सबसे गरीब व कमजोर वर्ग की सहायता के लिए भी और सक्रिय होने की जरूरत है। वैसे तो प्रतिकूल मौसम सबको प्रभावित करता है, पर इसका सबसे विकट असर उन पर पड़ता है जो सबसे गरीब व कमजोर वर्ग के हैं। यदि शीत लहर भीषण है तो उसका भी सबसे बुरा असर बेघर लोगों पर पड़ता है और यदि गर्म हवाएं चल रही हैं तो इसका शिकार भी आश्रयविहीन गरीब लोग सबसे पहले बनते है। समुद्री तूफान हो या बाढ़, झोपड़ीवासियों का जीवन सबसे अधिक खतरे में पड़ता है। इसलिए जलवायु बदलाव व प्रतिकूल मौसम के दौर में नए सिरे से गरीब व कमजोर वर्ग की समस्याओं की महत्व देना होगा और उन्हें हल करने के लिए असरदार कदम उठाने होंगे। सरकार को तो अपनी नीतियों की दिशा निर्धन व कमजोर वर्ग के पक्ष में करनी ही चाहिए, नागरिकों को भी अपनी ओर से इस कार्य में भरपूर सहयोग देना चाहिए। उदाहरण के लिए सरकार व नागरिकों में परस्पर सहयोग से एक बहुत सार्थक अभियान यह हो सकता है कि सब छोटे-बड़े शहरों में आश्रय स्थल बनाएं जाएं। इन आश्रय स्थलों में किसी भी समय जरूरतमंद लोग शरण लेकर प्रतिकूल मौसम से अपना बचाव कर सकें। जहां तक सरकारी नीतियों का सवाल है तो उनमें पर्यावरण रक्षा व निर्धन वर्ग की सहायता पर कहीं अधिक ध्यान देना चाहिए। सरकार को अपनी योजना में इस ओर भी ध्यान देना होगा कि जलवायु बदलाव के इस दौर में उसकी मशीनरी गंभीर आपदाओं व प्रतिकूल मौसम के लिए कहीं अधिक तैयार रहे।

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