मंगलवार, 29 जुलाई 2008

पानी वही, जो डायनासॉर पीते रहे

संजय वर्मा - नवभारत टाइम्स

भविष्य में भी इंसान वही पानी पी रहे होंगे, जो लाखों साल पहले धरती पर विचरते डायनासॉरों ने पीया था और अपने शरीर से बाहर निकाला था। यह एक अकल्पनीय सी संभावना है, पर इसकी अकल्पनीयता साबित करने से पहले अगर यह तथ्य देखा जाए कि पृथ्वी पर आज भी वही पानी लगभग उसी मात्रा में विद्यमान है, जितना कई लाख साल पहले था और आगे भी इतनी ही मात्रा में बचा रहेगा, तो इस संभावना में कुछ भी असामान्य नहीं लगता।

भले ही मंगल पर बर्फ और पानी मिल जाए, पर सच तो यह है कि आगे भी पृथ्वी पर पानी की मात्रा आज जितनी ही उपलब्ध रहेगी। वह बेशक कहीं बाहर नहीं जाएगा, पर तय है कि इस ग्रह पर पानी कहीं स्पेस से भी नहीं आएगा। लेकिन यहां कुछ मुश्किलें हैं। असल में, पृथ्वी पर मौजूद पानी लगातार प्रदूषित किया जा रहा है, उसके सोर्स घट रहे हैं और बढ़ती आबादी के कारण उसकी खपत में इज़ाफा हो रहा है। इसलिए सवाल यह है कि क्या आगे भी हमें ज़रूरत के मुताबिक पेयजल मिलता रहेगा?

जल संसाधनों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए साफ पेयजल की उपलब्धता एक बड़े संकट की तरह नज़र आती है, पर इसका एक हल समुद्री जल में छिपा है। धरती की दो तिहाई जगह घेरने वाले समुद्रों को देख कर यह सवाल हर किसी के मन में उठता है कि इस पानी को पीने लायक क्यों नहीं बनाया जा सकता।

समुद्रों में पृथ्वी का 97 फीसदी पानी मौजूद है। शेष पानी का बड़ा हिस्सा बर्फ के रूप में पर्वतों और पृथ्वी के ध्रुवों पर जमा है और बहुत थोड़ा सा पानी नदियों, झीलों और भूजल के रूप में हमारे पीने के लिए उपलब्ध है। पर इस सिलसिले में समुद्रों को बड़ी हसरत से देखते आए हैं। हम जानते हैं कि अगर इसमें से नमक अलग किया जा सके, तो अगली कई सदियों तक इंसानों की पानी की ज़रूरत आसानी से पूरी की जा सकती है। पर समुद्री जल से नमक को छान लेना कभी आसान नहीं रहा। वैसे तो 19वीं सदी के आखिर में यमन और सूडान आदि मुल्कों में समुद्री जल को पेयजल में बदलने का काम शुरू हो गया था, पर आज, जबकि दुनिया में डिसेलिनेशन (समुद्री जल को पीने के पानी में बदलने की प्रक्रिया) के 13080 प्लांट कायम हैं, तो भी इनसे इस्तेमाल योग्य पानी की ग्लोबल ज़रूरत का सिर्फ 0.5 फीसदी ही उत्पादित किया जा सका है।

समुद्र के खारे पानी को मीठे पानी में बदलने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है। नमक छान कर समुद्री जल को मीठा पानी बनाने में फिलहाल थर्मल डिसेलिनेशन तकनीक को काम में लाया जा रहा है, पर रिवर्स ऑस्मोसिस के इस काम की लागत काफी ज़्यादा है। भारत जैसे देश में इस तरह डिसेलिनेशन से मिलने वाले पानी की मौजूदा कीमत 50-55 रुपये प्रति लीटर बैठती है, जो बोतलबंद पानी से कई गुना ज़्यादा है। लेकिन हम जानते हैं कि डिसेलिनेशन की लागत आगे चलकर कम होनी है। इसे कम किया ही जाना होगा, क्योंकि आखिर में हमारे पास समुद्र ही होंगे, जहां पानी होगा। वजह, भूजल का स्तर इतना नीचे हो गया होगा कि उसे वहां से खींचकर निकालना बेहद मुश्किल और बेहद महंगा होगा। सभी नदियों का जल या तो यमुना की तरह भयानक ढंग से प्रदूषित होगा या वे सूख चुकी होंगी। और झीलें-झरने तो शायद किताबों या कंप्यूटर स्क्रीनों पर ही बची रह पाएं।

लेकिन समुद्र से मिले पानी में भी यह बात कॉमन रह सकती है कि मुमकिन है उसे अतीत में डायनासॉरों ने पीया हो।

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