मंगलवार, 29 जुलाई 2008

हमें एक नई रोशनी की जरूरत है - नवभारत टाइम्स

भारत डोगरा

इंटरनैशनल मार्किट में तेल की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ने के कारण भारत जैसे अनेक तेल आयातक देशों में अब यह माना जा रहा है कि तेल के आयात पर अपनी निर्भरता को कम किया जाना चाहिए। इसीलिए भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश की है। सचाई तो यह है कि ऐसा अहसास बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अब अगर तेल की कीमतें कुछ कम हो जाएं तो भी नए एनर्जी सोर्स तलाशने की जरूरत बनी रहेगी। तेल उत्पादन अपने पीक पर पहुंच रहा है और अब इसके भरोसे बैठा नहीं रहा जा सकता।

एनर्जी के मामले में दुनिया के देशों और इलाकों की स्थिति अलग-अलग है। कहीं तेल का भंडार है, तो कहीं गैस का। कहीं कोयले के भंडार हैं तो कहीं यूरेनियम के। कहीं सोलर एनर्जी की भरपूर क्षमता है, तो कहीं बायो-गैस की। कई देशों में पशुधन (जैसे बैल, ऊंट, आदि) ने एनर्जी सप्लाई में अहम योगदान दिया है। कहीं पनबिजली की दृष्टि से बहुत अनुकूल स्थिति है तो कहीं विंड पावर की दृष्टि से। लेकिन जब से वेस्ट एशिया में तेल के भंडार मिलने लगे, तब से ऊर्जा के अन्य सभी स्रोतों की उपेक्षा होने लगी। पूरी दुनिया की एनर्जी पॉलिसी तेल की आसान उपलब्धि पर आश्रित हो गई।

हां, इतना जरूर है कि जहां कोयले के ज्यादा भंडार मौजूद थे वहां ताप बिजलीघरों को महत्व दिया गया। फिर जब बांधों का निर्माण बिजली उत्पादन के लिए होने लगा तो कई वजहों से विशालकाय योजनाओं पर जोर दिया जाने लगा। परमाणु ऊर्जा के प्रवेश के बाद फ्रांस जैसे गिने-चुने देशों ने इसे अपनी ऊर्जा का मुख्य स्रोत बना लिया।

कुल मिलाकर दुनिया में 4 मुख्य ऊर्जा स्रोतों से काम चलाया जा रहा है- तेल व गैस, कोयला, बड़े बांध और परमाणु। कोयले, तेल और गैस से चल रहे बिजलीघरों को वायु प्रदूषण के लिहाज से बुरा माना गया। जलवायु बदलाव का गंभीर खतरा सामने आने के बाद कोयले और तेल की खपत को कम करने के लिए विश्व स्तर पर जोर दिया गया, क्योंकि ये जीवाश्म ईंधन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मुख्य वजह माने गए हैं। उधर, बड़े बांधों से विस्थापन के साथ पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हुईं। परमाणु ऊर्जा के साथ दो बड़ी दिक्कतें हैं। एक तो दुर्घटना होने पर बहुत बड़ा खतरा पैदा होता है, जैसा चेरनोबिल में देखा गया। दूसरा, इसके कचरे का निपटान आसान नहीं है।

इन समस्याओं को देखते हुए कई देशों ने ऊर्जा के उन स्रोतों की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया जो रीन्यूएबल या अक्षय हैं। कम से कम छोटे स्तर पर उत्पादन के दौर में इनसे पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता। इन ऊर्जा स्रोतों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा को अहम दर्जा हासिल है। इसके अलावा बड़े बांधों की बजाय ऐसी बहुत छोटे स्तर की (माइक्रो) पनबिजली योजनाओं की चर्चा चली है जिनसे न तो विस्थापन होगा, न पर्यावरण विनाश और जो स्थानीय लोगों के अपने नियंत्रण में चलाई जा सकती हैं।

इसी तरह बायो गैस की अहमियत को नए सिरे से कायम करने की जरूरत महसूस की जा रही है। पहले यह कहा जाता था कि इससे जो अपेक्षाएं थीं, वे पूरी नहीं हुई हैं। पर अब गलतियां सुधारने और बेहतर मॉडल तैयार करने की चर्चा है। इसके साथ पशुधन का विकास भी जुड़ा है। एक समय था जब ट्रैक्टरों और पंपिंग सेट को बढ़ावा दिया गया। लेकिन बिजली और डीजल का संकट बढ़ने पर बहुत से किसान फिर से बैल, बैलगाड़ी और रहट को याद करने लगे हैं।

भारत जैसे ग्राम प्रधान देशों के लिए एक अहम सोच यह भी है कि जहां तक मुमकिन हो, गांवों को एनर्जी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाए। इलाके की विशेषताओं और क्षमताओं के मुताबिक कहीं पवन ऊर्जा की भूमिका ज्यादा होगी, तो कहीं छोटी पनबिजली परियोजनाओं की, तो कहीं सौर ऊर्जा की। चरागाहों की रक्षा कर स्थानीय प्रजातियों के पशुधन को बढ़ाया जाएगा और उसका इस्तेमाल खेती, यातायात और कुटीर उद्योगों में होगा। पहाड़ी इलाकों में घराटों या छोटी पनचक्कियों को बढ़ावा दिया जाएगा।

खेती को फर्टिलाइजर्स पर कम निर्भर किया जाए तो इससे तेल और गैस की काफी बचत हो सकती है। अमेरिका में फूड से बायो-फ्यूल बनाने का गलत तरीका अपनाया गया है, लेकिन अगर पहले से उग रहे किसी स्थानीय पेड़ या घास से गांव की जरूरत लायक बायोडीजल बन सके तो क्या बुराई है? गांवों के पढ़े-लिखे युवाओं, को नए तरीके खोजने की प्रेरणा दी जानी चाहिए।

कुछ अरसा पहले यूपी के ललितपुर जिले के किसान मंगल सिंह ने मंगल वॉटर वील बनाया, जिससे बिजली या डीजल के बिना सिंचाई का पानी नदी-नालों से लिफ्ट हो सकता है। इस टैक्नीक पर पेटेंट भी हासिल हुआ है। अगर ऐसी खोजों का सही प्रचार-प्रसार किया जाता तो अरबों रुपये की एनर्जी बच सकती थी।

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