शुक्रवार, 28 मार्च 2008

गरमाती धरती घबराती दुनिया - -स्वाधीन




अब इसे संयोग कहें या कुछ और। तारीख, ''1 फ़रवरी 2007'', ख़बर - वार्षिक आय की दृष्टि से दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी होने के साथ-साथ दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी ऐक्सोन मोबिल ने नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए ''वर्ष 2006'' में लगभग ''40 अरब डॉलर'' का मुनाफ़ा कमाने की घोषणा की। तारीख़, ''2 फ़रवरी 2007'', ख़बर - जलवायु परिवर्तन पर बनी अंतर्राष्ट्रीय समीति ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें वातावरण में व्यापक स्तर पर देखी गई गर्मी के लिए मानवीय क्रिया-कलापों को दोषी ठहराया गया। तारीख़, ''3 फ़रवरी 2007'', ख़बर - दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी और दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी, रॉयल डच शेल ने ''2006'' में लगभग ''26 अरब डॉलर'' का मुनाफ़ा कमाने की घोषणा की।
कभी-कभी मेरे दिल मे ख़याल आता है।। कि मैं भी अपने घर के पीछे वाला मैदान खोद कर देख ही लूँ। कहीं कुछ तेल मिल गया तो मैं भी खालिस 'पति' से अरबपति हो जाऊँ। मुद्दा यह है कि जब कुछ लोगों ने यह सवाल किया कि क्यों न इन कंपनियों के मुनाफ़े पर पर्यावरण को दूषित करने में योगदान देने के लिए एक अलग से टैक्स लगाया जाए, तो इन कंपनी वालों ने जवाब दिया कि भई, हमने तो लोगों से नहीं कहा कि वे तेल जलाएँ और गाड़ियाँ चलाएँ।
अब अगर दुनिया भर मे तेल की खपत बढ़ रही है तो इसमें हमारा क्या कसूर? गाड़ियाँ बनाने वालों के भी यही जवाब हैं। फिर भी मज़े कि बात यह है कि ''2006'' में दुनिया की ''10'' सबसे बड़ी कंपनियों में 5 तेल कंपनियाँ हैं और 4 गाड़ियाँ बनाने वाली! अब दुनिया भर की सरकारों को कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। क्या कहा, आप के पास इस समस्या का हल मौजूद है? पर आपसे किसने कहा कि हम इस समस्या का हल ढूँढ रहे हैं? अपना हल अपने पास ही रखें। हमारे दिमाग़ कि ज़मीन वैसे ही बंजर हो गई है ''ग्लोबल वार्मिंग'' से। आपका हल चलाने से फसल नहीं उगने वाली। भई हम तो ढूंढ रहे हैं एक बकरा जिसकी तरफ़ उँगली दिखाकर हम अपनी गाड़ी का महँगा पेट्रोल जलाकर यहाँ से निकल लें, और अपने कारख़ानों में वैसे ही काम करते रहें। जी हाँ यही दृश्य है हर जगह। आइए नज़र डालें ''ग्लोबल वार्मिंग'' को लेकर दुनिया भर में चल रही आर्थिक और राजनैतिक उठा-पटक पर।


धरती का तापमान शायद हमारे कारण बढ़ रहा है, शायद नहीं! इस संबंध में कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सका है। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए गठित अंतर्राष्ट्रीय समिति आई.पी.सी.सी.की मानें तो अधिकांश वैज्ञानिकों के अनुसार मानवीय गतिविधियाँ ही धरती को और गर्म कर रही हैं, हालाँकि इसका खंडन करने वाले कई वैज्ञानिक तथ्य भी मौजूद हैं। कारण जो भी हो, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य ने प्रकृति का न सिर्फ़ दोहन किया है, बल्कि उसको नुकसान भी पहुँचाया है। कम से कम इस बारे में प्रयासों की आवश्यकता तो अवश्य है। इसी आशय को लेकर संयुक्त राष्ट्र की देख-रेख में तैयार किया गया क्योटो मसौदा। यह प्रयास मनुष्य द्वारा पर्यावरण के हित में लिया गया बहुत बड़ा कदम है और ''दिसंबर 2006'' तक इस पर 169 देशों और सरकारी संगठनों की सहमति हो चुकी है। इसके द्वारा कार्बन डाई-ऑक्साइड और पाँच अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाई जा सकेगी। क्योटो मसौदे के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन विकसित देश भारी मात्रा में करते हैं। विकासशील देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तो बहुत ही कम है।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि क्योटो मसौदे में बनी सर्व-स्वीकृत राय के अनुसार अभी उचित कदम न उठाए जाने की स्थिति में भविष्य में भी विकसित देश अपनी सामजिक और विकास की ज़रूरतों के लिए पर्यावरण को इसी प्रकार प्रदूषित करते रहेंगे। क्योटो मसौदे के अनुसार ''वर्ष 2008'' तक विकसित देशों को गैसों का उत्सर्जन स्तर या तो ''1990'' की स्थिति से कम से कम ''5 प्रतिशत'' नीचे लाना होगा अथवा किसी दूसरे देश को अपना तकनीकी और वैज्ञानिक सहयोग प्रदान कर उसका उत्सर्जन स्तर पर्याप्त मात्रा में कम करना होगा। यदि कोई विकसित देश ''2008'' तक ऐसा नहीं कर पाता है तो इसकी भरपाई के लिए उन्हें तकनीकी और अन्य संसाधनों के रूप में ''2008'' और ''2013'' के बीच विकासशील देशों को बड़ी कीमत चुकानी होगी। भारत और चीन जैसी तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था वाले देशों को इस मसौदे में विकासशील देशों की श्रेणी में रखा गया है।

संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक देश है, जहाँ विश्व की ''5 प्रतिशत'' आबादी रहती है और जिसकी कुल प्रदूषण में हिस्सेदारी है ''25 प्रतिशत''! अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने क्योटो मसौदे पर हस्ताक्षर तो कर दिए हैं पर अब उसकी शर्तों पर अंतिम सहमति देने से हिचकिचा रहे हैं। अमेरिका का कहना है कि चीन और भारत पर भी गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए। अमेरिका को मुख्य आपत्ति चीन से है क्योंकि चीन ही अमेरिका के बाद विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक है। चीन इस बारे में कहता है कि जनसंख्या के हिसाब से उसका कुल प्रदूषण में हिस्सा न केवल अमेरिका और यूरोप, बल्कि विश्व के कुल औसत से भी कम है। भारत और चीन जैसे देशों की समस्या है कि वहाँ के कानून में पर्यावरण संबंधी नियम न के बराबर हैं और जो हैं भी, उनका पालन नहीं किया जाता। यदि क्योटो मसौदे में चीन और भारत को भी हिदायतें दी जाएँ तो उनकी सरकारें भी पर्यावरण के बारे में सजग होंगी। तो इस प्रकार क्योटो मसौदे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि विश्व में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश ने केवल सांकेतिक रूप से हस्ताक्षर किए हैं और दूसरे सबसे अधिक प्रदूषित देश को मसौदे के कड़े प्रावधानों से अलग रखा गया है। यह क्योटो मसौदे की सार्थकता के सामने एक प्रश्न चिह्न है। फिर भी यह कई देशों की सरकारों को पर्यावरण के मुद्दे पर जागरूक कर पाया है, यही अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
पर्यावरण से जुड़े विषयों का सीधा संबंध उद्योगों और अर्थव्यवस्था से है। बचपन में पिताजी मुझे बताते थे कि अगर किसी को पैसा कमाना है तो उसे पैसा खर्च करना सीखना होगा। मैं उलझन में पड़ जाता कि अगर किसी के पास पैसा ही नहीं है वो कैसे खर्च करेगा! लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका और कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था की बुनियाद इसी एक नियम पर टिकी है।
संयुक्त राज्य अमरीका का ''2006'' में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी.डी.पी.) था ''13000 अरब डालर'', भारत से लगभग ''15 गुना''! स्पष्ट-सी बात है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था अकेले नहीं खड़ी है। चीन, जापान और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने उसे सहारा दिया है। भारत और चीन में सस्ते श्रम की उपलब्धता और अमेरिका में जापान का निवेश अमेरिकी अर्थव्यवस्था को टिकाकर रखने वाले मज़बूत स्तंभ हैं।
इसी सिलसिले में एक प्रश्न पूछा जा सकता है - चीन में कितना प्रदूषण अमेरिकी और यूरोपीय बाज़ार की माँग पूरी करने के कारण होता है? फिर चीन में होने वाले प्रदूषण के लिए अकेले चीन को ही कटघरे में खड़ा करना कितना उचित है?
अब ज़रा एक नज़र अमेरिका पर भी डालें। संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल आबादी है ''30 करोड़'' और वहाँ के परिवहन विभाग के अनुसार पंजीकृत चौपहिया वाहनों की कुल संख्या है ''25 करोड़''। चार लोगों के एक परिवार में औसतन तीन-चार गाड़ियाँ! अब ईंधन की इतनी बड़ी खपत करने वाला एक देश बाकी देशों के तेल भंडारों पर तो नज़र रखेगा ही, साथ ही प्रदूषण भी फैलाएगा। उपभोक्तावाद से ग्रस्त पश्चिमी जीवन शैली में किसी भी वस्तु की खपत उसकी आवश्यकता से कहीं अधिक होती है।
यदि आप एक कमीज़ बाज़ार में ख़रीदने जाएँ तो बहुत संभव है कि कंपनी आपको दूसरी कमीज़ सस्ते में बेचने तो राज़ी हो और आप दो कमीज़ें लेकर लौटें। विश्व की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बुनियाद यही उपभोक्तावादी सोच है। समय रहते ऐसी अर्थव्यवस्था वाले देशों को अपनी आदतों में मूलभूत परिवर्तन लाना होगा।
मैं कई बार ऐसी किसी युक्ति की कल्पना किया करता था जिससे सारी दुनियाँ की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें पूरी की जा सकें। पर आज मुझे भरोसा हो चुका है कि ऐसी कोई युक्ति संभव नहीं क्योंकि ज़रूरतें तो पूरी की जा सकती हैं, लालच नही! निदा फ़ाज़ली ने कहा है - "लेकर तन के नाप को घूमे बस्ती-गाँव, हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव।" अब समय आ गया है कि सब यह तय करें कि हमारी आवश्यकतायें क्या हैं और परम आवश्यकतायें क्या हैं।
हम भारतवासी इससे जुड़ा सवाल यह कर सकते हैं कि हमारे पास तो हमारी आवश्यकताओं से अधिक कुछ ख़ास नहीं है, हम अपने आप को क्यों नियंत्रित करें? तो जवाब यह है कि विकसित देशों में जो हो रहा है, उससे कुछ सीख लीजिए। कहीं कल हमारी भी स्थिति उन जैसी न हो जाए। भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेज़ी बढ़ती हुई दूसरी अर्थव्यवस्था है। यदि हमने भी पश्चिम के उपभोक्तावाद का अंधानुकरण किया तो सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में तो वृद्धि अवश्य होगी पर साथ ही हम अपनी विलासिताओं के दास भी हो जाएँगे। एक आम प्रवृत्ति है "यदि मैं खर्च करने की क्षमता रखता हूँ तो भला खर्च क्यों न करूँ। इतनी मेहनत आख़िर किसलिए करता हूँ?" पर ज़रा सोचिए, हम प्रकृति से जो कुछ भी पाते हैं, क्या उसकी कीमत अदा कर पाने में सक्षम हैं? जी नहीं, आप किसी वस्तु की नहीं केवल उसके रख-रखाव और साज-सज्जा की कीमत ही अदा करते हैं। उत्पाद बनाने के लिए कंपनी ने प्रकृति का जो दोहन किया उसकी तो कोई कीमत हो ही नहीं सकती।

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