सोमवार, 10 मार्च 2008

भूमंडलीकरण और जलवायु परिवर्तन : वंदना शिवा

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने 27 नवंबर 2007 को अपनी मानव विकास रिपोर्ट ''फाइटिंग क्लाइमेट चेंज : ह्यूमन सॉलिडेरिटी इन डिवाइडेड वर्ल्ड'' जारी की। बाली में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस से ऐन पहले जारी यूएनडीपी की रिपोर्ट में 2050 में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन की मात्रा 1990 की मात्रा से 50 फीसदी कम करने को कहा गया है। उसमें इस लक्ष्य को हासिल करने के सुझव दिए गए हैं। विकसित देशों को अपने उत्सर्जन की मात्रा में 2050 तक 80 फीसदी कटौती करनी चाहिए, 2020 तक उन्हें 20-30 फीसदी कटौती कर लेनी चाहिए। यूएनडीपी का सुझाव है कि चीन और भारत जैसे प्रमुख ग्रीनहाउस उत्सर्जक विकासशील देशों को 2020 तक कोई कटौती नहीं करनी है और उसके बाद 2050 तक 20 फीसदी कटौती करनी है।
भारत में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को यह रिपोर्ट जारी करने को कहा गया और उन्होंने रिपोर्ट जारी भी की लेकिन उसकी सिफारिशों को खारिज कर दिया। भारत के लिए अपनी नवउदारवादी नीतियों को तैयार करते समय इक्विटी को धता बताने वाले बाजारवाद के प्रबल पैरोकार अहलुवालिया ने यूएनडीपी की रिपोर्ट को इक्विटी के नाम पर खारिज कर दिया।
''(उत्सर्जन की मात्रा में) कटौती की कोई भी ऐसी रणनीति जो पूरी तरह दुनियाभर के उत्सर्जन पर आधारित हो और जिसमें विभिन्न देशों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आधार पर फर्क नहीं किया गया, मौलिक रूप से दोषपूर्ण है और वह समानता के सिध्दांतों के विरुध्द है।''
अगर योजना आयोग के प्रमुख ने कॉर्पोरेट लाभ की बजाय इक्विटी के आधार पर अपनी योजना बनाई होती तो वह भारत के खासकर गरीब और हाशिये पर जीने वाले लोगों के लिए बहुत मददगार होती। अगर उन्होंने पानी के निजीकरण की बजाय पानी की प्रति व्यक्ति समान मात्रा का समर्थन किया होता; अगर उन्होंने रिटेल क्षेत्र में कॉर्पोरेट रिटेल को प्रोत्साहन देने की बजाय फेरीवालों और दुकानदारों के आजीविका कमाने के समान अवसर का समर्थन किया होता; अगर उन्होंने हमारी कृषि के निगमीकरण (कॉर्पोटेराइजेशन) को प्रोत्साहन देने की बजाय भारत के छोटे किसानों को बढ़ावा दिया होता, अगर उन्होंने खाद्यान्न के वस्तुकरण और उसके वादा कारोबार को बढ़ावा देकर दो-तिहाई भारतीय बच्चों को कुपोषण का शिकार होने देने की बजाय प्रति व्यक्ति को खाद्यान्न का बराबर अधिकार दिया होता।
यह है ''इक्विटी स्किजोफ्रेनिया'' जिसके जरिए कॉर्पोरेट ग्लोबलाइजर चंद अमीर लोगों के हाथों में धन और संसाधनों को समेटने के लिए इक्विटी को तबाह करते हैं। वे चाहते हैं कि गरीब लोग, जिन्हें उन्होंने उनकी आजीविका और जमीन से वंचित कर दिया है, उस प्रदूषण की जिम्मेदारी ओढ़ें जिसे उन्होंने फैलाया नहीं। यह धन और संसाधनों का अतिपूंजीवाद और प्रदूषण का समाजवाद है। इसमें गरीब लोग अमीरों के हाथ अपने ''माल'' गंवा देते हैं और उनकी जिम्मेदारियों को विरासत में हासिल कर लेते हैं।
बोनयो के जंगलों के जलने से होने वाले उत्सर्जन और ग्रामीणों तथा स्थानीय समुदायों समेत सारे इंडोनेशियाइयों के उत्सर्जन को बराबर मानना गलत होगा। इन स्थानीय समुदायों को पाम आयल की खेती के लिए विस्थापित किया जा रहा है। ग्रीनपीस रिपोर्ट ''हाउ द पाम आयल इंडस्ट्री इज कुकिंग द क्लाइमेट'' में प्रदूषणकारियों व प्रदूषण में उनके हिस्से की पहचान की गई है। उसमें यह भी बताया गया है कि उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए कौन से उपाय करने की जरूरत है। प्रदूषण के चलते ही जलवायु परिवर्तन हो रहा है। पाम आयल को बढ़ावा देने में सबसे बड़ा योगदान कारगिल का है। प्रॉक्टर ऐंड गैंबल, क्राफ्ट, नेस्ले और यूनीलीवर अपने उत्पादों में पाम आयल का इस्तेमाल करके वनों की कटाई को बढ़ावा देती हैं। इस व्यापार के मुख्य खिलाड़ी हैं सिनार मास और एडीएम कूक-विल्मर। सिनार मास 15 लाख हेक्टेयर पर पाम आयल की खेती करती है और 4 लाख टन पाम आयल निर्यात करती है। एडीएम कूक-विल्मर 4 लाख,93 हजार हेक्टेयर पर खेती करती है और 10 लाख टन पाम आयल निर्यात करती है।
आम इंडोनेशियाई दावानल और छोटी-मोटी आग के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। विशाल कॉर्पोरेशन देश की उत्सर्जन मात्रा में 11 फीसदी का योगदान कर रहे हैं। जब प्रदूषण का स्रोत पता चल जाए तो इक्विटी का तकाजा यही है कि प्रदूषणकारी ही उसकी कीमत चुकाएं। इक्विटी का यह मतलब नहीं है कि प्रदूषण की जिम्मेदारी को गैर-प्रदूषकों पर थोप दिया जाए।
ग्रीनपीस ने तीन ऐसे उपाय बताए हैं जिनसे प्रति वर्ष 3.8 गीगटन उत्सर्जन कम हो सकता है। यह साल में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 8 फीसदी है : पहला, दुनिया भर में वनों की कटाई में कमी की जाए; दूसरा, इंडोनेशिया में छोटी-छोटी जगहों पर आग लगाना बंद किया जाए और आग से तबाह हुए वन क्षेत्र पर खेती पर पाबंदी लगाई जाए; तीसरा, इंडोनेशिया में आग के कारण तबाह हुए वन ह्नेत्र पर फिर से वन लगाए जाएं।
आज कोई देश नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुख्य आथक खिलाड़ी हैं। और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए प्रदूषणकारी काम विकासशील देश में ही करती हैं। इक्विटी का तकाजा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलाए प्रदूषण को उन्हीं की जिम्मेदारी और जवाबदेही मानी जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे प्रदूषण कहां फैलाती हैं। उनके द्वारा फैलाए प्रदूषण की जिम्मेदारी विकासशील देशों के गरीबों पर थोपना इक्विटी नहीं बल्कि अन्याय है।
हमें समता की अवधारण को समझ्कर कर्तव्यपरायणता की भावना लाने की जरूरत है। कर्तव्यपरायणता के साथ ही समता से ईमानदारी और स्थिरता आती है। पहला, आथक नीतियां और कार्रवाई समता पर आधारित होनी चाहिए और इसे आथक विषमता पैदा करने वालों को अपने सामाजिक, आथक तथा पर्यावरण संबंधी जिम्मेदारियों से बचने का बहाना नहीं बनना चाहिए। जो लोग देश में गरीबों को वंचित कर रहे हैं और समाज का ध्रुवीकरण कर रहे हैं उन्हें गरीबों तथा धरती को शिकार बनाते रहने के लिए विश्व मंचों पर ''इक्विटी'' लाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जिससे गरीबों की रक्षा होती है, उसी से इस धरती की भी रक्षा होती है। जिससे गरीबों को नुकसान होता है, उससे धरती का नुकसान होता है। समता के नियम और परितंत्र के नियम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
(वंदना शिवा महिलाओं और पर्यावरण के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाती हैं)
अनुवाद - मीनाक्षी अरोरा

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