रविवार, 2 मार्च 2008

बुन्देलखण्ड- क्या निराशा से आशा की राह पर आना संभव है? ---भारत डोगरा 2

हाल के समय में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे की विकट स्थिति ने यहां के लोगों के गहरे दुख:दर्द की ओर ध्यान दिलाने के कई प्रयास किये गये हैं। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के सभी सात जिलों (झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर) को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है। यह रिपोर्ट सभी सातों जिलों के 35 से अधिक गांवों में वर्ष 2007-08 में गांववासियों से हुई बातचीत पर आधारित है।

इस दुख:दर्द के कारण व दीर्घकालीन प्रवृत्तियां
हमने कई बुजुर्ग व्यक्तियों से पूछा कि क्या उन्होंने पहले कभी इतनी देर तक चलने वाला व इतना गंभीर सूखा अपने जीवन-काल में देखा था तो उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया। इस चार-पांच वर्ष से चल रहे संकट के दौर से पहले ही बुंदेल खंड में बहुत सीमित व बेमौसम, असामयिक वर्षा की प्रवृत्ति नजर आने लगी थी। एक ही पंचायत में कुछ स्थान पर वर्शा होती तो कुछ जगह नहीं होती। ओलों से भी ऐसी क्षति देखी गई जो पहले कभी नजर नहीं आई थी। एक से दो किलोग्राम तक के वजन के ओले गिरे जबकि आधे किलोग्राम की संख्या तो काफी अधिक थी। कई गांवों में इससे खपरैल टूट गई। जिगनी गांव के पास जमीन फटने की घटना भी हुई। मौसम में आए अप्रत्याशित बदलाव जलवायु की व्यापक समस्या से जुड़े हो सकते हैं, पर स्थानीय स्तर की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना चाहिए। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। खनन में ऐसे विनाशकारी तौर-तरीके अपनाए गए, जिससे हरियाली, जलस्रोतों व भूमि की बहुत क्षति हुई। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन की बहुत क्षति भी हुई।
जलप्रबंधन में इस मूल सिध्दान्त का व्यापक स्तर पर उल्लंघन हुआ कि बड़े पैमाने पर जल दोहन से पहले जल का संग्रहण-संरक्षण रीचार्ज जरूरी है। हैंडपम्प व टयूबवैल के आगमन के बाद परम्परागत कुंओं व तालाबों की बहुत उपेक्षा की गई। यहां तक कि चरखारी, महोबा, बरुआसागर जैसे तालाबों में बहुत सराहनीय, ऐतिहासिक धरोहर के उदाहरणों की ओर भी समुचित ध्यान नहीं दिया गया। नहरों की सफाई व मरम्मत नही हुई, इसमें सिल्ट व खरपतवार जमा होते रहे। टेल के गांवों तक पानी पहुंचना समाप्त हो गया, जबकि ऊपर के क्षेत्र में बंदूक व लाठी के बल पर दबंग व्यक्ति अधिक जल का उपयोग करने वाली फसलें लगाने लगे। बांधों में अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने के कारण अचानक वेग की विनाशक बाढ़ आने लगी।
अनुचित प्राथमिकताओं व बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार के कारण विकास के बजट का बहुत दुरुपयोग हुआ। चेकडेम अगली ही वर्षा में टूट जाते थे। बड़े स्तर की जल परियोजनाओं में बहुत पैसा डूब गया पर उनका लाभ नही मिला। छोटे स्तर की कम खर्च में ज्यादा लाभ देने वाली परियोजनाओं की अपेक्षा बड़े बांध व नदी जोड़ जैसी योजनाओं की ओर अधिक धन भेजा गया, जिसमें बड़े पैमाने के ठेके मिलने की गुंजाइश थी। लोगों को बांछित लाभ दिए बिना ही परियोजनाओं के भुगतान होते रहे। यहां तक कि भूमि-सुधार जैसा कार्यक्रम भी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो गया। इसके अतिरिक्त पट्टेदारों को वन विभाग ने कब्जा लेने से रोका व अपना स्वामित्व जताया। सबसे गरीब समुदायों की उपेक्षा व शोषण का सिलसिला चलता रहा। बड़े भूस्वामियों ने न केवल उनका शोषण किया अपितु उनके नाम पर कर्ज भी लिया। विकास स्कीमों का कर्ज एक बड़ा घोटाला बनने लगा। गांववासियों को ऐसे कर्ज लेने के लिए दबाव बनाया गया जिनके लौटाने का सामर्थ्य उनमें नही था ताकि इस कर्ज से जुड़ी कमीशन व रिश्वत फल-फूल सके। विशेषकर टै्रक्टरों के कर्ज में यह बहुत देखा गया।
ये सभी समस्याएं क्षेत्र को जल संकट, वन-विनाश, पर्यावरण, गरीबी, अभाव व कर्ज के जाल, भूख व कुपोषण की ओर ले जा रही थी। इस स्थिति में जब एक लंबे समय तक चलने वाले गंभीर सूखे का सामना करना पड़ा, तो स्थितियां बहुत तेजी से बिगड़ने लगी। दूसरी ओर यदि पहले से पर्यावरण संरक्षण, अच्छे जल प्रबंधन व ईमानदारी -पारदर्शिता की षासन-व्यवस्था अपनाई जाती व उचित प्राथमिकताओं से कार्य होता तो इस तरह के गंभीर सूखे की स्थिति में भी इतने गहरे दुख:दर्द से बचा जा सकता था।
दु:ख से कहना पड़ रहा है कि जब सूखे की स्थिति विकट होने लगी उसके बाद भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली व ग्रामीण रोजगार योजना में भ्रष्टाचार की चिंताजनक स्थिति के समाचार मिलते रहे। अनेक स्थानों पर मिड-डे-मील व आंगनवाड़ी ठीक से नहीं चल सके। रोजगार गारन्टी योजना आई तो इससे लोगों को राहत, बड़े पैमाने पर जल संरक्षण व पलायन की मजदूरी को रोकने की बड़ी उम्मीदें थी। किन्तु वर्ष 2006-07 के दौरान रोजगार गारन्टी योजना के यह महत्वपूर्ण उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सके। सात जिलों में प्रति जिला 10 करोड़ से 25 करोड़ रुपये तक इस परियोजना के अन्तर्गत खर्च हुआ, जबकि प्रत्येक जिले में यहां की विकट स्थिति को देखते हुये कम से कम 100 करोड़ रुपया इस योजना पर खर्च होना चाहिए था। इस वर्ष रोजगार गारन्टी योजना के अन्तर्गत कार्य कुछ बढ़े हैं पर इस समय भी जरूरत से कहीं कम है। बड़े पैमाने पर हुए पलायन से पता चलता है कि किस हद तक यह स्कीम अपना उद्देश्य प्राप्त करने में विफल रही। पर यह अच्छा है कि अधिकांश स्थानों पर इस योजना में 100 रूपये या उससे निकट की मजदूरी मिल रही है।

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