मंगलवार, 29 जुलाई 2008

कौवों का कम होना पर्यावरण के लिए खतरनाक संकेत

वाराणसी (आईएएनएस)। पर्यावरण का अहम हिस्सा रहे गिद्ध अब इतिहास के पन्नों में दर्ज होने के कगार पर हैं, पर बात गिद्धों तक ही खत्म होती नजर नहीं आती। आज जो हालात हैं उसमें अब कौवों की बारी नजर आ रही है, क्योंकि जिस तरह से कौवों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है उससे आने वाले दिनों में प्यासे कौवे की कहानी सिर्फ कहानी भर ही रह जाने की उम्मीद है।

आज हम विकास की इस अंधी दौड़ में कौवों की महत्ता को भले ही न समझ पा रहे हों लेकिन लगातार कम होती उनकी संख्या से पर्यावरण प्रेमी जहां इसे पर्यावरण के लिए एक खतरनाक संकेत मान रहे हैं वहीं वैज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि कौवों की स्थिति भी कही गिद्धों की तरह ही न हो जाए।

आज भी कौवा जितना उपयोगी पर्यावरण के लिए है उतना ही वह मानव जीवन के लोक व्यवहार में भी शामिल है। पहले कागा जब मुंडेर पर बोलता था तो मेहमानों के आगमन का सूचक होता था और यदि किसी को चोंच मार देता था तो उसके लिए घोर अपशकुन माना जाता था। पुरखों की बनाई हुई यह कहावत शकुन और अपशकुन को लेकर शायद कम थी उसकी महत्ता को लेकर ज्यादा थी।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर डाक्टर बी. डी. त्रिपाठी कौवों की लगातार कम होती संख्या का कारण बताते हुए कहते हैं कि "ऐसा दो कारणों से हो रहा है। पहला कारण तो यह है कि वातावरण में अचानक जो परिवर्तन हो रहा है और खाद्य पदार्थो में जो जहरीली चीजें आ रही हैं, इनकी वजह से कौवों की प्रजनन क्षमता में कमी आने लगी है और दूसरी वजह यह है कि धुआंधार वृक्षों की हो रही कटाई से इनके लिए आवास की समस्या उत्पन्न हो गई है, क्योंकि कौवों का स्वभाव है कि वे एकांत में अपना घौंसला बनाते हैं जो आजकल उन्हें कम मिल पा रहा है।

गौरतलब है कि यहां कौवों की मुख्यत: दो प्रजातियां आम तौर पर देखी जातीं हैं। एक जो पूरे काले होते हैं और दूसरे जिनके गले में सफेद धारी होती है। कौवों की लगातार कम हो रही संख्या पर शोध कर रहे डाक्टर त्रिपाठी बताते हैं कि सफेद धारी वाले कौवे तो अभी दिखाई पड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी प्रधिरोधक क्षमता काले कौवों से कुछ ज्यादा होती है। लेकिन डाक्टर त्रिपाठी इस बात से आगाह करते हैं कि इसका यह मतलब नहीं कि सफेद धारी वाले कौवों पर बदलते पर्यावरण का असर नहीं पड़ेगा।

कहना न होगा कि इनकी लगातार कम होती संख्या गिद्धों के खत्म होने से कम खतरनाक नहीं है। इनके नहीं रहने से पृथ्वी की पूरी खाद्य श्रृंखला ही असंतुलित हो जाएगी।

इंसानी जिंदगी में कौवों के महत्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की जिंदगी में तमाम किस्से कौवों से जोड़ कर देखे जाते रहे, लेकिन अब इनकी कम होती संख्या चिंता का सबब बन रही है। जानकार कहते हैं कि इसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम ख़ुद ही हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करके कौवों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

कौवा के सिर पर चोंच मारना किसी इन्सान के लिए अपशकुन होता है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन आज जाने- अनजाने मशीनीकरण के इस युग में हम जिस तरह प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहे हैं उससे इन कौवों के लिए अपशकुन जरूर साबित होने जा रहा है। अगर इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया और यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब कौवे भी गिद्धों की तरह कहीं नजर न आएं।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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