विकास शर्मा / चंडीगढ़
ग्लोबल वार्मिंग के कारण कुल्लू इलाके में सेब व्यवसाय इन दिनों घाटे का सौदा साबित हो रहा है। कभी मुनाफे के लिए मशहूर इस सौदे के बगान मालिकों को नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। तापमान में लगातार बढ़ोतरी के कारण होने वाले ग्लोबल वार्मिंग से इस इलाके में अब सेब का उत्पादन ऊपर के क्षेत्रों में हो रहा है। पहले सेब का उत्पादन मंडी, भूनतर, कुल्लू जैसे इलाकों में होता था। लेकिन अब यह उत्पादन मनाली में हो रहा है।
रॉयल डेलिसियस, रेड डेलिसियस व गोल्डन डेलिसियस नामक सेब को उगाने वाले कुल्लू के किसान इन दिनों कोई और फसल उगाने को विवश है।
कुल्लू में सेब बगान के मालिक अनिल ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण उनकी बीस बीघा की फसल सूख गई और वे अब किसी और फसल की ओर रुख करने को मजबूर है। अनिल इस मामले में अकेले नहीं है।
इस बदहाली का सामना और भी कई बगान मालिक कर रहे हैं। कभी उम्दा किस्म के सेब उत्पादन के लिए विख्यात कुल्लू इन दिनों अन्य उत्पादन का विकल्प तलाश रहा है। क्योंकि सेब का उत्पादन अब ऊंचाई वाले इलाकों में स्थानांतरित हो गया है।
हिमाचल प्रदेश का बागवानी विभाग भी उनकी बातों से सहमत है। वहां के कर्मचारियों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कुल्लू इलाके में सेब के उत्पादन में 15 से 20 फीसदी की गिरावट आई है। उन्होंने बताया कि सेब की फसलों को एक सीजन में 1200 घंटे की ठंड की जरूरत होती है।
लेकिन बढ़ते तापमान से यहां की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। बीते दस सालों से इस इलाके में प्रतिवर्ष एक डिग्री तापमान बढ़ रहा है। गर्मी में जहां पहले अधिकतम तापमान 25 डिग्री सेल्सियस होता था वही यह बढ़कर 35 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच गया है।
एक अन्य बगान मालिक नकुल खुल्लर ने बताया कि बीते पांच सालों में सेब उत्पादन के क्षेत्र में काफी बदलाव आया है।
पहले सेब की खेती 4000 फीट की ऊंचाई पर होती थी लेकिन अब यह 5000 फीट की ऊंचाई पर की जा रही है।
कुल्लू बागवानी विभाग के उपनिदेशक बीएल शर्मा ने इस बारे में बताया कि यह सही है किकुल्लू के कुछ इलाकों में ग्लोबल वार्मिंग का असर पड़ा है लेकिन यहां के किसानों ने सेब की तुलना में अधिक मुनाफा देने वाली फसलों की ओर भी अपना रुख कर लिया है।
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रविवार, 18 मई 2008
ग्लोबल वार्मिंग से कुल्लू के सेब पर प्रतिकूल असर
अमेरिका में भी बढा अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल
बीएस संवाददाता / न्यूयार्क विंड टर्बाइन निर्माण क्षेत्र की भारतीय कंपनी सुजलोन एनर्जी लिमिटेड और लंदन स्थित क्लीपर विंडपावर पीएलसी द्वारा खराब उपकरण भेजे जाने के कारण एडिसन इंटरनेशनल को नुकसान हुआ है। एडीसन इंटरनेशनल की एडीसन मिशन एनर्जी ने प्रतिभूति और विनिमय आयोग से कहा कि सुजलोन कं पनी की 275 सुजलोन 2.1 मेगावॉट टर्बाइनों के रोटर ब्लेड्स टूट रहें है और उन्हें ठीक करने या बदले जाने की जरुरत हैं। क्लीपर ने एडीसन को पहले ही उसकी 2.5 मेगावॉट क्षमता की 71 टर्बाइनों को हटाने के लिए कहा है। क्लीपर की टर्बाइनों में भी रोटर ब्लेड्स और गियरबॉक्स संबंधित खामियां थी।
अमेरिकी सरकार द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम किए जाने पर जोर देने के बाद से अमेरिका में अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल में तेजी आई है। अमेरिकन विंड एनर्जी एसोसिएशन के मुताबिक पिछले साल इस आंकड़े में 45 फीसदी की वृद्धि हुई है और इससे रिकॉर्ड 5,244 मेगावॉट बिजली का उत्पादन हुआ था।
एडीसन कंपनी द्वारा आयोजित विश्लेषकों और निवेशकों की बैठक में कंपनी के मुख्य टेड क्रेवर ने कहा कि पिछले कुछ महीनों से हम अपने उपकरणों की आपूर्ति में आयी खामी से जूझ रहे हैं। हमारे सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती है खराब टर्बाइनों को बदलकर नई टर्बाइनों से काम शुरू करना।
इंसटालेशन टार्गेट
टर्बाइनों की आपूर्ति में आई खराबी के कारण कंपनी की 2009 तक 2 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन करने की योजना अभी अधर में लटक गई है। एम्सटर्डम में सुजलोन के प्रवक्ता विवेक खेर ने इस मामले पर कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया। जबकि लंदन स्थित क्लीपर के प्रवक्ता पैट्रिक डी एनकोना ने कहा कि उनकी कंपनी ने एडीसन से बात कर ली है और हम अपने ग्राहकों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना चाहते हैं।
क्लीपर ने दिसंबर में कहा था कि 35 टर्बाइनों के रोटर ब्लेड्स में खराबी आने के कारण उनकी आपूर्ति नही की गई थी। कंपनी उन टर्बाइनों की मरम्मत पर लगभग 60 करोड़ रुपये खर्च करेगी। कंपनी इओवा स्थित निर्माण इकाई की क्षमता को दोगुना करना चाहती है। कैलीफोर्निया स्थित कंपनी के मुनाफे में 27 प्रतिशत की गिरावट हुई हैं।
पॉसिबल पेनाल्टीज
परियोजनाओं में देरी की वजह से कंपनी बिजली खरीद समझौतों में नुकसान हो सकता है। एडीसन ने बताया कि टर्बाइन आपूर्ति करने वाली कंपनियों ने उन्हें पांच साल की वॉरंटी दी है, पर यह कितना खर्च पूरा कर पाएगी यह कहना मुश्किल है। पिछले साल दिसंबर तक एडीसन के 566 मेगावॉट वाले एक संयंत्र में मरम्मत का काम हो रहा है और 477 मेगावॉट के दूसरा संयंत्र में अभी निर्माण कार्य चल रहा है। कंपनी ने 1,166 मेगावॉट बिजली उत्पादन क रने के लिए टर्बाइनों की खरीद का काम शुरू कर दिया है।
गर्म ग्रह का अभिशाप
चंद्रभूषण
देश में खाद्यान्नों की पैदावार इस साल औसत से ज्यादा होने की पुष्टि की जा चुकी है, फिर भी गेहूं, चावल, दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों की कीमतें काबू में नहीं आ रही हैं। अन्य बातों के अलावा इसकी एक बड़ी वजह पूरी दुनिया पर मंडरा रहा खाद्यान्न संकट है। दक्षिण अमेरिकी देश हैती और अफ्रीकी देश सेनेगल के बाजारों में खाने के लिए भड़के दंगों में कई लोगों की जानें जा चुकी हैं। कई और छोटे देशों में भयंकर तनाव की स्थिति बनी हुई है। विश्व बैंक ने एक आधिकारिक बयान जारी करके कहा है कि खाद्यान्न संकट के चलते लगभग 50 देशों में इस साल दंगे-फसाद की स्थिति पैदा हो सकती है।
अपनी जरूरत से ज्यादा चावल उपजाने वाले फिलीपीन्स, म्यांमार और विएतनाम जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने संभावित खाद्य संकट को ध्यान में रखते हुए चावल निर्यात करने से मना कर दिया है। चावल के निर्यातकों में गिने जाने वाले भारत ने निर्यात पर औपचारिक रोक भले न लगाई हो लेकिन निर्यात शुल्क बढ़ाकर और 50 रूपये किलो से कम कीमत वाले चावल के निर्यात को प्रतिबंधित करके इसे बहुत मामूली स्तर पर ला दिया है। उधर गेहूं के अंतरराष्ट्रीय व्यापार की हालत भी अच्छी नहीं है। यूरोपीय देशों में गेहूं की उपज गिर जाने के कारण वहां से इसका निर्यात पिछले कई वषा से अत्यंत निचले स्तर पर चल रहा है।
सचमुच आश्चर्यजनक है कि जिस ग्लोबल वार्मिंग को हम अभी तक बौद्धिक हलकों में बहसियाई जाने वाली एक अकादमिक समस्या मानते आए हैं, वह अचानक लाखों लोगों का जीना-मरना निर्धारित करने लगी है। अपने यहां उपजने वाले चावल का 98 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करके कई देशों का पेट भरने वाले ऑस्ट्रेलिया के मरे-डालग बेसिन में पिछले दस वर्षों से पड़ा सूखा अंतरराष्ट्रीय चावल संकट का सबसे बड़ा कारण है। दरअसल, धान काफी ज्यादा पानी की मांग करने वाला धान एक उष्णकटिबंधीय फसल है, और दुनिया के बहुत कम देश ही अपना चावल बड़ी मात्रा में बेच पाने में सक्षम माने जाते हैं। सरप्लस चावल उपजाने वालों में ऑस्ट्रेलिया की जगह अव्वल मानी जाती रही है, लेकिन उसके धनहर खेतों में तो पिछले कई वर्षों से धूल उड़ रही है।
सन् 2003 में यूरोप में 48 डिग्री सेल्सियस तक चले गए तापमान और अगस्त के महीने में लगातार एक हफ्ते चली जबर्दस्त लू में 35 हजार लोगों की जान जाने की खबर हम सभी को होगी, लेकिन इस असाधारण स्थिति को एक तरफ रख दें तो भी 1990 के दशक से वहां लगातार बढ़े तापमान ने यूरोपीय खेती का क्या हाल किया है, इस तथ्य से शायद ज्यादा लोगों की वाकफियत नहीं है। गेहूं और अंगूर यूरोप के ज्यादातर इलाकों की बुनियादी फसलें मानी जाती हैं और इन दोनों का उत्पादन वहां तेजी से गिरा है।अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति और पिछले साल के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अल गोर की बनाई फिल्म ‘डे आफ्टर टुमारो’ में अंटार्कटिका के लार्सन बी आइस शेल्फ के पिघल जाने से गल्फ स्ट्रीम धारा का बहना बंद हो जाते दिखाया गया है। इसके चलते इधर इंग्लैंड के तटीय शहरों में तबाही आ जाती है तो उधर न्यूयॉर्क स्थायी रूप से बर्फ में जमकर रह जाता है। फिल्म के माध्यम के मुताबिक चुनी गई ये कुछ आश्चर्यजनक आशंकाएं हैं, जिन्हें फिल्म में सच होते दिखाया गया है। ये इतनी आश्चर्यजनक हैं कि इनके कभी सचमुच सही साबित हो जाने पर एकबारगी यकीन नहीं होता। लेकिन जैसी कहावत है, हकीकत हमेशा कल्पना से ज्यादा आश्चर्यजनक होती है।
दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया में लंबा सुखाड़ हो जाने से दसियों हजार किलोमीटर दूर हैती और सेनेगल में दंगे भड़क उठना, या यहां भारत में ही अपनी कार्यकुशलता का ढोल पीट रही केंद्र सरकार का अचानक संकटग्रस्त दिखने लगना हकीकत का सिर्फ एक पहलू है। बहुत सारी अन्य छोटी-छोटी चीजें भी हैं, जिनका महत्व पहली बार महसूस किया जा रहा है। ब्रिटिश जीवविज्ञानी रोनाल्ड रॉस ने सौ साल पहले भारत में मलेरिया पर अपना ऐतिहासिक काम इसे एक पराई बीमारी मानकर किया था। यूरोप में मच्छरों के होने की कल्पना ही नहीं की जाती थी, लिहाजा मलेरिया से वहां के डॉक्टरों या जीवविज्ञानियों का सीधे कोई साबका पड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। लेकिन आज गर्म होते यूरोप और उत्तारी अमेरिका में न सिर्फ मच्छर और पिस्सू हैं बल्कि मलेरिया, हैजा, प्लेग और कई अन्य उष्ण-कटिबंधीय बीमारियों के मरीज वहां दर्ज किए जाने लगे हैं।
जितनी हिकारत अमेरिकी हुक्मरानों ने ग्लोबल वामग से मुकाबले के लिए तय किए गए क्योटो प्रोटोकॉल के प्रति बरती थी, वैसी पिछले साल पेरिस में हुए आईपीसीसी सम्मेलन के प्रति उनसे नहीं बरती गई। बल्कि आईपीसीसी के निष्कर्ष पर अपनी मोहर लगाते हुए ग्लोबल वामग के खिलाफ कमर कसकर उतर पड़ने का जुबानी जमाखर्च भी उन्होंने किया तो इसकी अकेली वजह यही थी कि सन् 2005 में वहां आए असाधारण चक्रवातीय तूफानों ने न सिर्फ एक समूचे शहर न्यू ऑलिएंस को नेस्तनाबूद कर दिया था बल्कि ग्लोबल वामग की प्रस्थापना को अमेरिका विरोधी साजिश बताते आए रिपब्लिक नेतृत्व की कमर तोड़कर रख दी थी।बीच-बीच में तेल कंपनियों और वाहन निर्माताओं के पे-रोल पर काम करने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् आज भी ऐसे सुर्रे छोड़ते रहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। ऐसा ही सुर्रा इन दिनों यह छूटा हुआ है कि अगले दस वषा में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तरी ध्रुव की एक पर्यावरणिक परिघटना अगले कुछ समय तक धरती के बढ़ते तापमान की लगाम थामे रहेगी। कुछ-कुछ ऐसी ही प्रस्थापनाएं टाइटनिक जहाज के डूबने से ऐन पहले तक उसके इंजीनियर और मैनेजर वगैरह भी देते रहे होंगे।
एक तरफ तेल, गैस और कोयले के दिनोंदिन रीतते भंडार इन सारी चीजों की कीमतें आसमान पर चढ़ाए जा रहे हैं, दूसरी आ॓र धरती का दम घोंट रहा इनका धुआं हजार तरीकों से इस ग्रह की जान लेने पर आमादा है। फिर भी विद्वज्जन न जाने किस अदालत से ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ दस वर्षों का ‘स्टे-ऑर्डर’ लेते आए हैं। समय आ गया है कि ऐसे खयाली उपायों के जरिए वास्तविक समस्याओं से निपट लेने का मोह हम छोड़ दें।
पहली बार हमारी संसद में अगले बीस-बाइस वर्षों में गंगा नदी के सूख जाने की आशंका को लेकर चर्चा हुई है। यह मामला सिर्फ चर्चा तक ही सिमटकर न रह जाए, इसके लिए हमें बहस इस बात पर करनी होगी कि राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ कुछ सार्थक करने के लिए हम क्या-क्या कदम उठाने के लिए, ठोस तौर पर कहें तो किस हद तक माली नुकसान बर्दाश्त करने के लिए तैयार हैं।
अब कार्बन उपनिवेदशवाद
संजय तिवारी
अलगोर के पर्यावरणविद बनने से बहुत पहले अमरीका में एक किताब चर्चित और बेस्टसेलर हो चुकी थी। अनसस्टेनबल ग्लोबल वार्मिंग–इवरी 1500 इयर्स। किताब जो खाका खींचती है वह अभी तक चले उपनिवेशवादों में सबसे भयावह होगा। कल्पना करिए। आप ऐसा जीवन जीते हैं जिससे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाते हैं। तो कार्बन कारोबार में आप हमेशा सरप्लस में रहेंगे। लेकिन इस कार्बन क्रेडिट का आप क्या करेगें। जाहिर सी बात है कि आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे कि आपकी कार्बन कमाई में कमी आये। ऐसे में वह व्यक्ति आपसे संपर्क करेगा जो अपना कार्बन क्रेडिट खो चुका है। आपसे कहेगा कि अगर आप अपनी कार्बन कमाई का इतना हिस्सा मुझे दे दें तो बदले में आपको इतना पैसा दे दूंगा। आप उसे अपना कार्बन क्रेडिट दे देते हैं और वह व्यक्ति फिर से उसी जीवनशैली को जीने लगता है जिसके कारण पर्यावरण की समस्या पैदा हुई है।व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा होने में हो सकता है कि अभी कुछ साल लगे लेकिन राष्ट्र और राष्ट्र के भीतर राज्यों के स्तर पर इसकी शुरूआत हो चुकी है। वर्ल्ड बैंक ने 1000 मिलियन का फण्ड तैयार किया है जो उन देशों को दिया जाएगा जिनके यहां पर्यावरण सुरक्षित है। इण्डोनेशिया, चिली और भारत जैसे देशों को यह आफर किया भी जा चुका है। भारत के एक पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश ने केंद्र सरकार से मांग की है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए उसे कार्बन क्रेडिट के तहत पैसा मिलना चाहिए। इस तरह की मांग भी बढे़गी और चलन भी। व्यक्ति के स्तर पर क्रेडिट कार्ड बनाकर कार्बन की कमाई होने में हो सकता है अभी थोड़ा और समय लगे।
लेकिन ऊपर से चमकदार और पर्यावरणवादियों के सम्मान जैसा लगनेवाला यह तरीका दो संकेत करता है। पहला संकेत। अमेरिका का प्रभुत्व कायम रहेगा और अमरीका का राष्ट्रपति ही दुनिया का असली प्रशासक होगा। अमरीका ही तय करेगा कि दुनिया के किस हिस्से में जंगल लगाना चाहिए और किस हिस्से में उघोग। ग्वाटेमाला में अमेरिकियों ने इसकी शुरूआत भी कर दी है। वहां अमरीकी सरकार ने अपने खर्चे पर जंगल लगाने का काम किया है। दूसरा संकेत। अमरीकी और यूरोपीय मित्न राष्ट्रों की जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं आयेगा। औसत अमेरिकी नागरिक 23 टन वार्षिक कार्बन उत्सर्जन का दोषी है और अगर कार्बन क्रेडिट की नीति कामयाब हो जाती है तो अमरीकी नागरिक को अपने कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उसके हिस्से का पर्यावरण कोई और देश बचाएगा। सरल शब्दों में कहें तो यह कार्बन ट्रेडिंग है। तीसरी दुनिया की अधिकांश सरकारें दो कारणों से इस कार्बन ट्रेडिंग की आ॓र ललचायी नजरों से देख रही है। एक पर्यावरण सुरक्षित रह गया तो इसे वे अपनी कमाई का जरिया बना सकती है। दो, दुनियाभर के विकसित देशों द्वारा कुछ ऐसे उघोग धन्धे तीसरी दुनिया के आ॓र शिफ्ट होंगे जो अत्यधिक जहरीले होंगे और पानी की ज्यादा खपत करते है। भारत इस पूरे मामले में बहुत लचर रूख अपनाए हुए है। आईपीसीसी की रपटें घोषित तौर पर अमरीकी एजेण्डा का हिस्सा होती है। आर के पचौरी का आईपीसीसी अध्यक्ष बनना ही एक लाबिंग का हिस्सा था और खुद जार्ज बुश ने उनके नाम का अनुमोदन किया था। आर के पाचौरी प्रेम के निहितार्थ यह है कि पचौरी इतने लोचदार है कि किसी भी मुद्दे पर आप जैसा चाहें उनसे वैसा समर्थन हासिल कर लें। कचरे से बिजली बनाने के मुद्दे पर टेरी संदेह व्यक्त करता है फिर भी उसकी अनुसंशा कर देता है। पचौरी की टेरी ऐसा क्यों करती है इसे समझना मुश्किल नहीं है। भूमंडल के बढ़ते तापमान को कम करना जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है आदमी के दिमाग के तापमान को ठीक रखना। ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जिस कार्बन ट्रेड का रास्ता चुना गया है वह दोषियों को निर्दोष साबित करेगा और दुनिया में गुलामी की नयी परिभाषा स्थापित करेगा। तीसरी दुनिया के देश आज जिस भूमंडलीकरण की चुनौतियों से लड़ने की कवायद में दोहरे हुए जा रहे हैं वे उससे उबर भी नहीं पायेंगे कि एक नया दौर शुरू हो जाएगा जो नयी लड़ाई की घोषणा कर देगा। कार्बन ट्रेड उसी संभावित लड़ाई की पृष्ठभूमि है। पर्यावरण असंतुलन के सबसे ज्यादा जिम्मेदार अमेरिका और जापान जैसे देश हैं लेकिन कार्बन ट्रेड की आड़ में अब वही पर्यावरण बचाने का राग अलाप रहे हैं। इस संभावित षड़यंत्र को कितने लोग भांप रहे हैं, कुछ पता नहीं। (लेखक विस्फोट.कॉम ब्लाग के संचालक है)
ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ बने वैश्विक नीति
सुनीता नारायण (निदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट
90 के दशक के शुरूआती दौर की वह घटना मुझे याद आती है जब बीबीसी टेलीवीजन के एक जर्नलिस्ट में मुझसे पूछा था कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का कौन सा क्षेत्र है जहां जाकर उनकी टीम शूटिंग कर सके। उसके इस सवाल पर आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा था कि क्या भारत भी जलवायु परिवर्तन की चपेट में आ रहा है? लेकिन अब मैं सोचती हूं कि अगर मुझसे इसी तरह का सवाल आज फिर पूछा जाए तो मेरे पास ऐसे तमाम इलाकों की काफी लंबी फेहरिस्त मौजूद है जहां जलवायु परिवर्तन का असर साफ–साफ देखा गया। इनमें गत वर्ष बारिश की चपेट में आए मुंबई, बंगलुरू जैसे कई मेट्रोपॉलिटन शहरों से लेकर ऐसे कई क्षेत्रों के नाम हैं जहां भीषण गर्मी और बर्फबारी जैसे गैर मामूली परिवर्तन देखने को मिले।
क्या महज यह कह देने से हमारी जिम्मेदारियों से इतिश्री हो जाएगी कि यह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का असर है? भारत चूंकि एक विशाल क्षेत्रफल वाला देश है जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार वर्षा जल पर होता है। देश की कृषि योग्य जमीन का 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो वर्षा जल पर निर्भर है या भूजल पर। घरेलू जरूरतों, सिंचाई तथा पीने के लिए पानी हमें मौसमी बारिश से ही मिलता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में उत्पन्न हो रही अनिश्चितता से लोग कैसे जूझ पाएंगे? फिर जिस तरह गन्ने, गेहूं तथा चावल की फसलों की सिंचाई के लिए गहरे ट्यूबवेल बनाकर भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नहीं पहुंच जाएगा?
पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे तब हालात नहीं सुधरेंगे। उदाहरण के तौर पर यहां महाराष्ट्र के अहमदनगर जिला के हिवारे बाजार गांव का जिक्र करना बेहतर होगा। यहां ‘चोर के हाथ में चाबी देने’ वाली कहावत चरित्रार्थ होती प्रतीत होती है। 15 साल पहले तक सूखा ग्रस्त इस गांव में सिवाए पलायन के लोगों के पास कोई दूसरा चारा नहीं था लेकिन 90 के दशक में वैज्ञानिक सोच और सरकारी योजनाओं के सही क्रियान्वयन के बाद बदलाव की बयार आई तो यह गांव आज समृद्ध दिखने लगा।
आज बोतलबंद पानी का उघोग पूरी दुनिया में फल-फूल रहा है। एक आंकड़े के अनुसार सन 2006 में अमेरिका में 11 बिलियन यानी 1.1 करोड़ डॉलर का पानी बेचा गया। अमेरिका में प्रतिदिन लगभग 60 मिलियन यानी 6 करोड़ पानी की प्लास्टिक बोतल फेंकी जाती हैं जिसकी रिसाइक्लिंग में बेतहाशा प्रदूषण को देखते हुए कुछ महीनों पहले सैन फ्रांसिस्को के मेयर ने सरकारी भवनों में इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा दी। साल्ट लेक सिटी ने भी सरकारी कार्यक्रमों में में बोतल बंद पानी पर पाबंदी लगा दी तथा न्यूयार्क शहर में 10 लाख डॉलर के खर्च का एक अभियान चलाकर लोगों को सार्वजनिक पानी पीने के प्रति जागरूक किया गया। अमेरिका में एक मौके पर तो मशहूर पेय पदार्थ कंपनी पेप्सी को कबूल करना पड़ा कि उसके बोतलबंद ब्रांड एक्वाफिना का पानी महज टैप वाटर से ज्यादा कुछ नहीं है। भारत दुनिया में बोतलबंद पानी का दसवां सबसे बड़ा उपभोक्ता है। हालांकि भारतीय परिदृश्य बोतलबंद पानी के मामले में भिन्न है और यह हमारी बहुत बड़ी विडम्बना है कि लोग प्यास बुझाने के लिए अपनी औकात से ज्यादा पैसा चुकाकर बोतलबंद पानी पीने को मजबूर हैं क्योंकि यहां सार्वजनिक वितरण वाला जल पीने योग्य नहीं है। भारत में इन कंपनियों को पानी जल निकायों से नहीं भूजल से मिलता है जो इसका अथाह दोहन कर रही हैं। मिसाल के तौर पर जयपुर के नजदीक सूखा ग्रस्त इलाके काला डेरा में बने कोका कोला प्लांट के लिए कंपनी को सिर्फ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को बेकार पानी को बहाने का खर्च देना पड़ता है यानी जो किनले की बोतल हम तक 12 रूपये में पहुंचती है, उसके लिए यह राज्य सरकार को मात्र 0.02–0.03 पैसे चुकाते हैं। ऊपर से प्लास्टिक कचरे का जो पहाड़ हो रहा है और उससे पर्यावरण पर जो असर पड़ रहा है, उसकी तो किसी को चिंता ही नहीं है।
सिंचाई के मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं और राज्य सरकारों ने ही नदियों पर बांध, नहर वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन तो अपने पास रखा है लेकिन आज भी लोग सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाई हिस्से की सिंचाई भूजल से ही की जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रोत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार करके सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35–40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से 65–70 प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वर्षा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैश्विक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले 17 सालों से बड़ी–बड़ी संधियां होती हैं और वादे किए जाते हैं लेकिन रहती सब बेनतीजा ही हैं। हाल में हुई बाली संधि भी बेनतीजा रही। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंत्रण के वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता। अमेरिका, जापान, कनाडा तथा न्यूजीलैंड जैसे कई विकसित देश यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक चीन, भारत, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देश प्रदूषण नियंत्रण के उपाय नहीं करते।प्रस्तुति: मोहम्मद शहजाद
http://www.rashtriyasahara.com/NewsDetailFrame.aspx?newsid=53922&catid=35&vcatname=हस्तक्षेप
लौटना होगा अक्षय ऊर्जा की आ॓र
अनंत पद्मनाभऩ, ग्रीनपीस इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष
जलवायु परिवर्तन का असर पूरी पृथ्वी के लिए खतरनाक है। पर्यावरण दशाओं पर जारी विभिन्न रिपोर्टों का सार है कि इस सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में ढ़ाई से तीन प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। हमें प्रारंभिक तौर पर वैकल्पिक ऊर्जा के संसाधनों को अपनाने पर जोर देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। आज सारे शहरों में जिसमें भारतीय शहर भी है ऊर्जा आपूर्ति का संकट घनघोर रूप में मौजूद है।ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयला या पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा के बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार करना जरूरी है। इसमें पवन और सौर ऊर्जा पर सर्वाधिक जोर देना चाहिए। बाद में भूगर्भिक व समुद्री लहरों से बिजली पैदा करने की कोशिश की जा सकती है। हमारे यहां ही नहीं बल्कि अधिकांश देशों में कोयले और तेल आधारित बिजली उत्पादक संयंत्र ही अधिक हैं, और कोयले के भंडार दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। देश के व्यावसायिक ऊर्जा खपत की बात करें तो इसमें कोयले का योगदान करीब 67 प्रतिशत है। दरअसल अब हम विकास के खामियाजे भुगतने की राह पर हैं, अगर कुछ ही दिनों में नहीं चेता जाए तो आगे यकीनन व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त होंगी।
तमाम तकनीकी विकास के बावजूद अधिकांश देशों में मुख्यतया कोयले और पेट्रोलियम फ्यूल ही प्रयोग में आते है, इन क्षयशील संसाधनों के भरोसे अब हम अधिक दूर नहीं जा सकते। अपने देश में तो सौर, पवन, बायोमास से लगभग 6100 मेगावाट विद्युत क्षमता ही पावर ग्रीड को उपलब्ध है जो कुल संस्थापित क्षमता का मात्र साढ़े 5 प्रतिशत है। कोयला व पेट्रोलियम न सिर्फ क्षयशील ऊर्जा की प्रकृति के कारण बल्कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी काफी हानिकर हैं।
विकास के जिस राह पर हम हैं, तय है कि बिजली की मांग में अनवरत बढ़ोत्तरी होगी, और इसे पैदा करने के पारंपरिक साधनों का अगर इस्तेमाल होता रहा तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन में भी उसी रफ्तार से इजाफा होगा। अब ये संसाधन अगर क्षय उर्जा के स्रोत रहे तो इससे बिजली की मांग पूरी होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हमें कोयला व पेट्रोल आधारित ऊर्जा स्रोतों के बजाय दूसरे विकल्पों पर गौर करना जरूरी है। पवन, सौर व जैव ऊर्जा इनमें शामिल हैं। ये ऊर्जा के अक्षय भंडार हैं जो कभी खत्म नहीं होंगे। फिर इनसे प्रदूषण का खतरा भी नहीं है। इन साधनों के साथ–साथ भूगर्भिक गर्मी और समुद्री लहरों से भी बिजली बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। परमाणविक पदार्थो से बिजली बनाने में भी खतरे हैं। निर्माण के दौरान बने कचरे को खपाना भी एक समस्या है, इसके विकिरण अत्यंत घातक होते हैं इसलिए इसे नष्ट करना एक गंभीर चुनौती की तरह है।
वैसे ऊर्जा की बर्बादी अत्यंत कम हो इसके प्रयास कहीं अधिक जरूरी हैं। कम बिजली खपत करने वाले कॉम्पेक्ट फ्लोरोसेंट लैंप जैसे लाइटिंग उपकरण और न्यून ईंधन खाने वाली गाड़ियों का निर्माण होना चाहिए। फिर कंप्यूटर, फ्रीज, एयरकंडीशन जैसे 20 सर्वाधिक बिजली खाने वाले उपकरणों की जगह दूसरे कम खपत वाले विकल्पों को अगले 5–6 वर्षों मे अनिवार्य करने संबंधित नीति बने। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों व वाहने निर्माताओं को स्पष्टतया निर्देश दिए जाएं कि नई तकनीक से नियुक्त उत्पादों का ही वो निर्माण करें। 2012 तक 100 किमी के सफर में 5–6 लीटर से ज्यादा ईंधन खाने वाले गाड़ियों पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। सरकार को चाहिए कि 2010 तक अक्षय उर्जा कानून लागू करे। 2050 तक कार्बन के उत्सर्जन में 4 फीसदी की कमी करने की जरूरत है। इस मामले में सरकार दूसरे देशों को दोषी ठहराने की नीति छोड़ ध्यान अपने पर ही केंद्रित करे तो ही अच्छा है। बिजली उत्पादन में तो क्रमश: बढ़ोत्तरी करते हुए 2050 तक अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी करीब 64 प्रतिशत करने की जरूरत है। वैसी औद्यौगिक इकाईयां जो प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों व कोयले आधारित हैं पर सख्ती से लगाम हो, तभी ऊर्जा की बचत और पर्यावरण की रक्षा हम कर पाएंगे। जाहिर है यह हमारे जीवन के लिए भी जरूरी है और हानिरहित विकास के लिए भी। कई ऐसे देश हैं जो इस दिशा में बेहतर कार्य कर कर रहे हैं जैसे आस्ट्रेलिया ने अक्षय ऊर्जा कानून लागू कर परंपरागत बिजली के बल्वों पर पाबंदी लगा दी है। इसी तरह फ्रांस परमाणु ऊर्जा के जरिए ही अपनी 80 फीसद ऊर्जा प्राप्त कर रहा है। जर्मनी और डेनमार्क जैसे देश भी आदर्श स्थिति रखते हैं ये दोनों पवन ऊर्जा के क्षेत्र में आज अव्वल हैं। प्रस्तुति: प्रेम चंद यादव
ग्लोबल वार्मिंग : कुछ तथ्य मिथ नहीं वास्तविकता
दिनेश रावत
* अब तक कई लोग समझते थे कि ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती का गरमाना एक मिथ है, हकीकत नहीं। लेकिन अब दुनियाभर के वैज्ञानिक अच्छी तरह सुनिश्चित कर चुके हैं कि हां, यह एक सच्चाई है और पृथ्वी पिछले कई सालों से विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तन के अनेक संकेत दे रही है। पिछले साल 130 देशों के 2,500 वैज्ञानिक गहन शोध और अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य अथवा पूर्ण वजह मानवीय गतिविधियां हैं। मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग को अक्सर ‘एंथ्रोपोजेनिक क्लाइमेट चेंज’ भी कहा जाता है।
शनिवार, 17 मई 2008
बाली में बवाल का हस्र
- शिराज केसर
इंडोनेशिया के शहर बाली में पिछले 3-14 दिसम्बर को 'जलवायु परिवर्तन' पर संपन्न सम्मेलन फिर विफलता को प्राप्त हुआ। बाली के सम्मेलन से आश लगाए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से चिंतित लोगों के हाथ फिर खाली रह गये। विकसित देशों के अंधाधुध औद्योगीकरण से दुनिया का एक बड़ हिस्सा संकट में है। प्रदूषण के मुख्य अपराधी देश बाली जैसे सम्मेलनों में आते तो जरूर हैं, पर कह वही जाते हैं-' हम तुम्हारी बात नहीं सुनेगें'। क्या इन सक्षम देशों के रवैये से विकासशील देशों में हताशा नही आएगी, पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ठीक ही कहते हैं कि ''मेरा मानना है कि इस ढांचे को उपयोग में लाना सीखना पड़ेगा। ढांचे को समर्थ्यवान बनाना होगा। यह चोरी और सीनाजोरी का दौर है।'' प्राकृतिक आपदाओं से सर्वाधिक त्रस्त शहरों में एक बाली में हुआ 'संयुक्तराष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज' पूरी तरह से धनी देशों के सीनाजोरी का शिकार हो गया।
संयुक्तराष्ट्र का ढांचा खड़ा किया गया था कि दुनिया में युध्द, आपदा, जलवायु परिवर्तन आदि तरह के जो बड़े खतरे हैं, उसका मिल-जुलकर मुकाबला किया जा सके। पर इन सबमें प्राय: यह ढांचा असफल ही रहा है। एक ओर चीज जो निकलती है कि दुनिया अपने शानो-शौकत के आगे जलवायु परिवर्तन जैसी सम्स्याओं को गम्भीरता से नहीं लेती। 2-3 प्रतिशत की दर से बढ़ रही गर्मी से आने वाले तुफान की आहट सुनने के बाद भी - जलवायु परिवर्तन की इस आपदा ने पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादंश की लाखों एकड़ जमीन लील ली है। गंगा जैसी दुनिया भर की हजारों हिमनद की नदियां सूखने की कगार पर हैं।
'संयुक्तराष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज' क्योटो के सबसे प्रमुख मुद्दे पर आगे का 'रोडमैप' बनाने की दिशा में एक महत्व का मोड़ था, पर चूक गये। असफलता का कारण यह झगड़ा था कि जलवायु परिवर्तन में क्या विकासशील देशों की कोई भूमिका नहीं है। अमेरिका का कहना है कि क्योटो प्रोटोकाल के अनुसार जो हम विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का स्तर 2020 तक 1990 के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर तक ले जाना है, उसमें विकासशील देशों की भी भूमिका भी तय की जानी चाहिए। बाली सम्मेलन में अमेरिका ने एक नया मसला उठाया कि इस लक्ष्य को कम करने की जरूरत है, लक्ष्य को कम करके 1990 के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर का 40 फीसदी सिर्फ किया जाना चाहिए। अमेरिका काफी हद तक सफल रहा कि नये सिरे से 'रोडमैप' बनाया जाना चाहिए और लक्ष्य का निर्धारण फिर से किया जाना चाहिए।
पर 1990 के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर का 40 फीसदी का लक्ष्य भी बहुत दूर की कौड़ी नजर आ रही है। एक अध्ययन के अनुसार '' ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की दर आज जो है उससे तो मात्र 8-10 प्रतिशत ही लक्ष्य 2020 तक हासिल कर पाएंगे। लक्ष्य के हासिल करने के लिए तुरंत विकसित देशों को 90 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा और विकासशील देशों को 30 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा। पर दुखद तो यह है कि सबके सब जलवायु परिवर्तन के मसले पर नाटक ज्यादा कर रहे हैं, गम्भीरता कम ही नजर आती है। जैसे कि योरोपियन संघ काफी बढ़-चढ़कर कह रहा था कि विकसित देशों के जिम्मेदारी ज्यादा महत्व की है- पर फाइनल दस्तावेज में 2050 तक 1990 के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर का आधा किया जाना चाहिए, यह जोड़ने की बात करने लगा, पर जो आखिरी दस्तावेज बना उसमें से यह बात भी निकाल दी गयी।
अमेरिका चाहता है कि भारत और चीन जैसे देशों को भी 90 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य की परिधि में रखा जाए जो अब तक क्योटो संधि से बाहर रहे हैं। हालांकि अमेरिकी मंशा तो अपने स्वार्थों और औद्योगिक हितों की पूर्ति के लिए ही है। पर आज समय आ गया है कि विकासशील देश भी अपनी ओर भी देखें। 'टाटा' की लखटकिया गाड़ी के लिए क्या हमारी लोलुपता नहीं है। सार्वजनिक परिवहन को दरकिनार करके कारों को बढ़ावा देकर क्या हम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बदस्तूर बढ़ाने के दोषी नहीं हैं। विष्णुनागर के अनुसार ''चीन ने तो अराजक विकास की तकनीक अपना रखी है। वहां नब्बे फीसद बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। इसके अलावा उसने हिमालय क्षेत्र में कई ऐसी खतरनाक योजनाएं चला रखी हैं, जिनसे हिमालय की पारिस्थितिकी को बचाने की कोई नीति दुनिया में दिखाई नहीं देती। चीन अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर स्वीकार कर चुका है कि उसके सामने पर्यावरण की गंभीर समस्याएं हैं, इसके बावजूद वह हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण की गंभीर समस्याएं हैं, इसके बावजूद वह हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली योजनाओं को गति देने में पीछे नहीं है।'' तिब्बत में रेलगाड़ी चलाने का काम कितना घातक है, शायद चीन इस पर बात करना भी नहीं चाहेगा। अमेरिका ने अपने स्वार्थ में ही, पर सवाल ठीक ही उठाया है, समय आ गया है कि सबकी जिम्मेदारी तंय हो।
फिलहाल तो हम यही आशा करते हैं कि जो 'रोडमैप' ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन के कम करने के लिए बना है, उसे सभी ईमानदारी से पालन करेंगे। अमेरिका जो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन के एक चौथाई से ज्यादा समस्या के कारण है, वह कोई किन्तु-परन्तु किए बिना, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के 2020 के लक्ष्य के लिए बना 'रोडमैप' के लक्ष्य के दिशा में आगे बढ़ेगा।
रविवार, 11 मई 2008
खेतों में जहर की फसल - चंद्रमोहन कल्ला
जोधपुर. सेहत मंद होने के लिए आजकल लोग जो सब्जियां खा रहे हैं, उनका उत्पादन नीम हकीमी नुस्खों से होने लगा है। कम समय में अधिक पैदावार से मुनाफा कमाने के लिए किसानों में फैले संक्रमण से यह मर्ज लाइलाज हो रहा है। नीम हकीमी नुस्खों की सीढ़ी से हो रही खेती से भावी पीढ़ी का स्वास्थ्य चपेट में आने लगा है। कृषि विशेषज्ञों के एक दल की ओर से हाल ही में किए गए सर्वे में कीट नाशकों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत असर की चौंकाने वाली बातें सामने आई हैं।
फसल बोने से पकने तक रासायनिक कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई सब्जियां सेवन करने वालों के शरीर में जहर भर रही हैं। हालत ये है कि आसपास के कस्बों और शहरों में कीटनाशक की खरीद के लिए आने वाले किसानों को विक्रेता ज्यादातर वहीं कीटनाशक देता है जो जल्द असर दिखाए और दुकानदार को भी अधिक मुनाफा हो। जब किसान अपने खेत में फसल को लगी बीमारी के लक्षण बताकर कीटनाशक मांगता है तो कई बार व्यापारी समान रोग के लिए एक से अधिक कीट नाशक थमा देते हैं।
भावी पीढ़ी के लिए खतरे की घंटी
कीटनाशकों और उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग न केवल वर्तमान बल्कि आने वाली पीढियों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। कीट नष्ट करने वाला रसायनिक जहर के लिए जमीन से बाहर जाने का रास्ता केवल फसलों के जरिए ही होता है । पश्चिमी राजस्थान जैसे शुष्क इलाके में जहां पर्याप्त मात्रा में जल निकासी विकसित नहीं है, वहां खेतों में इनकी मात्रा का लगातार बढ़ना खतरनाक है।
टमाटर भिंडी,लौकी और कुष्मांड वर्ग की सब्जियां फूल लगने के बीस दिन में तैयार होती है। ऐसे में किसान उन्हें 5 दिन में ही पकाने का नुस्खा अपनाता है और तोड़कर बाजार भेजने की तैयारी कर लेता है। कई कीटनाशक का प्रभाव 7 दिन से एक माह तक रहता है। गोभी पर मेलाथियॉन का स्प्रे किया जाता है, जिसका असर डेढ माह तक रहता है।
गंदे पानी के संक्रमण से समय से पहले पके गोभी के फूल को इस स्प्रे के तुरंत बाद ही मंडियों में उतारा जा रहा है। इस कारण गोभी के फूल में गंदा संक्रमित पानी तो होता ही है साथ ही मेलाथियॉन का असर भी बना रहने से स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो रही है।
तरकारी के हारमोंस बदलने का धंधा
सब्जियों में हारमोंस बदलने का धंधा भी किसान करने लगे है। कीटनाशक की दुकानों पर मिलने वाला ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन लौकी जैसी सब्जी की पैदावार के लिए लगाया जा रहा है ताकि लौकी की लंबाई बढ़ सके। गोभी का रंग सफेद रखने के लिए और मटर का रंग हरा रखने के लिए विभिन्न रंगों वाले इंजेक्शन कृषक लगाने लगे हैं। हाल ही में कृषि वैज्ञानिकों की ओर से प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में किए गए सर्वे के दौरान मारवाड़ में भी हारमोंस से सब्जी व फल का उत्पादन बढ़ाने का पता चला है।सब्जियों में पाए गए कीटनाशकों का प्रभाव बड़ों पर कम लेकिन बच्चों पर अधिक पड़ता है। वर्तमान में बाजार में मिल रही सब्जियां शारीरिक व मानसिक व्याधियों का कारण बन रहीं हैं। ऐसी सब्जियों के निरंतर सेवन से बच्चों में पेट दर्द,बार-बार बुखार आना, मांस पेशियों में खिंचाव जैसे दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं। इसके अलावा चिड़चिड़ापन व मानसिक रोग भी पनपने का खतरा बना रहता है।
—डॉ.बी.डी. गुप्ता, शिशुरोग विशेषज्ञ, उम्मेद अस्पताल, जोधपुर
हारमोंस से पैदावार बढ़ाने की शिकायतें मिली हैं। कीटनाशक दुकानदारों से सीधे खरीदने पर किसानों को अधिक पैदावार का नुस्खा दिया जा रहा है।कृषि विशेषज्ञों के सर्वे समय-समय पर होते रहते हैं। इसीसे पता चलता है कि यहां हारमोंस से पैदावार बढ़ाने का कार्य हो रहा है। कृषि विभाग समय-समय पर गांवों में शिविर लगाकर वर्मी कम्पोस्ट के उपयोग के बारे में किसानों को बता रहा है। इसका असर कई किसानों में तो दिखाई देने लगा है, लेकिन पूरी तरह अभी भी किसानों को पैदावार के समयचक्र से छेड़छाड़ करने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता।
—आई.आर. द्विवेदी, सहायक निदेशक, उद्यान विभाग, जोधपुर।
हारमोंस से फसल की किस्म सुधारने में कोई नुकसान नहीं होता। इसका प्रयोग इन दिनों मारवाड़ के किसान कर रहे हैं लेकिन कीटनाशक के प्रयोग को लेकर जागृति नहीं होने से किसान सीधे दुकानों पर जाकर कीटनाशक खरीदकर जो प्रयोग कर रहे हैं वो स्वास्थ्य के लिए घातक है।
—जे.एन.सांखला प्रगतिशील किसान
मोर अंधे, हरिणों को गश
महावीर सिंह चौहान
बीकानेर. पेट की भूख बुझाने के लिए खेतों में खाना तलाशते निरीह वन्य जीव या तो अंधे हो रहे है या फिर गश खाकर गिर रहे हैं। इसका मुख्य कारण खेतों में पैदावार बढ़ाने और फसलों की सुरक्षा के लिए किए जाने वाले कीटनाशकों का प्रयोग है। कुछेक को छोड़कर अधिकतर कीटनाशक वन्य जीव विशेष कर हरिण और मोर के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। कीटनाशक छिड़काव की गई फसलों के पास से गुजरते या फिर खाते समय इन वन्य जीवों को इस स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
पिछले कुछ महीनों से बड़ी संख्या में ऐसे प्रकरण बीकानेर के पशु अस्पतालों में सामने आए है। नोखा, सावंतसर, बज्जू आदि क्षेत्रों में इस प्रकार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। किसान तो यह सोचकर बीमार हुए वन्य जीवों को बीकानेर लाता है कि गर्मी लग गई है मगर डाक्टरी जांच में यह मामले सामने आए है।
मोरों के लिए फोलीडायल, ड्रेमेट, एन्ट्राकोल, एम 45, टिक्का डिजीज नामक कीटनाशक अधिक घातक होता है वहीं हरिणों के लिए मोनो, कोटोफोस, कुणालफोस, एन्ड्रोसिफाल, बिलमॉस, सबसे अधिक घातक होते हैं। अधिकतर कीटनाशकों के निर्माण में कीड़ों का उपयोग होता है जिससे उसका जहरीलापन और बढ़ जाता है। खेतों में डाले जाने वाले कीटनाशक इतने तेज होते है कि कई बार तो किसान खुद उसकी चपेट में आ जाते है। इन कीटनाशकों के चपेट में आने से किसानों को चक्कर आने के साथ-साथ मुंह से झाग की शिकायत भी रहती है।
खराब बीज खाने से मोर की सेहत पर सबसे अधिक असर पड़ता है। यह कीटनाशक आदमियों की तुलना में पशु-पक्षियों पर अधिक असर डालते है। बाजार में कई ऐसे कीटनाशक भी उपलब्ध है जो पैदावार बढ़ाने में सहायक साबित होते हैं लेकिन जहरीले नहीं होते। इनमें डालर, जिंक, फील्ड मार्शल मुख्य है। जीरे में सर्वाधिक कीटनाशक का प्रयोग होता है। विगत कुछ सालों में फसलों में कीड़े लगने की घटनाओं के बाद कीटनाशक का प्रयोग भी बढ़ गया है।
कीटनाशक, प्रभाव और बचाव >>
मोनो, कुणालफोस, एन्डोसिफाल: सबसे अधिक जहरीले कीटनाशक है।
कुणाल फोस- यह कीटनाशक हवा के साथ असर दिखाता है। पशु-पक्षियों और मनुष्यों पर ज्यादा प्रभाव।
डालर, जिंक, फील्ड मार्शल: पैदावार बढ़ाने में सहायक, जहरीले नहीं।
प्रभाव: स्नायुतंत्र पर असर,चक्कर आना, मुंह से झाग निकलना।
बचाव : छिड़काव के पहले 15 दिन रखे विशेष चौकसी
उपाचारित और खराब बीज को जमीन में दबा देना चाहिए
आर्गेनिक बीजों का उपयोग अधिक करना चाहिए
छिड़काव के पहले 15 दिनों तक कीटनाशक का असर अधिक होता है। ऐसे में इनके संपर्क में आने वाले पशु-पक्षी सबसे अधिक प्रभावित होते है। जहरीला कीटनाशक सबसे पहले पशु-पक्षियों के स्नायुतंत्र पर असर डालता है। इसके प्रभाव में आने वाले पशु-पक्षियों में घबराहट पैदा हो जाती है। मोर व हरिण को तो इस स्थिति में अस्पताल तक आने का समय मिल जाता है मगर छोटे पक्षी कबूतर, कौए, चिड़िया तो मौके पर ही दम तोड़ देते हैं।
-डॉ. ए.के. गहलोत, डीन, वेटेरनेरी कॉलेज
रविवार, 4 मई 2008
जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती-चिदंबरम
मिर्जापुर (वार्ता),
भारत सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर आर. चिदंबरम ने कहा कि जलवायु में असामान्य परिवर्तन वैज्ञानिकों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है और अगर समय रहते इस दिशा में ठोस कार्य नहीं हुआ तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर में जल्द ही क्लाइमेट चेंज सेंटर स्थापित करके विश्वविद्यालय के सहयोग से जलवायु परिवर्तन के विषय पर कार्य किया जाएगा।प्रो. चिदंबरम ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर में नवनिर्मित स्वास्थ्य केन्द्र का उद्घाटन करते हुए कहा कि मौजूदा समय में जलवायु में असामान्य परिवर्तन देश के वैज्ञानिकों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है और अगर समय रहते इस दिशा में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
प्रो. चिदंबरम ने बताया कि इस समय देश में जलवायु परिवर्तन पर वृहद स्तरीय कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है और मौजूदा वक्त में हाई रिजोल्यूशन क्लाइमेट मॉडलिंग की जरूरत है।चिदंबरम ने बताया कि स्टॉग का गठन सबसे पहले उत्तराखंड में किया गया था। वहाँ इस केन्द्र के खोलने से काफी लाभ मिला जिसके मद्देनजर चेन्नई के गाँधी गाँव में केन्द्र स्थापित किया गया है। इस केन्द्र में वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन के निर्देशन में कार्य किया जा रहा है।उन्होंने बताया कि आईआईटी गुवाहाटी व खड्गपुर में भी चेन्नई के गाँधी गाँव की तर्ज पर ही स्टॉग का केन्द्र स्थापित किए गए हैं और जल्द ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर में भी ऐसा केन्द्र खोला जाएगा।
उन्होंने बताया कि उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में जलवायु में गैरमामूली बदलाव के चलते उत्पन्न समस्याओं के अध्ययन के लिए प्रयोगशाला स्थापित करने का प्रस्ताव सौंपा गया है। इस प्रयोगशाला पर एक करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है।प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार ने कहा कि थोरियम को बड़े पैमाने पर संवर्द्धित करके उससे परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने में भारत को 20 वर्षों तक इंतजार करना पड़ सकता है।प्रो.चिदंबरम ने कहा कि हालाँकि थोरियम को संवर्द्धित करने के लिए कलपक्कम में एक छोटा रिएक्टर तैयार कर लिया गया है और बड़े रिएक्टर के निर्माण का काम चल रहा है जिसे पूरा होने में समय लगेगा।उन्होंने कहा कि विकासशील देश होने के कारण भारत के लिए कम लागत में बिजली उत्पादित करना बहुत जरूरी हो गया है। देश में थोरियम का पर्याप्त भंडार है, मगर उसे व्यापक पैमाने पर संवर्धित करने के लिए बड़े संयंत्रों का विकास नहीं हो पाया है।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर पंजाब सिंह ने इस मौके पर कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार को विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर में 500 बिस्तरों वाले अस्पताल स्थापित करने के लिए प्रस्ताव दिया गया है। इसके अलावा योजना आयोग को 300 करोड़ रुपए का एक विस्तृत प्रोजेक्ट दिया गया है।
शनिवार, 3 मई 2008
पुण्य-पावन नदियों पर टिकी है हमारी पहचान - विमला पाटिल
देश के दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी के निकट रहने वाला सुकुमार कार्तिकेयन अपने खेतों में नारियल उगाता है। हिमाचल प्रदेश में रहने वाला सीताराम पांडे पेशे से गाइड है और पर्यटकों को पहाड़ों की सैर करवाता है। अलग-अलग छोरों पर बसे इन दो इलाकों के बीच भारत के लाखों गांव, कस्बे और शहर-महानगर हैं, जिनमें एक अरब से भी ज्यादा लोग बसते हैं। भारत की इस विशाल आबादी में द्रविड़ों, आर्र्यो, मंगोलों और अफ्रीकी समेत कई प्रजातियों का संगम है। यहां के लोग अलग-अलग धर्र्मो और संप्रदायों को मानने वाले हैं। उनका रूप-रंग, चेहरा-मोहरा और शारीरिक बनावट अलग-अलग होती है। यहां सामुदायिक आधार पर हजारों तरह की बोलियां बोली जाती हैं और 35 मुख्य भाषाएं हैं।
लोगों का खान-पान इस बात पर निर्भर करता है कि उनके क्षेत्र में क्या उगता है या क्या उपलब्ध है। मसलन भारत के समुद्रतटीय इलाकों के लोग नारियल मिश्रित करी और चावल खाते हैं, तो उत्तरी मैदानी क्षेत्रों में लोग ज्यादातर दालें, सब्जियां, चपाती और चावल खाकर गुजारा करते हैं। यहां के लोगों का पारिवारिक ढांचा, वैवाहिक संबंध, शैक्षणिक स्तर और सांस्कृतिक जड़ें कई रूपों में कभी-कभार तो एक-दूसरे के प्रतिकूल होती हैं। उनका अपना अलग साहित्य और संगीत होता है।
यहां तक कि उनके लोकनृत्यों और संगीत में भी काफी विविधता होती है। जैसा कि डॉ. अमत्र्य सेन ने अपनी किताब ‘द आग्यरुमेंटेटिव इंडियन’ में कहा है, ‘भारत अलग-अलग पेशों, बिलकुल अलग-अलग मान्यताओं, पूरी तरह जुदा परंपराओं और यथार्थवादी सोच के साथ असीम विविधताओं वाला देश है।’ यह तय करना बहुत मुश्किल है कि इन सब मान्यताओं और जीवन जीने के तरीकों को कौन एक साथ जोड़ता है, जो ये विविध समुदाय एक राष्ट्र के तौर पर साथ रहते हैं।
आखिर इस ‘भाईचारे’ के पीछे कौन सा रहस्य छिपा है? हम अपनी कलकल बहती नदियों की विशेषताओं, दंतकथाओं और हमारी सभ्यता, इतिहास, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और कला के विकास में उनकी भूमिका पर एक निगाह डालें, तो संभवत: हमें अपने सवाल का जवाब मिल जाएगा। भारत में कई नदियां बहती हैं जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर क्षेत्र से गुजरती हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण गंगा-यमुना समूह अपनी असंख्य सहायक नदियों के साथ है, जिनका बंगाल की खाड़ी तक जबरदस्त प्रभाव है।
इसके अलावा उत्तर में सिंधु पांच विख्यात सहायक नदियों(झेलम, रावी, सतलुज, व्यास और चेनाब) के साथ पाकिस्तान में बहती है, यद्यपि पंजाब, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे क्षेत्रों पर अभी भी इसकी संस्कृति का काफी प्रभाव है। प्रायद्वीप में नीचे की ओर नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी जैसी नदियां विंध्य और सह्याद्रि पर्वतमालाओं से छोटी-छोटी सहायक नदियों के साथ मिलकर अलग तंत्र बनाती हैं।
भारत की संस्कृति और सभ्यता को संवारने में ही गंगा का योगदान नहीं है, वरन इस पावन नदी ने कंबोडिया, श्रीलंका, इंडोनेशिया, जापान समेत समस्त पूर्वी देशों की संस्कृतियों पर भी जबरदस्त प्रभाव डाला है। भारत का बच्चा-बच्चा इस दंतकथा से परिचित है कि गंगा का अवतरण मोक्षदायिनी के तौर पर हुआ है। भारत के दो महाग्रंथों में इसका उल्लेख है और देश की अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका को भी स्वीकार किया जाता है।
यमुना को हमेशा से राधा-कृष्ण की रासलीलाओं के साथ जोड़ा जाता है। पारंपरिक तौर पर यमुना कृष्ण की महारानी हैं और विश्व के सभी कृष्ण प्रेमियों की यह चहेती नदी है। हाल के वर्र्षो में नर्मदा नदी राजनीतिक कारणों के चलते चर्चा में रही है। लेकिन ऐतिहासिक तौर पर उसे मां की तरह पूजा जाता रहा है। ऐसी नदी जो साहित्य, कला और आध्यात्मिक कामों की प्रेरणा बनी। उसका समीपवर्ती क्षेत्र खेती के लिए काफी उपजाऊ है और इसके तट पर मांडू, महेश्वर और इंदौर जैसे कई बेहतरीन ऐतिहासिक शहर बसे हैं। रामायण में गोदावरी का कई बार जिक्र आया है कि राम, लक्ष्मण और सीता ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के दौरान काफी समय इसके तट पर गुजारा। कृष्णा नदी के तट पर हंपी के विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों और छत्रपति शिवाजी द्वारा आजादी की कई लड़ाइयां लड़ी गईं। कावेरी नदी आदि शंकराचार्य समेत देश के कई महान संतों का गढ़ रही है।
भारत के मैदानी इलाकों को सिंचित करने व देश की कृषि का मुख्य आसरा होने के अलावा इन नदियों ने हमें हमारी नागरिक सभ्यताजनित पहचान, संस्कृति, संगीत, नृत्य, वास्तुशिल्प और आत्मछवि दी है। हमारे राष्ट्रीय चित्त में इसकी मौजूदगी ऐसा बंध है जो हमें एक व्यक्ति-एक राष्ट्र के तौर पर जोड़ता है। इसलिए हम भारतीयों को इनके ऋण के उपादान में इनकी शुद्धता और पवित्रता को अक्षुण्ण रखना चाहिए। हम सभी को इनके स्वच्छ और लबालब स्वरूप को बरकरार रखने की दिशा में काम करना होगा, चूंकि ये हमारे जीवन का स्रोत तथा हमारी राष्ट्रीयता की प्रतीक हैं।
-लेखिका फेमिना की पूर्व संपादक हैं।
http://www.bhaskar.com/2008/04/28/0804290023_edit.html
ग्रीन हाउस गैसों का गहराता साया - एनएन सच्चिदानंद
दृष्टिकोण. यह मानते हुए कि देश की बढ़ती आबादी सन 2030 तक तकरीबन 1.35 अरब का आंकड़ा छू लेगी, विकास के कुछ न्यूनतम मानदंड हासिल करने के लिए अगले बीस वर्षो के दौरान भारत का औसत जीडीपी आठ प्रतिशत से ऊपर संयुक्त वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) में रहना जरूरी है। योजना आयोग की समग्र ऊर्जा नीति रिपोर्ट के मुताबिक इसका अर्थ यह है कि 2030 तक भारत को बिजली का अपना उत्पादन मौजूदा 128000 मेगावाट से 800000 मेगावाट की क्षमता तक बढ़ाने की जरूरत है।
देश में फिलहाल 80 फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले से किया जाता है और आने वाले वर्षो में ईंधन का प्रमुख स्रोत कोयला ही बना रहने वाला है क्योंकि लक्षित ऊर्जा उत्पादन के लिए हमारे पास इसका पर्याप्त भंडार है। बिजली के अन्य घरेलू स्रोत या तो अपर्याप्त हैं या विशाल क्षमता वाले बिजलीघरों में इस्तेमाल करने के लिए व्यावहारिक नहीं हैं। बदकिस्मती से, जिन पावर प्लांटों में कोयले का इस्तेमाल किया जाता है वहां से कार्बन डाइऑक्साइड का अत्यधिक उत्सर्जन होता है, जो ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) का मुख्य घटक है।
ग्लोबल वार्मिग के लिए ग्रीन हाउस गैसों को ही जिम्मेदार माना जाता है। भारत के लिए यह एक विकट असमंजस की स्थिति है। या तो अपने जीडीपी की विकास दर पर लगाम लगाते हुए देशवासियों के निचले जीवनस्तर से यह काम चलाए और अगले 20 वर्षो के दौरान 25 करोड़ लोगों के लिए निर्मित होने वाली रोजगार की मांग पर कोई ध्यान न दे, या फिर कोयला आधारित पावर प्लांटों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम करे। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बाली में जारी संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस(यूएनएफसीसी) में बहस का मुख्य विषय ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है।
निश्चित ही भारत यह तर्क दे सकता है कि विकसित देशों की तुलना में प्रतिव्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन यहां काफी कम है। अमेरिका में प्रतिव्यक्ति यह दर जहां 20 टन और यूरोपीय संघ के देशों में 10 से 15 टन तक है, वहीं भारत में यह दर सालाना सिर्फ एक टन है।
ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन की अगर बात की जाए तो भारत इस मामले में पांचवां सबसे बड़ा और दूसरा सबसे तेज रफ्तार मुल्क बन चुका है। दुनिया के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में भारत का हिस्सा छह प्रतिशत है। हमारा बिजली उत्पादन कार्यक्रम उपरोक्तानुसार चलता रहा, तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में 2030 तक चीन के बाद हम दूसरे सबसे बड़े देश होंगे।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) विकासशील देशों से पहले ही आग्रह कर चुका है कि वर्ष 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 20 फीसदी कमी ले आएं। भारत के योजना आयोग ने इस सुझाव को अनुचित बताते हुए अमान्य कर दिया है।
यह ध्यान में रखते हुए कि भविष्य में ग्लोबल वार्मिग का सबसे बुरा असर झेलने वाले देशों में भारत शुमार होगा, जो कि जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकार पैनल (आईजीपीसीसी) की रिपोर्ट में भी रेखांकित किया गया है, शायद यह हमारे अपने हित में ही होगा कि अपने ताप बिजलीघरों से जीएचजी का उत्सर्जन कम करने के उपायों की पहल हम कर दें।
हालांकि यह कहना आसान है, मगर करना मुश्किल। कोयला आधारित हमारे अधिकांश पावर प्लांट पुरानी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें ताप कुशलता 25 से 30 प्रतिशत तक ही होती है। जबकि नई तकनीक पर आधारित बिजलीघरों में यह कुशलता 35 फीसदी होती है। कम ताप कुशलता के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की दर अधिक होती है।
ग्रीन हाउस गैसों को घटाने के लिए प्राय: कम ही कोशिश की जाती है, क्योंकि इसकी वजह से प्लांट की लागत 15 से 25 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। 40 प्रतिशत से अधिक ताप कुशलता प्रदान करने वाली फ्लयूडाइस्ड बेड कम्बशन, सुपरक्रिटिकल बायलर्स और इंटीग्रेटेड गैसीफायर कम्बाइंड साइकल जैसी अत्याधुनिक तकनीकों की भारत में अब तक व्यावसायिक स्तर पर शुरुआत भी नहीं हुई है।
भविष्य में बिजली उत्पादन की क्षमता बढ़ाए जाने पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन बढ़ने की चुनौती से निपटने के लिए केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय को निम्नलिखित कदम उठाने की जरूरत है- सबसे पहले विशेषज्ञों का एक कोर ग्रुप स्थापित किया जाए, जो चुनौती का सामना करने के मकसद से जरूरी वित्तीय, प्रबंधकीय और तकनीकी रणनीतियां तैयार करे। फिर इस मामले में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (डीओई) से सहयोग लेने की कोशिश की जाए।
डीओई का जीवाश्म ऊर्जा कार्यालय (फॉसिल एनर्जी ऑफिस) जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को बढ़ाने वाले कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिए दो मुख्य रणनीतियों पर काम कर रहा है। इनमें से पहली है जीवाश्म ऊर्जा प्रणाली को अधिक असरदार बनाना। इसके तहत एक ऐसा सुपर बायलर बनाया गया है जो आश्चर्यजनक रूप से 94 प्रतिशत तक ताप कुशलता अर्जित करता है।
वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से रोकने के लिए इन गैसों को गिरफ्त में लेना रणनीति का दूसरा हिस्सा है। ऑफिस द्वारा तीसरी रणनीति सेंटर फॉर पावर इफीशिएंसी एंड एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन के दिशा-निर्देशानुसार अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ग्रीन हाउस गैसों के नियंत्रण पर शोध तथा पावर प्लांटों के आधुनिकीकरण के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त करना है।
अब समय आ गया है कि सभी बिजली बिलों पर हम अधिभार लगाने पर विचार भी करें। इस राशि का उपयोग ग्रीन हाउस गैसों के नियंत्रण के प्रयासों के लिए किया जाए। बिजली की अधिक खपत करने वाला ही परोक्ष रूप से वातावरण में अधिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जित करने के लिए जिम्मेदार है, इसलिए सैद्धांतिक रूप से यह अधिभार उचित होगा।
-लेखक जनसमस्याओं के टिप्पणीकार हैं।
http://www.bhaskar.com/2007/12/06/0712060239_greenhouse_gasse.html