सोमवार, 28 अप्रैल 2008

विनाश का पर्याय बनता विकास

बिट्टू सहगल

दृष्टिकोण. बहुत दिन नहीं हुए जब कलकल बहती स्वच्छ नदियां, हरे-भरे जंगल, उपजाऊ मिट्टी और मत्स्य संसाधनों से भरपूर तटीय इलाके भारत की शान थे। सदियों पहले भारतीय उपमहाद्वीप पर रहने वालों के लिए ये प्रकृति के उपहार थे। पिछली सदी की शुरुआत तक लगभग आधा उपमहाद्वीप घने वनों से आच्छादित था।
उस समय अगर आप जमीन पर सौ बीज बिखेरते तो संभव है कि आधे से अधिक बीज जड़ पकड़ लेते, क्योंकि उस समय देश की मिट्टी उपजाऊ, जलवायु बढ़िया और जल संसाधन प्रचुर थे। उस समय हमारा सुंदर भारत चमगादड़ों, हाथियों और तरह-तरह के पशु-पक्षियों का साझा बसेरा था और वे ही यहां के बागबान भी थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बहुत चालाकी से भारत के शोषण की साजिश रची थी। उसे ब्रिटेन के जहाजरानी उद्योग के लिए उम्दा किस्म की लकड़ी की जरूरत थी, तो पूरी दुनिया में कारोबार के लिए मसालों, कपड़ों और रंजकों की जरूरत थी। इसी वजह से उसने भारत को उपनिवेश बनाया था। अपने संकुचित स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता से दोहन किया।
साथ ही उन्होंने मानवाधिकारों का भी बुरी तरह हनन किया। इसी वजह से हमें आजादी की लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। देश को शोषण की जंजीरों से मुक्त करने के लिए ही महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस जैसे लोगों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। दुर्भाग्य से जब अंग्रेज देश छोड़कर गए, तब वे उपनिवेशीकरण के अपने संसाधन साथ नहीं ले गए। उस समय के विशेषाधिकार प्राप्त भूरे साहबों के वर्ग ने फौरी तौर पर इन संसाधनों पर कब्जा जमा लिया।
ये भूरे साहब उपमहाद्वीप के उपनिवेशीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में गोरों से भी बढ़-चढ़कर थे। इसके बाद देश की एक पूरी पीढ़ी ने विकास का वह सपना अपना लिया, जो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेजों से सीखा था और शहरी भारत ग्रामीण भारत को उपनिवेश बनाने में जुट गया।
इसके तहत देश में यह परवाह किए बिना हजारों बांध बना डाले गए कि उनसे देश को वास्तव में कोई फायदा मिल भी रहा है या नहीं। अंधाधुंध खानें खोदी गईं। डीडीटी जैसे कीटनाशकों का इतना ज्यादा छिड़काव किया गया कि कीड़े-मकोड़ों के साथ मनुष्य भी दम तोड़ने लगा। कई परमाणु बिजलीघर भी यह सोचे बगैर बना दिए गए कि इनसे निकलने वाला घातक अपशिष्ट कैसे ठिकाने लगाया जाएगा।
शहरी ग्राहकों को ऊंची कीमतों पर लकड़ी बेचने के लिए कोई भी कभी भी कुल्हाड़ी, बुलडोजर या दूसरे औजार लेकर हमारे असुरक्षित वनों को काटने पहुंच जाता है। इससे हमारे वनों में बाघों, हाथियों और प्रवासी पक्षियों को मारने और पकड़ने का अनवरत सिलसिला भी चल निकला। बर्बादी का यह सिलसिला दशकों से चल रहा है और आज भी जारी है।
यही कारण है कि आज चीता विलुप्त हो गया है और शेर विलुप्त होने की कगार पर है। और इसी कारण हम आज भी शिकारियों के हाथों रोजाना एक बाघ या तेंदुआ गंवा रहे हैं। इसी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप में आज जितनी तेजी से वन काटे जा रहे हैं उतनी तेजी से पहले कभी नहीं काटे गए। इसलिए किसी को इस बात पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि हर साल लाखों एकड़ उपजाऊ भूमि बंजर में बदलती जा रही है।
आज देश में कोई ऐसी नदी नहीं बची है जिसका पानी पीने के लिए सुरक्षित हो। बाढ़ और भूस्खलन हमारे यहां रोजमर्रा की बात हो गई है और जब-तब पड़ने वाला सूखा अर्थशास्त्रियों के भ्रामक आकलनों का मजाक उड़ाता है। हमारे देश का सकल राष्ट्रीय उत्पाद और प्रतिव्यक्ति आय बढ़ रही है लेकिन सकल प्राकृतिक उत्पाद घट रहा है।
इन सबमें सबसे ऊपर यह है कि हमारे समुद्र तटीय इलाकों, नदियों व तालाबों में मछलियां पकड़े जाने की दर में तेजी से गिरावट आ रही है। इस कारण से एक समय आत्मनिर्भर रहे लाखों मछुआरे और किसान अस्तित्व बचाने के लिए शहरों की ओर भाग रहे हैं। अब तक तीन करोड़ से भी अधिक लोग बांधों, खदानों और बड़ी परियोजनाओं के कारण उजड़ चुके हैं और वे अब शहरी गंदी बस्तियों में जीवन बसर करने के लिए मजबूर हैं। कभी वे कहते थे कि हम फिर वन विकसित करेंगे और कृत्रिम नदियां बहाएंगे। अब वे विकास के नाम पर देश की पारिस्थितिकी की चिंता को बाला ए ताक रख चुके हैं।
इन हालात में अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों के वास्ते देश के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिए आज दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन को शुरू करने की जरूरत है। आज हम एक परमाणु बिजलीघर बनाकर उसके अपशिष्टों को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी अपने बच्चों पर नहीं डाल सकते। ऐसा करना अपने बच्चों के स्वास्थ्य, खुशी और सुरक्षा का उपनिवेशीकरण करना होगा। जंगल, मिट्टी और नदियों के जल का हमेशा के लिए लुप्त हो जाना भी एक तरह के उपनिवेशीकरण का ही नतीजा है।
युवा पहले की तुलना में आज ज्यादा प्रतिबद्ध हैं। दस लाख से अधिक बच्चे देश के राष्ट्रीय पशु बाघ को बचाने की बात कर रहे हैं। वे अपने स्कूलों में अपशिष्टों के रिसाइकल, जल के दुरुपयोग को रोकने और ऊर्जा के उपभोग को कम करने के लिए भी अभियान चला रहे हैं। आज हरेक राजनीतिक दल के घोषणापत्र में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा शामिल करने का प्रेस और जनता की ओर से काफी दबाव है। भले ही ये राजनीतिक दल पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कुछ न करें पर दावे सभी दलों की ओर से किए जा रहे हैं।
आज जब पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, वन अधिकार कानून में की गई पिछली गलतियों को सुधारने की जरूरत है। इस कानून को गलत और अकुशल तरीके से लिखा गया था, जिस कारण से सुरक्षा तंत्र पर इसका खास प्रभाव नहीं पड़ा। यहां तक कि इस कानून के द्वारा वनवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। इस कानून की खामियों का फायदा उठाते हुए कोई झींगापालक किसान, कोई खदान मालिक या पर्यटन व्यवसाय में लगा व्यक्ति भी वनवासी होने का दावा कर सकता है क्योंकि इस कानून में वनवासी की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई है।
साथ ही भू माफिया वनों की जमीन को झपटने के फेर में हैं। इन्ही कारणों से कुछ लोग भारत के वनों और आदिवासियों के अधिकारों को संरक्षित करने की हिमायत कर रहे हैं और इस संबंध में कारगर नए कानून बनाने के लिए वे सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देने जा रहे हैं। अगर वे देश के वनों के संबंध में नए कानून बनवा पाने में नाकाम रहे तो वनों केविनाश का खमियाजा आने वाली पीढ़ियां भी चुकाएंगी।
http://www.bhaskar.com/2008/02/14/0802140030_edit.html

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