मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

अप्रभावी है, पर्यावरण प्रभाव आंकलन का कानून

सन् 1994 में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण प्रभाव आंकलन उर्फ ‘इनवायर्नमेंट इम्पेक्ट असेसमेंट’ (ई.आई.ए.) पर एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके अनुसार औद्योगिक तथा विकासपरक गतिविधियों की खातिर केन्द्र सरकार की पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए आंकलन अनिवार्य हो गया है। इसमें परियोजनाओं के संभावित पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करना होता है ताकि संभावित लागत तथा उसके लाभों को सुनिश्चित किया जा सके। इस सारी कवायद का उद्देश्य पर्यावरण तथा सामाजिक नुकसानों को कम या उन प्रभावों को न्यूनतम करना है जिन्हें संशोधनों के पैबंद लगा दिए गए हैं। इस बारे में उत्तरांचल स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘अकेडमी फार माउंटेन एनवायरोनिक्स’ के प्रमुख श्रीधर आर, कहते हैं कि सार्वजनिक सुनवाई की अनिवार्यता जैसे कुछ संशोधन अच्छे हैं लेकिन अन्य अधिकांश संशोधनों ने मूल अधिसूचना को कमजोर ही बनाया है। समय परियोजनाओं के स्थल चयन के साथ शुरू होती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना के मुताबिक केवल 8 प्रकार की परियोजनाओं में ही स्थल चयन की आवश्यकता है जबकि अधिकांश मामलों में परियोजना की जगह का सर्वाधिक महत्व होता है ताकि पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों को न्यूनतम किया जा सके। लोगों को सूचित किए बिना परियोजना स्थलों को चुनने से उनका प्रभाव पड़ता है। शायद इसीलिए लोग शुरूआत से ही इससे असहमत होते हैं।
इसके बाद आती है पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ई.आई.ए.) रिपोर्ट की तैयारी और लागू करने की। नियमानुसार किसी भी एजेंसी की परियोजना प्रस्तावक यह कार्य सौंप सकता है। ऐसे में यह एजेंसी प्रस्ताव की समर्थक हो जाती है। एक गैर-सरकारी संगठन ‘दिल्ली फोरम’ के सुपर्णो लाहिड़ी प्रश्न उठाते हैं कि जब कोई आपको रिपोर्ट तैयार करने के लिए पैसे देता है तो क्या आप उसके विरुद्ध फैसला देंगे? कई बार तो ऐसा भी होता है कि जांच एजेंसी नियमानुसार खुद आंकड़े इकट्ठे करने की जहमत तक नहीं उठाती और वह परियोजना प्रस्तावक द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को ही स्वीकार कर लेती है। उद्योगों की ‘ई.आई.ए.’ रिपोर्ट भी किसी समस्या से कम नहीं होती। उदाहरण के लिए जिस किस्म की मशीनें और तकनीकें लगाई जाती हैं, उसे एक महत्वपूर्ण मापदण्ड नहीं माना गया है। उन कंपनियों को भी मंजूरी दी गई है जो बरसों पुरानी तकनीक स्थापित करती है। इसी तरह मात्र 32 उद्योगों को सर्वोच्च प्रदूषण फैलाने वाले मानते हुए उनके लिए ‘ई.आई.ए.’ की अनिवार्यता लागू की गई। इन्हें ऐसे उद्योग माना गया है जिनका पर्यावरण और लोगों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। लेकिन चन मापदण्ड में उन उद्योगों पर विचार नहीं किया गया है जिनकी आपूर्ति या उत्पाद पर्यावरण पर असर डालते हैं। इस वर्ग में आने वाले बोतल बंद पानी और शीतल पेय उद्योगों को बख्श दिया गया है जो भूजल को उलीचते हैं और आस-पास के वातावरण पर भी भारी प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण मंजूरी की संपूर्ण प्रक्रिया में जन सुनवाई द्वारा जन भागीदारी अनिवार्य है लेकिन इसे पूरी तरह नकार दिया जाता है और अधिकांश मामलों में निश्चित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए ‘रायगढ़ जिला बचाओ संघर्ष मोर्चा’ रायगढ़ (छत्तीसगढ़) के रमेश अग्रवाल कहते हैं - ‘छत्तीसगढ़ में जिंदल स्टील और पावर लिमिटेड के विस्तार में स्थानीय प्रशासन ने सार्वजनिक सुनवाई हेतु यथोचित नोटिस जारी नहीं किए थे।’ जन सुनवाई अधिकांशतः जिला मुख्यालय पर की जाती है जो प्रभावित क्षेत्रों से काफी दुर होता है। इससे प्रभावित लोगों की भागीदारी पर कुठाराघात होता है। कई मौकों पर परियोजना प्रस्तावक के कार्यालय में ही जनसुनवाई होती है जिसका प्रभाव क्या होता होगा, आसानी से समझा जा सकता है। वैसे भी परियोजना प्रस्तावकों को अपने पक्ष में भीड़ इकट्ठा करने में महारत होती है। सुनवाई पूरी हो जाने के पश्चात राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा रिपोर्ट तैयार की जाती है। इस रिपोर्ट में सुनवाई के दौरान उठाए गए सभी मुद्दों में घालमेल कर दिया जाता है और फिर इसे पर्यावरण तथा वन मंत्रालय को भेजा जाता है। यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाती इसलिए पूरी प्रक्रिया में प्रभावित लोग किसी भी तरह नहीं जान पाते कि इसमें इनके मुद्दे भी शामिल किए गए हैं या नहीं। अंतिम रूप में मंजूरी देने से पहले पर्यावरण तथा वन मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति इस रिपोर्ट को देखती है लेकिन ऐसा किया जाना कानूनी रूप से जरूरी नहीं है। इसलिए यदि किसी प्रकरण में सार्वजनिक सुनवाई की रिपोर्ट परियोजना के प्रतिकूल हो, जो कि शायद ही कभी होता है, तो भी मंत्रालय अंतिम मंजूरी दे सकता है।हिमाचल प्रदेश की पार्वती - एक और चमेरा-तीन जल विद्युत परियोजनाओं के साथ यही हुआ था। इस बारे में ‘साउथ एशियन नेटवर्क आन डेम्स, रिवर्स एण्ड पीपुल (सैन्ड्रप)’ के हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि ‘दोनों ही मामलों में सार्वजनिक सुनवाई में ‘ई.आई.ए.’ मापदण्डों और सार्वजनिक सुनवाई अधिसूचनाओं का उल्लेखन हुआ है।’ इतना ही नहीं, राज्य सरकार से मंजूरी प्राप्त न होने के बावजूद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में चमेरा-तीन और पार्वती-तीन को हरी झण्डी दे दी थी। दोनों ही मामलों में एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम ‘नेशनल हाइड्रो पावर कार्पोरेशन’ (एन.एच.पी.सी) प्रस्तावक था जबकि ऐसे मामलों में परियोजना को राज्य सरकार के माध्यम से प्रस्तावित किया जाना चाहिए। मंजूरी से असंतुष्ट समूहों और व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अपील प्राधिकरण (एन.ई.ए.ए) के रूप में एक सुधार प्रक्रिया उपलब्ध है जिसका गठन पर्यावरण मंजूरी से संबंधित शिकायतों के निवारण के लिए 1997 में किया गया था। इस प्राधिकरण में एक अध्यक्ष (उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश), एक उपाध्यक्ष (सचिव स्तर के एक अधिकारी) और तीन तकनीकी सदस्य होते हैं, लेकिन पिछले पांच वर्षों से इस प्राधिकरण को कोई प्रमुख नहीं है, दो सालों से यहां तक भी तकनीकी सदस्य नहीं है और उपाध्यक्ष का कार्यकाल पिछली जुलाई में समाप्त हो चुका है। 1997 से 2003 के दौरान इसके समक्ष केवल 15 मामले दर्ज किए गए थे, लेकिन किसी भी प्रकरण में मंजूरी के विरुद्ध दिए गए आदेश को कोई परिणाम नहीं निकला। 2004 में तो इसके समक्ष एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया था। असंतुष्ट पक्ष को मंजूरी से 30 दिन या देरी का कारण बताने पर 90 दिनों के भीतर आपत्ति दाखिल करना होता है। इस बारे में श्री लाहिड़ी कहते हैं कि दूरस्थ इलाकों में रहने वाले प्रभावित लोग इस अंतिम तिथि के भीतर अपनी आपत्तियां दर्ज नहीं कराते हैं कि मंजूरी-पत्र कब जारी किया गया है। जब तक उन्हें खबर मिलती है, काफी देर हो चुकी होती है। हाल ही में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इस प्रक्रिया में बदलाव का प्रस्ताव किया है लेकिन इससे भी सुधार असंभव है। इसका प्रमुख कारण है कि यह प्रक्रिया अत्यधिक ढीली-ढाली है। पर्यावरण आंकलन रिपोर्ट में आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं वो अपर्याप्त होते हैं। इसके अनुमोदन को लेकर इतने भारी दबाव आते हैं कि मंत्रालय में बैठे लोग अपर्याप्त जानकारी के बावजूद सिर्फ हां ही कह देते हैं। इतना नहीं ई.आई.ए./ई.एम.पी. रिपोर्टों का स्तर भी बहुत ही कमजोर होता है। इसमें पर्यावरण तथा वन मंत्रालय और राज्यों के प्रदूषण निवारण डलों की प्रक्रियाएं इतनी पेचीदा हैं कि इससे भी देरी होती है। प्रस्तावित बदलावों में जो प्रावधान हैं उनसे यह ढर्रा तो ठीक होने से रहा। वे तो मंजूरी की प्रक्रिया और सरल कर इसकी अवधि ही घटाना चाहते हैं। प्रस्तावित बदलावों में कुछ परियोजनाओं को मंजूर करने का दायित्व राज्य सरकारों को सौंपकर प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण की वकालत भी की गई है लेकिन निर्णय लेने के विकेन्द्रीकरण के साथ ही क्षमता निर्माण का भी विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। पर्यावरण मंजूरी में सुधार एकदम शुरूआत से ही होने चाहिए। इनमें वे प्राधिकरण भी शामिल होना चाहिए जो इस सारी प्रक्रिया को संभालता है। सारी कवायद में पर्यावरण मंत्रालय सर्वोच्च बना रह सकता है, लेकिन अधिकांश प्रक्रियात्मक कार्य राज्य स्तरीय पर्यावरण आंकलन प्राधिकरण को दिए जाने की आवश्यकता है। राज्य आंकलन प्राधिकरण या तो एक स्वतंत्र निकाय होना चाहिए या फिर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक अंग। इस तरह के ढांचे को यथोचित क्षमता निर्माण की आवश्यकता है, जिसके लिए इसे उच्चतम तकनीकी की जरूरत होगी। परियोजना प्रस्तावक को अपने प्रस्ताव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तथा राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्राधिकरण, दोनों को ही प्रस्तुत करना चाहिए। प्रस्ताव में न केवल परियोजना के औचित्य को स्पष्ट करना चाहिए बल्कि इसके साथ अन्य विकल्पों का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहिए। इसके साथ-साथ परियोजना रहित परिदृश्य भी प्रस्तुत करना चाहिए तथा यह स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर चुनी गई जगह ही सबसे अच्छी क्यों है? इसमें परियोजना के विकल्प तथा उपयोग में लाई जाने वाली तकनीकी प्रक्रिया का भी खुलासा किया जाना चाहिए। प्रस्तावों तथा विकल्पों का मूल्यांकन करने के बाद राज्य स्तरीय, पर्यावरण आंकलन प्राधिकरण को स्थल चयन के प्रश्न से निपटना चाहिए। यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि स्थल चयन केवल ‘ई.आई.ए.’ अध्ययन तक ही सीमित होगा तथा इसे परियोजना की मंजूरी के रूप में नहीं माना जाएगा। यदि आवश्यक हुआ तो प्राधिकरण सदस्य प्रस्तावित स्थल का दौरा भी कर सकते हैं।

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