दृष्टिकोण. यह मानते हुए कि देश की बढ़ती आबादी सन 2030 तक तकरीबन 1.35 अरब का आंकड़ा छू लेगी, विकास के कुछ न्यूनतम मानदंड हासिल करने के लिए अगले बीस वर्षो के दौरान भारत का औसत जीडीपी आठ प्रतिशत से ऊपर संयुक्त वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) में रहना जरूरी है। योजना आयोग की समग्र ऊर्जा नीति रिपोर्ट के मुताबिक इसका अर्थ यह है कि 2030 तक भारत को बिजली का अपना उत्पादन मौजूदा 128000 मेगावाट से 800000 मेगावाट की क्षमता तक बढ़ाने की जरूरत है।
देश में फिलहाल 80 फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले से किया जाता है और आने वाले वर्षो में ईंधन का प्रमुख स्रोत कोयला ही बना रहने वाला है क्योंकि लक्षित ऊर्जा उत्पादन के लिए हमारे पास इसका पर्याप्त भंडार है। बिजली के अन्य घरेलू स्रोत या तो अपर्याप्त हैं या विशाल क्षमता वाले बिजलीघरों में इस्तेमाल करने के लिए व्यावहारिक नहीं हैं। बदकिस्मती से, जिन पावर प्लांटों में कोयले का इस्तेमाल किया जाता है वहां से कार्बन डाइऑक्साइड का अत्यधिक उत्सर्जन होता है, जो ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) का मुख्य घटक है।
ग्लोबल वार्मिग के लिए ग्रीन हाउस गैसों को ही जिम्मेदार माना जाता है। भारत के लिए यह एक विकट असमंजस की स्थिति है। या तो अपने जीडीपी की विकास दर पर लगाम लगाते हुए देशवासियों के निचले जीवनस्तर से यह काम चलाए और अगले 20 वर्षो के दौरान 25 करोड़ लोगों के लिए निर्मित होने वाली रोजगार की मांग पर कोई ध्यान न दे, या फिर कोयला आधारित पावर प्लांटों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम करे। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बाली में जारी संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस(यूएनएफसीसी) में बहस का मुख्य विषय ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है।
निश्चित ही भारत यह तर्क दे सकता है कि विकसित देशों की तुलना में प्रतिव्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन यहां काफी कम है। अमेरिका में प्रतिव्यक्ति यह दर जहां 20 टन और यूरोपीय संघ के देशों में 10 से 15 टन तक है, वहीं भारत में यह दर सालाना सिर्फ एक टन है।
ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन की अगर बात की जाए तो भारत इस मामले में पांचवां सबसे बड़ा और दूसरा सबसे तेज रफ्तार मुल्क बन चुका है। दुनिया के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में भारत का हिस्सा छह प्रतिशत है। हमारा बिजली उत्पादन कार्यक्रम उपरोक्तानुसार चलता रहा, तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में 2030 तक चीन के बाद हम दूसरे सबसे बड़े देश होंगे।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) विकासशील देशों से पहले ही आग्रह कर चुका है कि वर्ष 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 20 फीसदी कमी ले आएं। भारत के योजना आयोग ने इस सुझाव को अनुचित बताते हुए अमान्य कर दिया है।
यह ध्यान में रखते हुए कि भविष्य में ग्लोबल वार्मिग का सबसे बुरा असर झेलने वाले देशों में भारत शुमार होगा, जो कि जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकार पैनल (आईजीपीसीसी) की रिपोर्ट में भी रेखांकित किया गया है, शायद यह हमारे अपने हित में ही होगा कि अपने ताप बिजलीघरों से जीएचजी का उत्सर्जन कम करने के उपायों की पहल हम कर दें।
हालांकि यह कहना आसान है, मगर करना मुश्किल। कोयला आधारित हमारे अधिकांश पावर प्लांट पुरानी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें ताप कुशलता 25 से 30 प्रतिशत तक ही होती है। जबकि नई तकनीक पर आधारित बिजलीघरों में यह कुशलता 35 फीसदी होती है। कम ताप कुशलता के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की दर अधिक होती है।
ग्रीन हाउस गैसों को घटाने के लिए प्राय: कम ही कोशिश की जाती है, क्योंकि इसकी वजह से प्लांट की लागत 15 से 25 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। 40 प्रतिशत से अधिक ताप कुशलता प्रदान करने वाली फ्लयूडाइस्ड बेड कम्बशन, सुपरक्रिटिकल बायलर्स और इंटीग्रेटेड गैसीफायर कम्बाइंड साइकल जैसी अत्याधुनिक तकनीकों की भारत में अब तक व्यावसायिक स्तर पर शुरुआत भी नहीं हुई है।
भविष्य में बिजली उत्पादन की क्षमता बढ़ाए जाने पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन बढ़ने की चुनौती से निपटने के लिए केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय को निम्नलिखित कदम उठाने की जरूरत है- सबसे पहले विशेषज्ञों का एक कोर ग्रुप स्थापित किया जाए, जो चुनौती का सामना करने के मकसद से जरूरी वित्तीय, प्रबंधकीय और तकनीकी रणनीतियां तैयार करे। फिर इस मामले में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (डीओई) से सहयोग लेने की कोशिश की जाए।
डीओई का जीवाश्म ऊर्जा कार्यालय (फॉसिल एनर्जी ऑफिस) जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को बढ़ाने वाले कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिए दो मुख्य रणनीतियों पर काम कर रहा है। इनमें से पहली है जीवाश्म ऊर्जा प्रणाली को अधिक असरदार बनाना। इसके तहत एक ऐसा सुपर बायलर बनाया गया है जो आश्चर्यजनक रूप से 94 प्रतिशत तक ताप कुशलता अर्जित करता है।
वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से रोकने के लिए इन गैसों को गिरफ्त में लेना रणनीति का दूसरा हिस्सा है। ऑफिस द्वारा तीसरी रणनीति सेंटर फॉर पावर इफीशिएंसी एंड एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन के दिशा-निर्देशानुसार अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ग्रीन हाउस गैसों के नियंत्रण पर शोध तथा पावर प्लांटों के आधुनिकीकरण के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त करना है।
अब समय आ गया है कि सभी बिजली बिलों पर हम अधिभार लगाने पर विचार भी करें। इस राशि का उपयोग ग्रीन हाउस गैसों के नियंत्रण के प्रयासों के लिए किया जाए। बिजली की अधिक खपत करने वाला ही परोक्ष रूप से वातावरण में अधिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जित करने के लिए जिम्मेदार है, इसलिए सैद्धांतिक रूप से यह अधिभार उचित होगा।
-लेखक जनसमस्याओं के टिप्पणीकार हैं।
http://www.bhaskar.com/2007/12/06/0712060239_greenhouse_gasse.html