रविवार, 18 मई 2008

ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ बने वैश्विक नीति

सुनीता नारायण (निदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट
90 के दशक के शुरूआती दौर की वह घटना मुझे याद आती है जब बीबीसी टेलीवीजन के एक जर्नलिस्ट में मुझसे पूछा था कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का कौन सा क्षेत्र है जहां जाकर उनकी टीम शूटिंग कर सके। उसके इस सवाल पर आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा था कि क्या भारत भी जलवायु परिवर्तन की चपेट में आ रहा है? लेकिन अब मैं सोचती हूं कि अगर मुझसे इसी तरह का सवाल आज फिर पूछा जाए तो मेरे पास ऐसे तमाम इलाकों की काफी लंबी फेहरिस्त मौजूद है जहां जलवायु परिवर्तन का असर साफ–साफ देखा गया। इनमें गत वर्ष बारिश की चपेट में आए मुंबई, बंगलुरू जैसे कई मेट्रोपॉलिटन शहरों से लेकर ऐसे कई क्षेत्रों के नाम हैं जहां भीषण गर्मी और बर्फबारी जैसे गैर मामूली परिवर्तन देखने को मिले।
क्या महज यह कह देने से हमारी जिम्मेदारियों से इतिश्री हो जाएगी कि यह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का असर है? भारत चूंकि एक विशाल क्षेत्रफल वाला देश है जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार वर्षा जल पर होता है। देश की कृषि योग्य जमीन का 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो वर्षा जल पर निर्भर है या भूजल पर। घरेलू जरूरतों, सिंचाई तथा पीने के लिए पानी हमें मौसमी बारिश से ही मिलता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में उत्पन्न हो रही अनिश्चितता से लोग कैसे जूझ पाएंगे? फिर जिस तरह गन्ने, गेहूं तथा चावल की फसलों की सिंचाई के लिए गहरे ट्यूबवेल बनाकर भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नहीं पहुंच जाएगा?
पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे तब हालात नहीं सुधरेंगे। उदाहरण के तौर पर यहां महाराष्ट्र के अहमदनगर जिला के हिवारे बाजार गांव का जिक्र करना बेहतर होगा। यहां ‘चोर के हाथ में चाबी देने’ वाली कहावत चरित्रार्थ होती प्रतीत होती है। 15 साल पहले तक सूखा ग्रस्त इस गांव में सिवाए पलायन के लोगों के पास कोई दूसरा चारा नहीं था लेकिन 90 के दशक में वैज्ञानिक सोच और सरकारी योजनाओं के सही क्रियान्वयन के बाद बदलाव की बयार आई तो यह गांव आज समृद्ध दिखने लगा।
आज बोतलबंद पानी का उघोग पूरी दुनिया में फल-फूल रहा है। एक आंकड़े के अनुसार सन 2006 में अमेरिका में 11 बिलियन यानी 1.1 करोड़ डॉलर का पानी बेचा गया। अमेरिका में प्रतिदिन लगभग 60 मिलियन यानी 6 करोड़ पानी की प्लास्टिक बोतल फेंकी जाती हैं जिसकी रिसाइक्लिंग में बेतहाशा प्रदूषण को देखते हुए कुछ महीनों पहले सैन फ्रांसिस्को के मेयर ने सरकारी भवनों में इनकी बिक्री पर पाबंदी लगा दी। साल्ट लेक सिटी ने भी सरकारी कार्यक्रमों में में बोतल बंद पानी पर पाबंदी लगा दी तथा न्यूयार्क शहर में 10 लाख डॉलर के खर्च का एक अभियान चलाकर लोगों को सार्वजनिक पानी पीने के प्रति जागरूक किया गया। अमेरिका में एक मौके पर तो मशहूर पेय पदार्थ कंपनी पेप्सी को कबूल करना पड़ा कि उसके बोतलबंद ब्रांड एक्वाफिना का पानी महज टैप वाटर से ज्यादा कुछ नहीं है। भारत दुनिया में बोतलबंद पानी का दसवां सबसे बड़ा उपभोक्ता है। हालांकि भारतीय परिदृश्य बोतलबंद पानी के मामले में भिन्न है और यह हमारी बहुत बड़ी विडम्बना है कि लोग प्यास बुझाने के लिए अपनी औकात से ज्यादा पैसा चुकाकर बोतलबंद पानी पीने को मजबूर हैं क्योंकि यहां सार्वजनिक वितरण वाला जल पीने योग्य नहीं है। भारत में इन कंपनियों को पानी जल निकायों से नहीं भूजल से मिलता है जो इसका अथाह दोहन कर रही हैं। मिसाल के तौर पर जयपुर के नजदीक सूखा ग्रस्त इलाके काला डेरा में बने कोका कोला प्लांट के लिए कंपनी को सिर्फ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को बेकार पानी को बहाने का खर्च देना पड़ता है यानी जो किनले की बोतल हम तक 12 रूपये में पहुंचती है, उसके लिए यह राज्य सरकार को मात्र 0.02–0.03 पैसे चुकाते हैं। ऊपर से प्लास्टिक कचरे का जो पहाड़ हो रहा है और उससे पर्यावरण पर जो असर पड़ रहा है, उसकी तो किसी को चिंता ही नहीं है।
सिंचाई के मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं और राज्य सरकारों ने ही नदियों पर बांध, नहर वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन तो अपने पास रखा है लेकिन आज भी लोग सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाई हिस्से की सिंचाई भूजल से ही की जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रोत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार करके सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35–40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से 65–70 प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वर्षा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैश्विक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले 17 सालों से बड़ी–बड़ी संधियां होती हैं और वादे किए जाते हैं लेकिन रहती सब बेनतीजा ही हैं। हाल में हुई बाली संधि भी बेनतीजा रही। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंत्रण के वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता। अमेरिका, जापान, कनाडा तथा न्यूजीलैंड जैसे कई विकसित देश यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक चीन, भारत, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देश प्रदूषण नियंत्रण के उपाय नहीं करते।प्रस्तुति: मोहम्मद शहजाद
http://www.rashtriyasahara.com/NewsDetailFrame.aspx?newsid=53922&catid=35&vcatname=हस्तक्षेप

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