चंद्रभूषण
देश में खाद्यान्नों की पैदावार इस साल औसत से ज्यादा होने की पुष्टि की जा चुकी है, फिर भी गेहूं, चावल, दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों की कीमतें काबू में नहीं आ रही हैं। अन्य बातों के अलावा इसकी एक बड़ी वजह पूरी दुनिया पर मंडरा रहा खाद्यान्न संकट है। दक्षिण अमेरिकी देश हैती और अफ्रीकी देश सेनेगल के बाजारों में खाने के लिए भड़के दंगों में कई लोगों की जानें जा चुकी हैं। कई और छोटे देशों में भयंकर तनाव की स्थिति बनी हुई है। विश्व बैंक ने एक आधिकारिक बयान जारी करके कहा है कि खाद्यान्न संकट के चलते लगभग 50 देशों में इस साल दंगे-फसाद की स्थिति पैदा हो सकती है।
अपनी जरूरत से ज्यादा चावल उपजाने वाले फिलीपीन्स, म्यांमार और विएतनाम जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने संभावित खाद्य संकट को ध्यान में रखते हुए चावल निर्यात करने से मना कर दिया है। चावल के निर्यातकों में गिने जाने वाले भारत ने निर्यात पर औपचारिक रोक भले न लगाई हो लेकिन निर्यात शुल्क बढ़ाकर और 50 रूपये किलो से कम कीमत वाले चावल के निर्यात को प्रतिबंधित करके इसे बहुत मामूली स्तर पर ला दिया है। उधर गेहूं के अंतरराष्ट्रीय व्यापार की हालत भी अच्छी नहीं है। यूरोपीय देशों में गेहूं की उपज गिर जाने के कारण वहां से इसका निर्यात पिछले कई वषा से अत्यंत निचले स्तर पर चल रहा है।
सचमुच आश्चर्यजनक है कि जिस ग्लोबल वार्मिंग को हम अभी तक बौद्धिक हलकों में बहसियाई जाने वाली एक अकादमिक समस्या मानते आए हैं, वह अचानक लाखों लोगों का जीना-मरना निर्धारित करने लगी है। अपने यहां उपजने वाले चावल का 98 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करके कई देशों का पेट भरने वाले ऑस्ट्रेलिया के मरे-डालग बेसिन में पिछले दस वर्षों से पड़ा सूखा अंतरराष्ट्रीय चावल संकट का सबसे बड़ा कारण है। दरअसल, धान काफी ज्यादा पानी की मांग करने वाला धान एक उष्णकटिबंधीय फसल है, और दुनिया के बहुत कम देश ही अपना चावल बड़ी मात्रा में बेच पाने में सक्षम माने जाते हैं। सरप्लस चावल उपजाने वालों में ऑस्ट्रेलिया की जगह अव्वल मानी जाती रही है, लेकिन उसके धनहर खेतों में तो पिछले कई वर्षों से धूल उड़ रही है।
सन् 2003 में यूरोप में 48 डिग्री सेल्सियस तक चले गए तापमान और अगस्त के महीने में लगातार एक हफ्ते चली जबर्दस्त लू में 35 हजार लोगों की जान जाने की खबर हम सभी को होगी, लेकिन इस असाधारण स्थिति को एक तरफ रख दें तो भी 1990 के दशक से वहां लगातार बढ़े तापमान ने यूरोपीय खेती का क्या हाल किया है, इस तथ्य से शायद ज्यादा लोगों की वाकफियत नहीं है। गेहूं और अंगूर यूरोप के ज्यादातर इलाकों की बुनियादी फसलें मानी जाती हैं और इन दोनों का उत्पादन वहां तेजी से गिरा है।अमेरिका के पूर्व उप-राष्ट्रपति और पिछले साल के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अल गोर की बनाई फिल्म ‘डे आफ्टर टुमारो’ में अंटार्कटिका के लार्सन बी आइस शेल्फ के पिघल जाने से गल्फ स्ट्रीम धारा का बहना बंद हो जाते दिखाया गया है। इसके चलते इधर इंग्लैंड के तटीय शहरों में तबाही आ जाती है तो उधर न्यूयॉर्क स्थायी रूप से बर्फ में जमकर रह जाता है। फिल्म के माध्यम के मुताबिक चुनी गई ये कुछ आश्चर्यजनक आशंकाएं हैं, जिन्हें फिल्म में सच होते दिखाया गया है। ये इतनी आश्चर्यजनक हैं कि इनके कभी सचमुच सही साबित हो जाने पर एकबारगी यकीन नहीं होता। लेकिन जैसी कहावत है, हकीकत हमेशा कल्पना से ज्यादा आश्चर्यजनक होती है।
दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया में लंबा सुखाड़ हो जाने से दसियों हजार किलोमीटर दूर हैती और सेनेगल में दंगे भड़क उठना, या यहां भारत में ही अपनी कार्यकुशलता का ढोल पीट रही केंद्र सरकार का अचानक संकटग्रस्त दिखने लगना हकीकत का सिर्फ एक पहलू है। बहुत सारी अन्य छोटी-छोटी चीजें भी हैं, जिनका महत्व पहली बार महसूस किया जा रहा है। ब्रिटिश जीवविज्ञानी रोनाल्ड रॉस ने सौ साल पहले भारत में मलेरिया पर अपना ऐतिहासिक काम इसे एक पराई बीमारी मानकर किया था। यूरोप में मच्छरों के होने की कल्पना ही नहीं की जाती थी, लिहाजा मलेरिया से वहां के डॉक्टरों या जीवविज्ञानियों का सीधे कोई साबका पड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। लेकिन आज गर्म होते यूरोप और उत्तारी अमेरिका में न सिर्फ मच्छर और पिस्सू हैं बल्कि मलेरिया, हैजा, प्लेग और कई अन्य उष्ण-कटिबंधीय बीमारियों के मरीज वहां दर्ज किए जाने लगे हैं।
जितनी हिकारत अमेरिकी हुक्मरानों ने ग्लोबल वामग से मुकाबले के लिए तय किए गए क्योटो प्रोटोकॉल के प्रति बरती थी, वैसी पिछले साल पेरिस में हुए आईपीसीसी सम्मेलन के प्रति उनसे नहीं बरती गई। बल्कि आईपीसीसी के निष्कर्ष पर अपनी मोहर लगाते हुए ग्लोबल वामग के खिलाफ कमर कसकर उतर पड़ने का जुबानी जमाखर्च भी उन्होंने किया तो इसकी अकेली वजह यही थी कि सन् 2005 में वहां आए असाधारण चक्रवातीय तूफानों ने न सिर्फ एक समूचे शहर न्यू ऑलिएंस को नेस्तनाबूद कर दिया था बल्कि ग्लोबल वामग की प्रस्थापना को अमेरिका विरोधी साजिश बताते आए रिपब्लिक नेतृत्व की कमर तोड़कर रख दी थी।बीच-बीच में तेल कंपनियों और वाहन निर्माताओं के पे-रोल पर काम करने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् आज भी ऐसे सुर्रे छोड़ते रहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। ऐसा ही सुर्रा इन दिनों यह छूटा हुआ है कि अगले दस वषा में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तरी ध्रुव की एक पर्यावरणिक परिघटना अगले कुछ समय तक धरती के बढ़ते तापमान की लगाम थामे रहेगी। कुछ-कुछ ऐसी ही प्रस्थापनाएं टाइटनिक जहाज के डूबने से ऐन पहले तक उसके इंजीनियर और मैनेजर वगैरह भी देते रहे होंगे।
एक तरफ तेल, गैस और कोयले के दिनोंदिन रीतते भंडार इन सारी चीजों की कीमतें आसमान पर चढ़ाए जा रहे हैं, दूसरी आ॓र धरती का दम घोंट रहा इनका धुआं हजार तरीकों से इस ग्रह की जान लेने पर आमादा है। फिर भी विद्वज्जन न जाने किस अदालत से ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ दस वर्षों का ‘स्टे-ऑर्डर’ लेते आए हैं। समय आ गया है कि ऐसे खयाली उपायों के जरिए वास्तविक समस्याओं से निपट लेने का मोह हम छोड़ दें।
पहली बार हमारी संसद में अगले बीस-बाइस वर्षों में गंगा नदी के सूख जाने की आशंका को लेकर चर्चा हुई है। यह मामला सिर्फ चर्चा तक ही सिमटकर न रह जाए, इसके लिए हमें बहस इस बात पर करनी होगी कि राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ कुछ सार्थक करने के लिए हम क्या-क्या कदम उठाने के लिए, ठोस तौर पर कहें तो किस हद तक माली नुकसान बर्दाश्त करने के लिए तैयार हैं।