रविवार, 18 मई 2008

लौटना होगा अक्षय ऊर्जा की आ॓र

अनंत पद्मनाभऩ, ग्रीनपीस इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष
जलवायु परिवर्तन का असर पूरी पृथ्वी के लिए खतरनाक है। पर्यावरण दशाओं पर जारी विभिन्न रिपोर्टों का सार है कि इस सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में ढ़ाई से तीन प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। हमें प्रारंभिक तौर पर वैकल्पिक ऊर्जा के संसाधनों को अपनाने पर जोर देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। आज सारे शहरों में जिसमें भारतीय शहर भी है ऊर्जा आपूर्ति का संकट घनघोर रूप में मौजूद है।ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयला या पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा के बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार करना जरूरी है। इसमें पवन और सौर ऊर्जा पर सर्वाधिक जोर देना चाहिए। बाद में भूगर्भिक व समुद्री लहरों से बिजली पैदा करने की कोशिश की जा सकती है। हमारे यहां ही नहीं बल्कि अधिकांश देशों में कोयले और तेल आधारित बिजली उत्पादक संयंत्र ही अधिक हैं, और कोयले के भंडार दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। देश के व्यावसायिक ऊर्जा खपत की बात करें तो इसमें कोयले का योगदान करीब 67 प्रतिशत है। दरअसल अब हम विकास के खामियाजे भुगतने की राह पर हैं, अगर कुछ ही दिनों में नहीं चेता जाए तो आगे यकीनन व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त होंगी।
तमाम तकनीकी विकास के बावजूद अधिकांश देशों में मुख्यतया कोयले और पेट्रोलियम फ्यूल ही प्रयोग में आते है, इन क्षयशील संसाधनों के भरोसे अब हम अधिक दूर नहीं जा सकते। अपने देश में तो सौर, पवन, बायोमास से लगभग 6100 मेगावाट विद्युत क्षमता ही पावर ग्रीड को उपलब्ध है जो कुल संस्थापित क्षमता का मात्र साढ़े 5 प्रतिशत है। कोयला व पेट्रोलियम न सिर्फ क्षयशील ऊर्जा की प्रकृति के कारण बल्कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी काफी हानिकर हैं।
विकास के जिस राह पर हम हैं, तय है कि बिजली की मांग में अनवरत बढ़ोत्तरी होगी, और इसे पैदा करने के पारंपरिक साधनों का अगर इस्तेमाल होता रहा तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन में भी उसी रफ्तार से इजाफा होगा। अब ये संसाधन अगर क्षय उर्जा के स्रोत रहे तो इससे बिजली की मांग पूरी होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हमें कोयला व पेट्रोल आधारित ऊर्जा स्रोतों के बजाय दूसरे विकल्पों पर गौर करना जरूरी है। पवन, सौर व जैव ऊर्जा इनमें शामिल हैं। ये ऊर्जा के अक्षय भंडार हैं जो कभी खत्म नहीं होंगे। फिर इनसे प्रदूषण का खतरा भी नहीं है। इन साधनों के साथ–साथ भूगर्भिक गर्मी और समुद्री लहरों से भी बिजली बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। परमाणविक पदार्थो से बिजली बनाने में भी खतरे हैं। निर्माण के दौरान बने कचरे को खपाना भी एक समस्या है, इसके विकिरण अत्यंत घातक होते हैं इसलिए इसे नष्ट करना एक गंभीर चुनौती की तरह है।
वैसे ऊर्जा की बर्बादी अत्यंत कम हो इसके प्रयास कहीं अधिक जरूरी हैं। कम बिजली खपत करने वाले कॉम्पेक्ट फ्लोरोसेंट लैंप जैसे लाइटिंग उपकरण और न्यून ईंधन खाने वाली गाड़ियों का निर्माण होना चाहिए। फिर कंप्यूटर, फ्रीज, एयरकंडीशन जैसे 20 सर्वाधिक बिजली खाने वाले उपकरणों की जगह दूसरे कम खपत वाले विकल्पों को अगले 5–6 वर्षों मे अनिवार्य करने संबंधित नीति बने। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों व वाहने निर्माताओं को स्पष्टतया निर्देश दिए जाएं कि नई तकनीक से नियुक्त उत्पादों का ही वो निर्माण करें। 2012 तक 100 किमी के सफर में 5–6 लीटर से ज्यादा ईंधन खाने वाले गाड़ियों पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। सरकार को चाहिए कि 2010 तक अक्षय उर्जा कानून लागू करे। 2050 तक कार्बन के उत्सर्जन में 4 फीसदी की कमी करने की जरूरत है। इस मामले में सरकार दूसरे देशों को दोषी ठहराने की नीति छोड़ ध्यान अपने पर ही केंद्रित करे तो ही अच्छा है। बिजली उत्पादन में तो क्रमश: बढ़ोत्तरी करते हुए 2050 तक अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी करीब 64 प्रतिशत करने की जरूरत है। वैसी औद्यौगिक इकाईयां जो प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों व कोयले आधारित हैं पर सख्ती से लगाम हो, तभी ऊर्जा की बचत और पर्यावरण की रक्षा हम कर पाएंगे। जाहिर है यह हमारे जीवन के लिए भी जरूरी है और हानिरहित विकास के लिए भी। कई ऐसे देश हैं जो इस दिशा में बेहतर कार्य कर कर रहे हैं जैसे आस्ट्रेलिया ने अक्षय ऊर्जा कानून लागू कर परंपरागत बिजली के बल्वों पर पाबंदी लगा दी है। इसी तरह फ्रांस परमाणु ऊर्जा के जरिए ही अपनी 80 फीसद ऊर्जा प्राप्त कर रहा है। जर्मनी और डेनमार्क जैसे देश भी आदर्श स्थिति रखते हैं ये दोनों पवन ऊर्जा के क्षेत्र में आज अव्वल हैं। प्रस्तुति: प्रेम चंद यादव

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