रविवार, 18 मई 2008

ग्लोबल वार्मिंग : कुछ तथ्य मिथ नहीं वास्तविकता

दिनेश रावत
* अब तक कई लोग समझते थे कि ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती का गरमाना एक मिथ है, हकीकत नहीं। लेकिन अब दुनियाभर के वैज्ञानिक अच्छी तरह सुनिश्चित कर चुके हैं कि हां, यह एक सच्चाई है और पृथ्वी पिछले कई सालों से विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तन के अनेक संकेत दे रही है। पिछले साल 130 देशों के 2,500 वैज्ञानिक गहन शोध और अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य अथवा पूर्ण वजह मानवीय गतिविधियां हैं। मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग को अक्सर ‘एंथ्रोपोजेनिक क्लाइमेट चेंज’ भी कहा जाता है।

* 1880 के बाद से पृथ्वी के औसत तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडजीज के मुताबिक इसमें सबसे ज्यादा वृद्धि हाल के दशकों में हुई है।

* गरमाहट की रफ्तार हर साल बढ़ रही है। पिछली सदी के आखिरी दो दशक पिछले 400 सालों में सबसे गर्म दर्ज किये गये। संभवत: ये लाखों वर्षों में सबसे गर्म दशक थे। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के मुताबिक 1850 के बाद से पिछले 12 वर्षों में 11 वर्ष सबसे ज्यादा गर्म रहे।

* बढ़ते वैश्विक तापमान की सबसे ज्यादा मार आर्कटिक को झेलनी पड़ रही है। ‘मल्टीनेशनल आर्कटिक क्लाइमेट इंपैक्ट असेसमेंट’ द्वारा वर्ष 2000 से 2004 तक किये गये अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी कनाडा और पूर्वी रूस के अलास्का के औसत तापमान में वैश्विक औसत तापमान की तुलना में दोगुनी वृद्धि हुई है।

* आर्कटिक की बर्फ तेजी से गायब हो रही है और माना जा रहा है कि यह विराट हिमानी क्षेत्र सन 2040 या इससे भी पहले की गर्मियों तक पूर्णत: हिमरहित हो जाएगा। समुद्र में हर साल जमने वाली बर्फ की मात्रा में निरंतर आ रही कमी के चलते ध्रुवीय भालू जैसे जीवों का अस्तित्व पहले ही संकट में आ चुका है।

* दुनियाभर के हिमनदों (ग्लेशियर) और हिमपर्वतों की बर्फ तेजी से पिघल रही है। उदाहरण के लिए उत्तरी गोलार्द्ध स्थित मोंटाना ग्लेशियर नेशनल पार्क में 1910 में जहां 150 ग्लेशियर मौजूद थे, आज मात्र 27 बचे हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत में हिमद्रवण एक सप्ताह पहले और बर्फ का जमना एक सप्ताह बाद शुरू होने लगा है।

* मूंगा भित्ति यानी कोरल रीफ, जो कि समुद्र के जल में होने वाले किंचित तापमान-परिवर्तन तथा प्रदूषण के प्रति बेहत संवेदनशील होते हैं, का बढ़ते तापमान के कारण बहुत नुकसान हुआ है।

* कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन में उग्र मौसमी घटनाओं जैसे कि शक्तिशाली उष्णकटिबंधीय तूफान, जंगलों में आग, गर्म हवाओं का भी योगदान है।

कारण और प्रभाव

* अंधाधुंध औघोगिकीकरण, वनों के निरंतर कम होने तथा प्रदूषण के लगातार बढ़ने से वायुमंडल में जलवाष्प, कार्बन डाय ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों का जमा होना पृथ्वी की सतह पर सूर्य ऊष्मा को फंसा देता है। यानी पृथ्वी पर सूर्य से आने वाली ऊष्मा का एक बड़ा हिस्सा इन गैसों के कारण वापस अंतरिक्ष में नहीं जा पाता जिससे पृथ्वी पर गरमाहट बढ़ती है।

* मानवीय गतिविधियां जिस रफ्तार से वायुमंडल में कार्बन डाय ऑक्साइड उंडेल रही हैं, उस गति से वनस्पति और महासागर उसे सोख नहीं पाते।

* ग्रीनहाउस गैसें वर्षों तक वायुमंडल में रहती हैं जिसका मतलब है कि यदि आज इसके उत्सर्जन को रोक दिया जाए तो भी ग्लोबल को तुरंत रोकना संभव नहीं।

* कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पृथ्वी की कक्षा के प्राकृतिक चक्र यानी सूर्य परिक्रमा मार्ग के दौरान पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्यप्रकाश में वृद्धि हो सकती है। संभव है मौजूदा प्रवृत्ति की यह भी एक वजह हो। निश्चित रूप से कक्षा में बदलाव के कारण पृथ्वी हर एक लाख वर्ष में शीत और उष्ण चक्र से गुजरती है, लेकिन ऐसे बदलाव कई शताब्दियों के अंतराल पर होते हैं जबकि वर्तमान का बदलाव कुछ सौ सालों से भी कम का है।

* हाल के शोधों से इस बात के संकेत मिलते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में ‘सौर यांत्रिकता’ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

परिणाम

* अप्रैल 2007 में आईपीसीसी द्वारा जो रिपोर्ट पेश की गयी, उसमें चेतावनी दे गयी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बड़े स्तर पर जल और खाघान्न की कमी हो सकती है तथा वन्य जीवन पर इसका घातक प्रभाव पड़ेगा।

* इस सदी के अंत तक समुद्रों का जलस्तर 7 से 23 इंच (18 वे 59 सेंटीमीटर) तक बढ़ सकता है। सिर्फ 4 इंच की बढ़ोतरी से ही कई दक्षिणी समुद्री द्वीपों में बाढ़ की स्थिति आ सकती है और दक्षिण पूर्व एशिया का विस्तृत भूभाग जलमग्न हो सकता है।

* लाखों की जनसंख्या में लोग समुद्रों के औसत जलस्तर से तीन फीट नीचे के दायरे में आ सकते हैं। दुनिया की ज्यादातर जनसंख्या समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहती है।

* पूरी दुनिया में ग्लेशियर पिघलेंगे जिससे समुद्र का जलस्तर तो बढ़ेगा ही, उन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाएगी जो जिनके लिए ये ग्लेशिय पेजजल के स्रोत थे।

* दुनिया के कई हिस्सों में शक्तिशाली तूफान, बाढ़, तापतरंग (हीट वेव्स), दावानल जैसी प्राकृतिक आपदाएं रोजमर्रा की बात हो जाएंगी। मरूभूमि के बढ़ने से कई स्थानों पर खाघान्न की कमी हो जाएगी।

* पारिस्थितिकी में आने वाले परिवर्तनों, समुद्र के आम्ल होने तथा आवास खत्म होने से 10 लाख से ज्यादा प्रजातियों विलुप्ति होने के कगार पर पहुंच जाएंगी।* महासागरों की संचरण प्रणाली जिसे ‘आ॓शन कन्वेयर बेल्ट’ कहा जाता है, स्थायी रूप से बदल सकती है जिससे पश्चिमी यूरोप में ‘लघु हिमयुग’ आ सकते हैं।

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