गुरुवार, 28 अगस्त 2008

नीम


पौराणिक भाई जहां पर भारत की तीन नदियां (गंगा, यमुना और सरस्वती) मिलती हैं, उस स्थान को तीर्थराज, त्रिवेणी व प्रयागराज कहते हैं - वहां स्नान करने व उसकी तीर्थ यात्रा करने से सब पापों से छुटकारा मिल जाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह बात तो सर्वथा मिथ्या है। किन्तु नीम, पीपल और वट (बड़) इन तीनों वृक्षों को एक साथ एक ही स्थान पर लगाने की बहुत ही पुरानी परिपाटी भारतवर्ष में प्रचलित है और इसे भी त्रिवेणी कहते हैं।
इन तीन वृक्षों की त्रिवेणी का औषध रूप में यदि यथोचित रूप में सेवन किया जाये तो बहुत से भयंकर शारीरिक रोगों से छुटकारा पाकर मानव सुख का उपभोग कर सकते हैं । ये तीनों ही वृक्ष अपने रूप में तीन औषधालय हैं । इसीलिये भारतवर्ष के लोग इसका न जाने बहुत प्राचीनकाल से नगरों में, ग्रामों में, सड़कों पर, तड़ाग व तालाबों पर सर्वत्र ही इनको आज तक लगाते आ रहे हैं । इसको धर्मकृत्य व पुण्यकार्य समझकर बहुत ही रुचि से इन वृक्षों को लगाते तथा जलसिंचन करते हैं तथा बाड़ लगाकर इनकी सुरक्षा का सुप्रबंध भी करते हैं।

निम्ब: (नीम)

नीम कड़वा व कड़वे रस वाला, शीत (ठंडा), हल्का, कफरोग, कफपित्त आदि रोगों का नाशक है । इसका लेप और आहार शीतलता देने वाले हैं । कच्चे फोड़ों को पकाने वाला और सूजे तथा पके हुए फोड़ों का शोधन करने वाला है । राजनिघन्टु में इसके गुण निम्न प्रकार से दिये गए हैं : नीम शीतल, कडुवा, कफ के रोगों को तथा फोड़ों, कृमि, कीड़ों, वमन तथा शोथ रोग को शान्त करने वाला है। बहुत विष और पित्त दोष के बढे हुए प्रकोप व रोगों को जीतने वाला है और हृदय की दाह को विशेष रूप से शान्त करने वाला है। बलास तथा चक्षु संबंधी रोगों को जीतने वाला है।


बलास फेफड़ों और गले के सूजन के रोगों का नाम है। इसको भी निम्ब दूर करता है । बलास में क्षय यक्ष्मा तथा श्वासरोग के समान कष्ट होता है।

नीम के पत्ते नेत्रों को हितकारी, वातकारक, पाक में चरपरे, सर्व की अरुचि, कोढ, कृमि, पित्त तथा विषनाशक हैं। नीम की कोमल कोंपलें व कोमल पत्ते संकोचक, वातकारक तथा रक्तपित्त, नेत्ररोग और कुष्ठ को नष्ट करने वाले हैं।

नीम के फल कड़वे, पाक में चरपरे, मलभेदक, स्निग्ध, हल्के, गर्म और कोढ, गुल्म बवासीर, कृमि तथा प्रमेह को नष्ट करने वाले हैं। नीम के पके फलों के ये गुण हैं: पकने पर मीठी निम्बोली (फल) रस में कड़वी, पचने में चरपरी, स्निग्ध, हल्की गर्म तथा कोढ, गुल्म, बवासीर, कृमि और प्रमेह को दूर करने वाली है।

नीम के फूल पित्तनाशक और कड़वे, कृमि तथा कफरोग को दूर करने वाले हैं।

नीम के डंठल कास (खांसी), श्वास, बवासीर, गुल्म, प्रमेह-कृमि रोगों को दूर करते हैं।

निम्बोली की गिरी कुष्ठ और कृमियों को नष्ट करने वाली हैं। नीम की निम्बोलियों का तेल कड़वा, चर्मरोग, कुष्ठ और कृमिरोगों को नष्ट करता है।

निम्बादिचूर्ण : नीम के पत्ते 10 तोले, हरड़ का छिलका 1 तोला, आमले का छिलका 1 तोला, बहेड़े का छिलका 1 तोला, सोंठ 1 तोला, काली मिर्च 1 भाग, पीपल 1 तोला, अजवायन 1 तोला, सैंधा लवण 1 तोला, विरिया संचर लवण 1 तोला, काला लवण 1 तोला, यवक्षार 2 तोले - इन सब को कूट छान कर रख लें। इसको प्रात:काल खाना चाहिये। मात्रा 3 माशे से 6 माशे तक है। यह विषम ज्वरों को दूर करने के लिए सुदर्शन चूर्ण के समान ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इसके सेवन से प्रतिदिन आने वाला, सात दिन, दस दिन और बारह दिन तक एक समान बना रहने वाला धातुगत ज्वर और तीनों रोगों से उत्पन्न हुआ ज्वर - इन सभी ज्वरों में इसके निरंतर सेवन से अवश्य लाभ होता है।

नीम का मलहम : नीम का तैल 1 पाव, मोम आधा पाव, नीम की हरी पत्तियों का रस 1 सेर, नीम की जड़ की छाल का चूर्ण 1 छटांक, नीम की पत्तियों की राख आधा छटांक। एक लोहे की कढाई में नीम का तैल, नीम की पत्तियों का रस डालकर हल्की आंच पर पकायें। जब जलते-जलते छटांक, आधी छटांक रह जाये तब उसमें मोम डाल दें। जब मोम गलकर तैल में मिल जाये तब कढाई को चूल्हे से नीचे उतार लेवें। फिर नीम की छाल का चूर्ण और नीम की पत्तियों की राख उसमें मिला देवें। यह नीम का मलहम बवासीर के मस्सों, पुराने घाव, नासूर जहरीले घावों पर लगाने से बहुत लाभ करता है। यह घावों का शोधन और रोपण दोनों काम एक साथ करता है। सड़े हुए घाव, दाद, खुजली, एक्झिमा को भी दूर करता है। पशुओं के घावों को भी ठीक करता है ।

महानिम्ब (बकायण)

महानिम्ब बकायण के विषय में धनवन्तरीय निघण्टु में इस प्रकार लिखा है :

महानिम्ब: स्मृतोद्रेको विषमुष्टिका।
केशमुष्टिर्निम्बर्को रम्यक: क्षीर एव च॥

बकायण को संस्कृत में महानिम्ब:, उद्रेक:, विषमुष्टिक:, केश-मुष्टि, निम्बरक, रम्यक और क्षीर नाम वाला कहा गया है।बकायण के वृक्षों में फाल्गुन और चैत्र के मास में एक दूधिया रस निकलता है। यह रस मादक और विषैला होता है। इसीलिये फाल्गुन और चैत्र के मास में इस वनस्पति का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

बकायण का वृक्ष सारे ही भारत में पाया जाता है। इसके वृक्ष 32 से 40 फुट तक ऊंचे होते हैं। इसका वृक्ष बहुत सीधा होता है। इसके पत्ते नीम के पत्तों से कुछ बड़े होते हैं इसके फल गुच्छों के अंदर लगते हैं। वे नीम के फलों से बड़े तथा गोल होते हैं। फल पकने पर पीले रंग के होते हैं। इसके बीजों में से एक स्थिर तैल निकलता है जो नीम के तैल के समान ही होता है। इसका पंचांग अधिक मात्रा में विषैला होता है।

इसके नाम अन्य भाषाओं में निम्न प्रकार से हैं : संस्कृत में महानिम्ब, केशमुष्टि, क्षीर, महाद्राक्षादि। हिन्दी में बकायण निम्ब, महानिम्ब, द्रेकादि। गुजराती - बकाण, लींबड़ो। बंगाली में घोड़ा नीम। फारसी- अजेदेदेरचता, बकेन।पंजाबी बकेन चेन, तमिल : मलः अबेबू सिगारी निम्ब, उर्दू - बकायन। लेटिन melia a zedaracha ।

मुस्लिम देशों में इस वनस्पति का उपयोग बहुत बड़ी मात्रा में किया जाता है। फारस के हकीम इसकी जानकारी भारत से ले गए थे। उन लोगों के मत से इस वृक्ष की छाल, फूल, फल और पत्ते गर्म, और रूक्ष होते हैं। इसके पत्तों कारस अन्त:प्रयोगों में लेप से मूत्रल, ऋतुस्राव नियामक और सर्दी के शोथ को मिटाने वाला होता है। अमेरिका में इसके पत्तों का काढा हिस्टेरिया रोग को दूर करने वाला, संकोचक और अग्निवर्धक माना जाता है। इसके पत्ते और छाल गलितकुष्ठ और कण्ठमाला को दूर करने के लिए खाने और लगाने के कार्य में प्रयुक्त किए जाते हैं। ऐसा विश्वास वहां पर है कि इसके फलों से पुलिटश के कृमियों का नाश हो जाता है इसीलिये चर्मरोगों के नाशार्थ यह उत्तम औषधि मानी जाती है।
इंडोचाइना में इसके फूल और फल अग्निवर्धक, संकोचक और कृमिनाशक माने जाते हैं। कुछ विशेष प्रकार के ज्वर और मूत्र संबन्धी रोगों में इसके फलों का प्रयोग होता है ।

मीठा नीम

इसे कढी-पत्ता का पेड़ भी कहा जाता है। मीठे नीम के कैडर्य, महानिम्ब:, रामण:, रमण:, महारिष्ट, शुक्लसार, शुक्लशाल:, कफाह्वय:, प्रियसार और वरतिक्तादि संस्कृत में नाम हैं। हिन्दी में मीठा नीम। मराठी कलयनिम्ब, पंजाबी गंधनिम्ब, तमिल करुणपिल्ले, तेलगू करिवेपमू, फारसी सजंद करखी कुनाह, लेटिन murraya koenigie नाम भिन्न-भिन्न भाषाओं में मीठे नीम के हैं।

मीठे नीम के पेड़ प्राय: भारतवर्ष के सभी भागों में पाये जाते हैं। इसके पेड़ की ऊंचाई 12 से 15 फुट तक की होती है। इसके पत्ते देखने में नीम के पत्तों के समान ही होते हैं किन्तु ये कटे किनारों के नहीं होते। चैत्र और वैशाख में इसके पेड़ पर सफेद रंग के फूल आते हैं। इसके फल झूमदार होते हैं। पकने पर इस के पत्तों का रंग लाल हो जाता है । इसके पत्तों में से भी एक प्रकार का सुगंधित तैल निकलता है। यूनानी मत में यह पाचक, क्षुधा कारक, धातु उत्पन्न करने वाला, कृमिनाशक, कफ को छांटने वाला और मुख की दुर्गन्ध को मिटाने वाला होता है । यह दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क होता है । इसकी जड़ को घिसकर विषैले कीड़ों के काटने के स्थान पर लगाने से लाभ होता है।

भोजन के रूप में : इसके सूखे पत्ते कढी में छोंक लगाने तथा दाल को स्वादिष्ट बनाने के कार्य में आते हैं। इनको चने के बेसन में मिलाकर पकौड़ी भी बनाई जाती है। मूत्राशय के रोगों में इसकी जड़ों का रस सेवन लखीमपुर आसाम में अच्छा उपयोगी माना जाता है।इंडोचाइना में इसका फल संकोचक माना जाता है और इसके पत्ते रक्तातिसार और आमातिसार को दूर करने के लिए अच्छे माने जाते हैं।

सारांश यह है कि मीठे नीम के वही गुण हैं जो प्राय: करके कड़वे नीम में हैं तथा जो धनवन्तरीय निघन्टु में लिखे हैं वही प्रयोग करने पर यथार्थ रूप में पाये गए हैं।

कड़वे निम्ब, मीठे निम्ब तथा बकायण के गुण मिलते हैं । इस प्रकार नीम व नीमवृक्ष में इतने गुण हैं कि उसकी प्रशंसा जितनी की जाये उतनी थोड़ी है। सचमुच त्रिवेणी में स्नान करना तो मूर्खता है किन्तु नीम, पीपल और बड़ की त्रिवेणी का सेवन सब दुखों को दूर करके प्राणिमात्र के कष्ट दूर करके सुखी बनाता है।

साभार www.jatland.com

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