सोमवार, 25 अगस्त 2008

आषाढ मास में पीपल पूजा


नवभारत टाइम्स
पं. केवल आनंद जोशी ( kajoshi46@yahoo.co.in )
पीपल एक ऐसा वृक्ष है, जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा जी के तप से उतरा है। पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का वास माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहां पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है , वहीं इसके पूजन से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है।

पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल , तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है , जिसके सेवन से वात रोग , कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं।

भगवद्गीता में भी इसकी महानता का स्पष्ट उल्लेख है। गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ’ अश्वतथ्य ’ को अथर्ववेद में लक्ष्मी , संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। कहा जाता है कि इसकी परिक्रमा मात्र से हरोग नाशक शक्तिदाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है। गंधर्वों , अप्सराओं , यक्षिणी , भूत - प्रेतात्माओं का निवास स्थल , जातक कथाओं , पंचतंत्र की विविध कथाओं का घटनास्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का माहात्म्य दुगुना हो जाता है।

हिन्दू संस्कृति में पीपल देव वृक्ष माना जाता है। उनकी अगाध आस्था में सराबोर पीपल को देव निवास मानते हुए इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित है , अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है। भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्व पीपल का है , अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था।

यह दूषित गैस नष्ट करने हेतु प्राणवायु निरंतर छोड़ता रहता है , क्योंकि वृक्ष घना होने के बावजूद इसके पत्ते कभी भी सूर्य प्रकाश में बाधक नहीं बनते। यह छाया देता है किन्तु अंधकार से इसका कोई सरोकार नहीं है। संभवतः यही कारण है कि सभी अमृत तत्व पाए जाने के कारण महादेव स्वरूप पीपल लैटिन भाषा में पिकस रिलिजियोसा के नाम से जाना जाता है। प्रायः प्राचीन दुर्ग भवन व मंदिर में पाए जाने वाले वृक्ष पीपल के नीचे शिवलिंग या शिव मंदिर पाया जाना भी स्वाभाविक बात है। भारतीय आस्था के अनुसार पीपल के भीतर तीनों देवता अर्थात ब्रह्मा , विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। अतः इसके नीचे शिवालय होने पर इसे पीपल महादेव के नाम से भी सम्मानित किया जाता है।

सदैव गतिशील प्रकृति के कारण इसे चल वृक्ष भी कहते हैं। पीपल की आयु संभवतः 90 से 100 सालों के आसपास आंकी गई है। इसके पत्ते चिकने , चौड़े व लहरदार किनारे वाले पत्तों की आकृति स्त्री योनि स्वरूप होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है।

अथर्ववेद में पीपल को अश्वत्थ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह - जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएं के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है। हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखनो को मिलती है।

तंत्र मंत्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्व है। इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्व अक्षुण्ण है। पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में विद्यमान है।

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