सोमवार, 25 अगस्त 2008

नीम : अनुसंधान, पेटेंट और चुनौतियाँ



नीमवृक्ष भारतीय मूल का है। उसके औषधीय, कृषिक, पर्यावरणीय और कीटनाशक एवं जैव रासायनिक गुणों की पहचान भारत में वैसे हजारों वर्ष पहले ही की जा चुकी थी और यहाँ सदियों से उसका विभिन्न रूपों में उपयोग होता रहा है। नीम के विभिन्न गुणों/उपयोगों की चर्चा अथर्ववेद, अनेक सूत्र ग्रंथों, पुराणों, पाली एवं प्राकृत ग्रंथों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में अनेक स्थलों पर हुई है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथ 'उपवनविहूद' में नीम को भूमि-सुधार और पौध एवं अन्न की सुरक्षा में उपयोगी बताया गया है। किन्तु जब से पश्चिमी देशों को नीम के महत्व का ज्ञान हुआ है और आधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा उसके तत्वों का कीटनाशक एवं अन्य रूपों में निषेचन और दुनियाँ भर में व्यवसाय शुरू हुआ है, तब से इस नीम पर एक आफत सी ही आ पड़ी है। भारतीय ज्ञान के आलोक में अनेक देशों ने नीम पर वैज्ञानिक प्रयोग किये और अनुसंधान निष्कर्षों पर अपनी मौलिकता का दावा कर उसको पेटेंट कराना शुरू कर दिया। इससे भारत में काफी अफरा-तफरी मची। इन पेटेंटों को चुनौतियाँ दी जाने लगीं और कुछ पेटेंटों को निरस्त कराने में सफलता भी मिली। अभी एक ओर यह संघर्ष चल ही रहा था, तब तक पश्चिमी देशों में हल्दी, जामुन, तुलसी, गोमूत्र आदि से सम्बन्धित जानकारियों / खोजों के भी पेटेंट होने लगे। अब तो सुनने में आ रहा है कि विदेशों में वेदों को भी पेटेंट कराने की तैयारी चल रही है। ज्ञान के इस पेटेंटीकरण का औचित्य क्या है? क्या इससे भारत के नीम, हल्दी इत्यादि वस्तुओं पर से भारतीयों का अधिकार छिन जायेगा और विदेशी लोग उसका मनमाना लाभ उठा सकेंगे?

भारत में ज्ञान के व्यवसाय की कोई परम्परा नहीं रही है। इसे हमारी परम्परा में एक निकृष्ट कर्म माना गया है। मध्यकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी प्रसिद्ध कृति पद्मावत में लिखा है ''पण्डित होई सो हाट न चढ़ा, चहों बिकाई भूलिगा पढ़ा।'' अर्थात् ''विद्वान अपने ज्ञान का व्यवसाय नहीं करते, यदि वे ऐसा करते हैं, तो उनकी विद्या भूली हुई समझो।'' सर जे.सी. बोस कलकत्ता में वायरलेस टेलीग्राफी पर अनुसंधान के पश्चात् जब लंदन गये, तो वहाँ की एक कम्पनी ने उनके अनुसंधान को क्रय करने की पेशकस की थी। इस पर डॉ. बोस ने कहा था- ''मैं अपने ज्ञान को कभी नहीं बेंचूंगा। मैं कल सम्पूर्ण विश्व को अपना सब कुछ, जिसे मैंने अनुसंधान में पाया है, सौंप दूँगा।'' भारत का यह संस्कार यहाँ के परिवेश, जीवन-पद्धति और चिन्तन-शैली की उपज है।
भारत में पहले आबादी बहुत कम थी, अधिकांश भूभाग वृक्षों, वनौषधियों से आच्छादित था; पर्याप्त चारागाह उपलब्ध थे और पशुपालन यहाँ के कृषक एवं गृहस्थ जीवन का एक अभिन्न अंग था। गृहशोभा और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हर परिवार के पास पर्याप्त फलोद्यान व बाटिकाएँ होती थीं। खेतों में मवेशी खाद डाले जाते थे; साथ ही वर्षा और नदियों के बहाव के साथ आने वाले वनों से उत्सर्जित पदार्थ खेतों को शक्ति व शुद्धता प्रदान करते थे। नदी, झरनों, तालाबों और कुओं के जल शुद्ध होते थे, स्वच्छ वायु और सूर्य की प्रथम किरणें घर-घर प्रवेश करती थीं। तीनों तरह के मौसम, जो धरती के अन्य तमाम हिस्सों के लिए प्राय: दुर्लभ हैं, भारत में सनातन से सक्रिय रहे हैं, जिनमें चिन्तन और जीवन की एक विशेष शैली स्वत: विकसित हुई। यहाँ के जीवन में प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य बोध स्वत: जागृत हुए। इस मूल्य बोध ने प्रकृति को निर्ममता से नहीं, कोमलता से ग्रहण करने और संकीर्ण नहीं, व्यापक परिधि में उदार भाव से सोचने की एक मानवीय दृष्टि उत्पन्न की। यहाँ माना गया कि हम प्रकृति की एक संतान हैं, उसके मालिक नहीं। सृष्टि में जो कुछ है, वह हमारे उपकार के लिए है, अत: उसकी सुरक्षा में ही हमारा जीवन सुरक्षित है। सृष्टि के इन उपादानों पर किसी का मालिकाना हक नहीं, इसलिए इस सृष्टि व प्रकृति के बीच रहकर हमने जो ज्ञान प्राप्त किया, उसपर भी हमारा कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं, बल्कि सभी का हक है, और वह सबके लिए है। यही कारण था कि हमारे प्राचीन ऋषियों ने जो चिन्तन व खोज किये, उसके साथ अपना नाम तक नहीं जोड़ा। बहुत से प्राचीन ग्रथों के लेखक आज भी अज्ञात हैं। भारत के ज्ञान दुनियाँ में यूँ ही पहुँचते रहे, ताकि संसार के सभी प्राणियों का उससे कल्याण हो। उस ज्ञान का यहाँ पेटेंट भी कराया जा सकता है, इसकी सोच आज भी भारत के संस्कार में नहीं है। भारतीय ज्ञान और संस्कृति को पाकर तमाम देशों ने अपनी सभ्यता का विकास किया। लेकिन अपने एक-एक अनुसंधान की पूरी कीमत दुनियाँ से वसूल लेने की होड़ आज पश्चिमी देशों में जबर्दस्त रूप से मची है।
प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों, चिन्तकों व खोज-कर्त्ताओं को अपनी विद्या को तकनीकी या व्यावहारिक रूप देने की जरूरत महसूस नहीं हुई; क्योंकि यहाँ का जीवन प्राकृतिक था और प्राकृतिक ढंग से जीने में जो सुख और आनन्द है, वह कृत्रिम ढंग से अथवा कृत्रिम संसाधनों के सहारे जीने में नहीं। यही कारण था कि यहाँ प्राकृतिक वस्तुओं के तत्त्वों का निषेचन कर उपयोग करने के बाजाय उसका सीधा उपयोग होता रहा। आज आधुनिक टेक्नालॉजी के सहारे नीम के तत्त्वों/यौगिकों का निषेचन कर उसे तरह-तरह के डिब्बों में बंद कर बाजार में लाने का एकमात्र उद्देश्य व्यवसाय ही है। आज की गलाकाट व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा ने मानव को प्रकृति से दूर कर दिया है। बड़ी-बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों द्वारा दुनियाँ से धन खींचने का एक-एक नायाब तरीका अपना लिया है। प्रश्न यह है कि यदि एक जावा लहसुन के सीधे इस्तेमाल से ही हमें उसका सभी जरूरी तत्त्व मिल जाता है, तो उसी लहसुन से बना एक कैप्सुल एक रूपये में खरीद कर खाने का क्या औचित्य है? जाहिर है कि एक ओर आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी ने एक तो प्रकृति का निर्ममता पूर्वक दोहन कर मानव जीवन को ही एक प्रकार से खोखला बना डाला है। ऊपर से अधिक से अधिक धन बटोर लेने की व्यावसायिक होड़ ने हमारी जड़ों को कमजोर कर हमें हमारे परिवेश में ही असुरक्षित एवं अजनबी प्राणी बना कर रख दिया है।
अभी कुछ ही दशक पूर्व तक देश में वैद्यकी परम्परा व्यवस्थित तरीके से चल रही थी। प्राय: हर वैद्य स्वयं जड़ी-बूटियों को इकट्ठा कर अपने रोगी के लिए दवाइयाँ स्वयं बनाता था। रोगी को पूर्जा नहीं थमाया जाता था कि वह जा कर अमूक दुकान से दवा खरीद ले। किन्तु औषधि निर्माण और चिकित्सा की यह घरेलू व्यवस्था अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इसकी जगह अब देशी-विदेशी बड़ी-बड़ी कम्पनियों, मँहगे चिकित्सा-उपकरणों तथा मोटी फीस वाले चिकित्सकों ने ले लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि वनौषधियों के गुणों व उपयोगिता का ज्ञान जन-सामान्य के बीच से प्राय: लुप्त होते गया, सस्ती बैद्यकी परम्परा समाप्त हो गयी। आयुर्वेद की जगह एलापैथी का दायरा बढ़ा, वनों के विनाश के साथ गाँवों के आस-पास पायी जाने वाली जड़ी-बूटियाँ भी लुप्त हो गयी और अपनी यह सस्ती, कुछ हद तक नि:शुल्क चिकित्सा व्यवस्था, जो कभी हानिकारक नहीं रही, आज अपने अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष करते दिखाई पड़ रही है।
इसी प्रकार आज नीम पर भी खतरे उपस्थित हैं। इसे कई देशों ने पेटेंट करा लिया है। ७ मई १९८५ को यूनाइटेड स्टेट्स पेटेंट कार्यालय ने एक जापानी कम्पनी 'तरूमो कारपोरेशन' को नीम के छाल के कुछ तत्त्वों को खोजने का बौद्धिक सम्पदा अधिकार 'पेटेंट' प्रदान किया था। ३ दिसम्बर १८८५ को अमेरिकी कम्पनी 'बिकउल लि.' को नीम के कीटनाशक तथा जैव रासायनिक गुणों के प्रथम खोजकर्त्ता होने के दावे के आधार पर और २० फरवरी १९९० को जर्मनी के मैक्स प्लैंक एवं उनके साथियों को नीम के कीटनाशक गुणों की खोज करने के दावे पर पेटेंट अधिकार प्रदान किया गया। उपरोक्त अमेरिकी कम्पनी ने अपने पेटेंट अधिकार को डब्ल्यू.आर. ग्रेस एण्ड कम्पनी को बेच दिया। अमेरिका के ही एक अन्य खोजकर्ता ने १९९१ में नीम के कुछ तत्त्वों का पेटेंट कराया। उक्त ग्रेस कम्पनी ने पी.जे.मार्गो लि. के साथ मिलकर कर्नाटक राज्य के तुमकुर जिले में एक विशाल संयंत्र स्थापित किया, जो प्रतिदिन २० टन नीम बीज को प्रशोधित कर अमेरिका भेजती थी, जहाँ उसी कम्पनी के संयंत्र में 'मार्गोसन-ओ' और 'बायोनीम' नामक कीटनाशक दवायें बनायी जा रही थी (वर्तमान स्थिति फिलहाल अज्ञात)। इस कम्पनी ने उद्योग स्थापना के प्रथम वर्ष में ही 'मार्गोसन-ओ' के विक्रय से करीब १०० मिलियन (१० करोड़) डालर अर्जित की। मिडिया की खबरों के अनुसार कुछ वर्षों पहले तक यह कम्पनी विश्व बाजार से हर साल करीब २ अरब डालर की आय कर रही थी। अमेरिका की ही एक अन्य कम्पनी 'एग्रीडायन टेक्नोलाजीज' ने नीम से 'एजाटीन' तथा 'टरप्लेक्स' नामक दो उत्पाद बनाये। खबरों के अनुसार १९८५ से अब तक अकेले अमेरिका और जापान ने नीम आधारित खोजों पर १५ से अधिक पेटेंट कराये हैं। इनमें 'टूथपेस्ट' के लिए भी पेटेंट है। ऐसा समझा जा रहा है कि आने वाले वर्षों में नीम उत्पाद तीसरी दुनियाँ में सर्वाधिक आय वाले निर्यात योग्य वस्तु होंगे। अनुमान है कि कैंसर तथा मधुमेह-नाशक पदार्थों के निर्माण हेतु प्रशोधित नीम की माँग इतनी अधिक होने वाली है कि वह ५०० डालर प्रति किलो तक बिक सकती है। इसी का परिणाम है कि अभी एक दशक पूर्व नीम बीज के जो भाव ३०० रूपये टन थे, वह बढ़कर एकाएक ३००० रूपये टन हो गये। माना जा रहा है कि निकट भविष्य में ही उसकी कीमत १० हजार रूपये टन हो जाने की संभावना है। नीम व्यवसाय के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के उतर जाने से उसमें भयंकर होड़ सी मची है। एक ओर 'टोमको' (TOMCO), स्पाइक (SPIC) जैसी कम्पनियाँ नीम बीजों के निर्यात में लगी हैं, दूसरी ओर आई.टी.सी., वेस्टकोस्ट हर्बोकेम लि., घर्दा केमिकल्स, टी स्टेन्स, श्री बायो मल्टिटेक लि. इत्यादि कम्पनियाँ, जो क्रमश: 'वेलग्रो', 'नीमगार्ड', 'निम्बिसिडीन', 'लिमानाल' नामक कीटनाशक बनाती हैं, अपने उत्पादों की व्यापक खपत के लिए भारतीय बाजार में अधिकाधिक पहुँच बनाने में लगी हैं। नीम से पचासों तरह की चीजे बनायी जा रही हैं।
नीम वृक्ष के साथ आर्थिक एवं व्यावसायिक महत्व के अनेक गुणों के जुड़े होने के कारण उसकी ओर दुनियाँ के वैज्ञानिकों तथा उद्योगपतियों का ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। इस वृक्ष का दुनियाँ के अन्य देशों के साथ भारतीय कृषि क्षेत्र में भी आने वाले वर्षों में काफी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है और इसे कृषि का एक अनिवार्य घटक बनाना है। अत: इस वृक्ष के व्यापक पैमाने पर रोपण और उस पर आधारित उत्पादों में तेजी से विकास के लिए नयी, कम खर्चीली प्रौद्योगिकी विकसित करने की आवश्यकता गंभीरता से महसूस की जा रही है। आने वाले वर्षों में नीम बीज का बहुत बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार बनने वाला है और इसकी माँग उन देशों में ज्यादा होगी, जहाँ यह वृक्ष नहीं पाया जाता। नीम की महत्ता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि अब तक इस पर ५ से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं।
नीम भविष्य का एक अत्यन्त जरूरी वृक्ष है और सौभाग्य से भारत में इसके लिए एकदम अनुकूल और उत्तम जलवायु उपलब्ध है। पश्चिमी देशों ने नीम पर २-३ दशक पहले तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। उनका ध्यन इधर विशेष रूप से तब गया, जब सिंथेटिक उर्वरक एवं कीटनाशकों के कृषि, पर्यावरण तथा जीवन पर कई गंभीर कुप्रभाव दिखाई दिये। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हजारों वर्ष से नीम के कीटनाशी एवं उर्वरक गुणों की जानकारी होते हुए तथा नीम वृक्षों की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद उस पर प्रयोगशालायी अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादों के मामले में भारत पिछड़ गया; वहीं दूसरे देशों से नीम बीज आयातित कर कुछ विकसित देशों ने अपनी उच्च तकनीकी क्षमता, मजबूत वित्तीय संसाधनों तथा व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा में हमेशा अव्वल रहने की अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर आरम्भ के मात्र २०-२५ वर्षों में ही नीम पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। कई विकसित देश, जैसे- अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड वगैरह, जिनके पास पर्याप्त नीम सम्पदा नहीं है, आज नीम पर अनुसंधान के प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं।
भारत में नीम (तेल एवं खली) पर आधुनिक अनुसंधान वैसे १९२० में ही इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बैंगलोर ने शुरू कर दिया था; आगे १९६० में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने भी इसके कीटनाशी गुणों पर अनुसंधान शुरू किया। १९४२ में भारत के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक परिषद के वैज्ञानिकों ने नीम से निम्बिन नामक यौगिक के निषेचन में सफलता प्राप्त की और केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान, राजमुंदरी (आंध्र प्रदेश) के वैज्ञानिक श्री बी.सी.जोशी ने भी १९७६ में तम्बाकू पर लगने वाले कीड़ों को मारने हेतु नीम से एक यौगिक का निषेचन कर सफल प्रयोगिक परीक्षण किया। लेकिन १९६० के बाद और १९९१ से पहले तक मात्र ३०-३१ वर्ष में ही जर्मनी, अमेरिका तथा जापान ने कई महत्वपूर्ण यौगिकों की खोजकर उसको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यावसायिक रूप देने में अभूतपूर्व सफलता हासिल कर ली। भारतीय वैज्ञानिक भी अब पूरी मुस्तैदी और जोर-शोर से नीम पर गहन एवं व्यापक अनुसंधान में लगे हैं।
नीम पर व्यापक अनुसंधान और सिल्विकल्चर विकसित करने के लिए १९९२ से 'इण्डियन फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, जोधपुर ने कुछ विशेष कार्य-योजनाएँ आरम्भ की। किन्तु इससे पूर्व नीम पर वैज्ञानिकों के तीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन, क्रमश: १९८१ एवं १९८३ में जर्मनी में और १९८६ में नैरोवी (केन्या) में हो चुके थे। नीम पर अगला अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन १८ से २२ जनवरी तक १९९३ में बैंकाक (थाइलैण्ड) में हुआ, जहाँ नीम के जैवकीय सुधार तथा इस दिशा में परस्पर सहयोग के लिए २० देशों के वैज्ञानिकों का एक अन्तर्राष्ट्रीय पैनल गठित हुआ। इसी वर्ष १९९३ में नीम पर एक विश्व सम्मेलन बैंगलोर में हुआ। फिर १९९५ से भारत में एकीकृत अनुसंधान परियोजना शुरू हुई। ए.एफ. आर. आई., (Arid Forest Research Institute), जोधपुर ने १९९३ में नीम बीज के ऋतु जैवकीय पहलुओं पर अनुसंधान शुरू किया। यहाँ २८ फरवरी से ३ मार्च तक, १९९४ में नीम पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी हुआ। इस सम्मेलन के बाद से ए.एफ. आर.आई., जोधपुर ने एक 'नीम न्यूजलेटर' निकालना आरम्भ किया, जिसमें विश्व भर में नीम पर हो रहे अनुसंधान कार्यों की सूचनाएँ प्रकाशित की जाती रही हैं।
रही बात पेटेंट की, तो सन १९९४ में भारत सरकार के तत्कालीन कृषि एवं सहकारिता सचिव श्री जे.सी. पंत ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि 'यदि अमेरिका में कोई नीम या तुलसी के पौधे को पेटेंट करा लेता है, तो भारत में उसकी चिन्ता क्यों होनी चाहिए? हम पर अमेरिकी कानून लागू नहीं होता। अमेरिका में होने वाले किसी पेटेंट से हम प्रभावित नहीं होते।'' लेकिन कुछ अन्य विश्लेषकों का मत था कि ''पेटेंट'' राज के तहत हम अपनी धरोहर नीम से सदा के लिए हाथ धो बैठेंगे। इसके उत्पादों को हमारा किसान तिगुने-चौगुने दामों पर खरीदने के लिए विवश होगा। (विज्ञान प्रगति, अप्रैल १९९४)। दिल्ली के कुछ अखबारों में प्रकाशित लेखों में भी इस तरह की आशंकाएँ व्यक्त की गई थीं। लेकिन देहरादून वन अनुसंधान संस्थान के कुछ वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ''विदेशों में नीम के पेटेंट होने से भारतीय उद्योगों को भविष्य में बढ़े पैमाने पर व्यावसायिक अवसर प्राप्त होंगे। नीम उत्पादों के संगठित व्यवसाय से विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकेगी। गाँवों में लघु उद्योग स्थापित किये जांय तो इससे बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है।'' (इण्डियन फारेस्टर, बाल्यूम १२१, नं. ११)।
पक्ष-विपक्ष के इन सभी मतों के बीच वास्तविकता सिर्फ इतनी है कि यदि भारत में नीम आधारित कीटनाशकों तथा अन्य उत्पादों के व्यापक स्तर पर निर्माण, प्रचार एवं व्यवसाय के ठोस व संगठित प्रयास नहीं हुए, तो हमें आयातित उत्पादों को ऊँची कीमतों पर खरीदने के लिए विवश होना ही पड़ेगा। विदेशी कम्पनियाँ भारतीय बाजार से कच्चा माल नीम बीज मुँहमांगे दाम पर खरीद कर तैयार माल यहाँ के बाजारों में बेचेंगी। नीम के किसी यौगिक को किसी देश द्वारा पेटेंट करा लेने का अर्थ यह नहीं है कि दुनियाँ भर में फैले नीम वृक्षों पर उसका अधिकार हो गया। खोजे गये यौगिक को कोई दूसरा वैज्ञानिक भी पुन: अपने अनुसंधान द्वारा नये नाम से प्रस्तुत कर सकता है और उसका वाणिज्यिक लाभ भी लिया जा सकता है। मूल बात यह है कि विदेशों में नीम के किसी यौगिक, उत्पाद या उसकी विधि के पेटेंट होने से भारत के समक्ष सिर्फ एक प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती मात्र खड़ी होगी। यदि यह चुनौती खड़ी न हो तो भारत के लोग कुछ विशेष करने के लिए उत्साहित भी नहीं हो सकते। पेटेंट कानून के तहत किसी वृक्ष का पेटेंट नहीं हो सकता। भारत के किसान अपने नीम का उपयोग स्वयं करें या बेचें, इसकी उन्हें पूरी स्वतंत्रता है। इसमें किसी के दखल की अनुमति न तो भारत सरकार दे सकती और न कोई विदेशी सरकार।
पश्चिमी जगत को नीम के विषय में जानकारी यद्यपि भारतीय साहित्यों व सम्पर्कों द्वारा बहुत पहले से थी और भारतीय वैज्ञानिकों की तरह विदेशी वैज्ञानिक भी कच्छप गति से ही नीम पर प्रायोगिक अनुसंधान में लगे रहे थे, लेकिन १९५९ की एक घटना के बाद इस दिशा में अनुसंधान की गति एकाएक तीव्र हो उठी। हुआ यह कि इसी वर्ष सूडान के एक हिस्से में बड़ी टिड्डियों के एक बहुत बड़े दल ने फसलों तथा पेड़ पौधों पर भयानक हमला कर दिया, जिससे सभी फसल और प्राय: सभी वृक्ष पूरी तरह नष्ट हो गये। यह एक बहुत बड़ा हादसा था, जिसकी जाँच के लिए सूडान सरकार ने जर्मनी के युवा कीट व पादप वैज्ञानिक डॉ. हेनरिख शम्युटरर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम नियुक्त की। डॉ. शम्युटरर ने अपने सर्वे में पाया कि सभी फसल व वृक्ष नष्ट हो गये, किन्तु कोने में अब भी एक वृक्ष अलमस्त लहलहा रहा था। टिडि्डयों का दल इस वृक्ष पर भी बैठा था, लेकिन इसको कोई नुकसान नहीं पहँुचा था। यह चौकाने वाली बात थी। डॉ. शम्युटरर तत्काल इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस नीम वृक्ष में कीटों को विकर्षित करने वाले जबर्दस्त रिपेलेंट (Repellent) गुण हैं, यह अपनी तिक्तता के कारण भक्षण-प्रतिरोधी (Anti-feedant) भी है। यह युवा जर्मन वैज्ञानिक के लिए एक बिल्कुल ही नया अनुभव था। इस अनुभव ने उन्हें आगे चलकर जर्मनी के गाइसेन विश्वविद्यालय में नीम पर व्यापक प्रायोगिक अनुसंधान शुरु करने के लिए प्रेरित किया। इस अनुसंधान केन्द्र से जुड़े अनेक देशों के सैकड़ों वैज्ञानिकों ने आरम्भ के २५-३० वर्षों में नीम से अनेक यौगिकों का निषेचन किया। उसमें डॉ. शम्युटरर द्वारा निषेचित 'एजाडिरेक्टा' नामक कीटनाशी तत्त्व खासी चर्चा में है। माना जा रहा है कि इसकी एक हल्की मात्रा भी अनेक तरह के कीटों को मारने में काफी सक्षम है। 'एजाडिरेक्टा' की खोज के बाद विश्व भर में नीम पर अनुसंधान की प्रक्रिया और भी तीव्र हुई और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में नीम बीज के मूल्य में एकाएक उछाल आया और तमाम देशों में नीम वृक्ष की वानिकी के व्यापक प्रयास आरम्भ हुए।
लघु कृषकों के लिए नीम एक अत्यन्त उपयोगी एवं अर्थकरी वृक्ष है, किन्तु इसकी खेती नहीं की जा सकती, बल्कि सरकारी सहयोग से बेकार पड़ी भूमि तथा सड़कों के किनारे ही इसका सघन रोपण किया जा सकता है। नीम वृक्ष की एक ऐसी उत्तम प्रजाति के विकास में कई भारतीय अनुसंधान संस्थान लगे हैं, जो कम समय में अधिक उपज दे सके और जगह भी कम घेरे। आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान, जहाँ नीम के मुख्यत: कीटनाशी (Insecticidal) और उर्वरक (Fertilizer) गुणों पर केन्द्रित रहे हैं, वहीं भारतीय अनुसंधान संस्थान इसके चिकित्सकीय (Medicinal) तथा पादप रोगों (Plant Pathoogy) के पक्षों पर। दोनों क्षेत्रों में किये गये अनुसंधान से नीम के कीटनाशक (Pesticidal) एवं औषधीय (Pharmaceutical) गुणों पर व्यापक प्रकाश पड़ा है और हजारों वर्षों तक सामान्य रूप से प्रयोग में प्रचलित यह वृक्ष आज एकदम से समय का एक जरूरी वृक्ष बन गया है। वैसे पश्चिमी देशों में नीम से औषधीय तथा कास्मेटिक प्रषाधनों सम्बन्धी यौगिकों के अनुसंधान व निर्माण पर भी गहन अनुसंधान जारी हैं। इस क्षेत्र में भी भारत को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इन सबके बावजूद भारतीय ग्रामीणों के लिए नीम तो उसका एक घरेलू औषधालय निरन्तर बना रहेगा और वह पूरी स्वतंत्रता के साथ उसका सीधा इस्तेमाल करता रहेगा।

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