रविवार, 3 अगस्त 2008

गंगा तुम बहती हो क्यों?

भूपेंद्र हजारिका का यह लोकप्रिय गीत बहुत प्रतीकात्मक है। जब भी महिला सशक्तिकरण की बात होती है तब न जाने क्यों नदियां याद आने लगती हैं। गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियां महिलाओं के स्नेह, ममता, उदारता चित्र की ही तो प्रतीक हैं। इसलिए भारत में नदियों को महिला नामों से ही संबोधित किया गया।

वे बोल्गा, थेम्स, दजला-फरात नील (नाइल) की तरह सिर्फ नदियां नहीं हैं बल्कि वे पूजनीय हैं, सम्माननीय हैं बिलकुल उसी तरह जिस तरह घर की पालक, पोषक महिला एक मां के रूप में होती है।

पर समय के साथ-साथ जिस तरह महिलाओं के शोषण, उन पर अत्याचार, उनको दबाने, छलने की सारी कुचेष्टाएं समाज ने कीं। वैसा का वैसा बर्ताव नदियों के साथ भी हुआ। इस बार जब गंगा के दर्शन किए तो यकीन जानिये कि आचमन तो क्या पैर डुबोने का भी मन नहीं हुआ। पहाड़ों की गोद छोड़कर जब गतिमान प्रवाह से इठलाती गंगा हरिद्वार में बहती है (थी) तब वह दृश्य न जाने कितनी बार स्मृति में कौंधकर निमंत्रण देता रहता था, पर गंगा का कितना शोषण, उस पर कितना अनाचार हो रहा है। भीड़ की भीड़ का रेला गंगा में डुबकियां लगाता है, प्लास्टिक की थैलियों में हार-फूल चढ़ाकर अपनी स्वार्थी निजी मनौतियां पूरी करता है। उसके किनारे बैठकर आम खाकर उसके छिलके बहाता है।

गंगा के चारों ओर प्लास्टिक की चद्दरें तनकर सैकड़ों गुमटियां खड़ी हो गई हैं। उनमें सस्ता प्लास्टिक का सामान, सस्ते भजनों के कैसेट और निहायत ही निम्नस्तरीय सामग्री भरी पड़ी है। इतने दुकानदार जिनके पास छत के नाम पर सिर्फ एक टापरा है अपने परिवार सहित रोज नित्य कर्म कहां करते होंगे? उनकी अस्वच्छता गंगा में ही तो बहती होगी।

गंगा पापियों के पाप धोते-धोते मैली नहीं हुई बल्कि गंगा और इसी तरह की अन्य नदियों का शोषण, दोहन करने की मानसिकता ने गंगा और अन्य नदियों के स्वच्छ सफेद जल को मटमैला कर दिया है। उसके किनारे बैठकर यही विचार आते रहे कि क्या भागीरथ इसी दिन के लिए गंगा को स्वर्ग से उतारकर लाए थे? क्या इसी दिन के लिए प्राणी का शरीर छोड़ते समय उसके मुंह में गंगाजल डाला जाता है?

जिस दिन गंगाजल मटमैला होते-होते एक उथला जल हो गया तब हमारी अस्थियां कहां जाएंगी? मुक्ति कैसे होगी? इस समाज का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि वह जिन्हें शक्ति स्वरूपा देवी कहकर महिमा मंडित करता है उनकी गर्भ में हत्या करता है। जिन्हें वह जननी, मां कहकर संबोधित करता है, उनको स्वार्थवश बेसहारा छोड़ देता है। जब-जब महिला सशक्तिकरण की बात हो, उनके शोषण का और उन पर होने वाली हिंसा, दमन, अनाचरों की बात की जाए तब-तब नदियों के सशक्तिकरण, उनके आरक्षण, उनकी स्वच्छता और संरक्षण की भी बात हो। महिला आयोग के साथ नदी आयोग भी संलग्न हो। एक महिला ही नदी की पीड़ा समझ सकती है।

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