सोमवार, 25 अगस्त 2008

नीम : भौतिक एवं रासायनिक संरचना

यद्यपि नीम वृक्ष को `चिरहरित' कहा गया है, किन्तु वसंत ऋतु में इसके पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नये ताम्रवर्णी कोमल टूसे निकलते हैं। मिट्टी एवं जलवायु की स्थिति के अनुरूप भारत में जनवरी से मई तक (दक्षिण में थोड़ा पहले और उत्तर में थोड़ा विलम्ब से) इसमें फूल आता है और मई से सितम्बर तक इसमें फल लगने से पकने तक की प्रक्रिया चलती है। अमेरिका के दक्षिणी इक्वाडोर के हिस्सों में इस नीम पर नवम्बर-दिसम्बर में भी फूल निकल आते हैं। पश्चिमी अफ्रीका के सेनेगल, बेनिन एवं जाम्बिया के नीम वृक्ष वर्ष में दो बार फलते हैं-मार्च अप्रैल एवं जुलाई-अगस्त में, कहीं-कहीं अक्टूबर-नवम्बर में भी। डामिनियन रिपब्लिक के अजुआ घाटी में यह वर्ष में तीन बार तक फल देते देखा गया-फरवरी-मार्च, जून-अगस्त तथा नवम्बर-दिसम्बर में। अर्थात वहाँ यह सालों भर फूलता-फलता है। अनुकूल परिवेश में यह वृक्ष बहुत तेजी से ४-५ साल में ही बड़ा हो जाता है और सामान्यत: १५ से २५ मीटर तक की ऊँचाई और लगभग १५० वर्ष की आयु प्राप्त करता है। कहीं-कहीं इसे ३५-४० मीटर तक भी ऊँचा और २०० वर्ष से भी अधिक उम्र प्राप्त करते देखा गया है। भारत में मई से अगस्त तक नीम में फल आता है और पकता है।

पुराने नीम पेड़ से एक दुर्लभ रस झड़ता है, जिसे `नीमताड़ी' (Nimtody अथवा Toddy of Margosa tree) कहा जाता है। किन्तु यह सभी वृक्षों से नहीं झड़ता। कुछ पुराने वृक्ष जब उत्तेजना में आते हैं; तब उसके तने या डाल के गांठों से यह स्वत: फूट कर चूने लगता है और २ से ४ सप्ताह तक, किसी-किसी वृक्ष से साल भर तक निकलता है। जब यह रस चूना शुरू होता है, तब वृक्ष से एक मधुर ध्वनि निकलती है। यह रस स्वाद में मधुर कड़वा, अप्रिय तथा स्वच्छ गाढ़ा होता है। इसमें एक शर्करीय खमीर होता है, जो तापहर, पुष्टीकारक एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह रस पूरे वृक्ष की वास्तविक ताकत होती है। इसके निकल जाने के बाद वृक्ष क्रमश: सूखने लगता है। यह रस कई रोगों में निदान के लिए रामवाण के समान है। नीमताड़ी को कृत्रिम रूप से भी निकाला जाता है। जलाशय, नदी-नाले के पास खड़े पुराने वृक्ष का सोर सिरे पर काटने से रस चूने लगता है। किन्तु २४ घंटे में यह एक-दो बोतल ही निकल पाता है। स्वत: निकले रस की अपक्षा यह कम प्रभावकारी होता है।
नीम का सम्पूर्ण भाग कड़वा होता है, किन्तु कोई भी भाग अनुपयोगी नहीं होता। इसकी जड़, छाल, पत्ते, फूल, फल, गोंद, मद, सींक, टहनी एवं लकड़ी और इसकी छाया तथा इससे छनकर आने वाली हवा, सभी में कृषि, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए अमृत भरे हैं। विभिन्न घरेलू उपयोग तथा आर्थिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से इनकी उपयोगिता अत्यन्त मूल्यवान है। सम्पूर्ण वनस्पति जगत में फिलहाल एक नीम को छोड़कर दूसरा ऐसा कोई वृक्ष नहीं, जिसका रत्तीभर अंश भी अनुपयोगी न हो। आज मानव सभ्यता संकटों के जिस भयावह दौर से गुजर रही है, उससे बचाने में नीम के समान प्रभावकारी कोई अन्य वृक्ष नहीं। औषधि के लिए सदियों से भारतीय ग्रामीणजन की इस वृक्ष पर व्यापक निर्भरता के कारण इसे `भारतीय ग्रामीण औषधालय' (Village Pharmacy of India) कहा जाता है। यह भारत के अतिरिक्त बंगलादेश, श्रीलंका, म्यांमार तथा पश्चिमी अफ्रीकी देशों का प्राय: एक घरेलू वृक्ष है, जहाँ आबादी के बीच, घरों के आस-पास, सड़कों के किनारे तथा पार्क आदि में लगाया जाता है।
भारतीय नीम, जिसे दुनियाँ के वैज्ञानिकों ने उत्तम कोटि का माना है, अपने हर अंग-प्रत्यंग से शुद्धता, ताजगी और निरोगता का परिचय देता है। इसके गुच्छेदार फूल से चमेली की भीनी सुगंध आती है। इसमें द्राक्षा (Glucocide), निम्बोस्ट्रीन तथा तीक्ष्ण गंध वाले तेल और वसा अम्ल पाये जाते हैं। इसका अर्क उत्तेजक, पुष्टीकारक तथा क्षुधावर्धक होता है। नीम की पत्तियों में १२.४० से १८.२७ प्रतिशत तक क्रूड प्रोटीन, ११.४० से २३.०८ प्रतिशत तक क्रूड फाइबर, ४८ से ५१ प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट्स, ४३.३२ से ६६.६० प्रतिशत तक नाइट्रोजन मुक्त अर्क, २.२७ से ६.२४ प्रतिशत तक अन्य अर्क, ७.७३ प्रतिशत से १८.३७ प्रतिशत तक राख, ०.८९ से ३.९६ प्रतिशत तक कैल्सियम, ०.१० से ०.३० प्रतिशत तक फास्फोरस और २.३ से ६.९ प्रतिशत तक वसा पाया जाता है। इसमें लोहा तथा विटामिन `ए' की मात्रा भी पर्याप्त होती है। नीम छाल में फास्फोरस, शर्करा, कांसी तथा गंधक काफी मात्रा में पाया जाता है। नीम फल का गुदा मीठा, हल्का खुमारी लिए होता है। इसके बीज के तेल में स्टिआरिक एसिड, ओलेक एसिड तथा लारिक एसिड पाये जाते हैं। इस तेल का अंग्रेजी नाम `मार्गोसा' है। पूरे वृक्ष का यह भाग (बीज) आर्थिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी भाग है।
विश्व के उन तमाम देशों में, जहाँ नीम के वृक्ष पाये जाते हैं, नीम वृक्ष पर भिन्न प्रकार के कीटों, फफुंदों तथा बैक्टेरिया रोग के आक्रमण होते देखे गये हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि नीम का सम्पूर्ण भाग कड़वा एवं तिक्त होने के कारण उसमें कोई कीटाणु या रोग नहीं लगते, परन्तु यह लक्षण उन्हीं जगहों पर पाये जाते हैं, जहाँ का जलवायु तथा भौगोलिक परिवेश नीम के एकदम अनुकूल है। इसमें जहाँ भी असंतुलन है, वहीं उसमें कीड़े तथा रोगाणु भी हमला करते देखे गये हैं। भारत में प्राय: दक्षिण के समुद्री किनारों के क्षेत्रों तथा गुजरात में नीम वृक्ष की पत्तियों, टहनियों तथा तनों में स्पाइडर, गाल माइट्स, टी मस्किटो बग इत्यादि कीड़े लगते देखे गये हैं। टी मस्किटो बग नीम के लिए काफी हानिकारक है, वह टहनियों पर हमला करता है, पूरी टहनी एवं पत्ते सूख जाते हैं। नीमगोल्ड नामक कीटनाशक से इसे नियंत्रित किया जाता है। कुछ परजीवी पौधे (Parasitic Plant) भी नीम को प्रभावित कर उसकी तिक्तता कम कर देते हैं।
नीम वृक्ष अनुकूल वातावरण में तेजी से विकास करता है। मिट्टी, वर्षा, सिंचाई, पोषक तत्त्व, तापमान, जैवकीय गुण आदि के PH Value तथा Water Table इसमें मुख्य भूमिका निभाते हैं। विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न जलवायु तथा मिट्टी की संरचना के अनुसार वहाँ नीम वृक्ष में फल, फूल लगने के समय तथा उसकी मात्रा, वजन और उसमें पाये जाने वाले यौगिकों के गुणों में भी काफी अन्तर देखा गया है। अनुसंधान में यह भी पाया गया है कि भारत के शुष्क क्षेत्र (उत्तरी भारत) के नीम बीजों में समुद्री किनारे वाले क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक कीट भक्षण प्रतिरोधी गुण (antifeedant activities) मौजूद हैं।

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