सोमवार, 25 अगस्त 2008

सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में नीम


भारतीय, मुख्यत: हिन्दू समाज में नीम वृक्ष सदियों से पूज्य रहा है। इसके गुणों, उपयोगिताओं तथा महत्ता को देखते हुए उससे सम्बन्धित अनेक प्रथाएँ और कथाएँ प्रचलित हुइंर्। उनमें अधिकांश का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा से रहा है। मुस्लिम हकीमों ने नीम को 'यवनप्रिया' (मुस्लिमों के लिए प्रिय) बताया है। आज से चार सौ वर्ष पहले अली गिलानी नाम के एक वैद्य/रचनाकार ने इसे 'शजर-ए-मुबारक' (दैवी वृक्ष) कहा। कहीं भी उग जाने की इसकी स्वतंत्र व सर्वव्यापी प्रकृति को देखकर मुस्लिम बादशाहों ने इसे 'आजाद-दरख्त-ए-हिन्द' नाम से सम्बोधित किया। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आज इसे एक 'आश्चर्यजनक वृक्ष' के रूप में देख रहे हैं।
भारत के विभिन्न ग्रामीण हिस्सों में नीम को शीतला माता के रूप में पूजा जाता है। नीम उष्ण जलवायु प्रिय है, किन्तु इसकी प्रकृति शीतल है। चेचक निकलने पर शरीर में काफी दाहकता/जलन उत्पन्न होती है। यह दाहकता नीम के प्रयोग से शान्त होती है। नीम में दाहकता-रोधी (Anti-inflammatory) गुण प्रचुर परिमाण में पाया जाता है। नीम के इस शीतल गुण के कारण ही उसे शीतला माता के रूप में पूजा गया, ऐसा जान पड़ता है। कथानकों में शीतला को वसन्ता भी कहा जाता है; नीम की कोमल पत्तियाँ वसन्त में ही निकलती हैं। इनका प्रतीक चिन्ह उड़द है, जो गठिया, स्नायविक व्यग्रता, कुल्हा-दर्द आदि में दिया जाता है। इसकी जड़ संवेदन मन्दक है, जिसे हड्डियों के दर्द में दिया जाता है।
दक्षिण भारत के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में नीम और पीपल की साथ-साथ पूजा की जाती है। माना जाता है कि नीम स्त्री रूप और पीपल पुरूष रूप है। शिव मन्दिरों में धूम-धाम से इनकी शादी भी की जाती है। वैदिक साहित्य में पीपल को अग्नि रूप माना गया है। अग्नि रूप सूर्य का है। अत: सूर्य का प्रतिनिधि पीपल है। नीम का तासीर उष्ण है, किन्तु प्रभाव शीतल है। स्त्रियाँ भी एक ओर उष्ण, दूसरी ओर मधुर होती हैं। इसलिए पीपल एवं नीम का पुरूष एवं स्त्री रूप इंगित है। लेकिन दोनों का अस्तित्वगत लक्ष्य एक ही है। सूर्य भी संक्रामक रोग-नाशक है और नीम भी सभी प्रकार के रोगकारक कीटों का नाशक है। पीपल भी भारी मात्रा में प्राण वायु आक्सीजन को संचरित करता है और नीम भी तीव्र आक्सीकारक है। इसलिए समान गुणधर्मी होने के कारण ये दोनों वृक्ष साथ-साथ पूजे जाते हैं।
उत्तर भारत में ज्येष्ठ मास में औरतें अपने पति की दीर्घायु कामना के साथ पीपल एवं नीम की साथ-साथ पूजा करती हैं। इसका अभिप्राय यही है कि उसका पति रोग-शोक मुक्त, स्वस्थ और दीर्घजीवी रहे। लोक-मान्यता में पीपल शिव का और नीम शीतला का प्रतीक है। शिव शान्त प्रकृति के हैं, गरल तक पी जाने वाले। वे स्वयं विष पीकर दूसरे को अमृत प्रदान करते हैं; नीम भी कार्बनडाईआक्साइड और सल्फरडाईआक्साइड का तीव्र शोषक है और अमृत समान पवित्रता एवं शीतलता का स्रावक है। कथाओं में शीतला को शिव की सहायिका बताया गया है। इस तरह शिव रूप पीपल की शीतला रूप नीम सहायिका है, दोनों अर्द्धांग है और परस्पर पूर्णता को प्राप्त कर मानव जीवन का कल्याण करते हैं।
भारत में कहीं-कहीं पीपल की जगह बट को नीम के पति के रूप में अंगीकार कर पूजने की प्रथा है। 'जनसत्ता' (१.२.९८) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार ३० जनवरी १९९८ को केरल में कोच्चि से करीब ३० किलोमीटर दूर युवात्तुपुझा के पास त्रिकालतुर स्थित श्री रामास्वामी मंदिर में बट वृक्ष को वर और नीम वृक्ष को बधू के रूप में मानकर पूरे वैदिक विधि-विधान से उनका विवाह किया गया। ३० अप्रैल १९९० को एक १२०० वर्ष पुराने बट वृक्ष की जगह एक नया बट वृक्ष लगाया गया था। पुराना वृक्ष २७ जून १९९८ को उखड़ गया तो उसका सोलहों शृंगार कर मंदिर परिसर में ही पूरे विधान के साथ उसकी अन्त्येष्ठि की गई और ३० अप्रैल १९९८ को साढ़े सात वर्ष पूर्व लगाये गये उपरोक्त बट वृक्ष एवं चार वर्ष पूर्व लगाये गये नीम वृक्ष को परिणय-सूत्र में आबद्ध किया गया। उस समय ५ बाघों की बारात भी निकाली गयी थी।
दक्षिण भारत में नीम की देवी 'अरूलमिगू मरियम्मा' की पूजा की जाती है। इस देवी को रोग-मुक्त करने वाली माना जाता है। इनके नाम पर एक मन्दिर भी निर्मित है, जो तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली से १५ किलोमीटर दूर समयपुरम में स्थित है। अप्रैल में जब नीम वृक्ष में नवीन कोपलों के साथ सुगन्धित फूल निकल आते हैं, तब इस मन्दिर में १३ दिन तक एक 'चित्रकार' नाम का महोत्सव आयोजित होता है। इस अवसर पर हजारों भक्त मन्दिर की ओर जाते हैं और देवी से प्रार्थना करते हैं कि उसे वह रोग-मुक्त कर दे या वर्ष भर निरोग रखे। पिछले वर्ष प्रार्थना के बाद यदि वह रोगमुक्त हो गया रहता है, तो मरियम्मा को धन्यवाद देना नहीं भूलता। भक्तगण अपने साथ नीम की पत्ती और फूल लेकर आते हैं। कई भक्त मुण्डन कराकर उस पर पिसी हुई नीम पत्ती लेप करके आते हैं। कई भक्त तो नुकीले लोहे से अपना अंग भी छेद कर आते हैं और प्रार्थना के बाद उस लोहे को निकाल कर घाव पर पिसा हुआ नीम लेप करते हैं। सम्भवत: यह प्रदर्शन नीम के प्रभावों को बताने के लिए किया जाता है, हालाँकि इसमें कुछ अतिवादिता भी हैं। डेकन (दक्षिणी) क्षेत्रों में नीम की देवी को 'वेपा मरम' कहा जाता है। 'वेपा' नीम का ही पर्यायवाची नाम है और मरम से ही 'मरियम' बना है, जिसका अर्थ देवी है।
छोटानागपुर के कुछ आदिवासी चुड़ैल का स्थान नीम वृक्ष मानते हैं। कुछ आदिवासी समुदायों में किसी को सर्प के डंसने पर रोगी को नीम की पत्तियों से पूरी तरह ढँक कर हनुमान मन्दिर में लाने और मंत्र पढ़े जाने की प्रथा है।
उड़ीसा में पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ जी तथा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सिर्फ नीम के तने की बनायी जाती हैं। इन मूर्तियों के लिए नीम वृक्ष का चयन भी बड़े विधि-विधान से किया जाता है। उड़ीसा में नीम वृक्ष को 'दारू' कहा जाता है, सम्भवत: यह आयुर्वेद के 'द्राक्षा' (नीम रस) का ही तद्भव रूप है। मूर्तियों के लिए नीम वृक्ष के चयन के पीछे मूल कारण यही है कि उसकी लकड़ी मजबूत होती है, उसमें दीमक नहीं लगते और वह शुद्ध एवं पवित्र होती है। देवी-देवताओं की पूजा के समय पूजाघर के चारों ओर नीम पत्तों का वन्दनवार लगाया जाता है। मूर्ति को नीम पत्तों की माला पहनायी जाती है।
सऊदी अरब स्थित मुस्लिम समुदाय के पवित्र स्थल मक्का में, जहाँ लाखों यात्री प्रतिवर्ष हज के लिए जाते हैं, अभी हाल के दशक में ही पचास हजार नीम वृक्ष करीब दस वर्ग किलोमीटर में लगाये गये हैं। धार्मिक मकसद पवित्रता ही है, किन्तु भौतिक अर्थ गर्मी के दिनों में उस खुले रेगिस्तानी क्षेत्र में यात्रियों को गर्मी, लू एवं धूल-धक्कड़ से बचाना है। नीम पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से सर्वोत्तम वृक्ष माना गया है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में लोग ज्यादातर नीम वृक्ष की छाया ही पसन्द करते हैं। अरब में गर्मी के दिनों में ५० डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान पहुँच जाता है। नीम में ५५ डिग्री से भी अधिक तापमान झेलने की क्षमता है।
कई हिन्दू व गैर-हिन्दू परिवारों में प्रसूता स्त्री के घर के दरवाजे पर नीम के पत्ते और गो-मूत्र रखे जाने की प्रथा है, ताकि दुष्ट आत्माएँ घर में प्रवेश न करें। दुष्ट आत्माओं से तात्पर्य संक्रामक वायरस ही हैं, जो नीम तथा गो-मूत्र से विकर्षित होते हैं। चेचक होने पर रोगी को नीम पत्ती पर सुलाया जाता है और घर के दरवाजे पर नीम का वन्दनवार लटकाया जाता है। इसका अर्थ रोगी को संक्रामक कीटाणुओं से सुरक्षित करना ही है। रोगी को नीम पत्तों के चंवर से हवा दी जाती है। कई जगह नई दुल्हन को नीम के जल से स्नान कराकर घर में प्रवेश दिया जाता है।
वाराह पुराण (१७२.३९) में कहा गया है- जो कोई एक पीपल, एक नीम, एक बड़, दस फूलों के पौधे या लताएँ, दो अनार, दो नारंगी और पाँच आम के वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाता -


अश्वस्थमेकं पिचुमिन्दमेकं न्याग्रोधमेकं दशपुष्पजाती:।
द्वे द्वे तथा दाडिममातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।।

यहाँ वृक्षों के साथ मनुष्य के धर्म-अधर्म की मान्यताएँ भी जुड़ी रही हैं। एक परम्परावादी हिन्दू परिवार के आँगन में तुलसी का पौधा रहता है और बाहर दरवाजे पर नीम का। वाराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता (अध्याय-५४) में दकार्गल विज्ञान (हाईड्रोलॉजी) के अन्तर्गत ऐसे कई वृक्षों के नाम दिये हैं, जिनके द्वारा भूमि जल का ज्ञान होता है। उसमें नीम के अतिरिक्त अर्जुन, पलाश, बेल, श्योनाक, सप्तपर्ण, कदम्ब, नारियल, पिण्डार, शिरीष, अशोक, कण्टकारी, शमी, पीपल आदि लगभग २०० वृक्षों का उल्लेख है। वाराहमिहिर ने घर के समीप अशोक, पुन्नाग, शिरीष एवं प्रियंगु के साथ नीम वृक्ष लगाने की भी अभिशंसा की है। पद्म पुराण (सृष्टि खण्ड-२८/२३-३१) में कहा गया है कि- निम्ब प्ररोहण से सूर्य प्रसन्न होता है। आयुर्वेद में नीम को सर्वोत्तम वायु प्रदूषण नाशक और सर्वरोगों को हरने वाला बताया गया है। नीम पर सूर्य का निवास होने के एक कथानक के साथ निम्बार्क सम्प्रदाय ही चल पड़ा। 'निम्बार्क' का अर्थ है निम्ब (नीम) वृक्ष पर सूर्य - 'निम्बे अर्क: निम्बार्क:'। आयुर्वेद में नीम को सभी रोगों को हरने वाला- 'सर्वरोगहरो निम्ब:' कहा गया है।
नीम को साधुता और दयालुता का भी प्रतीक माना जाता है। बुद्ध की जातक कथाओं में इस आशय की एक कथा मिलती है। उन दिनों चोरों को नीम के डाल के खूंटे से त्रास दिया जाता था और नीम के वृक्ष पर लटकाया जाता था। एक दिन एक चोर एकान्त में खड़े एक नीम पेड़ के नीचे आकर सो गया। पास ही में एक पीपल भी था। नीम देवता ने पीपल देवता से कहा- मैं इस चोर को यहाँ से भगाऊँगा, नहीं तो इसके पकड़े जाने पर मेरा बहुत अनिष्ट होगा। पीपल ने पूछा- तुम्हारा क्या अनिष्ट होगा ? नीम ने कहा- तू मेरे और चोर के भेद को नहीं जानता। राजपुरूष गाँव में डाका डालने वाले चोर को नीम वृक्ष पर ही त्रास देंगे। मेरे मन में यही आशंका थी। इस कथानक का तात्पर्य यही है कि जिस तरह एक साधु पुरूष अपने साथ-साथ शरणागत की भी रक्षा करता है, उसी तरह एक नीम भी अपनी रक्षा के साथ-साथ दूसरों की भी रक्षा करता है। एक अन्य जातक कथा में एक क्रोधी राजकुमार को उपदेश करते हुए बोधिसत्त्व ने कहा है- जिस तरह नीम की तिक्तता के कारण आपने उसे पसन्द नहीं किया, उसी तरह आपके क्रोधी व्यवहार को जनता भी पसन्द नहीं करेगी। अत: इस स्वभाव को आप त्याग दें। उत्तरी भारत के गाँवों में क्रोधी व्यवहार वालों के लिए ही कहा गया है- 'एक तो करेला तीता, दूजे चढ़े नीम'।
एक लोक प्रचलित कथा है कि एक वैद्य ने दूसरे वैद्य के ज्ञान का थाह लेने के लिए, जो सौ कोस दूर था, एक स्वस्थ युवक को माध्यम बनाया। उसे कहा गया कि उक्त वैद्य को दुआ-सलाम कह आवे, किन्तु रास्ते में वह इमली के पेड़ के नीचे ही सोया करे। युवक ने वैसा ही किया। किन्तु गन्तव्य तक पहुँचते-पहुँचते उसके शरीर में तमाम फोड़े-फुन्सी निकल आये। दूसरे वैद्य ने उस युवक को वापस करते हुए कहा- मेरा भी दुआ-सलाम बोल देना, किन्तु रास्ते में सिर्फ नीम वृक्ष के नीचे ही सोना। युवक ने वैसा ही किया। गन्तव्य तक वापस आते-आते उसके सभी रोग दूर हो गये थे। पहला वैद्य समझ गया कि दूसरा भी उससे कम नहीं। इस कथानक में भी नीम की महत्ता बतायी गयी है।
उत्तर प्रदेश में नीम से सम्बन्धित कई लोक-गीत प्रचलित हैं, जैसे-


कवनी उमरिया साधु निबिया लगावेन, कवनी उमरिया विदेसवा गये हो राम।
खेलत कूदत बहुअरि निबिया लगाये, रेखिया भिनत गै विदेसवा हो राम ।


फरिगै निबिया लहसि गये डरिया, तबहू न आये मोर विदेसिया हो राम।।

एक युवती का पति घर पर नीम का पेड़ लगाकर परदेश चला गया। ज्यों-ज्यों वृक्ष बढ़ता है, त्यों-त्यों युवती की विरह-वेदना भी बढ़ती जाती है। एक गुजराती लोकगीत की पंक्ति है- 'कड़वा लीमडानी एक डाल मीठी रे, म्हारो घणी रंगीलो'- अर्थात, जिसका पति परदेश से लौट आया हो, उसके लिए कड़वी नीम की डाल भी मीठी हो जाती है। देहातों में शुभकामना व्यक्त करते हुए कहा जाता है- 'उसी प्रकार बढ़ो, जैसे नीम बढ़ता है'। देहातों में एक और महत्त्वपूर्ण कहावत प्रचलित है कि भाई चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, फिर भी बहन की रक्षा अवश्य करेगा और नीम चाहे कितनी भी कड़वी हो, फिर भी उसकी छाँह शीतल ही होगी- भईया अति कड़ुवाहट, तबो दहिन बाँह हो। निबिया अति कड़ुवाहट, तबो शीतल छाँह हो।
अवधी में औरतों का एक हिडोला गीत है-


बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटहु, निमिया चिरैया बसेर।
बाबा बिटियउ क जिनि केउ दुख देउ, बिटिया चिरैया की नाई।।



बाबा सब रे चिरैया उड़ि जइहें, रहि जइहे निमिया अकेलि।
बाबा सब रे बिटिउआ जइहें सासुर, रहि जइहें माई अकेलि।।

इस गीत को महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी बार-बार सुनते और हर बार आँसू बहाते थे। यहाँ नीम को माँ के रूप में और लड़कियों को चिड़ियों के रूप में दर्शाया गया है। जिस प्रकार एक माँ के बिना उसके सन्तान आश्रयहीन व अनाथ हो जाते हैं, उसी तरह वृक्ष के बिना पक्षी भी अनाथ व आश्रयहीन हो जाते हैं। मानव के लिए नीम का महत्व माता के समान है।
श्रावण मास में भोजपुरी क्षेत्र की ग्रामीण औरतें 'मइया' (शीतला माता) की पूजा करती हैं। उस वक्त गाये जाने वाले गीत की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -


निमिया के डाली मइया डालेली झुलुअवा कि झुलि-झुलि ना।
मइया गावेली गीतिया कि झुली झुली ना।

हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार नये वर्ष में प्रतिपदा के दिन से दस दिन तक नीम की पत्तियाँ काली मिर्च के साथ पीस कर पीने या सिर्फ नीम के टूसे चबाने की प्रथा है। इसके पीछे मूल कारण नीम का औषधीय प्रभाव है, जो साल भर तक विभिन्न रोगों से मुक्त और रक्त को शुद्ध रखता है। मालवा (मध्य प्रदेश) में प्रतिपदा के दिन कढ़ी में नीम की पत्ती डाली जाती है। पुरनपोली के साथ खाने के लिए नीम की चटनी भी बनायी जाती है। देशी कहावत है- 'हर्रे गुण बत्तीस, नीम गुण छत्तीस'। किस महीने में क्या खाना चाहिए, इसे ग्रामीण लोगों ने अपने अनुभवों के आधार पर इस प्रकार बताया है-


सावन हर्रे भादों चीत (चिरैता), क्वार गुड़ तू खाओ मीत।
कार्तिक मूली अगहन तेल, पूस दूध से करो तू मेल।



माघ मास घी खीचड़ खाय, फाल्गुन उठ के प्रात नहाय।
चैत्र नीम बैसाख में तेल, ज्येष्ठ सयन आसाढ़ में बेल।।

भारतीय जीवन-दर्शन में सम्पूर्ण वनस्पति जगत अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं। आदिकाल से ही इनके साथ मनुष्य के गहरे रिश्ते जुड़े रहे हैं। उन्हीं के आधार पर संस्कृति और सभ्यता के क्रमिक सोपान विकसित हुए। सदियों तक भारत की अधिकांश भूमि वनों से आच्छादित रही, उनके बीच रहकर मनुष्य प्रकृति के रोम-रोम तक संचरित हुआ; उनके गुण, महत्व और उपयोगिताओं को समझा और उन्हें अपना हितैषी समझकर उनका पूजन किया। भारतीय चिकित्सा पद्धति के विकास का मूल वस्तुत: वनवासी जीवन ही है। यहाँ कोई भी वृक्ष या नदी, पर्वत, पशु, पक्षी ऐसा नहीं, जिनके लिए एक देवता परिकल्पित न हो। सभी में कुछ न कुछ देने के भाव हैं, इसलिए वे सभी देवता हैं। यहाँ भू-देवता, ग्राम-देवता, वन-देवता, पवन-देवता, जल-देवता आदि के रूप में सम्पूर्ण प्रकृति की पूजी की गयी। भारतीय ऋषियों ने आर्य सन्तानों को यही शिक्षा दी की उन सबके प्रति कृतज्ञ बनो, उनकी अभ्यर्थना करो, जिन्होंने तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया है। इसी शिक्षा संस्कार की वजह से यहाँ प्रकति के सभी उपादानों में देवत्व का दर्शन किया गया। मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व ही प्रकृति की देन है, उसके निर्माण व विकास में प्रकृति के कण-कण का योगदान है। यदि मनुष्य प्रकृति से विलग होना चाहे, तो यह सम्भव नहीं; प्रकृति का विरोध करे तो यह उसका स्वयं के प्रति विद्रोह होगा। धरती से आकाश तक सम्पूर्ण सृष्टि एक पालने की तरह है, जिसमें मनुष्य सुखपूर्वक खेलता है। यहाँ धरती को माँ और आकाश को पिता कहा गया- 'तन्माता: पृथ्वी, तत्पिता द्यौ'। अब कोई अपने माता-पिता का ही विरोध करे तो वह आश्रयहीन एवं अनाथ तो होगा ही। आज वनों का विनाश और प्रकृति का निर्ममतापूर्ण दोहन कर मनुष्य आश्रयहीन और अनाथ सा होते जा रहा है। उसके शिक्षा और संस्कार भी विकृत एवं विद्रूप होते जा रहे हैं।

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