रविवार, 3 अगस्त 2008

पावन -बदरीनाथ - आ. रघुनाथ भट्ट

भारतीय संस्कृति की विशाल छटा को अपनी संपूर्ण सुषमा के साथ यदि देखना हो तो आइए, चलें हिमालय की गोद में दस हजार तीन सौ पांच फुट की उंचाई पर अवस्थित बदरीनाथ धाम। बदरीनाथ जहां राष्ट्र की उत्तरी सीमा पर खड़े होकर भारतीय संस्कृति की विशालता और भव्यता का संदेश देता है वहां वह भारतीयों के मन में तप और पावनता की सनातन संवेदना भी जागृत करता है। सारे भातर से हजारों वर्षो से यात्री यहां आकर हिमालय के दिव्य सौंदर्य का पान करते-करते कण-कण में विद्यमान प्रभुता का अहसास किये बिना नहीं रह सकते। हजारों नदियां, नालों और पहाड़ों की दुर्गम घाटियों को पार करते हुये जब यात्री देवदर्शिनी से बदरीविशाल की एक झलक पा लेता है तो उसका सारा परिश्रम, सारी थकावट एक क्षण में आह्लाद में बदल जाते हैं। यात्री धन्य हो जाता है। हजारों वर्षो से भारतीय आस्था और विश्वास का यह अनोखा केद्र काल और समय को जीतकर प्रसन्नता की हंसी बिखेर रहा है।
बदरीनाथ की यात्रा जेठ महीने की अक्षय तृतीया के आसपास शुरु होती है और कार्तिक-मार्गशीर्ष में संपूर्ण हो जाती है। छह महीनों तक तपोभूमि मानवों की चहल-पहल से मुखर रहती है और शेष छह महीनों तक अपने आप में स्थित हो जाती है। सारी देवभूमि परम शांति की बर्फानी चादर ओढ़कर बिल्कुल नि:शब्द मौन में डूब जाती है। देवों की यह भूमि देवों की हो जाती है।
बदरीनाथ की यात्रा बहुत कठिन मानी जाती है। पहले यात्री घर-गृहस्थी से विदा लेकर पहाडों की ओर देवभूमि के दर्शन के लिए बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ चल पड़ता था। महीनों यों ही बीत जाते थे। घर वापस आ गये तो अच्छा है अन्यथा यही भूमि उन्हें अपने में समा लेती थी। यह भी एक पुण्यावस्था मानी जाती थी। यहां देवता निवास करते हैं इसलिए देवभूमि है और यहां आना एक तपस्या ही है इसलिए तपोभूमि है। आधुनिक काल में महर्षि दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द अपनी तप: साधना के लिए यहां आए थे। तप के लिए ऐसा सुंदर वातावरण अन्यत्र मिलना कठिन है।
आजकल यात्रा सरल हो गयी है। यातायात के साधन विकसित हो गये हैं। दुर्गम पहाड़ियों को चीर कर मार्ग बना दिये गये हैं। जगह-जगह पर यात्रियों के लिए सुविधाएं उपलब्ध करायी जा रही हैं। अब यात्री देश के किसी भी छोर से दिल्ली पहुंच सकता है और दिल्ली से रेल या मोटर बसों के द्वारा ऋषिके श पहुंच जाता है। ऋषिकेश के सरकारी, गैर सरकारी वाहनों से बदरीनाथ बारह घंटे के अंदर पहुंचा जा सकता है। सुबह ऋषिकेश से चला यात्री आराम से शाम को हिमालयी शीतलता के अक्षय भंडार बदरीनाथ पहुंच जाता है। हां, कपड़े गरम होने चाहिए। चादर, शाल आदि आवश्यक हैं। पैरों में मोजे और जूते बहुत जरूरी हैं और सिर पर गरम टोपी। मार्ग ऊंची-नीची पर्वतीय घाटियों और ऊंचाइयों से जब गुजरता है तो यात्रियों को प्रकृति की अद्भुतता का अहसास होने लगता है। दैवी प्रभुता का दर्शन होने लगता है।
बदरीनाथ एक लंबी और चौड़ी घाटी है। दो पर्वतों (नर और नारायण पर्वतों) के बीच शालीनता से बहती हुयी अलकनंदा का कलकल नाद सारे वातावरण को संगीतमय बना देता है। बदरीनाथ का मौसम पल-पल बदलता रहता है। धूप अठखेलियां करती रहती हैं और बादल कभी आकाश और कभी पर्वत श्रृंगों पर नृत्य करते रहते हैं। कभी-कभी अंगूर के रसभरे दानों की तरह बड़ी-बडी बूंदे पड़ने लगती हैं तो कभी रूई के सफेद फाहों की तरह बर्फ के फूल झरने लगते हैं। चारों ओर ऊपर-नीचे शुभ्रता का साम्राज्य फैल जाता है। मंद-मंद पवन इस वातावरण और पवित्र बना देता है। यहां बर्फ बरसा से बचने के लिए छतरी नहीं कंबल काम आती है। बर्फ पड़ती है, कंबल ओढ़ लो, कंबल पर बर्फ टिक जाएगी, बस फिर उसे जोर से झाड़ दो, सारी बर्फ नीचे गिर जायेगी, कंबल ज्यों की त्यों। माया से लदा आदमी यहां इस कंबल की तरह निर्मल हो जाता है। सावन-भादों में मौसम सुधरने लगता है, निर्वस्त्र पर्वतों की गोद में हरियाली खेलने लगती है। सारी धरती हरी-भरी हो जाती है। आश्विन-कार्तिक में इन हरे पौधों पर रंग-बिरंगे फूल खिलने लगते हें। फूलों की चादर सी बिछ जाती है। मौसम महकने लगता है। शीतलता कम हो जाती है।
भगवान बदरीनाथ का मंदिर अलकनंदा के दायें तट पर नारायण पर्वत की ढलुआ उपत्यका पर विराजमान है। अलकनंदा के दोनों ओर नर और नारायण पर्वत प्रसन्नवदन फैले हुये हैं। नारायण पर्वत पर सभी धार्मिक तीर्थ हैं। सबसे मध्य में भगवान बदरीविशाल का स्वर्णमंदिर है जो एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। नीचे कुछ सीढ़ियां उतरकर शीतलता के अखंड साम्राज्य को अपने खौलते हुये गर्म जल से यात्रियों को हजारों वर्षो से प्रकृति की अद्भुतता का परिचय देकर उष्मा का आलम रचने वाला तपकुंड है। बर्फाच्छित नारायण पर्वत के ठीक चरणों के पास गर्म जल का यह अखंड स्रोत नीचे अलकनंदा के शीतल प्रवाह के साथ ऐसा मिल जाता है कि इस देवभूमि का प्रत्यक्ष अहसास अपने आप बोलने लगता है। इस कुंड के पास रावलजी के लिए एक कमरानुमा कुंड है। पास के मकान के नीचे तल पर भगवान बदरीविशाल के मूर्ति के लिए चंदनलेप प्रतिदिन तैयार किया जाता है। कुड के उत्तरी छोर पर महिलाओं के लिए अलग कुंड का प्रबंध किया गया है। अलकनंदा के तीर पर दो छोटे-छोटे कुंड हैं। नीचे अलकनंदा तक पहुंचने के लिए दो चार सीढ़ियाें हैं जहां श्रद्धालु अलकनंदा का पावल शीतल जल लेकर ऊपर सीढ़ियों के पास आए हुये शिवमंदिर में भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। तप्तकुंड का आकार 16312 है। चार विशाल स्तंभों पर लकड़ी की पट्टियों से निर्मित लोहे की चादरों से ढकी हुई छतरी बनी हुयी है। जलधाराएं दो हैं जिनसे यह तप्त कुंड रात को भरा जाता है फिर सुबह स्नानार्थियों के लिए अनुकूल बनाया जाता है। इसकी बड़ी महिमा है। धार्मिक कृत्य दानपुण्य करने का यह प्रधान स्थान है। यहां मनसा, वाचा और कर्मणा पवित्र होकर यात्री भगवान बदरी विशाल के दर्शनों के लिए तैयार हो जाता है। तप्त कुंड के पास ही थोड़ी दूर प्रह्लाद धारा है। इसका जल गुनगुना है। थोड़े आगे शीतल जल की धारा है जो कूर्म धारा के नाम से प्रसिद्ध है। इससे आगे बाजार होते हुये ऋषिगंगा के किनारे ऋषिधारा है। ऋषिगंगा के साथ नारायण पर्वत का दक्षिण छोर पूरा हो जाता है। ऋषिगंगा के मूल में छह हजार पांच सौ सत्तानबे मीटर उंचा नीलकंठ पर्वत है साक्षात् शिव जैसा। नारायण और त्रिशूल पर्वतों के कोणों पर विद्यमान यह आलिशान नीलकंठ पर्वत अपनी भव्यता से मन को मोह लेता है। वास्तव में सारी भव्यता और दिव्यता यहां आकर एकत्र हो गयी है। सुबह नर पर्वत से उगते हुये सूर्य की किरणें जब इस पर्वत पर पड़ती हैं तो नीलाभ आकाश में खड़ा यह शुभ पर्वत आंखों को चौंधिया देता है। इसकी समतल उपत्यका में एक शिला पर चरणपादुकाएं हैं। यह प्रसिद्ध तपस्यास्थली ेहै। अनेक साधु-संत यहां तपस्या कर चुके हैं।
नारायण पर्वत का विस्तार एक छोर पर मालामूर्ति के विशाल मैदान और मंदिर हैं तो दूसरी ओर ऋषिगंगा का किनारा। इस सारे पर विराजमान है नारायण की नगरी बदरीविशाल धाम। यहीं भगवान का मंदिर है। तप्तकुड है। पांच धाराएं हैं और हैं पांच शिलाएं। मंदिर नारायण पर्वत के बीचों बीच एक ऊंचे चबूतरे पर बना है। मंदिर के चारों ओर मंदिर के भवन हैं। मंदिर परिसर बड़ा है। मुख्य प्रवेश द्वार के अतिरिक्त दो पार्श्वद्वार हैं। दक्षिण पार्श्वद्वार के पास से जरा आगे बढ़े तो बायें मंदिर कार्यालय का दुमंजिला मकान है। यहां अटका भोग, पूजा पाठ के लिए यात्री अपना-अपना नाम निर्धारित दर पर लिखाते हैं। इससे आगे भंडार गृह है। दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मीजी का मंदिर है। मंदिर के पास भोगमंडी है जहां भगवान के नैवेद्य के रूप में बंठों पर चावल पकता है। प्रसाद में चावलों में केसर मिला कर केसरिया प्रसाद भगवान को प्रिय है। नैवेद्य दो पहर में लगता है सुबह बालभोग लगाया जाता है। मंदिर के भीतर के भाग में पहले एक बड़ा मंडप है फिर एक छोटा मंडप है फिर गर्भगृह है जिसमें भगवान जी विराजमान हैं। मूर्ति की पूजा-अर्चना और श्रृंगार नम्पूतिरी ब्राह्मण करते हैं। उन्हें केरल से बुलाया जाता है। केरल का यह ब्राह्मण ब्रह्मचारी होता है। गृहस्थी को तथा अन्य को भगवान का स्पर्श करने का अधिकार नहीं है। पुजारी को रावल जी के संबोधन से पुकारा जाता है। उनके साथ सहायक रूप में डिमरी ब्राह्मण होते हैं। वेदपाठ और अर्चना स्तोत्र पाठ करने वाले ब्राह्मण छोटे मंडप में बैठते हैं। परिक्रमा में लक्ष्मीजी का मंदिर है जिसका अर्चन पूजन डिमरी ब्राह्मण करते हैं। भोगमंडी में भोग पकाने का अधिकार भी इन्ही ब्राह्मणों का है। मंदिर की अन्य सेवा पूजा में दुर्याल, जोशियाल आदि का अधिकार होता है। मंदिर में प्रवेशार्थ गोपुरनुमा एक बड़ा द्वारा है जिसमें से होकर यात्री परिक्रमा में प्रवेश करते हैं। मंदिर की बांई ओर घंटाकर्ण देवता हैं जो विशेषकर यक्ष देवता के रूप में माने जाते हैं। मंदिर के उत्तरी द्वार से नीचे उतरकर चौक में ब्रह्म कपाल के लिए भगवान के प्रसाद से पिंड सामग्री उपलब्ध होती है। थोड़ी दूर पर ब्रह्मशिला है। शापग्रस्त ब्रह्माजी का जब शिरच्छेद किया गया तो वह शिवजी के त्रिशूल पर इस तरह चिपक गया था कि छूटता ही नहीं था। वह ब्रह्मशिर यहां पर मुक्त हुआ। इसलिए इस स्थान को पितृमुक्ति स्थान के रूप में जाना जाता है। यात्री यहां पिंडदान का पुण्य कमाते हैं। इस स्थान के सीधे ऊपर भृगुधारा है।
अलकनंदा के बाएं तट पर नर पर्वत का फैलाव है। नर पर्वत के दक्षिणी छोर पर कंचन गंगा है और उत्तरी छोर पर माणा गांव और सरस्वती नदी है। आरंभ में दक्षिणी हिस्से से चढाई शुरु होती है और देवदर्शिनी की चोटी पर पहुंचते ही यात्रियों की नजर भगवान बदरी विशाल की स्वर्णपुरी का दर्शन कर निहाल हो जाती है। इस पर्वत पर कंचनगंगा से थोड़े उपर एक बहुत बड़े आकार की शिला है जिसे कुबेर शिला कहते हैं। मध्य में अपेक्षाकृत छोटी शिला है जिसमें स्वत: एक आंख के आकार का चिह्न बना है उसे शेष नेत्र कहते हैं। दूसरे छोर पर सरस्वती गंगा है और भारत का आखिरी गांव माणा है। इस किनारे दो गुफाएं हैं, एक व्यास गुफा और दूसरी गणेश गुफा। कहा जाता है कि महाभारत (जय संहिता)की रचना यहीं हुई थी। वक्ता थे व्यास, लेखक थे गणेश और सरस्वती नदी का यह किनारा नारायण और नर पर्वतों के बीच में है। एक श्लोक इस बात को स्पष्ट करता है -
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यास: ततो जयमुदीरयेत्॥
व्यास जी ने महाभारत की रचना इसी स्थल पर की है। सरस्वती गंगा पर माणा गांव के पास भीम ने एक बड़ी शिला रखकर पुल का निर्माण किया था। इस शिलापुल से होकर यात्री वसुधारा प्रपात और सतोपंथ की ओर जाते हैं। आगे स्वर्गारोहण पर्वत है। सरस्वती गंगा के उत्तरी किनारे पर जो पर्वत शुरु होता है उसके मध्य में श्यामकर्ण घोडे का एक चित्र उभरा हुआ है। यह व्यास गुफा के ठीक सामने है। माणा गांव में मारछा जाति के लोग रहते हैं। इनका व्यवसाय पशुपालन और तिब्बत के साथ व्यापार है। पुराने समय में भेड़-बकरियां पर खाने पीने का सामान लादकर ये लोग ही पहुंचाते थे। पुराने गढवाल के उत्तरी भाग का सारा कारोबार इनके पास था। माणा के पास से बहती सरस्वती गंगा अलकनंदा में मिलती है। इसे उत्तराखंड का पहला प्रयाग केशव प्रयाग कहते हैं।
नर पर्वत पर ही आज सारी सुविधाएं उलब्ध हो रही हैं। बडे-बडे भवन, धर्मशालाएं होटल, डाकघर, बैंक, अस्पताल, थाना, बस अड्डा आदि सभी प्रमुख उपकरण यहां आए हैं। पचास वर्ष पहले यहां साधु-संतों की दो-चार कुटियां थी। इधर उत्तराखंड का अलग राज्य होने से इसका विकास होगा। परंतु यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि हम अपने धार्मिक स्थानों को श्रद्धा और आस्था केंद्रों के रूप में ही विकसित होने दें अन्यथा सैर-सपाटे के स्थानों के रूप में विकसित करने से तीर्थो का अवमूल्यन हो जाएगा और भारतीय आस्था और श्रद्धा को गंभीर नुकसान होगा। बदरी विशाल की इस पवित्र नगरी का इतिहास बहुत प्राचीन है। पौराणिक दृष्टि से देखा जाए तो हिमालय की हिन्दू सभ्यता का देदीप्यमान उद्गम स्थान है। ऐतिहासिक दृष्टि से स्वामी शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार धामों की और चार पीठों की रचना की थी। इन पीठों और धामों में सर्वश्रेष्ठ धाम के रूप में ज्योतिषपीठ और बदरीविशाल का महत्व सर्वोपरि है। माना जाता है कि स्वयं शंकराचार्य जी ने नारद कुड से भगवान की मूर्ति निकालकर उसे मंदिर बनाकर स्थापित किया था। तब से आज तक यह अतिदुर्गम होते हुये भी प्रत्येक हिन्दू का श्रद्धा और विश्वास का अनुपम केंद्र बना हुआ है। मंदिर में स्थित मूर्ति के विषय में विद्वानों ने अनेक मत प्रस्तुत कि ये हैं, परंतु यह विष्णु मूर्ति है, यह मान्यता दृढ रूप ये चली आ रही है। बदरीपुरी केवल छह महीनों तक ही खुली रहती है। यहां छह महीनों तक मानव-पूजा होती है और शीतकाल के छह महीने देवपूजा होती है। घी का अखंड दीप जलता रहता है। बदरीनाथ मंदिर के साथ चार प्रकार की जातियां जुड़ी हैं। ये लोग छह महीने यहां के निवासी के रूप में होते हैं और पश्चात अपने-अपने नीचे के निवास स्थानों में चले जाते हैं। मंदिर के पुजारी केरल के नम्पूतिरी ब्राह्मण होते हैं। उन्हें ही गढ़वाल नरेश ने पूजा का अधिकार देकर रावल की उपाधि से विभूषित किया था। उन्हें सहायता देने के लिए डिमरी ब्राह्मण होते हैं। ये परम्परा से लक्ष्मी मंदिर के पुजारी, भोगमंडी के पाचक और ब्रह्मपाल के पुरोहित होते हैं। देवप्रयाग के दाक्षिणात्य ब्राह्मणों का तप्तकुंड में दान आदि प्राप्त करने का अधिकार होता है। वास्तव में उत्तराखंड की तीर्थयात्रा के ये ही पुरोधा हैं जो पहाड़ों से निकलकर सारे देश में जाकर उत्तराखंड की तीर्थयात्रा के लिए राजा-महाराजाओं से लेकर आम जनता को न केवल प्रोत्साहित करते हैं अपितु उनके क्षेम कल्याण की पूरी व्यवस्था भी करते हैं। ये पहाडी इलाकों अर्थात् गढ़वाल और कुमाऊं तथा नेपाल के यात्रियों को छोड़कर सारे देश के यात्रियों की पुरोहिताई करते हैं। पहाड़ के यात्रियों की पुरोहिताई डिमरी ब्राह्मण करते हैं। बाभणीगांव जो ऋषिगंगा के किनारे सुनारशूली पर्वत के नीचे मैदान में बसा है उसके निवासी दुर्याल कहलाते हैं। ये बदरीविशाल के मंदिर की सेवा करते हैं। मारछा लोग भी मंदिर से जुड़े हैं। वामन द्वादशी को बदरीपुरी का एक मात्र विशिष्ट उत्सव मातृभूमि मेला खास तौर पर मारछा लोगों से ही सम्पन्न होता है। उन दिन भगवान की उत्सव मूर्ति पालकी पर आरूढ होकर ढोल नगारों के साथ अपनी माता का दर्शन करने के लिए मातामूर्ति जाती है और दर्शन कर वापस आ जाती है। पाताल गंगा के पास स्थित टंगणी गांव के लोग भगवान के लिए फूल और तुलसी की मालाएं बनाते हैं। इस प्रकार बदरीपुरी के साथ सनातन रूप से जुड़े हुये हैं देवप्रयागी ब्राह्मण, डिमरी ब्राह्मण, दुर्याल और मारछा। ये ही यहां के मूल लोग हैं। अधिकतर जमीन-जायदाद उन्हीं के पास है।
उत्तराखंड की यात्रा उत्तराखंड के निवासियों के लिए आर्थिक रूप से भी उपयोगी होती है। जब यातायात के साधन नहीं थे तो यात्री महीनों तक यात्राएं करते रहते थे। उनकी इन यात्राओं से गढवाल की आर्थिक स्थिति में वृद्धि होती है। आज भी यात्रा-सीजन से उत्तराखंड के सभी स्तर के लोगों को आर्थिक फायदा होता है। पहले पैदल मार्ग के कारण गांव-गांव को फायदा होता था। आज व्यापारियों को अधिक लाभ मिल रहा है। हिमालय के तीर्थ देवभूमि के तीर्थ हैं। इनका सौन्दर्य तो अनिर्वचनीय है ही, साथ ही ये आध्यात्मिक शांति और ईश्वरीय दिव्यता के स्थान भी हैं। भारत को शासकीय नहीं अपितु संस्कृति के एक सूत्र में बांधने की इनकी भूमिका अहम रही है। इनकी हिफाजत भारतीय संस्कृति और धर्म की हिफाजत है। बदरीधाम की यात्रा सम्पन्न होने के बाद भारतीय पर्यटन संपूर्ण माना जाता है।
एन-5, कल्पतरू फ्लैट्स, मीरांबिका मार्ग,
नारणपुरा, अहमदाबाद-380014

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