सोमवार, 25 अगस्त 2008

नीम


नीम भारतीय मूल का एक सदाबहार वृक्ष है। यह सदियों से समीपवर्ती देशों-पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, म्यामार (वर्मा), थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, श्रीलंका आदि में पाया जाता रहा है। लेकिन विगत लगभग डेढ़ सौ वर्षों में यह वृक्ष भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक सीमा को लांघ कर अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एवं मध्य अमेरिका तथा दक्षिणी प्रशान्त द्वीप समूह के अनेक उष्ण तथा उप-उष्ण कटिबन्धीय देशों में भी पहुँच चुका है। भारतीय उपमहाद्वीप की सीमा से बाहर यह सबसे पहले १९वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तरी अफ्रीका एवं फीजी के दक्षिणी भाग में तब गया, जब हजारों भारतीय वहाँ गन्ने की खेतों में मजदूरी करने के लिए ले जाये गये। वे जाते समय अपनी संस्कृति, भाषा एवं मिट्टी की महक के साथ दैनिक उपयोग की चीजों में तुलसी का चौरा और नीम का पौध भी लेते गये। अब यह वृक्ष वहाँ का स्थानीय जैसा बन चुका है और विभिन्न उद्देश्यों से इसकी बड़े पैमाने पर वानकी होने लगी है।
नीम के पौध सन् १९०४ से १९०९ के बीच क्यूबा में और १९२१ में सूडान में भी भारत से ही गये। १९८०-९० के दशक में फिलीपाइन्स के बड़े भूभाग में भी यह वृक्ष लगाया गया। उसका बीज भी भारत, इण्डोनेशिया (जावा) और अफ्रीका (टोगो) से ले जाया गया। दक्षिण एवं मध्य अमेरिका के कुछ हिस्सों में लगे करीब ५-६ हजार नीम वृक्ष भी अप्रवासी भारतीयों की ही देन है। १९८०-९० के दशक में पपुआ न्यू गुयेना के कुछ क्षेत्रों में इसे अफ्रीका, इण्डोनेशिया तथा आस्ट्रेलिया से ले जाकर लगाया गया। आस्ट्रेलिया में डेढ़ लाख से अधिक नीम वृक्ष होने की सूचना है। नाइजर के मैग्गिया घाटी में बहुत बड़े भूभाग में कई लाख नीम वृक्ष पिछले २० वर्षों में लगाये गये, जिसने वहाँ के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। हवाई के विभिन्न क्षेत्रों में भी अनेक वृक्ष लगाये गये हैं। उत्तरी अमेरिका के फ्लोरिडा में भी यह वृक्ष उपलब्ध है। प्रयोग के तौर पर कैलिफोर्निया ओक्लाहोमा और एरिजोना में भी कुछ नीम वृक्ष लगाये गये हैं। निकारागुआ और होण्डुरस में लगभग १० हजार नीम वृक्षों का रोपण हुआ है। दक्षिण अमेरिका के हैती में जलावन की लकड़ी, छाया एवं भूमि-क्षरण को रोकने के लिए कई हजार नीम वृक्ष लगाये गये हैं। १० साल पहले चीन के हैनन द्वीप में भी यह वृक्ष लगाया गया। अफ्रीका से बीज लाकर मध्य वियतनाम में भी कुछ नीम वृक्ष लगाये गये। मलेशिया के मेलाकाद्वीप में कुछ पुराने नीम वृक्ष पाये गये हैं और कुछ अन्य द्वीपों में उगाये भी गये हैं।
नीम वृक्ष पूर्वी अफ्रीका के सोमालिया, केन्या और तंजानिया में और उत्तरी पश्चिमी अफ्रीका के इथोपिया एवं सूडान से लेकर पश्चिमी सेनेगल और मारिटानिया तक फैल गया है। सेनेगल के शहर एवं गाँव में हजारों नीम वृक्ष १९९४ में पहली बार लगाये गये। मोजाम्बिक एवं मालाबी में भी कुछ नीम वृक्ष उपलब्ध हैं। मेडागास्कर और मारिशस के शुष्क क्षेत्रों में यह सर्वत्र पाया जाता है। इजिप्ट के नीलडेल्टा में करीब ४ हजार नीम वृक्ष १९९० के दशक में लगाये गये। सूडान में यह १९२१ में लगाया गया। नाइजर की राजधानी नेमी में यह १९४० में गया, माली में यह १९५३ में लगाया गया।
थाईलैण्ड के सड़कों के किनारे और बंगलादेश के उत्तरी हिस्से में भी नीम वृक्ष पाये जाते हैं। इरान के समुद्री किनारे, यमन के दक्षिणी हिस्से और कतर में सड़कों के किनारे भी यह वृक्ष लगाये गये हैं। सउदी अरब के मक्का में कई साल पहले ५० हजार से अधिक नीम वृक्ष पर्यावरण संरक्षण एवं छाया की दृष्टि से लगाये गये। नेपाल में प्राय: उसके दक्षिणी तरायी क्षेत्रों में तथा श्रीलंका के उत्तरी शुष्क क्षेत्रों में यह वृक्ष पाया जाता है। भारत में यह वृक्ष तो प्राय: सर्वत्र पाया जाता है। किन्तु उत्तर प्रदेश और बिहार के बाद तमिलनाडु में इसकी उपलब्धता सर्वाधिक है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में नीम वृक्ष की भारी पैमाने पर वानिकी हुई है। १९७० के एक सर्वे के अनुसार भारत में १ करोड़ ४० लाख नीम वृक्ष थे; किन्तु इस समय उसकी संख्या बढ़कर लगभग ६ गुनी हो चुकी है। अफ्रीका के सहेल क्षेत्र में आबादी से ज्यादा नीम वृक्ष हैं।
वैसे १९५९ से पहले नीम की ओर दुनियाँ के उन तमाम देशों का ध्यान बहुत ज्यादा आकर्षित नही हुआ था, जहाँ यह वृक्ष आज पाया जाता है। उस वर्ष सूडान मे टिड्डियों के एक बहुत बड़े दल ने फसलों तथा पेड़-पौधों पर हमला किया था, जिससे सब कुछ विनष्ट हो गया, किन्तु पास ही में खड़े नीम वृक्षों को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था, यद्यपि टिड्डियाँ उन नीम वृक्षों पर भी बैठी थीं। फसलों व वनस्पति संपदा को हुए इस भारी नुकसान का परिस्थितिकीय आकलन करने के लिए सूडान सरकार के कृषि मंत्रालय ने जर्मनी के युवाकीट एवं पादप वैज्ञानिक डॉ. हेनरिख श्भ्युट्टरर के नेतृत्त्व में वैज्ञानिकों का एक टीम नियुक्त किया। डॉ हेनरिख को अपने सर्वे के दौरान यह देखकर हैरत हुआ कि सभी फसल और वृक्ष नष्ट हो गये, सिर्फ नीम ही क्यों सबूत बचा रह गया? इनकी इस जिज्ञासा ने उन्हें नीम के तत्त्वों व गुणों पर गहन अनुसंधान के लिए प्रेरित किया। आगे उनके नेतृत्व में जर्मनी के गाइसेन विश्वविद्यालय में नीम पर बहुत बड़े पैमाने पर अनुसंधान कार्य शुरू हुए, जिसमें कई देशों के सैकड़ों वैज्ञानिक एवं शोध छात्र संलग्न हुए और नीम के कई रासायनिक यौगिकों के साथ एजाडिरेक्टिन नामक उस महत्वपूर्ण कीटनाशी तत्व की भी खोज हुई जो डॉ. हेनरिख के साथ आज पूरी दुनियाँ में व्यापक चर्चा का विषय बनी हुई है।
१९५९ के बाद नीम पर शुरू हुए इस वैज्ञानिक अनुसंधान से विश्व के अनेक देशों का ध्यान नीम की ओर एकाएक आकर्षित हुआ और जर्मनी के अलावा अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया वगैरह में भी व्यापक अनुसंधान के साथ बड़े पैमाने पर इस वृक्ष को लगाने का अभियान भी तेजी से शुरू हो गया। इस नीम पर अब तक हुए अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों-जर्मनी (१८८३), केन्या (१९८६) बैंगलोर (१९९३) इत्यादि ने भी दुनियाँ में नीम की महत्ता और प्रतिष्ठा को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।

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