सोमवार, 25 अगस्त 2008

रासायनिक कीटनाशकों का दुष्प्रभाव और नीम

आधुनिक कृषि टेक्नालॉजी के विकास के साथ सन् १९६० के आस-पास भारत में एक नई हरित क्रान्ति योजना का सूत्रपात हुआ, जिसका मुख्य लक्ष्य था- अधिकाधिक खाद्यान्न उत्पादन। इसके लिए उपज देने वाले संकर प्रजाति के बीजों व पौधों, भरपुर सिंचाई के लिए नहर व ट्यूबवेल्स, मोटर-चालित शक्तिशाली यंत्र-उपकरण और तेज असर डालने वाले रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों का उपयोग शुरू हुआ। परिणाम आशा के अनुरूप निकला। जितनी भूमि में पहले लाखों टन खाद्यान्न उत्पादित होते थे, उतनी ही भूमि में अब करोड़ों टन उत्पादित होने लगे। हाँलाकि हरित क्रान्ति के विगत तीन-चार दशकों में देश की आबादी भी बढ़कर लगभग दुगुनी हो गयी और सम्पूर्ण आबादी के लिए यद्यपि आज भी पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध नहीं है, फिर भी इस मामले में देश ने बहुत कुछ आत्मनिर्भरता अवश्य हासिल कर ली।
लेकिन नयी कृषि टेक्नालॉजी, जो अपने सम्पूर्ण ढांचे में एक तरह से कृत्रिम संसाधनों पर आधारित है, खाद्यान्न उत्पादन के मामले में अल्पकालिक प्रभाव वाली और कृषि पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के मामले में प्राय: दीर्घकालिक दुष्प्रभाव डालने वाली सिद्ध हुई। इनमें सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का पड़ा, जिनके कारण भूमि, जल, वायु, खाद्य-पेय आदि सब प्रदूषित हुए और बड़े पैमाने पर मानव एवं मानवेतर जीवन के लिए खतरा उपस्थित हुआ है। इन सिंथेटिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के बेहिसाब प्रयोग के परिणामस्वरूप सिर्फ भारत में ही अब तब लाखों हेक्टेयर उपजाऊ कृषि-भूमि अम्लीय एवं रेहिले में परिवर्तित होकर बंजर बन गई है। जनसंख्या में हो रही तेज वृद्धि और उसके अनुरूप खाद्यान्न की बढ़ती माँग को देखते हुए ये स्थितियाँ वास्तव में गंभीर चिंता का विषय हैं। सर्वेक्षणों और प्राप्त आंकड़ों के अनुसार १९५०-५१ में फसलों पर लगने वाले कीड़ों तथा रोगाणुओं से बचाव के लिए जहाँ १०० टन कीटनाशकों का प्रयोग हुआ था, वहीं १९९०-९१ तक आते-आते (प्राय: उतनी ही भूमि में) उसकी मात्रा लगभग ८६ हजार टन तक पहुँच गयी। पहले कीटनाशकों का जहाँ एक-दो बार छिड़काव से ही काम चल जाता था, वहाँ अब कई बार प्रयोग करने पड़ रहे हैं।
समस्या यह है कि एक ओर बिना कीटनाशकों के प्रयोग के पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादित नहीं हो सकता, दूसरी ओर उसके पड़ने वाले पार्श्व प्रभावों से भी अपने को नहीं बचाया जा सकता। फसलों पर लगने वाले कीटों के प्रकार व प्रभाव इतने ज्यादा हैं कि मनुष्य अपने किये प्रयत्नों का पर्याप्त फल स्वयं नहीं पा सकता। दुनियाँ में लगभग एक हजार किस्म के ऐसे कीटों की पहचान की गई है, जिनसे फसलों, भण्डारित अन्न तथा अन्य घरेलू वस्तुओं को नुकसान होता रहा है। इनमें तीन-चार सौ किस्म के छोटे-बड़े कीड़े विशेष रूप से नुकसानदायक हैं। गंभीर बात यह भी है कि कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर प्रयोग के बावजूद भारत में प्रतिवर्ष अरबों रुपये के फसल एवं भण्डारित अन्न कीटों द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। परिस्थितिक परीक्षणों से विदित है कि जिन कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग हुआ, वे कुछ वर्षों तक लुप्त रहने के बाद न सिर्फ पुनर्जीवित हो उठे, बल्कि उनकी प्रतिरोधी क्षमता में भी अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गयी। इसी के साथ नये किस्म के कीट व रोगाणु भी विकसित हुये हैं। परिणामस्वरूप कीटनाशकों की मात्रा में बढ़ोत्तरी तो होती गयी, लेकिन लक्ष्य कीटों का सफाया नहीं हो सका। स्पष्ट है कि रासायनिक कीटनाशक कीट-नियंत्रण में अब उतने प्रभावकारी नहीं रह गये हैं, जितने पिछले दशकों में देखे गये।
दूसरी गंभीर समस्या कीटनाशकों का जन-जीवन पर पड़ने वाले घातक प्रभाव की है। प्रकाशित रपटों के अनुसार कीटनाशकों के प्रभाव से हर साल लाखों लोग बीमार पड़ते हैं, जिनमें से अधिकतर मौत के शिकार हो जाते हैं। अशिक्षा, सुरक्षित उपकरणों के अभाव तथा कीटनाशकों की विषाक्तता के कारण छिड़काव करने वाले किसान-मजदूर कैंसर, अंधेपन, अर्थराइटिस, उल्टी, दमा, श्वांस, ट्यूमर आदि बीमारियों से ग्रस्त होते पाये गये हैं। इन रसायनों के प्रयोग से भूमिगत जल के प्रदूषित होने, भूमि में नाइट्रीकरण की प्रक्रिया क्रमश: मंद पड़ने से उपजाऊ मिट्टी के रेहिले या अम्लीय में बदल जाने, प्रकृति में स्वत: चलने वाली जैविक नियंत्रण प्रक्रिया के नष्ट होने, आदि के संकट तो उपस्थित हैं ही, उपचारित बीजों को खाने से तमाम दुर्लभ प्रजाति के पक्षी भी समाप्त हुये हैं। अलक्ष्य कीटों, जैसे मधुमक्खी आदि के लिए भी इनसे खतरे उत्पन्न हुए हैं। सर्वेक्षणों में पाया गया कि नाशी कीटों द्वारा फसलों का नुकसान अब भी उतना ही हो रहा है, जितना कीटनाशकों के बहुत प्रचलन में न आने से पहले हुआ करता था।
विडम्बना यह भी है कि बाजार में उपलब्ध ज्यादातर कीटनाशक अत्यन्त विषैले होने के कारण खुद उत्पादक देशों में ही काफी अर्से से पूरी तरह प्रतिबन्धित हैं, लेकिन भारतीय किसानों द्वारा आज भी धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं। बताया जाता है कि एल्ड्रिन, क्लोरडान, हेप्टाक्लोर, डिएल्ड्रीन, लिंडेन, मिथाइल, पैराथियान, व्यूटाक्योर, पैरावेट, डी.वी.सी.पी., मैलाथियान, डी.डी.टी., बी.एच.सी. इत्यादि पर अमेरिका में पूरी तरह पाबंदी है, जबकि इनमें से कई पर 'हानिरहित' का लेबल लगाकर विज्ञापनों के जोर पर इन्हें भारत में खूब प्रचारित किया गया है। बाजार में ऐसे तमाम नकली एवं एक्सपायर्ड कीटनाशकों की कालाबाजारी भी फैली है, जिनसे फसलों की सुरक्षा तो नहीं हो पाती, जीवन अवश्य सुरक्षित हो जाते हैं। १९७६ में लखीमपुर खीरी (उ.प्र.) में गैमेक्सीन (डी.डी.टी.) के प्रयोग से जहरीले बने अनाज को खाने के कारण ४ व्यक्ति तथा ५० से अधिक जानवर मारे गये थे। १२६ गाँवों के २५० से अधिक व्यक्ति लूले हो गये थे। १९७५ में कर्टानक में भी कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से हजारों लोग जोड़ों व पुट्ठों में दर्द के शिकार हुए थे। १९५८ में दूसरे देश से मँगाये गये अनाज में इतनी विषाक्तता थी कि उसको खाने से करीब १०० लोग मारे गये थे, जबकि उस अनाज पर ''हानिरहित'' का लेबल लगा था।

फसल एवं अन्न की सुरक्षा के उपाय
फसलों तथा भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए नीम का विभिन्न रूपों में प्रयोग होता रहा है और वह आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी समर्थित है। वे प्रयोग कुछ इस प्रकार हैं-
१. जूट के बोरे में अन्न भण्डारित करने के लिए १० किलो जल में ८० ग्राम नीम तेल मिलाकर अथवा १० किलो जल में एक किलो नीम पत्ती उबालकर उसमें बोरे को रात भर भिंगोकर रखा जाता है और सुखाकर उसमें अन्न भर दिया जाता है। बोरे में छांव में सूखी नीम पत्ती भी अन्न के साथ विभिन्न तहों में रखने से उसमें कीड़े नहीं लगते। इस प्रक्रिया से आठ महीने तक अन्न या आलू वगैरह सुरक्षित रखा जा सकता है।
२. भारत के विभिन्न प्रान्तों के अतिरिक्त पड़ोसी देशों में भी डेहरी एवं बखार में अन्न रखते समय नीम का ५-७ इंच मोटा तह बिछाने या उसके भीतरी दिवाल में पीसी हुई नीम पत्ती, मिट्टी में सान कर लेप करने का प्रचलन रहा है। कहीं-कहीं भूसे या पुआल में नीम जल अथवा नीम तेल छिड़कर भी डेहरी, बखार, बोरा या बड़े टोकरे आदि में अन्न रखने की प्रथा रही है। एक क्विंटल अन्न में डेढ़ से दो किलो सूखी नीम की पत्ती का प्रयोग पर्याप्त होता है।
३. नीम तेल तथा नीम पाउडर भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए सर्वाधिक सक्षम पाये गये हैं। एक किलो दलहन में २ या ४ ग्राम तक तेल मिलाया जा सकता है। तिक्तता को धोकर अलग किया जा सकता है अथवा ८-१० महीने बाद वह स्वत: समाप्त हो जाती है। सोखने वाले अन्न, जैसे -आटा, मैदा, बेसन आदि में इसे नहीं मिलायी जाती। ऐसे अन्न में नीम पत्ती मिलायी जाते है। फलीदार अन्न या मक्का में १०० ग्राम से ३०० ग्राम तक प्रति क्विंटल नीम तेल का मिश्रण बिना किसी हानि के १३५ दिन तक प्रभावकारी पाया गया है। एक क्विंटल गेहूँ में एक किलो और धान में प्रति क्विंटल आधा किलो से एक किलो तक नीम तेल मिलाना पर्याप्त होता है।
४. भण्डारित अन्न को कीड़ों से बचाव के लिए नीम बीज, गिरी या खली का पाउडर अथवा चूर्ण भी मिलाया जाता है। घुन, पतिंगा, भृंग आदि को नियन्त्रित करने के लिए एक क्विंटल अनाज में डेढ़-दो किलो नीम पाउडर या चूर्ण मिलाना पर्याप्त एवं प्रभावकारी पाया गया है। फसलों के तनाबेधक कीटों को मारने में भी यह पाउडर कारगर है। इसे छिड़कने से पहले १:१ या १:२ में नीम पाउडर के साथ लकड़ी के बुरादे, धान की भूसी, या सूखी मिट्टी मिलायी जाती है। इसे फसलों के ऊपर पत्तियों के बीच गोल चक्कर (होर्ल) में डालना ज्यादा असरदायक होता है। नये पत्तों को खाते ही कीट मर जाते हैं। एक हेक्टेयर फसल में २५ किलो तक नीम पाउडर की जरूरत पड़ती है।
५. फसलों को चूसने वाले कीटों को मारने के लिए नीम तेल का छिड़काव ज्यादा प्रभावकारी होता है। इससे फफुंद एवं बैक्टेरिया नष्ट होते हैं। एक एकड़ फसल में ५ से १० लीटर नीम तेल का स्प्रेयर द्वारा हल्के दबाव पर छिड़काव किया जाता है। जब अधिक कीट न लगे हों, तब १० ग्राम डिटरजेंट साबुन तथा १० से २० ग्राम नीम तेल एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने का सुझाव दिया जाता है। एक हेक्टेयर के लिए ५ लीटर नीम तेल, ५० लीटर पानी एवं ५० ग्राम डिटरजेंट मिलाकर घोल तैयार किया जा सकता है।
६. जुताई के समय खेत में नीम खली प्रति हेक्टेयर २५० किलो से २००० किलो तक (फसल एवं मिट्टी के प्रकार के अनुरूप) मिला देने से फसल को कुतर कर खाने वाले कीटों सहित अन्य तरह के कीटों का भी रोकथाम होता है। इससे खेतों में नाइट्रोजन का संतुलन बना रहता है, जो फसल के लिए अत्यावश्यक है। नीम में नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। कुछ स्थितियों में नीम खली के साथ पुआल की राख मिलाकर डालना भी अच्छा माना जाता है।
७. नीम पाउडर या चूर्ण अथवा पत्ती का जलीय निषेचन भी फसलों पर छिड़का जाता है। वैज्ञानिकों का अभिमत है कि उचित रीति से बनाया गया घरेलू जलीय निषेचित कीटनाशक भी उतना ही कारगर है, जितना कारखानों में उत्पादित कीटनाशक। नीम बीज, गिरी या खली को ठंढे या हल्के गर्म जल में ४-५ घंटे तक छोड़ दें, फिर छान लें। बीज की क्वालिटी और कीटों के प्रभाव के हिसाब से एक लीटर जल में १० से ६० ग्राम तक ये पदार्थ डाले जाते हैं। नीम पत्तियों का जलीय निषेचन भी छिड़का जाता है। एक लीटर जल में ३५० ग्राम पत्ती के हिसाब से फसल की जरूरतों के अनुरूप रात भर भिगोकर रखना और छान कर छिड़काव करना चाहिए।
८. यद्यपि नीम सामग्री, रासायनिक कीटनाशकों की तरह तेज प्रभावकारी नहीं होती, किन्तु उसकी विशेषता यह है कि वह भण्डारित बीज के अंकुरण की क्षमता को नष्ट नहीं करती है। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि धान में २.५ प्रतिशत नीम गिरी का पाउडर या २ प्रतिशत नीम खली का चूर्ण मिलाकर रखा जाय, तो उसको बोने पर जड़ एवं तना में काफी विकास तथा उत्पादन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है। मक्का बीज को १००:१ में नीम तेल में भिगोकर तथा गेहूँ बीज में २००:१ में नीम पाउडर मिलाकर रखने से घुन आदि से ३०० दिन तक अच्छी तरह बचाया जा सकता है।



कीटनाशक बनाने की घरेलू विधि
१. नीम के बीज, गिरी या खली तीनों से कीटनाशक पाउडर बनाये जाते हैं। इनको चूर्ण बनाकर एवं पीसकर पाउडर बनाया जाता है। इसका उपयोग खरीफ एवं रबी दोनों फसलों में तनाबेधक कीटों को मारने के लिए किया जाता है। इसे पत्तियों के बीच गोल चक्कर (whorl) में डालना चाहिए।
२. नीम का जलीय निषेचन बनाने के लिए नीम बीज, गिरी या खली को ठंढ़ा या हल्के गर्म जल में डालकर कम से कम ४-५ घंटे तक छोड़ दें, फिर छान लें। बीज की गुणवत्ता एवं कीटों के प्रभाव के अनुरूप १ लीटर जल में १० से ६० ग्राम तक बीज, गिरी या खली डालना चाहिए। इसे निम्नलिखित तालिका से भी समझ जा सकता है-
आधार सामग्री कीटों के कम प्रभाव में ग्राम/प्रतिलीटर जल कीटों के अधिक प्रभाव में ग्राम/प्रतिलीटर जल
नीम पाउडर १५ से ३० ग्राम / लीटर ४० से ६० ग्राम / लीटर
गिरी पाउडर १० से २० ग्राम / लीटर ३० से ४० ग्राम / लीटर
बीज खली पाउडर १५ से ३० ग्राम / लीटर ४० से ६० ग्राम / लीटर
गिरी खली पाउडर १० से २० ग्राम / लीटर ३० से ४० ग्राम / लीटर


केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान (राजमुंदरी) ने एक दूसरी विधि भी इजाद की है। १-२ किलो गिरी पाउडर पतले कपड़े में बांधकर १०० लीटर पानी में १५ मिनट तक छोड़ दें। इससे भी घोल तैयार हो जाता है। यह घोल खासकर free-feeding coleopterous और lepidopterous, leafminer एवं grasshoppers कीटों को नियंत्रित करने में अत्यन्त सक्षम व प्रभावकारी हैं।
३. वैज्ञानिकों का सुझाव है कि नीम बीज को छिलका सहित अच्छी तरह सुखाकर रखना चाहिए और जब जरूरत हो तभी उसका चूर्ण, पाउडर, तेल आदि बनाकर उपयोग में लाया जाना चाहिए। चूर्ण, पाउडर बनाकर अधिक समय तक रखने से आक्सीकारक क्रिया द्वारा उसकी कीटनाशी क्षमता कम हो जाती है। गरी या पाउडर में नमी भी लग जाने से नुकसान होता है। सूखे बीज को वातित (airated) पैकिंग (जूट के बोरे या टोकरी) में रखना चाहिए और उसे घर के छत में टांग देना चाहिए, जहाँ ताप अधिक और नमी कम होती है। प्लास्टिक के थैले में नीम बीज, गिरी या पाउडर का निर्वातित (vacume) पैकिंग कुछ महीनों तक अनुकूल वातावरण में सुरक्षित रह सकता है।
विकासशील या गरीब देशों में, विशेषकर भारत में जहाँ नीम वृक्ष बहुतायत में है, कृषकों को अपने फसलों तथा भण्डारित अन्न की सुरक्षा के लिए नीम सामग्रियों का उपयोग अवश्य करना चाहिए। इसी के साथ हर किसान को अधिक से अधिक नीम वृक्ष लगाने पर भी ध्यान देना होगा, ताकि कीटनाशकों के मामले में आत्मनिर्भर बना जा सके और बाह्य कम्पनियों की पेटेन्ट चुनौतियों का भी सामना किया जा सके।

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