सोमवार, 25 अगस्त 2008

गर्भ-निरोधक रूप में नीम

संतान-वृद्धि के साथ समस्याएँ भी बढ़ती हैं, इसे हजारों वर्ष पूर्व ऋग्वैदिक काल में भी महसूस किया गया था और आज भी गम्भीरता से महसूस किया जा रहा है। ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं - 'बहुप्रजा निर्झृतिमा विशेष:' (१.१६४.३३)- अर्थात् बहुत सन्तान वालों को बहुत कष्ट होता है। इसलिए नववधू को उनका उपदेश है-'सना अत्र युवतय: सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्तवाणी' (३.१.६) अर्थात् - सप्तपदी (विवाह) की हुई युवा पत्नी एक ही गर्भ धारण करे। परिवार नियोजन सम्बन्धी ये विचार उस समय के हैं, जब आर्यों में पुत्रवान होने की कामना प्राय: एक सामाजिक प्रथा का रूप ले चुकी थी और दस-दस पुत्रों तक की कामना की जाती थी (ऋ १०.८५.४५)। विगत चार-पाँच हजार वर्षों के काल प्रवाह में भारत की जनसंख्या में यद्यपि ज्वार-भाटे की तरह अनेक उतार-चढ़ाव आये हैं और यह देश अनेक युद्ध, अकाल, महामारी तथा विभिन्न आपदाओं का शिकार हुआ है, जिसमें जीवन के अनेक बीज नष्ट हुए हैं, फिर भी 'एकोऽहं बहुस्याम प्रजायेय'- मैं एक हूँ अनेक सन्तानों से घिर जाऊँ-की नैसर्गिक कामना के साथ इस देवधरा पर स्वर्ग का वितान तानने के उद्देश्य से अवतरित मानवों में अपनी वंश-वृद्धि की लालसा एवं उत्साह में प्राय: कभी कमी नहीं आई। लेकिन ऐसा लगता है कि इस वंश-वृद्धि के संदर्भ में हमेशा और व्यापक स्तर पर सात्विक, सोद्देश्य एवं विवेकयुक्त कामना नहीं की गयी। ज्यादातर असंयमित, अविवेकपूर्ण या अवैध कामनाएँ ही की गयीं, जिसके परिणामस्वरूप तमाम ऐसी सन्तानों की भी भीड़ इकट्ठी हो गयी, जिसकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अधिकारों के प्रश्नों का हल निकलने की न तो आज ही कोई सम्भावना दिख रही है और न निकट भविष्य में।
मानव समुदाय अपने असंयमित एवं अविवेकपूर्ण कामनाओं पर नियंत्रण पाने में नाकाम रहा, अत: वह अनपेक्षित सन्तान वृद्धि को रोकने के लिए नये-नये तरकीबों को इजाद करने में लगा, जिनमें कुछ वैध समझे गये, तो कुछ अवैध। प्राचीन यूनान में जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कई अमानवीय उपक्रम भी किये जाते थे। यूनानी दार्शनिक अरस्तु के समय में गर्भपात को भी उचित समझा जाता था, बशर्ते गर्भस्थ पिण्ड में चेतना व प्राण का संचार न हुआ हो। उस समय जनसंख्या-नियंत्रण के लिए समलिंगी प्रथा भी प्रचलित थी। यूनानी लोग बाल-वध और जंगलों में बच्चों को छोड़ देने को भी बुरा नहीं मानते थे। इस तरह की प्रवृत्तियाँ विश्व के अन्य देशों में आज भी पायी जाती हैं; वर्तमान भारत में भी ऐसी घटनाएँ अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। गर्भपात तो आम बात है। भ्रूण-हत्या के मामलों में भी भारी इजाफा हुआ है, जो अवैध है। नैतिक जीवन मूल्यों व मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाली इन प्रवृत्तियों को कभी सामाजिक मान्यता नहीं मिली। भारत में प्राचीन काल से ही पारिवारिक जीवन में संयम-नियम पर विशेष जोर दिया जाता रहा है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान व टेक्नॉलॉजी ने परिवार-नियोजन या जनसंख्या-नियंत्रण के लिए अनेक तरह के सिन्थेटिक साधन विकसित किये हैं, जिनमें स्त्री-पुरूष द्वारा धारण किये जाने वाले निरोध, स्पंज, लूप, इंजेक्शन तथा खाने की गोलियाँ, आपरेशन द्वारा नशबन्दी आदि प्रमुख है। चूँकि ये सभी साधन कृत्रिम एवं अप्राकृतिक ही हैं, अत: इनका स्वास्थ्य एवं नैतिक व सामाजिक जीवन-मूल्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है। इन साधनों के प्रयोग से तमाम महिलाओं की जिन्दगी तबाह हुई है, अनेक मौतें भी हुई हैं और इनके खिलाफ विश्व की तमाम महिला संगठनों ने समय-समय पर आवाज भी उठाई है।
सरकार अपने परिवार-नियोजन कार्यक्रम के तहत जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कटिबद्ध है, दूसरी ओर इसकी आड़ में सिन्थेटिक गर्भ-निरोधक उत्पादक कम्पनियाँ दिनोदिन मालामाल हो रही हैं। लेकिन समस्या यह है कि इन कृत्रिम संसाधनों के व्यापक प्रचार-प्रसार और स्वास्थ्य एवं धन की भारी कीमत चुकाने के बावजूद जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार अभी थमी नहीं है। इन साधनों के उपयोग से यौन-विकृतियों और व्यभिचारों में तेज वृद्धि हुई है। परन्तु विकल्प क्या है, जिससे स्वास्थ्य और संस्कार भी विकृत न हों और अनपेक्षित जनसंख्या वृद्धि को भी रोका जा सके? नैतिक धरातल पर इस सवाल का उत्तर तो सिर्फ भारतीय आध्यात्म के पास है, लेकिन तकनीकी रूप से बहुत हद तक सुरक्षित साधन वनस्पति जगत से ही प्राप्त हैं, जो सदियों से भारतीय आयुर्वेद के संरक्षण में घरेलू स्तर पर प्रयोग में आते रहे हैं। दुनियाँ के वैज्ञानिकों का ध्यान इधर इन प्राकृतिक साधनों की ओर तेजी से गया है। इनमें 'नीम' इस समय व्यापक चर्चा में है।
गर्भ-निरोधक (contraceptive) रूप में नीम का तेल, उसके तने की छाल एवं लकड़ी के धुएँ का प्रयोग भारत एवं पड़ोसी देशों में सदियों से होता रहा है। भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान ने नीम के विभिन्न भागों में शुक्रनाशी (Anti-fertility) गुणों की प्रायोगिक खोज काफी पहले कर ली थी। इधर विश्व के कई देशों में भी आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा नीम के उपरोक्त घरेलू एवं आयुर्वेदीय मान्यताओं की पुष्टि हुई है। नीदरलैण्ड में किये गये प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि नीम तेल एक विष-रहित, शुक्राणुनाशक तथा संभागोपरान्त गर्भ-निरोधक है। इसके पत्ते में भी प्रजनन-रोधी हरित तत्व पाये जाते हैं। इसके तेल में शुक्राणुओं को गतिहीन करने की क्षमता प्रबल है। यह हार्मोन में हस्तक्षेप कर प्रजनन को रोकता है और प्रतिरक्षक के रूप में काम करता है। गर्भाशय के मुख पर इसके प्रयोग से लम्बे समय तक गर्भाधान से बचा जा सकता है।
दिल्ली स्थित 'राष्ट्रीय रोग-प्रतिरोध संस्थान' ने नीम तेल से 'प्रनीम' नामक एक शुक्राणुनाशक तत्व खोजा है, जिसे गर्भ-निरोधक रूप में प्रचलित अन्य रासायनिक गोलियों, कैप्सूलों तथा इंजेक्शनों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली, सुरक्षित एवं पार्श्व-प्रभाव रहित तथा काफी सस्ता बताया जा रहा है। कानपुर की एक कम्पनी ने नीम तेल से 'सेन्सेल' नामक एक तरल पदार्थ तैयार किया है, जिसे संभोग से पूर्व जनन-अंगों में लेप किया जाता है। इसे वर्ण (घाव) को ठीक करने वाला तथा एन्टीसेप्टिक के रूप में भी प्रभावकारी माना जा रहा है। 'भारतीय डिफेन्स इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजी एण्ड अप्लायड साइन्सेज' के वैज्ञानिकों ने नीम तेल से 'डी.के.-१' तथा 'डी.एन.एम.-५' नामक तत्व निषेचित किया है, जिन्हें विश्वसनीय गर्भ-निरोधक बताया जा रहा है। इसी संस्थान के वैज्ञानिकों ने 'डी.एन.एम.-७' नामक एक और तत्व भी निषेचित किया है, जिसे गर्भपात कराने में सक्षम माना जा रहा है। इसे एड्स जैसे रोग में भी प्रभावकारी पाया गया है।
नीम में एन्टीवायरल तथा एन्टीबैक्टेरियल गुण होने के कारण भी इसके प्रयोग से प्रजनन अंगों में किसी तरह के रोग या विकृति उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं रहती। पूरा नीम वृक्ष एन्टीवायोटिक गुणों से भरा है और उसके तेल अथवा छाल या पत्तों का रस सुजाक और संभोगोपरान्त होने वाले सूजन, दर्द, रक्त-स्राव, प्रजनन अंगों में क्षत आदि के रोकथाम में प्रयुक्त होता है। शरीर में किसी तरह की हानि न पहँचाने के कारण ही नीम को संस्कृत में 'अरिष्ठ' कहा गया है। नीम एक जबरदस्त एन्टीसेप्टिक भी है, जो कटे-जले में काम आता है।
'वनौषधि चन्द्रोदय' नामक आयुर्वेद ग्रन्थ के अनुसार नीम या कुनैन के तेल सहवास से पूर्व स्त्री के जरायुपिंड (योनि) के अन्दर रूई या पतले कपड़े के सहारे लगाने से गर्भ नहीं ठहरता। शुक्राणु तुरन्त मर जाते हैं। सम्भोग के तुरन्त बाद नीम पत्तों या नीम छाल के उबले जल से योनि मार्ग को धो देने से भी शुक्राणु नष्ट होते हैं। आयुर्वेद के एक अन्य मत के अनुसार एक तोला नीम गोंद (लासा) के चूर्ण को आधा पाव पानी में गलाकर कपड़े से छान लें, उसमें एक हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा साफ मलमल का कपड़ा तर करके सुखा लें। जब कपड़ा सूख जाय, तब उसे कैंची से छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें और शीशी में रख लें। सम्भोग से पहले एक टुकड़ा स्त्री के गर्भ-मुख पर रख दें। सहवास के बाद उसे निकाल कर फेंक दें। इस प्रयोग से विचित्र स्फूर्ति होते देखी गयी है, जिससे गर्भ नहीं ठहरता।
गुजरात के आदिवासियों के यहाँ गर्भ-निरोध के लिए २०० ग्राम नीम का छाल २ लीटर पानी में रात्रि में भिंगोकर सुबह उसे छानकर पीने की प्रथा है, जिससे पुरूष को बन्ध्यता प्राप्त होती है। गर्भ-निरोध के लिए वहाँ स्त्री योनि-मुख पर नीम की लकड़ी का धुआँ देने की भी प्रथा है। इस प्रयोग का उल्लेख आयुर्वेद ग्रन्थ 'योगरत्नाकर' में भी हुआ है-


घूमिते योनि रघ्रेतु निम्ब काष्टैश्च युक्तित:।
ऋत्वन्ते रमते या स्त्री न सा गर्भमवाप्नुयात।।

कामसूत्र के 'कुटनीयोगतन्त्र' में नीम तेल और सेंधा नमक मिलाकर रूई के साथ योनि में रखने से गर्भ-निरोध होने की बात कही गयी है। दक्षिण-पश्चिम मेडागास्कर की औरतें गर्भ-निरोध के लिए नीम की पत्तियाँ चबाती हैं। इसके विपरीत अफ्रीकी देश गाम्बिया और घाना की औरतें गर्भपात रोकने के लिए गर्भधारण से दो-तीन महीने आगे तक नीम छाल का काढ़ा पीती हैं। आयुर्वेद मत में सन्तान के अनिच्छुक व्यक्ति यदि लगातार कई महीनों तक नीम की पत्तियों का सेवन कर ले, तो उनकी प्रजनन क्षमता स्वत: नष्ट हो सकती है। साधु-सन्यासी लोग अपनी कामशक्ति को नियन्त्रित करने के लिए नीम पत्तियों का विशेष सेवन करते हैं। नीम के पत्तों में जहाँ दाहकता शान्त करने के गुण हैं, वहीं इसके तेल की तासीर उत्तेजक होता है।

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