बुधवार, 6 अगस्त 2008

मुद्दा : कैसे हो जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण

डा. सिद्धार्थ अग्रवाल
शहरी जीवन पघति कार्बन डाइ आक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों को बढ़ावा देने वाली है। वर्तमान में शहरों में जिन उपकरणों का उपयोग किया जाता है उनमें से अधिकांश कार्बन डाइ आक्साइड व ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं जिससे मौसम में परिवर्तन, विशेषकर असमय वर्षा, गर्मी तथा समुद्री जलस्तर में वृद्धि होती है। लगातार बढ़ता यह शहरीकरण जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देगा और बढ़ती शहरी जनसख्ंया के कारण तमाम शहर गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। शहरी क्षेत्रों के विस्तार के कारण उपजाऊ भूमि इमारतों के निर्माण हेतु उपयोग हो रही है तथा पेड़–पौधों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। अकेले भारत में ही 1955 से 2000 के बीच करीब 2.3 लाख हैक्टेयर खेती तथा वन भूमि आवासीय उपयोग में आ चुकी है। इसके कारण भी जलवायु परिवर्तन में वृद्धि हो रही है।
जलवायु में बदलाव से सूखा, बाढ़ व तूफान आदि में वृद्धि तो होगी ही, इससे कृषि उपज पर विपरीत असर पड़ेगा। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार मात्र एक डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में 40 से 50 लाख टन गेंहू की कम उपज का अनुमान है। इससे प्रति व्यक्ति खाघ उपलब्धता कम होगी और खाघ असुरक्षा तथा कुपोषण बढ़ेगा। यदि जलवायु परिवर्तनों को समय रहते कम करने तथा खाघान्न उपलब्धता बढ़ाने हेतु प्रभावी कदम नहीं उठाये गये तो शहरी गरीबों पर इसका गंभीर असर पड़ेगा और कुपोषित बच्चों की संख्या और भी अधिक बढ़ जाएगी।
जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे एवं बाढ़ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता भी प्रभावित होगी। पर्याप्त पानी के अभाव में सफाई एवं स्वच्छता रखने में कठिनाई होगी जिससे जल जनित बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा। तापमान में वृद्धि से मच्छरों के प्रजनन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार होता है तथा अंडों से मच्छर में बदलने की प्रक्रिया तेज हो जाती है, जिससे मच्छरों की वृद्धि तेजी से होती है। अनुमानों के अनुसार एक डिग्री सेन्टीगेड तापमान बढ़ने से मलेरिया संक्रमण मेें दस प्रतिशत वृद्धि की आशंका है। वातावरणीय परिवर्तनों के कारण समुद्र तल भी ऊपर उठता है, जिसके कारण समुद्रतटीय नदियों में बाढ़ आती है तथा तटीय क्षेत्रों के खारेपन में वृद्धि होती है, जो लैप्टोस्पाइरोसिस बीमारी हेतु अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराती है। वातावरणीय बदलावों से अनेक ऐसी बीमारियां फिर से उभर रही हैं जो पहले लगभग समाप्त समझी जाती थीं।
भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होने वाली स्थितियों पर नियंत्रण से संबंधित योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है। चूंकि जलवायु परिवर्तन किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है इसलिए इनमें कमी लाने हेतु सभी स्तरों पर ठोस उपायों की जरूरत है। परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का उपयोग मुख्यत: बढ़ती कार्बन डाइ आक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों के लिए जिम्मेदार है। इन गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से पृथ्वी की इन्हें अवशोषित करने की क्षमता इनके कुल उत्सर्जन की आधी रह गयी है। अत: ऊर्जा के उपयोग को कम करने हेतु सरकारी, समुदाय तथा तकनीकी विशेषज्ञों के स्तर पर प्रयासों की आवश्यकता है। सरकार पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधनों को बेहतर करके, व्यक्तिगत परिवहन के साधनों के उपयोग को हतोत्साहित करके तथा कम कार्बन डाइ आक्साइड उत्पन्न करने वाले ईंधन जैसे सीएनजी आदि की उपलब्धता को बढ़ाकर लोगों को इसके उपयोग के प्रति प्रोत्साहित करके ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकती है।
भारत में गैर परम्परागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा की काफी बड़ी संभावना है। पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व मेें चौथे स्थान पर है। इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरणीय परिवर्तनों को कम करने में सहायता मिलेगी। पेड़–पौधे वातावरण से कार्बन डाइ आक्साइड को सोखने एवं जलवायु परिवर्तन को कम करने में काफी सहायक हैं। चूंकि पुराने वृक्षों की कार्बन डाइ आक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु परिवर्तनों के नियंत्रण हेतु प्रत्येक स्तर पर आधिकाधिक वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
आधुनिक इमारतों की बनावट तथा उनमें प्रयुक्त सामग्री ऐसी होती है जिसके कारण उन्हें ठंडा रखने हेतु बिजली की अधिक खपत होती है जिसके परिणामस्वरूप ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होती है। अत: कम ऊर्जा खपत वाली इमारतों के निर्माण की आवश्यकता है। भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तनों के दुष्प्रभावों को दृष्टिगत रखते हुए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना बनायी है। आशा की जानी चाहिए कि इस कार्ययोजना के प्रभावी क्रियान्वयन के फलस्वरूप भारत विश्व में हो रहे जलवायु पतिवर्तनों को कम करने के प्रयासों में सक्रिय योगदान कर पायेगा।

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